जंगलगाथा: वरिष्ठ कथाकार लोकबाबू की बारह कहानियों का संग्रह
समीक्षा: घनश्याम त्रिपाठी
93 ए/4, नेहरु नगर (पूर्व)/ भिलाई नगर (छ.ग.) / मो. नं.-9826474360
हाशिए से उठती ध्वनियों से उपजी मार्मिक कथाएँ
यह संग्रह अपने समय के सामने मनुष्य के संघर्ष, उसकी चारित्रिक विशेषता-विशिष्टता, विश्वास-अंधविश्वास, निर्दोष कमजोरियों व राजनीतिक विडंबना का संवेदनशील दस्तावेज़ है। संग्रह की कहानियों का परिवेश ग्रामीण तथा कस्बाई या नगरीय है। कुछ कहानियों का अंत त्रासद है तो कुछ का सुखद। कहानियाँ अपने कथ्य, शिल्प तथा भाषा के संयोजन में विविधता लिए हुए हैं। इस तरह अपने प्रभाव में व्यापक हैं।
कथाकार की चेतना उदात्त मानवीय मूल्यों के साथ जनवाद के प्रभाव से निर्मित लगती है, वह इस विश्व दृष्टि से आलोक में समाज की तलहटी में हो रही हलचलों और उससे उठती ध्वनियों में विषयवस्तु का कथ्य का चुनाव करता है। फिर इस कथ्य को लगभग निरायास ढंग से बुनकर कथा को यथारूप पाठक के सामने रखकर अलग हो जाता है। इस तरह कथाकार पाठक को कहानी से संवाद स्थापित करने के लिए एक स्पेस प्रदान करता है, कि पाठक स्वयं कहानी के अन्तरसूत्रों की पड़ताल करे और निष्कर्ष तक पहुँचे । इस प्रक्रिया में कथाकार कहानी में विचारों के अतिरिक्त हस्तक्षेप या आरोपण से बचा रहता है। यह कथाकार का आत्मसंघर्ष है और उसकी परिपक्वता भी।
संग्रह की पहली कहानी ‘‘जंगलगाथा‘‘ जिसके नाम पर यह संग्रह है, समाज में धर्म व आस्था के नाम पर फैले अंधविश्वास व जड़ता को पाठकों के सामने रेशा-रेशा खोल कर रख देती है। किषोरवय ‘केशव‘ जो अपने परिवार व जमींदार मालिक से प्रताड़ित होकर अपना जीवन खत्म कर लेना चाहता है, एक दिन गाँव के समीप से गुजर रहे नागा साधुओं के साथ हो लेता है। एक पहाड़ी पर स्थित प्राचीन ऋषि की गुफा के समीप वह जंगल में भटक कर अकेला हो जाता है, तब उसे आस-पास के गाँव वाले उसकी साधुओं की संगत की वजह से इलाके में अपने प्रपंच से सिद्ध महात्मा के रुप में चर्चित कर देते हैं, जिसके न वह लायक है, न चाहत है। गाँव के कम पढ़े-लिखे लोगों के साथ-साथ शहर के पढ़े-लिखे शिक्षक भी इस नए साधु से आशीर्वाद लेने, पूजापाठ व चढ़ावा देने टूट पड़ते हैं। यानी कि यह समाज की भीरुता है जो उसे अपनी मुक्ति के लिए किसी साधु या नए-नए ईश्वर की जरूरत बनी रहती है। लेखक कहानी के अंत में केशव को निर्वस्त्र भागते हुए दिखाता है, यह हमारे समाज के आस्थावादी पाखंड़ी यथार्थ का निर्वस्त्र होना है।
बस्तर अपने जंगल व आदिवासियों के अतिरिक्त हाल के वर्षों में नक्सलियों व पुलिसबल के बीच चल रहे संघर्ष के कारण चर्चा के केन्द्र में रहा है, पर इन दोनों ताकतवर विरोधियों के बीच ज्यादातर आम आदिवासी पिसता ही रहा है। “मुखबिर मोहल्ले का प्रेम” इसी पृष्ठभूमि की कहानी है, जहाँ नायक कोसा होड़ी व नायिका सुकारों के बीच पनपे प्रेम को न तो नक्सली न ही पुलिस वाले शादी तक पहुँचने देते हैं, वे टालते रहते हैं। प्रेमी जोड़ा एक तरफ से उम्मीद खोकर दूसरी तरफ जाता है लेकिन वहाँ भी उन्हें धोखा मिलता है। इस तरह उनका प्यार एक दिन मुखबिरी के भेंट चढ़ जाता है और वे दोनों बारी बारी शहीद कर दिए जाते हैं। लेखक कहता है, ‘‘...