Ashok Vajpeyi Autobiography 4
यह बात मुझे समझ में आ गयी थी कि मुक्तिबोध एक बड़े कवि हैं। इस बात से श्रीकान्त भी सहमत थे और इस बात से नामवर सिंह भी सहमत थे।
~ अशोक वाजपेयी
Ashok Vajpeyi Autobiography पढ़ें: पहला हिस्सा
मैं मुक्तिबोध का किसी साहित्यिक राजनीति के कारण समर्थन नहीं कर रहा था — मैं सहज प्रेम के कारण और उनकी कविताओं की मेरी समझ के कारण कर रहा था।
Ashok Vajpeyi Autobiography
पीयूष दईया
जन्म : अगस्त 1972, बीकानेर (राज.) / प्रकाशित-कृतियाँ : तीन कविता-संग्रह। अनुवाद की दो पुस्तकें। चार चित्रकारों के साथ पुस्तकाकार संवाद। साहित्य, संस्कृति, विचार, रंगमंच, ललित कला और लोक-विद्या पर एकाग्र पच्चीस से अधिक पुस्तकों और पाँच पत्रिकाओं का सम्पादन। / सम्प्रति : रज़ा फ़ाउण्डेशन की पत्रिका "स्वरमुद्रा" का सम्पादन और "रज़ा पुस्तक माला" से सम्बद्ध।
नामवर सिंह और संघनामवर सिंह से पहली बार मेरी मुलाक़ात साहित्यकार सम्मेलन में इलाहाबाद में 1957 में हुई थी। उस समय तक दो-तीन चीज़ों से उनका परिचय हो चुका था। एक, श्रीपत राय के सम्पादन में ‘कहानी’ नाम की पत्रिका निकलती थी। नामवरजी ने ‘कहानी’ में कहानी पर स्तम्भ लिखना शुरू किया था। नामवर जी की पहली कीर्ति कहानी वाली बनी थी। फिर उन्होंने ‘ज्ञानोदय’ में एक स्तम्भ लिखना शुरू किया, “नयी कविता पर क्षण भर”। जब वह सागर आये, उनसे परिचय हुआ, कुछ घनिष्टता भी।
कोई संघ लेखक पैदा नहीं कर सकता, चाहे कितना ही बड़ा संघ हो। सोवियत संघ हो, चाहे प्रगतिशील लेखक संघ हो या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हो। किसी भी संघ ने अपने इतिहास में कभी कोई लेखक पैदा नहीं किया।
उस समय के दृश्य में आमतौर पर साहित्यकार सम्मेलन किया गया था, ज़्यादातर प्रगतिशीलों द्वारा। लेकिन उसमें खुलापन था। जैसे विजयदेव नारायण साही थे। रघुवंश भी थे। उसमें ये सब लोग थे और बाद में प्रगतिवादियों से अलग हुए। इसकी एक वजह शायद यह रही होगी कि बाद में प्रगतिशील लेखक संघ इत्यादि में बड़े लेखक नहीं हुए। बड़े लेखक हो चुके थे। प्रगतिशील लेखक संघ रामविलास जी (शर्मा) के दौर में दुबारा से बहुत ही उग्र होना शुरू हुआ था, लेकिन उस समय कम से कम बड़े लेखक थे — नागार्जुन, मुक्तिबोध, शमशेर ये सब बड़े लेखक थे। लेकिन उसके बाद प्रगतिशील लेखक संघ के बड़े लेखक कौन-से थे? उनमें किस लेखक को बड़ा कहेंगे, जिस अर्थ में ये लोग बड़े थे।
हम इतिहास को याद करने वाले लोग नहीं हैं, अक्सर उसको भूलने वाले लोग हैं।
कोई संघ लेखक पैदा नहीं कर सकता, चाहे कितना ही बड़ा संघ हो। सोवियत संघ हो, चाहे प्रगतिशील लेखक संघ हो या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हो। किसी भी संघ ने अपने इतिहास में कभी कोई लेखक पैदा नहीं किया। सौभाग्य से, इनमें से अधिकांश ने, ऐसा दावा भी नहीं किया। लेकिन बहुत सारे लेखक इन संघों से जुड़ते रहे हैं, यह सही है। अकेले नामवर सिंह ने ही अपने एक वृत्तान्त में यह कहा है कि ‘‘प्रगतिशील लेखक संघ ने मुझे लेखक बनाया।’’ इस पर मैंने घोर आपत्ति भी की थी।
जब हम लोग सागर में थे, तब नामवर जी का अज्ञेय विरोध ऐसा मुखर-प्रकट नहीं था। उनकी अपनी वैचारिक निष्ठा थी, लेकिन मुझे याद नहीं आता कि उन्होंने कभी उस वैचारिक निष्ठा में दीक्षित करने की कोई कोशिश की हो। उनमें भी खुलापन था। ठीक था। तब तक उनके पूर्वग्रह बनना शुरू हो ही गये थे, मेरे भी बनना शुरू हो गये थे। कोई अनुराग या तनाव नहीं था। मुझको पता था कि वह कोलकाता जा रहे हैं, उनसे कहता था कि ऑक्टोवियो पॉज़ की किताब ले आएँ, तो वे किताब ले आते थे। यह नहीं कहते थे कि आप ऑक्टोवियो पॉज़ को क्यों पढ़ रहे हैं, पाब्लो नेरूदा को पढ़िए। ऐसा उन्होंने नहीं कहा।
