सितारों के बीच टँका है एक घर – उमा शंकर चौधरी




कहते हैं कि जिन लोगों की फ़िल्मों के भावुक दृश्यों पर आँख नम हो जाती है, वो बड़े संवेदनशील होते हैं... पहले तो वे कहानीकार की बात नहीं करते और उसके बाद वो यह भी नहीं बताते कि जिसने वह सब रचा होगा, वह कितना संवेदनशील होगा।

चूंकि कोई मान्यता प्राप्त आलोचक तो हूँ नहीं। हिन्दी का एक प्रेमी भर हूँ, इसलिए भी और अन्यथा भी, किसी रचना पर लंबी टिप्पणी से दूर रहना अच्छा लगता है। लेकिन (फिर से एक बार) कभी कोई ऐसी कृति से पाला पड़े जो आपको ज़्यादा झाँकझोरे, तो फिर रुकते कहाँ बनता है। बाज़ दफ़ा उस कृति की चर्चा उन लोगों से ज़रूर होती है जो उसके संभावित चाहने वाले हो सकते हों – बीते कुछ महीनों में पहले उपन्यास ‘छोटू और उसकी दुनिया’ (पेरुमल मुरुगन, हिन्दी अनुवाद: मोहन वर्मा), उसके बाद फ़िल्म ‘मेयाझगन’ (लेखक: सी. प्रेम कुमार), और अब जब लंबी कहानी ‘सितारों के बीच टँका है एक घर’ (लेखक: उमा शंकर चौधरी) ने भीतर तक पहुँच कर एक बार फिर मुझे कुलबुला दिया, तो यह टिप्पणी लिख गई।

लंबी कहानी को बरत पाना आसान नहीं होता। ये पाठक चूंकि उमा शंकर के लेखन का चाहने वाला रहा है, इसलिए उसे कहानी की शुरुआत में थोड़ा-सा ये डर लगा कि कहीं उसकी चाहत में कमी न आ जाए। भला हो लेखक का कि उसने ऐसे दृश्य रचने शुरू किए कि कहानी रूह में उतरते हुए, आँखों में नमी बन निकलती।

अपने गाँव को छोड़कर किसी महानगर में ज़िंदगी बसर करने वाले और उसके परिवार का उस छूट चुके परिवेश, परिवार और परंपरा को सच में छोड़ पाना कैसा होता होगा? क्या कोई घर महज़ ईंट-मिट्टी-गारा-लकड़ी-लोहा-चूना होता है या आला-दरवाज़ा-आँगन और सारा-का-सारा बचपन?

जब कहानी पढ़ लें और पसंद आए (झाँकझोरे), तो संभावित चाहने वालों को ज़रूर बतला दीजिएगा और आगे जब कोई जब कभी उमा शंकर चौधरी की इस कहानी पर फ़िल्म बनाएगा तब कहिएगा कि मैंने इसे शब्दांकन पर पढ़ा है।

कहानी

सितारों के बीच टँका है एक घर

उमा शंकर चौधरी

एक

अभिजीत अपने ऑफिस में बैठा है और उसके सामने लैपटॉप में ढेर सारी फाइलें खुली हुई हैं। उसका यह ऑफिस गुड़गांव में स्थित है। यह एक ऊंची-सी बिल्डिंग है जिसके नँवे फ्लोर पर उसका यह ऑफिस है। उस ऑफिस में उसके जैसे ढेर सारे इम्पलाइज़ हैं। अभिजीत जहां बैठा है वहां ठीक सामने बड़ा-सा शीशा लगा है। उस शीशे के बाहर गुनगुनी धूप निकली हुई है। उस हॉल में कई एयरकंडीशनर मिलकर अंदर तापमान को सहज बनाए हुए हैं। उस शीशे से या तो बाहर की धूप दिख रही थी या फिर अलग अलग बिल्डिंग का ऊपरी सिरा। अभिजीत कोशिश करता रहता है कि वह लगातार लैपटॉप पर नजरें गड़ा कर ना रहे। इसलिए वह हर आधे-एक घंटे पर थोड़ा विश्राम लेता है और अपनी कुर्सी पर रिलैक्स होता है। कुर्सी पर पीछे की तरफ अपने को छोड़ता है और कुर्सी थोड़ा-सा बेन्ड होकर उसे झूले का अहसास करवाती है। इस बीच वह हमेशा बाहर देखता है। उसे बाहर देखना, धूप को महसूस करना अच्छा लगता है। वह बार-बार यह सोचता है कि वह इस मामले में खुशकिस्मत है कि उसके बैठने की जगह वहाँ है जहाँ से बाहर आसमान दिखता है। नहीं तो उस हॉल में कुर्सियों की हालत प्रायः यह है कि उनके सामने या तो दीवार है या फिर ऑफिस के भीतर की तमाम कुर्सियां। अभिजीत हमेशा यह सोचता है और घबराता है कि अब जब इस पोस्ट से उसका प्रोमोशन होगा तब उसे केबिन मिलेगा। यह उसके लिए खुशी से ज्यादा दुख की बात है। केबिन मतलब घुटी हुई ज़िन्दगी। वह सोचता है कि यही ज़िन्दगी क्या कम घुटी हुई है कि इससे भी ज्यादा जीवन को बांध दो।

