Ashok Vajpeyi Autobiography 5
मैंने सलाह भी बहुत दी हैं
Ashok Vajpeyi Autobiography पढ़ें: पहला हिस्सा
जन्म : अगस्त 1972, बीकानेर (राज.) / प्रकाशित-कृतियाँ : तीन कविता-संग्रह। अनुवाद की दो पुस्तकें। चार चित्रकारों के साथ पुस्तकाकार संवाद। साहित्य, संस्कृति, विचार, रंगमंच, ललित कला और लोक-विद्या पर एकाग्र पच्चीस से अधिक पुस्तकों और पाँच पत्रिकाओं का सम्पादन। / सम्प्रति : रज़ा फ़ाउण्डेशन की पत्रिका "स्वरमुद्रा" का सम्पादन और "रज़ा पुस्तक माला" से सम्बद्ध।
रसिकता और दृष्टि
सागर में नामवर जी एक साल रहे—1959-60 में। तब मैं बी.ए. के अन्तिम वर्ष में था। नामवर सिंह में साहित्य की बहुत गहरी रसिकता और समझ थी। वह ज़माना और था जब वह अपनी रसिकता के लिए दृष्टि की बलि दे सकते थे। वह समय था जब नामवर जी दृष्टि पर इसरार करने के बजाय अपनी रसिकता के पक्ष में जाते थे। धीरे-धीरे वह सख़्ती बढ़ी और एक दूरी भी बढ़ी, जब वह रसिकता को अतिक्रमित करके दूसरी तरफ़ जाने लगे।
उनसे ग़ालिब पर चर्चा होती थी। उन दिनों हम लोग सुबह मिलते थे। मैं, रमेशदत्त दुबे और नामवर सिंह सुबह-सुबह घूमने जाते थे। उसमें यह होता था कि हर दिन ग़ालिब पर एक नया शे’र लायेंगे। कभी नामवर जी लाते थे, कभी मैं लाता था, कभी रमेशदत्त दुबे। हममें से किसी को उर्दू लिपि नहीं आती थी।
नामवर जी ने किर्केगार्ड का नाम बताया था। मैंने नाम ही नहीं सुना था। नामवर जी ने ही नाम बताया और किताब पढ़ने को दी। नामवर जी उस समय नये-नये अमरीकी आलोचकों को पढ़ रहे थे।
कविता का भी आत्मसंघर्ष होता है। कवि के आत्मसंघर्ष की बात करते हैं, कविता मात्र का कोई आत्मसंघर्ष होता है? ऐसी एक चिट्ठी मुक्तिबोध को लिखी थी। उन्होंने कहा, यह ठीक है। जब व्याख्यान आ गया तो मैंने श्रीकान्त को “कृति” के लिए भेजा।
मण्डली, रचना और चार अध्यापक
सागर विश्वविद्यालय में हम लोगों की मण्डली ‘समवेत’ की ही मण्डली थी, जिसमें जितेन्द्र कुमार शामिल थे। उन्होंने अंग्रेज़ी में एम.ए.किया था। उनके अपने पिता से कुछ मतभेद हो गये, तो वह छोड़कर आ गये थे। मेरे पिता ने दफ़्तर में क्लर्क की नौकरी दे दी थी। वह एम.ए. भी कर रहे थे और क्लर्की भी कर रहे थे। हमारी मण्डली का विरोध हिन्दी विभाग की मण्डली से था। आचार्यश्री स्वयं विरोधी थे और उनके इर्द-गिर्द के लोग भी। हम लोगों को जो थोड़ा-बहुत प्रोत्साहन और समर्थन मिला, वह श्यामाचरण दुबे, दया कृष्ण और जब नामवर जी आ गये, तो नामवर जी से। विजय चौहान भी थे। चार अध्यापक थे। ये लोग हम लोगों के प्रयत्न को प्रोत्साहित करते थे। हम लोगों ने जो अलग रास्ता अपनाया था उसका औचित्य समझते थे।
श्यामाचरण दुबे उन दिनों बहुत युवा थे। अमरीका से आये थे। 35-36 वर्ष की उम्र थी। पाइप पीते थे। लम्बे थे। विभाग के अध्यक्ष हुए। वहाँ प्रोफ़ेसर हो गये थे। दयाकृष्ण बहुत अच्छे सिद्धान्तकार थे। लेकिन उनकी कविता में रुचि बड़ी विचित्र थी। साहित्य में उनका विशिष्ट कृतियों का चुनाव हम लोगों को बड़ा अटपटा था। जैसे, ‘गुनाहों का देवता’ पर उन्होंने एक आयोजन किया। महादेवी वर्मा के बड़े प्रशंसक थे। सैद्धान्तिक रूप से साहित्य में बारे में उनकी दृष्टि बहुत अच्छी थी, दार्शनिक थी। उन दिनों वह कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम के निकट थे।
