असल में तो ये एक साहित्यिक विवाह है - भूमिका द्विवेदी अश्क | Bhumika Dwivedi Ashk - Interview

भूमिका द्विवेदी अश्क की साहित्यिक यात्रा का 2023 दशक वर्ष है। उनकी पहली कहानी 2013 में प्रकाशित हुई थी। भूमिका के 'श्रीमती अश्क' यानी श्री उपेंद्रनाथ अश्क जी की पुत्रवधू, नीलाभ अश्क की पत्नी बनने का भी यह दसवाँ साल है। इस अवसर पर पर डॉ अरविंद कुमार से हुई उनकी बातचीत पढ़िए और जानिए, समझिए। ~ सं०  

डॉ अरविंद कुमार से भूमिका की बातचीत


तक़लीफ़ें ज़िंदगी और लेखन को तराशती है - भूमिका द्विवेदी अश्क

डॉ अरविंद कुमार से बातचीत 

डॉ अरविंद कुमार मूलतः लखनऊ निवासी, अरविंद कुमार, लेखन की दुनिया में चालीस सालों से सक्रिय हैं। देश की लगभग सभी चर्चित साहित्यिक हस्तियों से अध्ययन और साक्षात्कार के माध्यम से निरंतर जुड़ाव। पेशे से चिकित्सक और भौतिकी विद है। साहित्य की दुनिया में कविता कहानी, व्यंग्य और नाट्य लेखन मैं अनियमित रूप से संलग्न। अब तक तो कहानी संग्रह, एक कविता संग्रह प्रकाशित। कुछ रचनाएँ शीघ्र प्रकाश्य। 


डॉ अरविंद कुमार: भूमिका जी आपका हमारे मंच पर बहुत बहुत स्वागत है। सबसे पहले आपकी साहित्यिक यात्रा और विवाह के दशक वर्ष की अनंत बधाइयाँ स्वीकार करें। नीलाभ जी उपस्थित होते तो आज जश्न का दिन था। लेकिन आपने उनके बग़ैर भी एक बहुत ऊँचा मक़ाम बना लिया है। आज पूरे दस साल इस साहित्यिक दुनिया में गुज़ारने के बाद कैसा महसूस कर रहीं हैं? आप आज के दौर की एक बहुचर्चित लेखिका हैं। आपने बहुत कम समय में ही साहित्य की दुनिया में अपनी एक खास पहचान बना ली है। आपके पाठक जानना चाहेंगे कि जिस उम्र में लड़कियां अक्सर सपनों की रूमानी दुनिया में ही विचरती रहती है, आप साहित्य की दुनिया में कैसे आ गईं? और सिर्फ आई ही नहीं, इतनी सक्रिय कैसे हो गईं?

भूमिका द्विवेदी अश्क: 
"उग रहा है दर-ओ-दीवार से सब्ज़ा 'ग़ालिब'
हम बयाबाँ में हैं और घर में बहार आई है"

आपको और सभी शुभेच्छु पाठकों को हृदय से आभार और कृतज्ञता सम्प्रेषित करती हूँ। स्वाभाविक है। अच्छा लग रहा है। नीलाभ जी होते तो और भी अच्छा लगता। मेरी किसी भी उपलब्धि की ख़ुशी मुझसे ज़्यादा उन्हें होती। विवाह भी, दरअसल उनकी इसी ख़ुशी, इसी समझ और इसी नेह के कारण किया था। तो उनकी इंतहाइ कमी महसूस कर रही हूँ। और बहुत कुछ लिखना है, तो आज इस एक महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी का भी अहसास है मुझे। ईश्वर और नियति मैं कुछ हद तक मानती हूँ, भले ही वाम्पन्थी न मानें। तो नियति सबको एक सा जीवन नहीं देती। जो कुछ भी दिया गया है, वो निभा रही हूँ वही आगे भी निभाऊँगी। मेरी बाहरी दुनिया जितनी असीमित और व्यापक है, भीतर से उतनी ही सीमित और कागज़ कलम के इर्द गिर्द। तो रूमानी सपने, कठोर यथार्थ सबकुछ यहीं किताबों में समा जाता है। इसलिए ज़िम्मेदारियों को निभाने,सपनों से असल ज़िंदगी जीने का ज़रिया हमेशा कलम रहती है, वही रहेगी।

डॉ अरविंद कुमार: इतनी युवावस्था में आपको "वरिष्ठ साहित्यकार" कहा जाने लगा है। जिसकी वजह एकमात्र आपका धीर गम्भीर और प्रचुर मात्रा का लेखन है। इस अल्पायु की इस दीर्घ यात्रा को कैसे देखती हैं आप?

