head advt

काले साहब - उपेन्द्रनाथ अश्क की कहानियाँ | Upendranath Ashk Ki Kahaniyan

उन कथाकारों को भी पढ़ता चलूँ जिन्हें अबतक इसलिए नहीं पढ़ पाया क्योंकि, वे मेरे पढ़ना शुरू करने के पहले लिख गए थे। उपेन्द्रनाथ अश्क बड़े लेखक रहे हैं उनकी कहानी ‘काले साहब’ उनके बड़े होने की तस्दीक़ करती है, कहानी लेखन की कला भी सिखाती है। अश्कजी ने अपनी इस कहानी के बारे में लिखा था — 
इलाहाबाद आकर पहले दो वर्षों में मैंने कुछ हास्य-व्यंग्य की कहानियां लिखीं । कुछ ऐसी भी जिनके हास्य में गहरी त्रासदी तथा दारुणता निहित थी । 'काले साहब', उनमें मुझे प्रिय है । 'काले साहब की ख्याति विदेश में भी फैली है । दो बार दो विभिन्‍न अनुवादकों द्वारा अनूदित होकर यह कहानी अमरीकी पत्रिकाओं में छपी है। जर्मन भाषा में भी इस कहानी का अनुवाद हुआ है। — उपेन्द्रनाथ अश्क, 25/4/70, इलाहाबाद 
आशा है इस कहानी की प्रस्तुति आपको पसंद आएगी। बताइएगा। ~ सं० 


Upendranath Ashk Ki Kahaniyan


उपेन्द्रनाथ अश्क 

काले साहब 


डी० एम० की कोठी से बाहर निकलकर श्रीवास्तव ने रिस्ट-वाच की ओर देखा। आठ बजे थे। उसके पास पूरा एक घण्टा था। चपरासी ने डी० एम० के नौ बजे वापस आने की बात कही थी। तो क्यों न वह गजानन को इलाहाबाद में अपने शुभागमन का सुसमाचार दे आए। “एक पंथ दो काज” में उसका सदा विश्वास रहा था, बल्कि यदि किसी पंथ में दो के बदले चार काज हों तो वह उन सबको एक साथ निपटाने से कभी न चूकता था। यही कारण था कि छः-सात वर्ष पहले के पचास-साठ रुपये मासिक पाने वाले पत्रकार से उन्नति कर वह इस थोड़े-से अर्से में डिप्टी कलेक्टर हो गया था। न केवल यह, बल्कि डिप्टी कलेक्टर होने के बाद इसी चुस्ती और चालाकी के बल पर वह सूने और बीहड़ जिलों को फलांगता हुआ इलाहाबाद नियुक्त हुआ था। आज ही प्रातः इलाहाबाद में उसका पदार्पण हुआ था और आज ही वह अपने अफ़सर के यहां हाजिरी देने जा पहुंचा था। पर डी० एम० लखनऊ से दौरे पर आते वाले एक मन्त्री के यहां हाजिरी देने गए हुए थे, इसलिए एक घण्टा श्रीवास्तव के पास खाली था। गजानन उसका बचपन का मित्र था। एलनगंज में रहता था। यूनिवर्सिटी में लेक्चरर था। अभी वह घर ही पर होगा, यह सोचकर श्रीवास्तव ने इस खाली समय में उसी के यहां हो आने का फैसला किया। कचहरी के पास से गुज़र, वह सड़क पर आ खड़ा हुआ—एक दिन वह इसी कचहरी का बड़ा हाकिम बनेगा, यह‌ ध्यान आते ही गर्व से उसकी एड़ियां तनिक उठ गईं, उसके हाथ बुदशर्ट के अकड़े कालरों पर होते हुए दामन पर आकर रुक गए और पंजों पर एक-दो बार ज़ोर देते हुए उसने आगे-पीछे से वुश्शर्ट को ठीक किया। तभी उसने देखा कि सामने बारहदरी के पास दो रिक्शा वाले जैसे उसी को लेकर कुछ करते हु ए चले आ रहे हैं 

“रिक्श्या!” 

उसने साहबी स्वर से गले में शब्द को तनिक उमेठते हुए आवाज़ दी। 

“जी हुजूर!” 