अब यह बड़ा विचित्र संयोग था : श्यामाचरण दुबे अमरीका से पढ़कर आये थे। आमतौर पर यह माना जा सकता है कि वे अमरीकापरस्त हैं। दयाकृष्ण कल्चरल फ्रीडम, ‘क्वेस्ट’ पत्रिका वगैरह के निकट थे तो वे साम्यवाद विरोधी हैं! विजय चौहान सुभद्राकुमारी चौहान के बेटे थे। वह एक दूसरे क़िस्म की धारा से आये थे और नामवर सिंह साम्यवादी थे। ये चारों लोग एक साथ बैठे हों और हम लोग भी वहाँ हों, ऐसा याद आता है।
विजय चौहान ने चेखव का एक एकांकी किया था, दिल्ली में विश्वविद्यालयों का एक युवा उत्सव होता था, उसमें। इस नाटक में जितेन्द्र कुमार ने क्लर्क का अभिनय किया था। जब वह नाटक तैयार हो रहा था, एकाएक मुझसे कहा गया कि आप इसमें भाग लीजिए। ऐसा था कि बीच-बीच में भीड़ आती है जिसमें पाँच-छः लोग आ रहे थे, उस भीड़ में मैं भी था। कोई ख़ास भूमिका नहीं थी। श्यामाचरण दुबे ने कहा कि वहाँ तमाम विश्वविद्यालयों के लड़के-लड़कियाँ आते हैं, तो हमारे समूह में एकाध बुद्धिजीवी भी होना चाहिए। तुम बुद्धिजीवी हो इसलिए जाओ। इस तरह का प्रोत्साहन, थोड़ा समर्थन मिलता रहता था।
इन लोगों में एक दर्शन विभाग का, एक राजनीतिशास्त्र का, एक नृतत्त्वशास्त्र का और नामवर जी तो एक ही साल थे, बाक़ी ये लोग तीन-चार साल से थे। दयाकृष्ण दर्शन के और श्यामाचरण दुबे नृतत्त्व शास्त्र के। एक तरह से हम लोगों पर इन सबका थोड़ा-बहुत प्रभाव पड़ा होगा, इनकी अलग-अलग दृष्टियाँ थीं।
श्यामाचरण दुबे मध्य प्रदेश के ही थे। जबलपुर के पास के थे। एक आदिवासी जनजाति पर उनकी पीएच.डी. थी। उनकी पत्नी लीला जी स्वयं बड़ी विदुषी थी। बड़ी शार्प भी थी। थोड़ी मुँहफट भी थी। वह भी पढ़ाती थीं और इस मण्डली का हिस्सा थीं।
दया कृष्ण की पहली पत्नी हमारी अध्यापिका थीं। शैल मायाराम उनकी बेटी है। यह एक तरह की मण्डली थी। “रचना” नाम से हमने जो संस्था बनायी थी उसमें आती-जाती थीं। हम लोगों ने “रचना” में अज्ञेय को भी बुलाया, उनका व्याख्यान रखा। मुक्तिबोध को बुलाया। उन्होंने ‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष’ नामक व्याख्यान दिया। यह विषय मैंने ही सुझाया था। मैंने सोचा था कि उनसे किस विषय पर व्याख्यान देने के लिए कहा जाये। कविता का भी आत्मसंघर्ष होता है। कवि के आत्मसंघर्ष की बात करते हैं, कविता मात्र का कोई आत्मसंघर्ष होता है? ऐसी एक चिट्ठी उन्हें लिखी थी। उन्होंने कहा, यह ठीक है। जब व्याख्यान आ गया तो मैंने श्रीकान्त को “कृति” के लिए भेजा। तब नामवर जी सागर आ चुके थे, हालाँकि उस व्याख्यान के वक्त वह कोलकाता गये हुए थे।
मैंने दया कृष्ण के उस समय के एक लेख का अनुवाद किया था। 1958 की बात है। लेख साहित्य और संवेदना के प्रश्नों को लेकर था। मुझे अपना अनुवाद बहुत अच्छा नहीं लगा था। पर अब जैसा था वैसा था। वह दार्शनिक थे। हिन्दी में दार्शनिक प्रत्ययों या अवधारणाओं को ठीक-ठीक लाना थोड़ा कठिन लगता था क्योंकि मैं दर्शन का विद्यार्थी भी नहीं था।
दया कृष्ण साहित्य में दिलचस्पी लेते थे, हमारे आयोजनों में आते थे और उन्हीं के माध्यम से हमने अज्ञेय को बुलाया। हम लोगों का अज्ञेय से कोई सीधा परिचय नहीं था। उनका था। उन्होंने ही फ़ोन करके उन्हें बुलाया था।
सागर विश्वविद्यालय