मगर मुखबिर मोहल्ले की वह लड़की जिसे पुलिस, नक्सलियों की और नक्सली, पुलिस की मुखबिर समझ रहे थे, किसी की मुखबिर नहीं थी। वह कोसा के प्रेम में पीछे-पीछे चली आई थी...“। वर्तमान बस्तर के भीतरी अँधेरे के यथार्थ को यह कहानी कुचलता के साथ इसलिए भी अभिव्यक्त कर पाई क्योंकि पिछले दिनों कथाकार लोकबाबू का शोधपरक उपन्यास “बस्तर-बस्तर“ साहित्य जगत में खूब चर्चित रहा है।
यह दुनिया यदि एक तरफ बुराई के अंधेरे से घिरी हुई है तो इसी में अच्छाई का उजाला भी दीपक की तरह प्रकाशित है। “होशियार आदमी“ व्यक्ति के आंतरिक उजाले के पहचान की कथा है। कथानायक कोरोना काल की मजबूरी में ग्रामीण फलफूल बेच रहे आटो चालक से फुटकर के अभाव में चालीस रुपये का उधार कर खुद को कर्जदार महसूस करता है, तथा इस संकटपूर्ण समय में उन पैसों को लौटाने बेचैन रहता है। वह पता लगाते-लगाते कार व ड्राइवर कर उस गाँव-घर तक पहुँचता है तथा परिवार की तकलीफ भरी जिंदगी देखकर आटो चालक की अनुपस्थिति में उसकी माता को दो सौ रुपये दे आता है। वह आदमी ड्राइवर से अतिरिक्त पैसे देने की सच्चाई को इस तरह छिपाता है, कि भूलवश ड्राइवर उसे “होशियार आदमी“ समझ बैठता है। संभव है यह घटना कथाकार का अपना निजी अनुभव हो पर अपने निजी अनुभव को सार्वजनिक अनुभव में बदल देने की चुनौती को पार कर जाना एक सफल रचनाकार का कौशल रहा है।
कहानी का संवेदनात्मक अंत उसे लंबी उम्र दे जाता है, ऐसी कहानियाँ पाठक के मन-मस्तिष्क में उतरकर अपनी जगह सुनिश्चित कर लेती हैं। “स्कूटर“ ऐसी ही एक कहानी है। रिश्तों के बीच के आपसी ताप, एक दूसरे की खुशी के लिए अपनी जिद, हठ और लालसा का त्याग, अपनी-अपनी जिम्मेदारियों का बोध आदि जैसे भाव-विचार परिवार को कई शाखाओं वाले वृक्ष की तरह एकजुट रखते हैं, और इस आत्मीय एकता से परिवार अपनी कठिनाइयों का हल निकाल लेता है। एक नवयुवक अपने परिवार से नई मोटर साइकिल के लिए रूठा रहता है। बहन के अनुरोध पर पिता न चाहने के बावजूद बच्चे की खुशी के लिए बाइक खरीद लाते हैं जिसे अंततः लड़के के होने वाले जीजा को शादी में देना पड़ जाता है। घर की परिस्थिति को देखकर वह लड़का बाइक के प्रति अपने मोह को त्याग देता है व खुशी- खुशी घर की पुरानी स्कूटर को अपना लेता है।
एक दक्ष या अनुभवी कथाकार जीवन जगत की सामान्य परिस्थिति में भी कथा के सूत्र ढूंढ़ लेता है “एक दिन का कारोबार“ कुछ इसी तरह की कहानी है जिसका कि प्लॉट थोड़ा हटकर है। किसी संकटपूर्ण समय में भी व्यापार से जुड़े लोग अपनी मूल्यहीनता से चिपके रहते हैं, इस विडम्बना को कहानी बेहतर ढंग से उजागर करती है। युवा लंपटता व दिशाहीनता इस बोध को और तीखा किए रहती है, जो एक बुढ़िया के श्रम व सामान को लूट खाने में खुशी का अनुभव करते हैं। इस कहानी में दृश्यों का चित्रण इतना जीवंत है कि जैसे पूरी कहानी आँखों के सामने से गुजरती जा रही हो।
