भूमिका द्विवेदी अश्क की साहित्यिक यात्रा का 2023 दशक वर्ष है। उनकी पहली कहानी 2013 में प्रकाशित हुई थी। भूमिका के 'श्रीमती अश्क' यानी श्री उपेंद्रनाथ अश्क जी की पुत्रवधू, नीलाभ अश्क की पत्नी बनने का भी यह दसवाँ साल है। इस अवसर पर पर डॉ अरविंद कुमार से हुई उनकी बातचीत पढ़िए और जानिए, समझिए। ~ सं०
Arvind Kumar लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Arvind Kumar लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
'शब्दवेध' एक शब्दयोगी (अरविंद कुमार) की आत्मगाथा : अनुराग

पाठक के लिए किसी संस्कृत शब्द का अर्थ समझना कठिन नहीँ होता, बल्कि दुरूह वाक्य रचना अर्थ ग्रहण करने मेँ बाधक होती है
— अरविंद कुमार
एक शब्दयोगी की आत्मगाथा : अनुराग
शब्दों के संसार में पिछले सत्तर साल से सक्रिय अरविंद कुमार को आधुनिक हिंदी कोशकारिता की नीवं रखने का श्रेय जाता है। कोशकारिता के लिए किए अपना सब कुछ दांव में लगाने वाले अरविंदजी का जीवन संघर्ष भी कम रोमांचक नहीं है। पंद्रह साल की उम्र में उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा दी और पारिवारिक कारणों से रिजल्ट आने से पहले ही दिल्ली प्रेस में कंपोजिंग से पहले डिस्ट्रीब्यूटरी सीखने के लिए नौकरी शुरू कर दी। एक बाल श्रमिक के रूप में अपना कॅरियर शुरू करने वाले अरविंद कुमार कैसे दिल्ली प्रेस में सभी पत्रिकाओं के इंचार्ज बने, कैसे अपने समय की चर्चित फिल्म पत्रिका ‘माधुरी’ के संस्थापक संपादक बन उसे एक विशिष्ट पहचान दी और फिर कैसे रीडर डायजेस्ट के हिंदी संस्करण ‘सर्वोत्तम’ की की शुरुआत कर उसे लोकप्रियता के शिखर तक पहुंचाया, ये सब जानना, एक कर्मयोगी के जीवन संघर्ष को जानने के लिए जरूरी है।
कोशकार अरविंद कुमार के जीवन के विभिन्न पहलुओं और कोशकारिता के लिए किए गए उनके कार्यों को समेटे हुए पुस्तक ‘शब्दवेध’ एक दस्तावेजी और जरूरी किताब है। अरविंदजी के जीवन और कर्मयोग के अलावा इस दस्तावेजी पुस्तक में प्रकाशन उद्योग के विकास और हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के उत्थान-पतन की झलक भी इसमें मिलती है। यह पुस्तक नौ संभागों पूर्वपीठिका, समांतर सृजन गाथा, तदुपरांत, कोशकारिता, सूचना प्रौद्योगिकी, हिंदी, अनुवाद, साहित्य और सिनेमा में बंटी है।
समांतर सृजन गाथा और तदुपरांत नाम के दो संभागों में हम पहले तो समांतर कोश की रचना की समस्याओँ और अनोखे निदानोँ से अवगत होते हैं। यह जानते हैं कि कथाकार कमलेश्वर द्वारा उसके नामकरण में सहयोग और नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा उसका प्रकाशन कैसे हुआ और उनके अन्य कोशों (समांतर कोश, अरविंद सहज समांतर कोश, शब्देश्वरी, अरविंद सहज समांतर कोश, द पेंगुइन इंग्लिश-हिंदी/हिंदी-इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी, भोजपुरी-हिंदी-इंग्लिश लोकभाषा शब्दकोश, बृहत् समांतर कोश, अरविंद वर्ड पावर: इंग्लिश-हिंदी, अरविंद तुकांत कोश) से परिचित होते हैं। किसी एक आदमी का अकेले अपने दम पर, बिना किसी तरह के अनुदान के इतने सारे थिसारस बना पाना अपने आप मेँ एक रिकॉर्ड है।
कोशकारिता संभाग हमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोश कला के सामाजिक संदर्भ और दायित्व तक ले जाता है। अमर कोश, रोजेट के थिसारस और समांतर कोश का तुलनात्मक अध्ययन पेश करता है।
सूचना प्रौद्योगिकी संभाग में अरविंद बताते हैं कि उन्होंने प्रौद्योगिकी को किस प्रकार हिंदी की सेवा में लगाया। साथ ही वह वैदिक काल से अब तक की कोशकारिता को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य मेँ पेश करने में सफल होते है। मशीनी अनुवाद की तात्कतालिक आवश्यकता पर बल देते है।
हिंदी संभाग मे वह हिंदी की मानक वर्तनी पर अपना निर्णयात्मक मत तो प्रकट करते ही हैं, साथ ही हिंदी भाषा में बदलावों का वर्णन करने के बाद आंखों देखी हिंदी पत्रकारिता मेँ पिछले सत्तर सालोँ की जानकारी भी देते है।
अनुवाद संभाग मेँ अनुवादकों की मदद के लिए कोशों के स्थान पर थिसारसों की वांछनीयता समझाते हैं। इसके साथ ही गीता के अपने अनुवाद के बहाने संस्कृत भाषा को आज के पाठक तक ले जाने की अपनी सहज विधि दरशाते हैं और ऐसे अनुवादों में वाक्यों को छोटा रखने का समर्थन करते हैं। वह प्रतिपादित करते हैँ कि पाठक के लिए किसी संस्कृत शब्द का अर्थ समझना कठिन नहीँ होता, बल्कि दुरूह वाक्य रचना अर्थ ग्रहण करने मेँ बाधक होती है।
साहित्य संभाग हर साहित्यकार के लिए अनिवार्य अंश है। इंग्लैंड के राजकवि जान ड्राइडन के प्रसिद्ध लेख काव्यानुवाद की कला के हिंदी अनुवाद शामिल कर उन्होंने हिंदी जगत पर उपकार किया हैा ड्राइडन ने जो कसौटियां स्थापित कीं, वे देशकालातीत हैं। ग्रीक और लैटिन महाकवियों को इंग्लिश में अनूदित करते समय ड्राइडन के अपने अनुभवों पर आधारित लंबे वाक्यों और पैराग्राफ़ोँ से भरे इस लेख के अनुवाद द्वारा उन्होँने इंग्लिश और हिंदी भाषाओँ पर अपनी पकड़ सिद्ध कर दी है। यह अनुवाद वही कर सकता था जो न केवल इंग्लिश साहित्य से सुपरिचित हो, बल्कि जिसे विश्व साहित्य की गहरी जानकारी हो।