और दोनों रिक्शा उसके सामने आ खड़े हुए। 

“क्यों भाई, घण्टे के हिसाब से चलोगे?”

“कहां जाएंगे?” पहले रिक्शा वाले ने पूछा। 

“कहीं भी जाएं!”

“क्या घण्टा मिलेगा?” 

“जो भी रेट होगा!” 

“रुपया घण्टा लेंगे! 

“दस आना मिलेगा!”

“अजी आइए हुज़ूर, आप इधर आइए!” दूसरे रिक्शा वाले ने बड़े लटकते हुए लखनवी ढंग से हांक लगाई। 

“हां-हां, तुम ले आओ।”

और दूसरे रिक्शा के बराबर आते ही श्रीवास्तव उचककर उसमें बैठ गया। बुश्शर्ट को दोनों ओर दामन से जरा खींचकर उसने ठीक किया और पतलून को तनिक ऊपर उठा लिया कि उसकी क्रीज़ खराब न हो जाए। वह पीछे की ओर पीठ लगाकर आराम से नहीं बैठा। बुश्शर्ट के मसले जाने का उसे भय था, और डी० एम० से मिलने तक वह इसी प्रकार लक-दक बने रहना चाहता था। रिक्शा पर वह इस प्रकार अकड़ा बैठा था जैसे डी० एम० से हाथ मिलाकर अभी-अभी कुर्सी पर बैठा हो। सीधा, अकड़ा और चाक-चौबन्द! 

रिक्शा वाला खाकी सूट पहने था। सूट बहुत मैला भी न था। शक्ल से भी वह साधारण रिक्शा वाला मालूम न होता था। इलाहाबाद के रिक्शा वालों में देहातियों का बाहुल्‍य रहता है। फ़सल का मौसम न हो और काम से छुट्टी हो तो निकटवर्ती गांवों के देहाती अपने लम्बे-तगड़े शरीर पर खादी की बण्डी और कमर में अंगोछा बांध, मुर्री में एक जून का राशन लिए इलाहाबाद की ओर चल पड़ते हैं। संध्या को पहुंचते हैं रात के लिए रिक्शा लेते हैं और सवारी से किराया लेकर ही दूसरे जून के सत्तू खरीदते हैं। इन्हीं रिक्शा वाले देहातियों की सुविधा के लिए बहुत-से पनवाड़ियों ने पान, बीड़ी, सिगरेट के साथ सत्तू के थाल भी सजा रखे हैं जिनके पिरामिडों में हरी मिर्च खुसी अजब बहार देती हैं। ये देहाती रिक्शा वाले, रिक्शा चलाते-चलाते जब जरा समय पाते हैं तो सेर-आध सेर सत्तू ले, उन्हींकी थाली में गूंध लौंदा-सा बनाकर हाथ पर रख लेते हैं और मिर्चों की सहायता से निगलकर पास के किसी नल से दो घूंट पानी पी लेते हैं। 

कहते हैं कि गीदड़ की मौत आती है तो वह नगर की ओर भागता है। उस गीदड़ और इन देहातियों में कोई विशेष अन्तर नहीं। दिन-दिनभर और कई बार दिन और रात-भर रिक्शा चलाकर जहां वे साल-सालभर का लगान कमाकर ले जाते हैं, वहां फेफड़ों को भी खोखला कर जाते हैं। 

दूसरे रिक्शा वाले, इलाहाबाद ही के ऐसे नागरिक मज़दूर हैं जी द्वितीय महायुद्ध के बाद बेकार हो गए हैं। रिक्शा चलाते-चलाते उनकी पसलियां निकल आई हैं। यक्ष्मा उनकी आंखों में झांकता हैं तो भी वे महंगाई के इस ज़माने में बाल-बच्चों का पेट भरने के लिए रिक्शा खींचने को विवश है। 