भूमिका द्विवेदी अश्क: बहुत पहले पढ़ाई के दौरान बाण भट्ट की कादम्बरी में एक जगह पढ़ा था, जहाँ मुल्क़ के नरेश की प्रशंसा में ये कहा जा रहा था कि, "युवक होने पर भी प्रौढ़ जीवन जीता था। प्रौढ़ निर्णय लेकर प्रजा का पालन करता था।" उस वक़्त बाणभट्ट की ये बात मुझे बहुत हैरान करती थी। अब समझ आता है उन्होंने ऐसा क्यूँ कहा होगा। वैसे मेरी निगाह से देखें तो अभी मेरी शुरुआत ही है। बहुत कुछ ज़ेहन में भरा हुआ है जिसे कलमबद्ध करना मेरी प्राथमिकता है। हाँ ये भी कहूँगी जितने उतार चढ़ाव मैंने इतनी कम उम्र में देखे, लोगों को कम मयस्सर होते हैं। इस दौर ने मुझे अथाह तजुर्बे दिये हैं, लेखन बहुत बहुत समृद्ध किया है।

डॉ अरविंद कुमार: वाह वाह वाह। क्या बात कहीं है। तीन चार साहित्य में आपकी मजबूत पकड़ है। संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू और जर्मन। तीन विषय से मास्टर्स है। एक में डिप्लोमा। इस दौर की सबसे ज़्यादा विदुषी लेखिका आप मानी जाती हैं। फिर भी हिंदी भाषा को ही लेखन के लिए आपने क्यूँ चुना? 

भूमिका द्विवेदी अश्क: क्योंकि ये मेरी मातृ भाषा है। मैं ख़ुद को सबसे बेहतर तरीके से इसी भाषा में व्यक्त कर सकती हूँ। जर्मन के सिवा तमिल और फ्रेंच भी सीखा था। अभ्यास छूटने के चलते वो भूल सी गई हूँ। अब हिंदी से ही कुछ आगे अध्ययन की सद्इच्छा भी है।

डॉ अरविंद कुमार: आप अपने बारे में विस्तार से बताइए। मसलन आपका जन्म कहां हुआ? बचपन कहां बीता? कैसा था आपका बचपन? परिवार का माहौल कैसा था? आपके आरंभिक शिक्षा कहां हुई? आपका दिल्ली आने का मकसद?

भूमिका द्विवेदी अश्क:  मैं मूलतः पिछली कई पीढ़ियों से इलाहाबाद से हूँ। बचपन पहाड़ों और बंगलौर में भी बीता है। बहुत विविधताओं से भरा हुआ और बेहद ख़्याली दुनिया जैसा बचपन देखा था मैंने। पारिवारिक माहौल सियासत, अदब, मुआशरे की चर्चाओं में डूबा हुआ मिला। संगम नगरी वैसे भी बहुत सियासी और अदबी रूप से सक्रिय रहने वाली जगह है। अदबी, सियासी और धार्मिक रूप से बहुत ज़्यादा समृद्ध है। 
"को कहि सकय प्रयाग प्रभाउ"
आपने खुद भी महसूस किया होगा बाहर से आनेवाले भी ख़ुद को इल्लाबादी इल्लाबादी कहने लगते हैं। तो उसी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शुरूआती पढ़ाई हुई। दिल्ली आगे की पढ़ाई के लिए ही आई थी। आज से बारह साल पहले, साल 2011-12 बैच में JNU में दाख़िला लेने। फिर यहीं दिल्ली विश्वविद्यालय से M.Phil की डिग्री मिली।


डॉ अरविंद कुमार: देश के तीन विश्वविद्यालयों में आपका अध्ययन, और दो दर्ज़न किताबों का लेखन। हज़ारों हजार पढ़ी गई किताबें। क्या सबसे अच्छा और क्या सबसे बुरा लगा ऐकेडमिक्स की दुनिया में। इलाहाबाद से दिल्ली आने पर तो आपको काफी समय लगा होगा, यहां की जिंदगी, यहां की संस्कृति में एडजस्ट करने में? इससे जुड़ी कुछ रोचक घटनाएं, यदि आप बताना चाहें।