नामवर जी के सागर आने के बाद उस समय के हिन्दी प्रतिष्ठान के विरोध की मेरी मुद्रा अधिक प्रबल हुई। नामवर जी उसकी एक तरह की जगह बन गये। यह सब थोड़ी-थोड़ी, अधकचरी-सी समझ थी।
दृश्य में लघु पत्रिकाएँकुछ पत्रिकाओं को छोड़ कर बाक़ी पत्रिकाओं की तो किसी को याद तक नहीं बची है। हम इतिहास को याद करने वाले लोग नहीं हैं, अक्सर उसको भूलने वाले लोग हैं। बाद में वैचारिक आन्दोलनों की प्रबलता हुई, मसलन, छोटी पत्रिकाओं के आन्दोलन को क़रीब-क़रीब एक तरह का वामपंथी आन्दोलन बना लिया गया। जो उससे बाहर थे वे देर-सबेर उसी में शामिल हो गये। उस समय छोटे-छोटे प्रयत्न थे। जैसे, बाद में ‘आरम्भ’ निकला, लखनऊ से, ‘कविताएँ’ राजस्थान से निकलती थी। विष्णचन्द्र शर्मा का ‘कवि’ था। राजेन्द्र किशोर ने भी एक पत्रिका ‘अपरम्परा’ निकाली, उसका एक ही अंक निकला था। लेकिन उस एक अंक में उन्होंने कुर्तुल एन हैदर की एक अद्भुत कहानी ‘जिलावतन’ छापी थी। अब ये छोटी-छोटी पत्रिकाएँ थीं। इनमें से अधिकांश के एक-दो अंक निकले, ‘कवि’ के ज़्यादा निकले। ‘कवि’ का उल्लेख होता है। मुक्तिबोध की ‘ब्रह्मराक्षस’ कविता ‘कवि’ में छपी थी। उस पर नामवर जी की टिप्पणी भी छपी थी। उस समय कविता के, साहित्य के परिदृश्य में इन पत्रिकाओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। बाद में इनको याद न किया जाना दुर्भाग्य है।
मुक्तिबोध ‘नया ख़ून’ साप्ताहिकी में लिखते थे। ‘नया ख़ून’ आक्रामक क़िस्म का अख़बार था। ‘सारथी’ द्वारिकाप्रसाद मिश्र निकालते थे जो उस ज़माने में स्वयं बड़ी हस्ती थे। मध्य प्रदेश के लोग उनको जानते थे, थोड़ा-बहुत बाहर के लोग भी जानते रहे होंगे, लेकिन उनका ज़्यादा व्यापक प्रभाव नहीं हुआ। जैसे, हनुमानप्रसाद तिवारी मेरे रिश्तेदार थे। वह समाजवादी थे। उन्होंने नागपुर से ‘विचार’ नाम की पत्रिका निकाली। कुछ ही अंक निकले। उसमें भवानीप्रसाद मिश्र इत्यादि कई लोग लिखते थे। लेकिन उसके अंक कहीं मिलते ही नहीं। कहाँ गये, क्या हुआ, पता नहीं। ऐसे बहुत सारे छोटे-छोटे प्रयत्न किये गये। बाद में सागर से ही मेरे भाई अनिल वाजपेयी वगैरह ने ‘बुनियाद’ नाम से एक पत्रिका निकाली थी।
संस्कृत हमारा बहुत बड़ा उत्तराधिकार है, जिसको गँवाना नहीं चाहिए। संस्कृत के साथ बहुत सारी कुरीतियाँ भी जुड़ गयी हैं, वह अलग बात है। लेकिन संस्कृत में संश्लेष, शक्ति और संक्षेप में कुछ भी कह सकने की अपार क्षमता है और अद्भुत बिम्ब-संसार है।
उस समय साम्प्रदायिकता का बड़ा भारी विरोध होता था। गोविन्द द्विवेदी ने ‘तेवर’ नाम की पत्रिका निकाली थी। विष्णु खरे ने ‘वयम्’ निकाली थी। चन्द्रकान्त देवताले ने ‘आवेग’। उस समय पिपरिया से दो पत्रिकाएँ निकलती थीं—‘तनाव’ और दूसरी का नाम याद नहीं। हरिशंकर अग्रवाल की पत्रिका अभी भी कभी-कभी आती है। एक तरह से उस समय जो पत्रिकाएँ लगभग आदर्श बनीं, वह थीं— कल्पना, युग चेतना और कृति। इन पत्रिकाओं ने सम्पादन और सामग्री में भी कुछ नवाचार किया था। ‘कृति’ में सबसे पहले युवा कवियों की कविताएँ छापते थे, अंक की शुरुआत उसी से होती थी। फिर किसी एक बड़े कवि पर दो निबन्ध छापते थे। उसी समय, जैसे, सुमित्रानंदन पंत की षष्ठि-पूर्ति थी, उन पर दो निबन्ध छपे थे। मुक्तिबोध पर दो निबन्ध छपे थे, शमशेर पर दो निबन्ध छपे थे।