श्रीवास्तव प्रयाग का ही निवासी था। वह इन दोनों तरह के रिक्शा वालों से भली भांति परिचित था। किन्तु उसका यह रिक्शा वाला उसे इन दोनों में से न दिखाई दिया। इधर रिक्शा वालों की एक तीसरा श्रेणी भी दिखाई देने लगी है। रोनाल्ड कोलमैन की तरह बारीक-सी तलवार काट मूंछ बनाए, फ़ौजी पैण्ट या बुश्शर्ट या केवल टोपी पहने, युद्ध से छुट्टी पाए बेकार फ़ौजी रिक्शा चलाने लगे हैं। रिक्शा चलाते समय उनके सिर का तिरछापन, साइकिल की गद्दी पर बैठे हुए उनकी कमर की अकड़ और पैडल घुमाते हुए बाहर की ओर घुटनों का फैलाव, पहली ही दृष्टि में उनके फ़ौजी होने का पता दे देता है। ओठों के दायें अथवा बायें कोने में बीड़ी दबाए, तीसरे महायुद्ध के स्वप्न देखते, मिस्र, ईरान, इटली, जर्मनी, वहां की आज़ाद फ़िज़ा और गोरी-गोरी तन्वंगियों के ख्वाब लेते, वे दनदनाते हुए रिक्शा चलाए जाते हैं। आज़ादी ने उन्हें गिड़गिड़ाना भुलाकर स्वाभिमान से सिर उठाना सिखा दिया हैं। अधिकांश क्योंकि अर्ध-शिक्षित हैं, इसलिए स्वाभिमान की सीमाएं कहां अक्खड़पन से मिल जाती हैं, यह नहीं जानते। मोल-भाव अधिक नहीं करते और सवारी को ऐसी दृष्टि से देखते हैं मानो वह लूट-मार में पकड़े हुए शत्रु-नागरिकों में से कोई हो। 

परन्तु यह रिक्शा वाला यद्यपि सैनिक वर्दी पहने था, पर उसमें वह सैनिकों की-सी अकड़ न थी। मुख पर भी उसके अन्य फ़ौजियों की भांति सूखे हुए आटे का-सा तनाव न था, बल्कि गुंधी हुई लोई की-सी नर्मी और लचक थी। 

“क्यों भाई, क्या तुम सेना में काम करते थे?” श्रीवास्तव ने अकड़े बैठ-बैठे उकताकर, शरीर को तनिक-सा ढीला छोड़ते हुए पूछा। 

रिक्शा वाले ने रिक्शा चलाते-चलाते तनिक पीछे की ओर देखा : 

“नहीं साब, सेना में हम क्या काम करते! और यह कहते हुए उसके ओठों पर व्यंग्य और उपेक्षा-भरी मुस्कान दौड़ गई, जिसमें हल्के-से दर्द की रेखा भी श्रीवास्तव की आंखों से छिपी न रही। वह मुस्कान मानो कह रही थी कि सेना की नौकरी जैसा निकृष्ट काम हम क्या करते। 

“तो क्या रिक्शाएं चलाते हो?” श्रीवास्तव का मतलब था कि चार-छः रिक्शा रखकर क्या उनकी आमदनी खाते हो? 

रिक्शा वाला हंसा। “अजी साब, कहां? यहां तो यह रिक्शा भी अपना नहीं। किराये पर लेकर चलाते हैं।”

श्रीवास्तव को उसके स्वर में सभ्यता की यथेष्ट मात्रा लगी। उससे उसे सहानुभूति हो आई। “तो ऐसा जान-मारू काम तुम काहे को करते हो?” उसने कहा, “रिक्शा चलाने से तो फेफड़ों पर बड़ा जोर पड़ता है। दिन-रात हल और फावड़ा चलाने वाले देहाती तो खींच सकते हैं इन्हें, तुम्हारे ऐसे शहरियों के बस का यह‌ काम नहीं।” 

“जी हम क्या अपनी इच्छा से चलाते हैं। बीवी है, तीन-चार बच्चे हैं मां है, दो विधवा बहनें हैं। इतने बड़े कुटुम्ब का खर्च अकेले हमीं पर है।” 

“तुम कोई और काम क्यों नहीं कर लेते? 

“हमको दूसरा कोई काम आता नहीं साब!” 

“तो क्या तुम सदा से रिक्शा चलाते हो?” 

