अट नहीं रही है — सूर्यकांत त्रिपाठी निराला Happy Holi



अट नहीं रही है

अट नहीं रही है
आभा फागुन की तन
 सट नहीं रही है।



कहीं साँस लेते हो,
   घर-घर भर देते हो,
      उड़ने को नभ में तुम
          पर-पर कर देते हो,
आँख हटाता हूँ तो
हट नहीं रही है।



पत्तों से लदी डाल
   कहीं हरी, कहीं लाल,
      कहीं पड़ी है उर में
         मंद गंध पुष्प माल,
पाट-पाट शोभा श्री
पट नहीं रही है।



छात्रों के लिए शब्दांकन :
इस कविता में कवि ने वसंत ऋतु की सुंदरता का बखान किया है। वसंत ऋतु का आगमन हिंदी के फगुन महीने में होता है। ऐसे में फागुन की आभा इतनी अधिक है कि वह कहीं समा नहीं पा रही है।

वसंत जब साँस लेता है तो उसकी खुशबू से हर घर भर उठता है। कभी ऐसा लगता है कि बसंत आसमान में उड़ने के लिए अपने पंख फड़फड़ाता है। कवि उस सौंदर्य से अपनी आँखें हटाना चाहता है लेकिन उसकी आँखें हट नहीं रही हैं।

पेड़ों पर नए पत्ते निकल आए हैं, जो कई रंगों के हैं। कहीं-कहीं पर कुछ पेड़ों के गले में लगता है कि भीनी‌-भीनी खुशबू देने वाले फूलों की माला लटकी हुई है। हर तरफ सुंदरता बिखरी पड़ी है और वह इतनी अधिक है कि धरा पर समा नहीं रही है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल Zehaal-e-miskeen makun taghaful زحالِ مسکیں مکن تغافل