भूमिका द्विवेदी अश्क: अरे क्यूँ नहीं। छुपाना क्या और क्यूँ भला। तीनों शानदार विश्वविद्यालय हैं। इलाहाबाद से चूँकि पहला कदम उठाना सीखा, पहली बार किसी इतनी विस्तृत दुनिया में दाख़िल हुई, और इलाहाबाद चूँकि होमटाउन भी है। माँ बाप समेत पूरा कुनबा वहीं जन्मा, पला बढ़ा। इसलिए इलाहाबाद से विशेष अनुराग है। दिल्ली विश्वविद्यालय ने पहली अंग्रेजी भाषा की किताब छापी थे Last Truth पहली बार प्रोफेशनल बनने का पाठ उसी ने पढ़ाया, उसकी अपनी जगह है। हालाँकि प्रोफेशनलिज़म मैं बिल्कुल सीख नहीं सकी। ये मेरी निजी नाक़ामयाबी है। अब अगर बात करें जेएनयू की, तो घर से दूर वो जगह पहली पनाह, पहला आसरा, पहली अभिभावक बनी। सब पराये और अपने दोनों एक साथ थे वहाँ। बहुत उन्मुक्त, बहुत खुली, पूरी लोकतन्त्र की बस्ती है जेएनयू। वो चार जानिब खुलते चार दरवाज़ों के भीतर एक अपना अलग शहर, अलग संविधान, अलग माहौल, अलहदा बेगानी बेहद दूर दराज़ बसी हुई एक दुनिया है वो। तीनों जगह से अपरिमित बेहिसाब चीज़ें सीखीं हैं मैंने। एक से बढ़कर एक गुरुजन लगातार मिले तीनों विश्वविद्यालयों में। 

रोचक घटनाएं इलाहाबाद की ज़िंदगी में हर लम्हा घटती है। न भी घटे, तो हम लोग उसे रोचक बना लेते हैं। अनेकानेक हैं, कितनी गिनाऊँ, कितनी सुनाऊँ। किताबों में दर्ज़ करती चलती हूँ। मेरी किताबें मेरी ज़िंदगी और तजुर्बों का आईना है। सबकुछ खारा खट्टा वहाँ दर्ज़ है।

डॉ अरविंद कुमार: आज से ठीक दस साल पहले मई माह में आपकी पहली कहानी आई। छपते ही ब्याह हुआ। क्या ये एक प्रेम विवाह था या पारिवारिक सहमति वाला कोई विवाह था? आप नीलाभ को क्या पहले से जानती थीं?  उनसे परिचय कैसे हुआ? विस्तार से बताइए।
नीलाभ आपसे उम्र में काफी बड़े थे। इस शादी को लेकर आपके और नीलाभ के घर वालों, मित्रों व रिश्तेदारों की क्या प्रतिक्रिया थी? 

भूमिका द्विवेदी अश्क (कुछ सोचकर मुस्कुराते हुए): असल में तो ये एक साहित्यिक विवाह है। दो साहित्य प्रेमियों का आपसी गठबन्धन। दो पक्के इलाहाबादियों का पराई धरती पर मेल। पारिवारिक विवाह से कहीं ज़्यादा अनुशासन था हमारे विवाह में। न हम लोग पहले मिले, न फोटो और जन्मपत्रियाँ ली दी गई। न साथ में समय गुज़ारा। बस मिले और उसी शाम विवाह हो गया। हम दोनों अपनी अपनी सौतेली दुनिया से बहुत उकताए हुए बहुत अकेले प्राणी थे। दिल्ली महानगर की बेगानेपन और अजनबी ज़िंदगी ने हम दो इलाहाबादियों को एकदम से मिलाया और हमेशा के लिए जोड़ दिया। मैं उनसे परिचित नहीं थी। उन्होंने भी महज मुझे एक प्रकाशित कहानी पढ़कर ही जाना था।

6 जून 2013 को उस रोज़ बहुत बारिश हो रही थी। हम पाँच लोग पहले कार में बैठे दो किलो जामुन खाते रहे। हम दो, और तीन हमारे गवाह। यानी नीलाभ जी के मित्र। बारिश थमने पर हम सब मण्डप में पँहुचे थे। यही था हमारी शादी का जश्न। बाद में कोर्ट में शादी के बाद बड़ी दावतें दी थी। पहली तो मजिस्ट्रेट ने अपनी ओर से ही केबिन में मिठाई बन्टवा दी। क्योंकि वो पिताजी अश्क साहब के प्रेमी निकल आये। उसके बाद तो दिल्ली और इलाहाबाद के कॉफी हाउज में। मुंबई में, हैदराबाद में। कुछ विलायत मे, कई सारी जगह होती रही।