“जी नहीं, साब, जब से देस को आजादी मिली है।” रिक्शा वाले ने रिक्शा चलाते-चलाते दायें हाथ से माथा ठोंका और बोला, “अंग्रेज यहां से गए, काले साब उनकी जगह आए कि हमारी किस्मत फूटी। देसी साहबों को न हमारे काम की समझ, न परख। न हम उनके काम के, न वो हमारे। हमने तो अर्जी दी थी कि हमको कोई दूसरा काम नहीं आता, हमको उन्हीके साथ विलायत भेज दीजिए, पर किसीने हमारी सुनी नहीं।” 

“तो क्या करते थे तुम?”

“हम कमिइनर ‘डक’ के यहां काम करते थे। पचास रुपया महीना पाते थे, रहने के लिए दो कमरे थे; कपड़े साब देते थे। माफ़ कीजिएगा और रिक्शा वाला बात करते-करते संकोच से तनिक रुका। 

“नहीं-नहीं, कहो।” श्रीवास्तव ने फिर अकड़कर बैठते हुए कहा। 

“यह जो बुश्शर्ट आपने पहन रखी है,” रिक्शा वाले ने पीछे का मुड़ कर बड़े अदब से कहा, “ऐसी तो साब के यहां हम पहना करते थे। 

श्रीवास्तव फिर ढीला होकर बैठ गया। पीठ भी उसकी पीछे लग गई। और सूट के मसले जाने का भी उसे ध्यान न रहा। 

“अंग्रेजों के राज में जो मौज ली, वह अब कहाँ!” रिक्शा वाला कहता गया। “दिन-त्योहार पर इनाम मिलते थे। हमारे ही नहीं, बीवी बच्चों तक के कपड़े बन जाते थे। अब बताइए इतना हम कहां पाएं? कैसे बीवी-बच्चों का खर्च चलाएं? विवश रिक्शा चलाते हैं, खून सुखाते किसी दिन इसी तरह टरक जाएंगे।”

“पर आखिर बात क्या है, तुम किसी देसी साहब के यहां काम क्यों ही करते? कमिश्नर की जगह कमिश्नर हैं और कलक्टर की जगह कलक्टर।”

रिक्शा वाले ने रिक्शा चलाते-चलाते फिर पीछे की ओर तनिक देखा, “देसी साब हमें क्या खाकर रखे वह बोला और उसके ओठों पर वही विद्रुप-भरी मुस्कान फैल गई। 

श्रीवास्तव ने उत्सुकता-मिली झल्लाहट से पूछा, “कुक थे?” 

“जी नहीं, खानसामागीरी हमसे नहीं होती।“

“तो क्या करते थे, बैरा थे?” 

“जी हां, बैरा थे!” 

श्रीवास्तव फिर अकड़कर बैठ गया, “तो इसमें क्या बात हैं। तुम सरी जगह नौकरी कर सकते हो। हमारे यहां एक बैरा है।” 

“जी नहीं, बैसे बैरा हम नहीं थे। हम खाना-वाना लाने का काम नहीं करते थे। हम साब के कपड़े देखते थे।”

हां, हां, कपड़े-अपड़े देखते होगे, बूट-ऊट साफ़ करते होगे। ” 

“जी नहीं, बूट तो भंगी साफ़ करता था। हम सिर्फ़ कपड़े देखते थे।”

“क्या देखते थे कपड़ों का सारा दिन?”