उस समय सागर विश्वविद्यालय की बड़ी कीर्ति थी। इसलिए थी कि राधाकृष्णन वेतन आयोग बना था, जिसने विश्वविद्यालय के अध्यापकों के लिए बेहतर वेतनमान प्रस्तावित किये थे। शायद किसी विश्वविद्यालय ने उस पर अमल नहीं किया, सागर विश्वविद्यालय पहला था जिसने अमल किया। सागर विश्वविद्यालय के वेतनमान दूसरे विश्वविद्यालयों से बेहतर थे। एक तो यह आकर्षण बना। दूसरा यह था कि उस समय मध्य प्रदेश में मध्यवर्ग अपेक्षाकृत अविकसित था। शैक्षणिक संस्थाएँ भी बहुत नहीं थीं। ज़्यादातर अध्यापक, इंजीनियर, डॉक्टर सब बाहर से आते थे। उत्तरप्रदेश से, बिहार से, आंध्रप्रदेश से, बंगाल से। हर शहर में एक बंगाली डॉक्टर होता था। हर शहर में एक बंगाली मिष्ठान्न भण्डार होता था। हर इंजीनियर या तो मराठी होता था या आंध्र से या तमिल होता था। इधर के इंजीनियर ही नहीं थे। या बहुत कम थे। हरिसिंह गौर के बाद सागर विश्वविद्यालय के कुलपति इतिहासकार रामप्रसाद त्रिपाठी बने। वे इलाहाबाद से आये थे। वह इलाहाबाद से बहुत लोगों को ले आये। बनारस से कुछ लोग आये, कुछ विज्ञान में आये। बाद में द्वारिकाप्रसाद मिश्र आये। उनमें यह बड़ी अच्छी बात थी कि उन्होंने अच्छे लोगों को लाना शुरू किया। इस तरह के कई नये-नये लोग आये। उस समय सागर विश्वविद्यालय में बड़ी ऊर्जा थी और बहुत बौद्धिक उफान था।
इलाहाबाद और दिल्ली
श्रीकान्त वर्मा से परिचय “समवेत” के दिनों में ही हो गया था। जहाँ तक मेरा ख्याल है, तब वह बिलासपुर में थे और जल्दी ही दिल्ली जाने वाले थे। श्रीकान्त से मैं 1957 में साहित्यकार सम्मेलन, इलाहाबाद में मिला। वह अपना कविता संग्रह ‘भटका मेघ’ लेकर आये थे। जो उस समय नया-नया प्रकाशित हुआ था। आवरण पर रामकुमार का एक रेखांकन था। जनवरी ’58 में आकाशवाणी पर कोई प्रतियोगिता थी, उसके सिलसिले में हम लोग दिल्ली पहली बार गये थे। उसी समय नामवर सिंह दिल्ली आये हुए थे किसी सिलसिले में, तो उनसे भी मुलाक़ात हुई, साहित्यकार सम्मेलन के बाद दिल्ली में। उसी समय “समवेत” मुक्तिबोध के कविता-संग्रह को निकालने की बात हुई होगी। ठीक से याद नहीं है।
‘कृति’ के प्रकाशन का पता पहले ही चल गया था। श्रीकान्त की चिट्ठी आयी थी कि हम पत्रिका निकाल रहे हैं। पहले अंक में आग्नेय की कविताएँ छपी थीं।
योजनाएँ और सलाह
जुलाई 1960 से पहले कभी लिखे गये पत्र में मैंने मुक्तिबोध को कवि सहकार प्रतिष्ठान की योजना के बारे में लिखा था जो मैं जितेन्द्र कुमार के साथ निकालना चाह रहा था। तब तक जितेन्द्र कुमार केन्द्रीय विद्यालय में कहीं अध्यापक हो गये थे। उनकी योजना थी कि नये कवियों की कुछ छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ निकाली जाएँ। तब “पहचान” वाला विचार नहीं बना था। लेकिन यह था कि इस तरह का कुछ किया जाये। हमने न जाने कितनी योजनाएँ बनायीं—कुछ चल गयीं, कुछ नहीं हो सकीं। जो नहीं हो सकीं, उनकी सूची भी बहुत लम्बी है।
मैंने सलाह भी बहुत दी हैं। बिन माँगे सलाह बहुत दी हैं, उन बातों को लेकर जो मुझे सूझती थीं। बाद में यह संयोग अच्छा हो गया कि जो मुझे सूझता था उसको अमल में लाने के साधन भी मुझे मिल गये। बहुत सारी चीज़ें अमल में भी आ गयीं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
००००००००००००००००
0 टिप्पणियाँ