रामविलास शर्मा और ‘समालोचक’रामविलास शर्मा से मैं कभी प्रभावित नहीं था। उन दिनों भी और बाद में भी। उनका पाण्डित्य बहुत सशक्त था, लेकिन उन्होंने मुझे कभी बहुत प्रभावित नहीं किया। उस समय उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं था। उनके द्वारा सम्पादित ‘समालोचक’ से परिचित था। मेरे हिसाब से, ‘समालोचक’ ख़राब पत्रिका थी। वह ‘आलोचना’ की स्पर्धा में थी—‘आलोचना’ शिवदान सिंह चौहान निकालते थे। बाद में धर्मवीर भारती, रघुवंश, साही आदि। ‘आलोचना’ का पतन नन्ददुलारे वाजपेयी के ज़माने में हुआ, लेकिन उसके पहले वह बहुत अच्छी पत्रिका थी। क़ायदे की थी। उसका बहुत अच्छा असर था। ऐसा सुयश और प्रतिष्ठा ‘समालोचक’ को नहीं मिले।
राजा दुबेराजा दुबे हैदराबाद चले गये थे। वह पहले अध्यापक हो गये, फिर ‘कल्पना’ में भी शामिल हो गये। वहाँ एक महाविद्यालय था, बदरीविशाल पित्ती ही चलाते थे, उसमें वह अध्यापक नियुक्त हुए। वह एम.ए. थे। उन्होंने पीएच.डी. बीच में छोड़ दी थी। वैसे राजा दुबे मूलतः गीतकार थे। ‘ये तुम्हारे बोल जैसे वायलिन की धुन’। ‘थका हुआ हूँ सोने भी दो’ — इस तरह की कविताएँ लिखते थे। उन्होंने अपना एम.ए. का प्रबन्ध नयी कविता पर लिखा था। उस समय एम.ए. में यह विकल्प था कि एक परचे के बजाय आप एक लघुशोध प्रबन्ध भी लिख सकते हैं। ऐसा याद आता है कि हम लोगों ने उसमें उनकी काफ़ी मदद की थी, उन्हें बहुत सारी नयी-नयी चीज़ें सुझाते रहे थे। उसी शोध के झटके में फिर वह नये कवि स्वयं हो गये। वे मूलतः नये कवि नहीं थे।
पुस्तकालयकुछ पत्रिकाएँ सागर विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में उपलब्ध थीं। सागर विश्वविद्यालय का पुस्तकालय बड़ा समृद्ध था, यद्यपि थोड़े वर्ष पहले ही वह स्थापित हुआ था। 1956-57 में जब विश्वविद्यालय में दाख़िला लिया था तब विश्वविद्यालय को बने हुए दस वर्ष ही हुए थे। वह 1946 में बना था। हम जहाँ पढ़ते थे वहाँ दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सेना की छावनी थी, तो बैरक्स ख़ाली थीं। इमारत बाद में बनीं। उस समय हम लोग उन्हीं बैरक्स में पढ़ते थे। वहाँ उस ज़माने में कोई अमरीकी भारत व्हीटलोन समझौता था, उसके अन्तर्गत अनेक विश्वविद्यालयों को पुस्तकें उपहार स्वरूप दी जाती थीं। बहुत सारी पुस्तकें अमरीका से आयी थीं। वहाँ से अनुवाद की बहुत पुस्तकें आयीं। इंग्लैण्ड के मुक़ाबले अमरीका में अनुवाद के प्रति अधिक सजगता थी। अभी भी अंग्रेज़ी में सबसे ज़्यादा अनुवाद अमरीका में ही होते हैं और वहीं प्रकाशित होते हैं। वहाँ बहुत छोटे-छोटे प्रेस हैं, छोटे-छोटे प्रकाशन गृह हैं, जो छापते हैं। उसके मुक़ाबले इंग्लैण्ड में बहुत कम हैं। उन किताबों में रिल्के, कामू, नाजिम हिकमत, पाब्लो नेरूदा, अमरीकी कवि भी आना शुरू हो गये थे। पत्रिकाएँ भी आती थीं। ‘पार्टिज़न रिव्यू’ बहुत महत्त्वपूर्ण पत्रिका थी।
‘नर्मदा की सुबह’उस समय मुक्तिबोध एक संचयन निकालना चाहते थे ‘नर्मदा की सुबह’ नाम से, जिसके लिए उन्होंने 6-7 या 10 कवि चुने थे। श्रीकान्त वर्मा उनमें से एक थे। बाद में हमने सोचा कि उसको दुबारा से छपाया जाये। राजेन्द्र मिश्र ने लिखा, ‘‘छपाने का कोई ख़ास मतलब नहीं निकलेगा। कविताएँ बड़ी ख़राब हैं। कमज़ोर हैं। श्रीकान्त जी के अलावा उसमें कोई कवि ख़ास नहीं था।’’ एक तरह से उस समय ये मध्य प्रदेश में सक्रिय युवा कवि थे। वह संचयन नहीं निकला तो ठीक ही नहीं निकला, इससे उनकी छवि गड़बड़ होती। कहीं वह एक तरह से ‘तार सप्तक’ के मुक़ाबले कुछ करने की चेष्टा भी हो सकती है। वह बहुत ही समझदार थे। मुक्तिबोध को शायद यह समझ में आ गया होगा कि मुझसे नहीं हो पायेगा।