कहानी “चोर अंकल“ की शुरूआत इस पैराग्राफ से होती है “शहर में उन दिनों चड्ढी-बनियान वाले चोरों का बड़ा आतंक था... मंदी, गरीबी और बेरोजगारी की मार ने इनकी संख्या में इजाफा किया था।“ यह कहानी एक बुजुर्ग चोर और एक पाँचवीं पढ़ती बच्ची के बीच के तात्कालिक करुण संबंधों पर है जो बच्ची के घर में चोरी के दौरान पनपते हैं। आगे चलकर वे एक दूसरे की बात मानते हैं व बचाव करते हैं। चूंकि बूढ़ा व्यक्ति अपनी पारिवारिक मजबूरियां के कारण चोर बना इस कारण उसमें मनुष्यता के कुछ गुण बचे रह जाते हैं। यदि व्यक्ति को ढ़ंग से रोजी-रोजगार मिले जिससे उसकी जीवनयापन की समस्या का निवारण हो सके तो शायद ही कोई चोरी के गर्हित पेशे की तरफ आगे बढ़ेगा। इस कहानी के मूल में यही मर्म है। इसी तरह “दद्दू का बेटा“ पिता और पुत्र की उम्र के दो अजनबी पात्रों के बीच उमड़ते-उमगते वात्सल्य या प्रेम की कहानी है। अविवाहित बस ड्राइवर दद्दू एक लावारिस से बच्चे को जो होटल में बालश्रमिक है की दुर्दशा को देख उसे अपना लेने व शिक्षा से संस्कारित नया जीवन देने संकल्पित हो उठता है। प्रेम व विश्वास से बने इस संबंध के बीच धर्म बाधक नहीं बन पाता वह कहीं पीछे छूट जाता है। यह कहानी भी अपने समग्र प्रभाव में बेहद संवेदनशील बन पड़ी है।
एक छोटे किसान का मजदूर में बदल जाना, फिर उस सर्वहारा का विषम परिस्थितियों से लगातार संघर्ष और अंत में उसका टूट जाना, बच्चों को खत्म कर खुद आत्महत्या कर लेना। “मुजरिम“ कहानी का यह दारुण प्रसंग समकालीन भारत का भयावह यथार्थ है। कहानी प्रश्न उठाती है कि इन हत्याओं का वास्तविक मुजरिम कौन है, लाखों किसानों की आत्महत्याओं का कौन दोषी है? यदि इस कहानी को वैश्विक परिदृश्य में रखकर देखा जाए तो कहा जाएगा कि यह पूँजीवाद के विस्तार के हथियार उदारीकरण-भूमंडलीकरण के प्रभाव का स्थानीय प्रतिफलन है।
नशा एक सीमा के बाद अपने एडिक्ट का दुश्मन बन जाता है। सरदार प्यारा सिंह शराब के नशे में धुत होने पर अपने पुत्र को न कुछ की बात पर दुश्मन की तरह सबक सिखाने तत्पर हो उठता है। “दुश्मन“ नशा के प्रति जागरूक करती एक सामाजिक शिक्षण की कहानी है।
मजदूर आन्दोलन से जुड़े आदमी या श्रमिकों के बीच काम कर रहे कामरेड की मृत्यु सामान्य मौत की तरह केवल शोक में डूबी हुई नहीं हो सकती। मृत्यु-उपरांत अपने साथी कामरेड के संघर्षों की याद शोकग्रस्त माहौल को जश्न में बदल देती है। इस तरह ‘‘जश्न‘‘ कहानी प्रतिबद्ध कामरेडों की गौरव गाथा का खूबसूरत आख्यान है।
‘‘मेमना‘‘ कथाकार की चर्चित व सशक्त कहानी में से एक है। इसका समय-काल अस्सी के दशक का है जब आदमी में बदलाव व संघर्ष का स्वप्न आज की तरह धुंधला व शिथिल न पड़ा था, एक आशा व उम्मीद बनी हुई थी। समाज में तथा संघर्षशील दस्तों में आज जैसी पस्ती घर नहीं किए थी। मजदूर और किसान संघर्ष और प्रतिरोध के दो मजबूत आधार स्तंभ थे। इस कहानी में हवा में उड़ती हुई शहरी लंपटता को ग्रामीण किसान का सशक्त प्रतिरोध जमीन पर ला देता है।