“अब साब, आपसे क्या बताएं, आप समझेंगे नहीं।” रिक्शा वाले ने ज़रा-सा मुड़कर मुस्कराते हुए कहा, “अंग्रेज़ लोगों की बड़ी बातें थीं। एक वक़्त एक सूट पहनते थे। रात का अलग, दफ़्तर का अलग, दिन के आराम का अलग, सैर-सपाटे का अलग, फिर डिनर सूट, गोल्फ़ सूट, पोलो सूट,डांस सूट, शिकार सूट। उनको ठीक जगह पर रखना, धोबी को देना, लेना, साब को पहनाना, यही काम हमारा था। देसी साब क्या समझें और परखे हमारा काम? दिन-रात, महीनो-बरसों एक ही सूट घिसाए जाते हैं। यही साब, जिनकी लाल कोठी के पास से होकर अभी हम निकले हैं, बड़े भारी अफ़सर हैं, पर कभी-कभी ऐसा सूट पहनते हैं, जो लगता है, कालेज के दिनों का संभाले हुए हैं। जहां दफ़तर लगाते हैं, वहां बाथ-रूम था। शनि की रात को क्या-क्या रौनक़ें होती थीं। और बग़ीचा देखा आपने, उसको क्या दुर्गति हुई है? कभी अंग्रेज साब के जमाने में उसकी बहार देखते? वही बग़ीचा क्या, यह सारी सिविल लाइन्ज पड़ी अंग्रेज़ साहबों के नाम को रो रही है। इतने बड़े-बड़े बंगले, इतने बड़े-बड़े बगीचे, रांड के सिर की तरह मुंडे दिखाई देते हैं। 

श्रीवास्तव को उस रिक्शा वाले की उपेक्षा और भारतीय रहन-सहन के प्रति उसका दुर्भाव बहुत बुरा लगा। यद्यपि वह स्वयं साहबी ठाठ-बाट से रहना पसन्द करता था, परन्तु उस समय उसे अंग्रेज़ी संस्कृति से सम्बन्ध रखने वाली प्रत्येक वस्तु के प्रति क्रोध हो आया। उस “अज्ञ” को तनिक-सा “विज्ञ” बनाने के विचार से उसने कहा, “उनके और अपने खान-पान, वेशभूषा, रहन-सहन में, बड़ा अन्तर है। वे लोग मांस-मछली खाना, शराब पीना बुरा नहीं समझते। गाय और सुअर का मांस खाते हैं। हमारे यहां उसको छूना भी पाप है, उनकी औरतें नाचती हैं, हमारे यहां...”

“कुछ नहीं साब,” रिक्शा वाले ने उसकी बात काटकर और रिक्शा के पैडल पर अपने जोश में और भी जोर देते हुए कहा, “हम लोगों का देस गुलामों का देस है! घोंघे की तरह हम अपने-आप में बन्द होकर रह गए हैं। गरीब होने से हमने गरीबी को स्वर्ग बना दिया है। धनी होने पर भी हम आदत से गरीब बने रहते हैं रुपया बैंकों में जमा रखते हैं और दाल-रोटी पर सबर करते हैं। हमको हमारा साब बताता था कि भारत जब आज़ाद था, जब आर्या (आर्य) लोग इस देश में आए थे तो वे भी खूब खाते-पीते, नाचते-गाते और मौज मनाते थे। न यह पर्दा था, न खान-पान के यह बन्धन थे। हमको हमारा साब बताता था कि धन का लाभ उसे खर्च करने में है, बैंक में जमा करने में नहीं। रुपया खर्च होता है तो देश के कारीगर, मजदूर, दुकानदार सब काम पाते हैं, नहीं तो बेकारी बढ़ती है। साब साल के साल फ़र्नीचर और दरवाजों-खिड़कियों पर रोगन कराते थे। छः महीने में वाइट-वाश कराते थे। दो माली, दो बैरे, खानसामा, धोबी, भंगी उनके यहां नौकर थे। फिर उनके दम से डबल रोटी वाले, अण्डे वाले, कुर्सी-मेज वाले और न जाने कौन-कौन रोजी पाते थे...”

श्रीवास्तव के हृदय में ज्वाला-सी लपकी। उसका जी चाहा कि वहीं उठकर उस ‘साहब के कुत्ते’ की गुद्दी पर जोर का एक घूंसा दे, लेकिन रिक्शा काफ़ी तेज़ चला जा रहा था। तब उसने अपना क्रोध अपने परवर्ती गोरे अफ़सरों पर निकाला। 

“उन सालों का क्या है? जनता को लूटते और मौज उड़ाते थे।”