संस्कृतहिन्दी में उस समय अज्ञेय की कविता ही तत्सम प्रधान कविता थी और बाक़ी सारे लोग एक तरह से तत्सम से दूर जाते लोग थे। मैं चूँकि संस्कृत का भी छात्र था, बी.ए. में मैंने संस्कृत ली थी, तो मुझ पर संस्कृत का प्रभाव था। ‘दीपवह’ जैसे शब्द बनाना अच्छा लगता था— ‘दीप वहन करने वाला’, वगैरह। इस तरह कुछ-कुछ शब्दों से खेल करता था। तत्सम के प्रति मेरा आकर्षण कभी कम नहीं हुआ। इसके प्रति भी मेरा आकर्षण कम नहीं हुआ कि संस्कृत हमारा बहुत बड़ा उत्तराधिकार है, जिसको गँवाना नहीं चाहिए। संस्कृत के साथ बहुत सारी कुरीतियाँ भी जुड़ गयी हैं, वह अलग बात है। लेकिन संस्कृत में संश्लेष, शक्ति और संक्षेप में कुछ भी कह सकने की अपार क्षमता है और अद्भुत बिम्ब-संसार है। इसलिए यह आकर्षण हमेशा बना रहा।
मुक्तिबोध और राजनीतिअन्तर्कथा ऐसी थी कि हम लोग मुक्तिबोध से सहज सम्पर्क में थे। उनको प्रेरित करना चाहते थे। तब तक मुझे एक तरह से अपनी नैतिक जिम्मेदारी लगने लगी थी कि मुक्तिबोध अपने लेखन को लेकर संकोची हैं और जब तक उन पर दबाव न डाला जाये, बार-बार उकसाया न जाये, वह कुछ नहीं करते। चूँकि लम्बी रचनाएँ लिखते थे उनको बड़ा संकोच यह था कि वह कहाँ भेजें। मैंने दूसरी पत्रिकाओं के सम्पादकों को भी यह लिखा था कि वे मुक्तिबोध से उनकी रचनाएँ मंगवा कर अपनी पत्रिका में प्रकाशित करें। मैं सिर्फ़ सहज सद्भाव से प्रेरित होकर लिखता था। मेरा कोई विशेष सम्बन्ध नहीं था, सिवाय इसके कि बदरीविशाल जी ने मेरी कविताएँ “कल्पना” में छापी थीं। उस समय रघुवीर सहाय सम्पादक थे। उनसे एक तरह की ख़तो-किताबत होती रहती थी। उसमें मैंने उनको लिखा कि ‘‘आप मुक्तिबोध से कहिये कि वह अपनी कविताएँ भेजें। बड़े कवि हैं। लम्बी कविताएँ लिखने का उनको बड़ा संकोच होता है।’’ तो उन्होंने उनको एक-दो पत्र लिखे, ऐसा उन्होंने मुझे सूचित किया। मैंने मुक्तिबोध को लिखा कि आप कविता क्यों नहीं भेज रहे हैं। उन्होंने ‘चम्बल घाटी’ कविता भेजी और उस समय वह छपी थी। बाद में ‘अँधेरे में’ वहीं छपी, तब तक मुक्तिबोध की मृत्यु हो गयी थी।
‘एक साहित्यिक की डायरी’ वसुधा में छप रही थी। वित्तीय साधनों के अभाव में ‘वसुधा’ बन्द हो गयी थी। मैं यह कोशिश कर रहा था कि या तो वह ‘कल्पना’ में छपती रहे या ‘कृति’ में। इसके पीछे कोई अन्तर्कथा नहीं थी। यह बात मुझे समझ में आ गयी थी कि वह एक बड़े कवि हैं। इस बात से श्रीकान्त भी सहमत थे और इस बात से नामवर सिंह भी सहमत थे। नामवर सिंह भले अपने शीतयुद्ध की राजनीति के कारण भी सहमत हों, लेकिन सहमत थे। श्रीकान्त ने उस समय साहित्य में एक तरह की राजनीति का सूत्रपात किया था, जिसमें शमशेर को नयी कविता का प्रथम नागरिक कहकर “कृति” में विज्ञापन निकलता था। अज्ञेय को हाशिये पर करना या उनको केन्द्र से हटाने का एक प्रयास करना भी शामिल था। अब ये अलग-अलग क़िस्म के लोगों के अलग-अलग आंकलन थे। पर मेरे आंकलन में अज्ञेय को अपदस्थ करके मुक्तिबोध को बैठाना नहीं था। मेरे आकलन में यह था कि मुक्तिबोध को उनका ड्यू मिलना चाहिए और वह ड्यू यही होगा कि इस समय उनका संग्रह छप जाये, उनका स्तम्भ चलता रहे, उनकी कविताएँ प्रकाशित हों।
मैं मुक्तिबोध का किसी साहित्यिक राजनीति के कारण समर्थन नहीं कर रहा था — मैं सहज प्रेम के कारण और उनकी कविताओं की मेरी समझ के कारण कर रहा था। श्रीकान्त भी उनको बड़ा कवि मानते थे, लेकिन वे साहित्यिक राजनीति में उनका थोड़ा उपयोग करना भी ज़रूरी समझ रहे थे। नामवर भी उनको बड़ा कवि मानते थे, लेकिन वह अपनी व्यापक राजनीति, जिसमें अज्ञेय को केन्द्र से अपदस्थ करने का अभियान उन्हीं दिनों चलना शुरू हुआ था, उसमें मुक्तिबोध को एक ‘अच्छे विकल्प’ की तरह इस्तेमाल करना चाहते थे जो उन्होंने किया। ...आगे अगली कड़ी
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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पीयूष दईया