प्रतिक्रिया का ये है कि इस दुनिया में जहाँ जिसका मजबूत और कानूनी अधिकार बनता है, वहाँ से उस मूल अधिकारी को दूर रखने के भीषण प्रयास किये जाते हैं। विशेष कर स्त्रियों को। सुप्रीम कोर्ट को मायके में भी अधिकारों के लिए कानूनों की ज़रूरत क्यूँ पड़ गई। पति न होने पर देवर, जेठ या अन्य ससुरालियों पर क्यूँ बहू की आजीविका चलाने का कानून बनाना पड़ गया। इन्हीं कोताहियों के चलते ऐसा किया जा रहा है। तो प्रतिक्रिया वही है जो परिपाटी से चला आ रहा है। मुँह पर मीठा, बाक़ी दूर दूर। मेरे बहुत प्रिय शायर, फ़ैज़ साहब, जो कभी हमारे घरेलू मेहमान भी बन चुके हैं। उन्होंने कहा है, "सुना है वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है…" जिस हक़, जिस ना ख़तम होने वाली बात, जिस उपेक्षित न किये जाने वाले वजूद और जिस अमिट प्रतिभा का ज़िक़्र ज़्बानी न होकर भी हर वक़्त लोगों के ज़ेहन से चिपका हुआ है। 


डॉ अरविंद कुमार: आपकी हरेक रचना में एक टीस होती है। दर्द और समस्या होती है। एक से दूसरी रचना में जबरदस्त विविधता भी होती है। समस्याओं से निजात और निवारण भी होता है। कैसे इतना लिख पाती हैं। कैसे इतने विविध विषयों को समेट पाती हैं? क्या ये तक़लीफ़ नीलाभ की बीमारी से उपजी है या अश्क परिवार के तजुर्बों से? 

भूमिका द्विवेदी अश्क (लम्बी सांस लेते हुए): बहुत कम वक़्त में बहुत उतार चढ़ाव वाली ज़िंदगी जी है मैंने। ख़ास कर नीलाभ जी से जुड़ने और उनकी बीमारी के बाद से बहुत बहुत ज़्यादा। अकेले ज़िंदगी की बागडोर थामकर निरंतर सफ़र में रहतीं हूँ। लेखन में यही सब एलिमेंट्स हैं जो विविधता, तक़लीफ़ और निवारण की राह लगातार निकालते रहते हैं। वो तीनों विश्वविद्यालयों ने जहाँ जहाँ मैंने पढाई की, वहाँ के गुरुजनों ने, माहौल ने भी बेहिसाब तजुर्बों से ज़ेहन को बहुत सम्वर्धित और असीम समृद्ध किया है। तक़लीफ़ ज़िंदगी और लेखन को तराशती है, इसलिए खुशनसीबों को ही बेपनाह तक़लीफ़ों का इनाम मिलता है।

डॉ अरविंद कुमार: आज के साहित्यिक खास करके दिल्ली के साहित्यिक माहौल को आप किस तरह से देखती हैं? एक बेबाक लेखिका की बेबाक टिप्पणी को आपके पाठक जरूर जानना चाहेंगे।

भूमिका द्विवेदी अश्क:  साहित्य सृजन, ठहरे हुए समाज को लगातार आगे ले जाने की एक प्रक्रिया है। अब ये कुछ हद तक कोलकाता और इलाहाबाद से दिल्ली में शिफ्ट हो चुका है। बहुत तरक्कीशुदा और बेहतर माहौल है, बेशक। अपनी ज़मीन से बिछड़े हुए लोग यहीं इसी माहौल में आत्मीयताएं तलाशते हैं। थोड़ा सा और निस्स्वार्थी होता तो मुझे और भी पसन्द आता। दिल्ली की साहित्यिक बिरादरी से ये कहूँगी, "रूठे सुजन मनाइये, जो रूठे सौ बार "

डॉ अरविंद कुमार: सैकड़ों कहानियाँ, दस उपन्यास, बहुत सारी किताबें, खूब यात्राएँ, असंख्य तजुर्बे, ढाई सौ से ज़्यादा साक्षात्कार। इन सबमें भूमिका द्विवेदी अश्क जी को सबसे प्रिय क्या है?

भूमिका द्विवेदी अश्क: कलम से इश्क़ है मुझे। इसलिए सबकुछ सबसे प्यारा है। क्योंकि सबकुछ अपना है। मुहब्बत की ये बहुत प्यारी दुनिया, ये बेहद हसीन देश, ये अदब की पुरकशिश महफ़िल, ये सबकुछ सबसे ज़्यादा खूबसूरत है, जहाँ ख़ुद को बयान करने के लिए, ख़ुद को बिखराने के लिए कलम हो। प्रिय लेखन विधा उपन्यास है। और प्रिय रचनाओं पर लगातार काम कर रहीं हूँ।

"ख़ुदा का ज़िक्र करें या ख़ुदी की बात करें
हमें तो इश्क़ से मतलब, किसी की बात करें
फरिश्ते तुम भी नहीं हो, फरिश्ते हम भी नहीं
हम आदमी हैं तो बस इसी की बात करें"


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