“जनता को ये क्या कम लूटते हैं?” रिक्शा वाले ने पलटकर बड़ी मिसकीन व्यंग्यमयी हंसी के साथ कहा, “छोटे से लेकर बड़े अफ़सर तक सब खाते हैं। वहां तो बड़े अफ़सर कुछ संकोच भी करते थे। यहां तो आपाधापी मची है। बस लेना जानते हैं, देना नहीं जानते। अंग्रेज लेता था तो दस आदमियों का पेट पालता था। ये खाते हैं तो जमा करते हैं। खाएं-उड़ाएं भी क्या, आदत भी हो। वही धोती-कुर्ता पहने बाहर-भीतर सब जगह बने रहते हैं। पन्द्रहवें-बीसवें, महीने-दो महीने पर हजामत बनवाते हैं। नाई, धोवी, बैरा, खानसामा क्या पाएंगे इनसे?” 

श्रीवास्तव मन ही मन उमठ-सा गया। पर चुप बना रहा कि क्या उस कमीने के मुंह लगे। 

“दूर क्यों जाइए,” रिक्शा वाला अपनी रौ में कहता गया, “रिक्शे-तांगे वालों को ही ले लीजिए। बड़े से बड़ा सेठ रिक्शा करेगा तो मोलभाव करना न भूलेगा। यहीं एलनगंज में एक आनरेरी मजिस्ट्रेट रहते हैं बड़े आदमी हैं। चौक में उनका एक प्रेस भी चलता है। सदा यहां अड्डे पर आ खड़े होते हैं और चाहते हैं कि एक ही सवारी के पैसे देने पड़ें। दूसरी सवारी न हो तो आध-आध घण्टे खड़े रहते हैं। अंग्रेज मामूली फ़ौजी भी हो तो कभी मोल-भाव न करता था। फिर जेब में रुपया हुआ तो रुपया दे दिया और दो हुए तो दो दे दिए। एक बार हमारे साब की मोटर बिगड़ गई थी। यहीं एलनगंज से कचहरी जाने में पांच रुपये का नोट उन्होंने रिक्शा वाले को दे दिया था।”





गजानन का घर आ गया था। श्रीवास्तव उचककर उठा। परन्तु वहां जाकर मालूम हुआ कि वह है नहीं। अपना कार्ड छोड़ श्रीवास्तव मुड़ा और रिक्शा वाले से उसने कहा कि जल्दी से चले। कचहरी के सामने उतरते वक्त श्रीवास्तव ने घड़ी देखी। एक घण्टा दस मिनट हुए थे। 

दूसरा वक्त होता तो वह दस आने घण्टे के हिसाब से बारह आने से अधिक न देता, पर इस रिक्शा वाले को बारह आने देने में उसे हिचकिचाहट हुई। साहबों की कब्र पर लात मारते हुए उसने कहा : 

“एक घण्टे से कुछ ही मिनट ऊपर हुए हैं। दो घण्टे भी लगाएं तो एक रुपया चार आने होते हैं, पर यह लो दो रुपये। चौदह आने हमारी ओर से बख्शीश समझ लो। 

रिक्शा वाले ने लगभग फौजी ढंग से सलाम किया और श्रीवास्तव गर्व से एड़ियों को तनिक और उठाता हुआ डी० एम० की कोठी की ओर चला। 





“क्यों क्या मिला? 

पहले रिक्शा वाले ने, जो अभी तक अड्डे पर खड़ा था, जोर से पूछा। 

“दो रुपये!” 

“दो रुपये-ये!” 

“हां, दो रुपये! किसी देसी अफ़सर से मैंने कभी कम लिया जो इससे लेता। साले इन काले साहबों से निपटना मैं ही जानता हूं। 





अन्तिम वाक्य की भनक श्रीवास्तव के कानों में पड़ गई। उसका उठी हुई एड़ियां बैठ गई। शरीर का तनाव और चाल की अकड़ कम हो गई और वह साधारण आदमियों की तरह चलता डी० एम० के बंगले में दाखिल हुआ। 


००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

गलत
आपकी सदस्यता सफल हो गई है.

शब्दांकन को अपनी ईमेल / व्हाट्सऐप पर पढ़ने के लिए जुड़ें 

The WHATSAPP field must contain between 6 and 19 digits and include the country code without using +/0 (e.g. 1xxxxxxxxxx for the United States)
?