जन्म : अगस्त 1972, बीकानेर (राज.) / प्रकाशित-कृतियाँ : तीन कविता-संग्रह। अनुवाद की दो पुस्तकें। चार चित्रकारों के साथ पुस्तकाकार संवाद। साहित्य, संस्कृति, विचार, रंगमंच, ललित कला और लोक-विद्या पर एकाग्र पच्चीस से अधिक पुस्तकों और पाँच पत्रिकाओं का सम्पादन। / सम्प्रति : रज़ा फ़ाउण्डेशन की पत्रिका "स्वरमुद्रा" का सम्पादन और "रज़ा पुस्तक माला" से सम्बद्ध।
नामवर सिंह और संघ
नामवर सिंह से पहली बार मेरी मुलाक़ात साहित्यकार सम्मेलन में इलाहाबाद में 1957 में हुई थी। उस समय तक दो-तीन चीज़ों से उनका परिचय हो चुका था। एक, श्रीपत राय के सम्पादन में ‘कहानी’ नाम की पत्रिका निकलती थी। नामवरजी ने ‘कहानी’ में कहानी पर स्तम्भ लिखना शुरू किया था। नामवर जी की पहली कीर्ति कहानी वाली बनी थी। फिर उन्होंने ‘ज्ञानोदय’ में एक स्तम्भ लिखना शुरू किया, “नयी कविता पर क्षण भर”। जब वह सागर आये, उनसे परिचय हुआ, कुछ घनिष्टता भी।
कोई संघ लेखक पैदा नहीं कर सकता, चाहे कितना ही बड़ा संघ हो। सोवियत संघ हो, चाहे प्रगतिशील लेखक संघ हो या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हो। किसी भी संघ ने अपने इतिहास में कभी कोई लेखक पैदा नहीं किया।
उस समय के दृश्य में आमतौर पर साहित्यकार सम्मेलन किया गया था, ज़्यादातर प्रगतिशीलों द्वारा। लेकिन उसमें खुलापन था। जैसे विजयदेव नारायण साही थे। रघुवंश भी थे। उसमें ये सब लोग थे और बाद में प्रगतिवादियों से अलग हुए। इसकी एक वजह शायद यह रही होगी कि बाद में प्रगतिशील लेखक संघ इत्यादि में बड़े लेखक नहीं हुए। बड़े लेखक हो चुके थे। प्रगतिशील लेखक संघ रामविलास जी (शर्मा) के दौर में दुबारा से बहुत ही उग्र होना शुरू हुआ था, लेकिन उस समय कम से कम बड़े लेखक थे — नागार्जुन, मुक्तिबोध, शमशेर ये सब बड़े लेखक थे। लेकिन उसके बाद प्रगतिशील लेखक संघ के बड़े लेखक कौन-से थे? उनमें किस लेखक को बड़ा कहेंगे, जिस अर्थ में ये लोग बड़े थे।
हम इतिहास को याद करने वाले लोग नहीं हैं, अक्सर उसको भूलने वाले लोग हैं।
कोई संघ लेखक पैदा नहीं कर सकता, चाहे कितना ही बड़ा संघ हो। सोवियत संघ हो, चाहे प्रगतिशील लेखक संघ हो या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हो। किसी भी संघ ने अपने इतिहास में कभी कोई लेखक पैदा नहीं किया। सौभाग्य से, इनमें से अधिकांश ने, ऐसा दावा भी नहीं किया। लेकिन बहुत सारे लेखक इन संघों से जुड़ते रहे हैं, यह सही है। अकेले नामवर सिंह ने ही अपने एक वृत्तान्त में यह कहा है कि ‘‘प्रगतिशील लेखक संघ ने मुझे लेखक बनाया।’’ इस पर मैंने घोर आपत्ति भी की थी।
जब हम लोग सागर में थे, तब नामवर जी का अज्ञेय विरोध ऐसा मुखर-प्रकट नहीं था। उनकी अपनी वैचारिक निष्ठा थी, लेकिन मुझे याद नहीं आता कि उन्होंने कभी उस वैचारिक निष्ठा में दीक्षित करने की कोई कोशिश की हो। उनमें भी खुलापन था। ठीक था। तब तक उनके पूर्वग्रह बनना शुरू हो ही गये थे, मेरे भी बनना शुरू हो गये थे। कोई अनुराग या तनाव नहीं था। मुझको पता था कि वह कोलकाता जा रहे हैं, उनसे कहता था कि ऑक्टोवियो पॉज़ की किताब ले आएँ, तो वे किताब ले आते थे। यह नहीं कहते थे कि आप ऑक्टोवियो पॉज़ को क्यों पढ़ रहे हैं, पाब्लो नेरूदा को पढ़िए। ऐसा उन्होंने नहीं कहा।
नामवर जी के सागर आने के बाद उस समय के हिन्दी प्रतिष्ठान के विरोध की मेरी मुद्रा अधिक प्रबल हुई। नामवर जी उसकी एक तरह की जगह बन गये। यह सब थोड़ी-थोड़ी, अधकचरी-सी समझ थी।
दृश्य में लघु पत्रिकाएँ