रेलगाड़ी की उस जगह की शेष सवारियाँ शहरी लड़कों के अभद्र व्यवहार के कारण किसान से सहानुभूति रखती हैं और संघर्ष के दौरान उसके मेमने को सम्हाले रखती हैं जो साथ-साथ सफर में था। जनता बुनियादी रुप से लंपटता या बुराई के खिलाफ रही है। हलांकि इनके विरुद्ध कभी-कभी जरूरी साहस नहीं जुटा पाती । आदिम समाज से लेकर वर्तमान समय तक जरूरी प्रतिरोध की उपस्थिति दबी छिपी ही सही हर समय रही है, एक सफल रचनाकार उसे पहचान कर या उभार कर समय और समाज के लिए महत्वपूर्ण बना देता है, प्रेरणाप्रद भी ।
संग्रह की कहानियों में कथाकार की सक्रिय वर्ग चेतना बीच-बीच जरूरी हस्तक्षेप करती रहती है, जैसे कि मेमना कहानी का यह वाक्य ‘‘जनता को अपनी रेल यात्रा बहुत दिनों तक याद रहती थी और अफसरों व धनिकों को पता ही नहीं चलता था कि वे रेल यात्रा कर लौटे हैं या घर में ही थे‘‘, यहाँ कथाकार सामान्य श्रेणी और आरक्षित श्रेणी की यात्रा के बीच के फर्क को स्पष्ट कर रहा है।
बच्चों का मन-मस्तिष्क अपने अभिभावकों की तरह दुनियादारी के कचरे से भरे होने से बचा रहता है। वे शीघ्र ही अपनी लापरवाही या भूल-गलती को समझ लेते हैं साथ ही साथ उसके सुधार व रुपान्तरण में उठ खड़े होते है। संग्रह की अंतिम कहानी ‘‘व्हाइट कैप‘‘ में कुछ शहरी बच्चे गांव के आए एक मजदूर परिवार के बच्चे की उपेक्षा व उपहास किया करते हैं। जबकि उपेक्षित बच्चा इन्हीं शहरी बच्चों के आपसी खेलकूद में काम आता रहता है। निर्माणाधीन मकान की छत पर जा पहुंची गेंद को निकालने के दौरान जब वह बुरी तरह घायल हो जाता है तब शहरी बच्चे अधीर हो उठते हैं और उसके लिए कुछ करने की ठान लेते हैं। अपने खेल का सामान बैट, बाल, व्हाइट कैप और शील्ड उस दुर्घटनाग्रस्त बच्चे को सौंपकर जो अपने परिवार सहित आटो से गाँव जा रहा होता है एक विजेता की तरह विदा करते हैं। दोस्ती व बाल-प्रेम के अबूझ रिश्ते की यह एक मार्मिक कहानी है।
इस लोकतंत्र के शक्तिकेन्द्रों से बाहर हुआ समाज का पिछड़ा, अतिपिछड़ा तबका मीडिया से भी बाहर कर दिए जाने के कगार पर है। ऐसे में कथाकार का समाज के उसी हासिए से कहानियों का चयन आज के दौर में साहित्य की प्रासंगिकता को रेखांकित करता है। संग्रह की कहानियों में लोकभाषा का समावेश चित्रण को जीवंत कर वास्तविक बना देता है। लोकबाबू कथा के आदिमरूप के शिल्पकार हैं जैसे कोई बाप-पुरखा अपनी संततियों को समीप बिठाकर कहानी सुना रहा हो।
ज्ञान और संवेदना से गुथी-बिंधी संग्रह ‘‘जंगल गाथा‘‘ की ये यर्थाथपरक कहानियाँ जो अपने आस-पास और समाज के तल छट से उठाई गई हैं अपने सजीव चित्रण व रुपगत विशेषताओं की परिधि में पाठक को पूरी तरह अपने आग़ोश या गिरफ्त में ले लेती हैं, तथा ऐसा कुछ दे जाती हैं जिसे देखे, समझे या उससे टकराए बगैर एक स्वस्थ और बेहतर दुनिया की कल्पना असंभव है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
जंगलगाथा
भाषा: हिंदी
बाइंडिंग: पेपरबैक
प्रकाशक: राजपाल एंड संस
शैली: कथा/लघु कथाएँ
आईएसबीएन: 9789393267450
पृष्ठ: 160
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1 टिप्पणियाँ
बहुत सुन्दर समीक्षा
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