माधुरी पत्रिका की चर्चा करने के बहाने वह बताते हैँ कि क्यों उन्होँने फ़िल्म वालों से अकेले में मिलना बंद कर दिया- जो बात उजागर होती है, वह पत्रकारिता मेँ छिपा भ्रष्टाचार।
इस संभाग मेँ संकलित लंबा समीक्षात्मक लेख माधुरी का राष्ट्रीय राजमार्ग प्रसिद्ध सामाजिक इतिहासकार रविकांत ने लिखा है, जो अरविंदजी के संपादन काल वाली माधुरी के सामाजिक दायित्व पर रोशनी डालता है और किस तरह अरविंदजी ने अपनी पत्रिका को कलात्मक फ़िल्मोँ और साहित्य सिनेमा संगम की सेवा मेँ लगा कर भी सफलता हासिल की।

पुस्तक : शब्दवेध: शब्दों के संसार में सत्तर साल– एक कृतित्व कथा
लेखक : अरविंद कुमार
मूल्य रु. 799.00
प्रकाशक: अरविंद लिंग्विस्टिक्स, ई-28 प्रथम तल, कालिंदी कालोनी, नई दिल्ली 110065
संपर्क:
मीता लाल
मो. 09810016568
ईमेल: lallmeeta@gmail.com
शब्दवेध की अंतिम रचना है प्रमथेश चंद्र बरुआ द्वारा निर्देशित और कुंदन लाल सहगल तथा जमना अभिनीत देवदास का समीक्षात्मक वर्णन। यह एक ऐसी विधा है जो अरविंदजी ने शुरू की और उन के बंद करने के बाद कोई और कर ही नहीँ पाया। देवदास फ़िल्म का उन का पुनर्कथन अपने आप मेँ साहित्य की एक महान उपलब्धि है। यह फ़िल्म की शौट दर शौट कथा ही नहीँ बताता, उस फ़िल्म के उस सामाजिक पहलू की ओर भी इंगित करता है। देवदास उपन्यास पर बाद मेँ फ़िल्म बनाने वाला कोई निर्देशक यह नहीँ कर पाया। उदाहरणतः ‘पूरी फ़िल्म मेँ निर्देशक बरुआ ने रेलगाड़ी का, विभिन्न कोणों से लिए गए रेल के चलने के दृश्यों का और उस की आवाज़ का बड़ा सुंदर प्रयोग किया है। पुराने देहाती संस्कारों में पले देवदास को पार्वती से दूर ले जाने वाली आधुनिकता और शहर की प्रतीक यह मशीन फ़िल्म के अंत तक पहुँचते देवदास की आवारगी, लाचारी और दयनीयता की प्रतीक बन जाती है।
अनुराग
433, नीतिख्ंड-3, इंदिरापुरम-201014 गाजियाबाद
मोबाइल-9871344533
ईमेल: anuraglekhak@gmail.com
००००००००००००००००
सदस्यता लें
संदेश (Atom)