कुछ पत्रिकाओं को छोड़ कर बाक़ी पत्रिकाओं की तो किसी को याद तक नहीं बची है। हम इतिहास को याद करने वाले लोग नहीं हैं, अक्सर उसको भूलने वाले लोग हैं। बाद में वैचारिक आन्दोलनों की प्रबलता हुई, मसलन, छोटी पत्रिकाओं के आन्दोलन को क़रीब-क़रीब एक तरह का वामपंथी आन्दोलन बना लिया गया। जो उससे बाहर थे वे देर-सबेर उसी में शामिल हो गये। उस समय छोटे-छोटे प्रयत्न थे। जैसे, बाद में ‘आरम्भ’ निकला, लखनऊ से, ‘कविताएँ’ राजस्थान से निकलती थी। विष्णचन्द्र शर्मा का ‘कवि’ था। राजेन्द्र किशोर ने भी एक पत्रिका ‘अपरम्परा’ निकाली, उसका एक ही अंक निकला था। लेकिन उस एक अंक में उन्होंने कुर्तुल एन हैदर की एक अद्भुत कहानी ‘जिलावतन’ छापी थी। अब ये छोटी-छोटी पत्रिकाएँ थीं। इनमें से अधिकांश के एक-दो अंक निकले, ‘कवि’ के ज़्यादा निकले। ‘कवि’ का उल्लेख होता है। मुक्तिबोध की ‘ब्रह्मराक्षस’ कविता ‘कवि’ में छपी थी। उस पर नामवर जी की टिप्पणी भी छपी थी। उस समय कविता के, साहित्य के परिदृश्य में इन पत्रिकाओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। बाद में इनको याद न किया जाना दुर्भाग्य है।
मुक्तिबोध ‘नया ख़ून’ साप्ताहिकी में लिखते थे। ‘नया ख़ून’ आक्रामक क़िस्म का अख़बार था। ‘सारथी’ द्वारिकाप्रसाद मिश्र निकालते थे जो उस ज़माने में स्वयं बड़ी हस्ती थे। मध्य प्रदेश के लोग उनको जानते थे, थोड़ा-बहुत बाहर के लोग भी जानते रहे होंगे, लेकिन उनका ज़्यादा व्यापक प्रभाव नहीं हुआ। जैसे, हनुमानप्रसाद तिवारी मेरे रिश्तेदार थे। वह समाजवादी थे। उन्होंने नागपुर से ‘विचार’ नाम की पत्रिका निकाली। कुछ ही अंक निकले। उसमें भवानीप्रसाद मिश्र इत्यादि कई लोग लिखते थे। लेकिन उसके अंक कहीं मिलते ही नहीं। कहाँ गये, क्या हुआ, पता नहीं। ऐसे बहुत सारे छोटे-छोटे प्रयत्न किये गये। बाद में सागर से ही मेरे भाई अनिल वाजपेयी वगैरह ने ‘बुनियाद’ नाम से एक पत्रिका निकाली थी।
संस्कृत हमारा बहुत बड़ा उत्तराधिकार है, जिसको गँवाना नहीं चाहिए। संस्कृत के साथ बहुत सारी कुरीतियाँ भी जुड़ गयी हैं, वह अलग बात है। लेकिन संस्कृत में संश्लेष, शक्ति और संक्षेप में कुछ भी कह सकने की अपार क्षमता है और अद्भुत बिम्ब-संसार है।
उस समय साम्प्रदायिकता का बड़ा भारी विरोध होता था। गोविन्द द्विवेदी ने ‘तेवर’ नाम की पत्रिका निकाली थी। विष्णु खरे ने ‘वयम्’ निकाली थी। चन्द्रकान्त देवताले ने ‘आवेग’। उस समय पिपरिया से दो पत्रिकाएँ निकलती थीं—‘तनाव’ और दूसरी का नाम याद नहीं। हरिशंकर अग्रवाल की पत्रिका अभी भी कभी-कभी आती है। एक तरह से उस समय जो पत्रिकाएँ लगभग आदर्श बनीं, वह थीं— कल्पना, युग चेतना और कृति। इन पत्रिकाओं ने सम्पादन और सामग्री में भी कुछ नवाचार किया था। ‘कृति’ में सबसे पहले युवा कवियों की कविताएँ छापते थे, अंक की शुरुआत उसी से होती थी। फिर किसी एक बड़े कवि पर दो निबन्ध छापते थे। उसी समय, जैसे, सुमित्रानंदन पंत की षष्ठि-पूर्ति थी, उन पर दो निबन्ध छपे थे। मुक्तिबोध पर दो निबन्ध छपे थे, शमशेर पर दो निबन्ध छपे थे।
रामविलास शर्मा और ‘समालोचक’
रामविलास शर्मा से मैं कभी प्रभावित नहीं था। उन दिनों भी और बाद में भी। उनका पाण्डित्य बहुत सशक्त था, लेकिन उन्होंने मुझे कभी बहुत प्रभावित नहीं किया। उस समय उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं था। उनके द्वारा सम्पादित ‘समालोचक’ से परिचित था। मेरे हिसाब से, ‘समालोचक’ ख़राब पत्रिका थी। वह ‘आलोचना’ की स्पर्धा में थी—‘आलोचना’ शिवदान सिंह चौहान निकालते थे। बाद में धर्मवीर भारती, रघुवंश, साही आदि। ‘आलोचना’ का पतन नन्ददुलारे वाजपेयी के ज़माने में हुआ, लेकिन उसके पहले वह बहुत अच्छी पत्रिका थी। क़ायदे की थी। उसका बहुत अच्छा असर था। ऐसा सुयश और प्रतिष्ठा ‘समालोचक’ को नहीं मिले।
राजा दुबे
राजा दुबे हैदराबाद चले गये थे। वह पहले अध्यापक हो गये, फिर ‘कल्पना’ में भी शामिल हो गये। वहाँ एक महाविद्यालय था, बदरीविशाल पित्ती ही चलाते थे, उसमें वह अध्यापक नियुक्त हुए। वह एम.ए. थे। उन्होंने पीएच.डी. बीच में छोड़ दी थी। वैसे राजा दुबे मूलतः गीतकार थे। ‘ये तुम्हारे बोल जैसे वायलिन की धुन’। ‘थका हुआ हूँ सोने भी दो’ — इस तरह की कविताएँ लिखते थे। उन्होंने अपना एम.ए. का प्रबन्ध नयी कविता पर लिखा था। उस समय एम.ए. में यह विकल्प था कि एक परचे के बजाय आप एक लघुशोध प्रबन्ध भी लिख सकते हैं। ऐसा याद आता है कि हम लोगों ने उसमें उनकी काफ़ी मदद की थी, उन्हें बहुत सारी नयी-नयी चीज़ें सुझाते रहे थे। उसी शोध के झटके में फिर वह नये कवि स्वयं हो गये। वे मूलतः नये कवि नहीं थे।
पुस्तकालय
कुछ पत्रिकाएँ सागर विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में उपलब्ध थीं। सागर विश्वविद्यालय का पुस्तकालय बड़ा समृद्ध था, यद्यपि थोड़े वर्ष पहले ही वह स्थापित हुआ था। 1956-57 में जब विश्वविद्यालय में दाख़िला लिया था तब विश्वविद्यालय को बने हुए दस वर्ष ही हुए थे। वह 1946 में बना था। हम जहाँ पढ़ते थे वहाँ दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सेना की छावनी थी, तो बैरक्स ख़ाली थीं। इमारत बाद में बनीं। उस समय हम लोग उन्हीं बैरक्स में पढ़ते थे। वहाँ उस ज़माने में कोई अमरीकी भारत व्हीटलोन समझौता था, उसके अन्तर्गत अनेक विश्वविद्यालयों को पुस्तकें उपहार स्वरूप दी जाती थीं। बहुत सारी पुस्तकें अमरीका से आयी थीं। वहाँ से अनुवाद की बहुत पुस्तकें आयीं। इंग्लैण्ड के मुक़ाबले अमरीका में अनुवाद के प्रति अधिक सजगता थी। अभी भी अंग्रेज़ी में सबसे ज़्यादा अनुवाद अमरीका में ही होते हैं और वहीं प्रकाशित होते हैं। वहाँ बहुत छोटे-छोटे प्रेस हैं, छोटे-छोटे प्रकाशन गृह हैं, जो छापते हैं। उसके मुक़ाबले इंग्लैण्ड में बहुत कम हैं। उन किताबों में रिल्के, कामू, नाजिम हिकमत, पाब्लो नेरूदा, अमरीकी कवि भी आना शुरू हो गये थे। पत्रिकाएँ भी आती थीं। ‘पार्टिज़न रिव्यू’ बहुत महत्त्वपूर्ण पत्रिका थी।
‘नर्मदा की सुबह’
उस समय मुक्तिबोध एक संचयन निकालना चाहते थे ‘नर्मदा की सुबह’ नाम से, जिसके लिए उन्होंने 6-7 या 10 कवि चुने थे। श्रीकान्त वर्मा उनमें से एक थे। बाद में हमने सोचा कि उसको दुबारा से छपाया जाये। राजेन्द्र मिश्र ने लिखा, ‘‘छपाने का कोई ख़ास मतलब नहीं निकलेगा। कविताएँ बड़ी ख़राब हैं। कमज़ोर हैं। श्रीकान्त जी के अलावा उसमें कोई कवि ख़ास नहीं था।’’ एक तरह से उस समय ये मध्य प्रदेश में सक्रिय युवा कवि थे। वह संचयन नहीं निकला तो ठीक ही नहीं निकला, इससे उनकी छवि गड़बड़ होती। कहीं वह एक तरह से ‘तार सप्तक’ के मुक़ाबले कुछ करने की चेष्टा भी हो सकती है। वह बहुत ही समझदार थे। मुक्तिबोध को शायद यह समझ में आ गया होगा कि मुझसे नहीं हो पायेगा।
संस्कृत
हिन्दी में उस समय अज्ञेय की कविता ही तत्सम प्रधान कविता थी और बाक़ी सारे लोग एक तरह से तत्सम से दूर जाते लोग थे। मैं चूँकि संस्कृत का भी छात्र था, बी.ए. में मैंने संस्कृत ली थी, तो मुझ पर संस्कृत का प्रभाव था। ‘दीपवह’ जैसे शब्द बनाना अच्छा लगता था— ‘दीप वहन करने वाला’, वगैरह। इस तरह कुछ-कुछ शब्दों से खेल करता था। तत्सम के प्रति मेरा आकर्षण कभी कम नहीं हुआ। इसके प्रति भी मेरा आकर्षण कम नहीं हुआ कि संस्कृत हमारा बहुत बड़ा उत्तराधिकार है, जिसको गँवाना नहीं चाहिए। संस्कृत के साथ बहुत सारी कुरीतियाँ भी जुड़ गयी हैं, वह अलग बात है। लेकिन संस्कृत में संश्लेष, शक्ति और संक्षेप में कुछ भी कह सकने की अपार क्षमता है और अद्भुत बिम्ब-संसार है। इसलिए यह आकर्षण हमेशा बना रहा।
मुक्तिबोध और राजनीति
अन्तर्कथा ऐसी थी कि हम लोग मुक्तिबोध से सहज सम्पर्क में थे। उनको प्रेरित करना चाहते थे। तब तक मुझे एक तरह से अपनी नैतिक जिम्मेदारी लगने लगी थी कि मुक्तिबोध अपने लेखन को लेकर संकोची हैं और जब तक उन पर दबाव न डाला जाये, बार-बार उकसाया न जाये, वह कुछ नहीं करते। चूँकि लम्बी रचनाएँ लिखते थे उनको बड़ा संकोच यह था कि वह कहाँ भेजें। मैंने दूसरी पत्रिकाओं के सम्पादकों को भी यह लिखा था कि वे मुक्तिबोध से उनकी रचनाएँ मंगवा कर अपनी पत्रिका में प्रकाशित करें। मैं सिर्फ़ सहज सद्भाव से प्रेरित होकर लिखता था। मेरा कोई विशेष सम्बन्ध नहीं था, सिवाय इसके कि बदरीविशाल जी ने मेरी कविताएँ “कल्पना” में छापी थीं। उस समय रघुवीर सहाय सम्पादक थे। उनसे एक तरह की ख़तो-किताबत होती रहती थी। उसमें मैंने उनको लिखा कि ‘‘आप मुक्तिबोध से कहिये कि वह अपनी कविताएँ भेजें। बड़े कवि हैं। लम्बी कविताएँ लिखने का उनको बड़ा संकोच होता है।’’ तो उन्होंने उनको एक-दो पत्र लिखे, ऐसा उन्होंने मुझे सूचित किया। मैंने मुक्तिबोध को लिखा कि आप कविता क्यों नहीं भेज रहे हैं। उन्होंने ‘चम्बल घाटी’ कविता भेजी और उस समय वह छपी थी। बाद में ‘अँधेरे में’ वहीं छपी, तब तक मुक्तिबोध की मृत्यु हो गयी थी।
‘एक साहित्यिक की डायरी’ वसुधा में छप रही थी। वित्तीय साधनों के अभाव में ‘वसुधा’ बन्द हो गयी थी। मैं यह कोशिश कर रहा था कि या तो वह ‘कल्पना’ में छपती रहे या ‘कृति’ में। इसके पीछे कोई अन्तर्कथा नहीं थी। यह बात मुझे समझ में आ गयी थी कि वह एक बड़े कवि हैं। इस बात से श्रीकान्त भी सहमत थे और इस बात से नामवर सिंह भी सहमत थे। नामवर सिंह भले अपने शीतयुद्ध की राजनीति के कारण भी सहमत हों, लेकिन सहमत थे। श्रीकान्त ने उस समय साहित्य में एक तरह की राजनीति का सूत्रपात किया था, जिसमें शमशेर को नयी कविता का प्रथम नागरिक कहकर “कृति” में विज्ञापन निकलता था। अज्ञेय को हाशिये पर करना या उनको केन्द्र से हटाने का एक प्रयास करना भी शामिल था। अब ये अलग-अलग क़िस्म के लोगों के अलग-अलग आंकलन थे। पर मेरे आंकलन में अज्ञेय को अपदस्थ करके मुक्तिबोध को बैठाना नहीं था। मेरे आकलन में यह था कि मुक्तिबोध को उनका ड्यू मिलना चाहिए और वह ड्यू यही होगा कि इस समय उनका संग्रह छप जाये, उनका स्तम्भ चलता रहे, उनकी कविताएँ प्रकाशित हों।
मैं मुक्तिबोध का किसी साहित्यिक राजनीति के कारण समर्थन नहीं कर रहा था — मैं सहज प्रेम के कारण और उनकी कविताओं की मेरी समझ के कारण कर रहा था। श्रीकान्त भी उनको बड़ा कवि मानते थे, लेकिन वे साहित्यिक राजनीति में उनका थोड़ा उपयोग करना भी ज़रूरी समझ रहे थे। नामवर भी उनको बड़ा कवि मानते थे, लेकिन वह अपनी व्यापक राजनीति, जिसमें अज्ञेय को केन्द्र से अपदस्थ करने का अभियान उन्हीं दिनों चलना शुरू हुआ था, उसमें मुक्तिबोध को एक ‘अच्छे विकल्प’ की तरह इस्तेमाल करना चाहते थे जो उन्होंने किया।
...आगे अगली कड़ी
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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4 टिप्पणियाँ
Muktibodh was a pasthumous celebrity.
जवाब देंहटाएंसंग्रहणीय जानकारी है। अशोक जी से बहुत कुछ ऐसा मिलता है जो कोई अन्य दे नहीं पाएगा, बहुत साफगोई, स्पष्टता है। अगली कड़ी की प्रतीक्षा है। आभार भरत भाई
जवाब देंहटाएंहिन्दी साहित्य में कविता के विकास पर उस समय के रचनाकारों द्वारा सराहनीय प्रयास हुए थे,जितनी पत्रिकाओं का जिक्र किया गया,बहुत कुछ आर्थिक समस्याओं की वजह से बंद हो गई थी,यह भी पाठक वर्ग की या सहयोग की उदासीनता दर्शाता है उस समय भी कितना संघर्ष था इन सभी विधाओं में l
जवाब देंहटाएंमेरे लिए महत्वपूर्ण आलेख है ।next आलेख की प्रतीक्षा।
बहुत सुन्दर
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