आज शुक्रवार है और अमूमन अभिजीत इस दिन थोड़ा रिलैक्स रहता है। उसे मालूम रहता है कि कल नंदिनी की भी छुट्टी है और दोनों बच्चों के स्कूल की भी छुट्टी। परन्तु आज ऐसा है नहीं। उसे यह पता है कि उसके पास अभी जो असाइनमेंट है उसके लिए अपनी टीम के साथ उसे कल भी आना है। शीशे के पार देखकर वह यह सोच रहा है कि कल बच्चों की छुट्टी है तो उन्हें वह मॉल घुमा लाता लेकिन ऑफिस आने के इस झमेले ने उसे बांध दिया है। अभिजीत अभी इन्हीं सब बातांे में उलझा था कि उसका मोबाइल बजा। मोबाइल पर दामोदर लिखा हुआ आ रहा था। पिछले पंद्रह दिनों से अभिजीत को जिस फोन के आने का अंदेशा था, यह वही फोन था। फोन सामने डेस्क पर लैपटॉप के बगल में रखा था और वह बाहर देख रहा था। उसने मोबाइल की स्क्रीन पर नाम पढ़ा और फिर पता नहीं क्यों बाहर की ओर देखने लगा। मोबाइल वाइब्रेशन मोड में था इसलिए उसके थरथराने की हल्की आवाज़ आती रही। वह इस फोन को चाहता था या नहीं इसे ठीक-ठीक वह भी डिसाइड नहीं कर पा रहा था।

वह बाहर देखता रहा और मोबाइल थरथराकर शांत हो गया। अभिजीत पर कोई फर्क नहीं पड़ा। वह बाहर देखता रहा। लेकिन तुरंत ही मोबाइल दोबारा बज गया। उस थरथराहट ने अभिजीत को बेचैन कर दिया। उसने मोबाइल की तरफ देखना भी नहीं चाहा। फोन बजता रहा और वह बाहर देखता रहा। लेकिन फिर उसे लगा, यह ठीक नहीं है। उसने मोबाइल को उठाया और हॉल से बाहर निकलना चाहा। परन्तु फोन की थरथराहट फिर से खत्म हो गयी थी। वह अपनी सीट से उठ चुका था। टहलते हुए बाहर जाने की बजाय वह उलटी दिशा में उस शीशे की तरफ चला गया। वह शीशे के करीब जाकर उससे एकदम सट गया। उसने शीशे से नीचे देखना चाहा। वह वहाँ से शायद अपनी बिल्डिंग की जड़ देखना चाहता था, जो संभव नहीं हो पा रहा था। उसने ऐसा करने की कोशिश में अपने आप को शीशे से एकदम से चिपका लिया था। अचानक उसे अहसास हुआ कि वह ऑफिस में है और यह बहुत ही ऑकवर्ड है। उसने अपने मोबाइल की तरफ देखा। शायद वह फोन के बजने का इंतजार कर रहा था। फिर वह झटके से बाहर निकल गया और उसने खुद फोन मिलाया। लौटकर आने के बाद अपनी डेस्क के पास आकर वह खड़ा हो गया। उसने वहीं से उस शीशे को देखा। उसे शीशे के पार कोई कीड़े जैसा दिखाई दिया। वह फिर से वहाँ पहुँचा। उसने शीशे के पार के कीड़े को समझना चाहा। परन्तु वह कीड़ा नहीं था। उसने आसमान की तरफ सिर उठाकर देखा। उसने तारों को ढूँढना चाहा। लेकिन वहाँ सिर्फ बादल दिखे। तारे अभी वहाँ नहीं थे।

लौटकर वह अपनी कुर्सी पर बैठ गया। उसे ऐसा लगा कि शीशे पर अब धुंध आ गयी है। यह बहुत अजीब था। उसने अपनी आंखों को मसला। उसने बाहर देखा, उसे अचानक ठंड लगने लगी। उसने अपने आप को अपने में समेट लेना चाहा।

अभिजीत जब शाम को घर पहुँचा तो आज वह नियत समय से थोड़ा लेट था। नंदिनी ऑफिस से आ चुकी थी। सामान्यतया नंदिनी शाम के साढ़े पांच तक ऑफिस से आ जाती है और अभिजीत साढे छः तक। आज उसे आने में आठ बज गए। अमूमन शुक्रवार को अभिजीत नंदिनी के साथ फुरसत से बैठकर घर के जरूरी मसलों पर या कुछ योजनाओं पर बात करता है। परन्तु आज बात करने को उसने मुल्तवी किया। बड़ी बेटी इशिका नवीं कक्षा में है और उसके फाइनल एग्ज़ाम करीब हैं। दूसरी बेटी अवनी छठी कक्षा में है। परीक्षा तो उसकी भी नज़दीक ही है परन्तु वह अभी छठी में है तो तनाव बनिस्पत कम है। जब अभिजीत घर पहुँचा, नंदिनी दोनों बच्चों के साथ उनके स्टडी रूम में थी। दरवाज़ा सुनीता ने खोला था, जो अभी खाना बना रही थी। नंदिनी ने स्टडी रूम से ही सुनीता को आवाज़ दी कि वह भैया को पानी दे दे। सुनीता ने पानी का गिलास डाइनिंग पर रखा और वह रसोई में चली गयी। अभिजीत ने पानी के गिलास को देखा। वह डाइनिंग टेबल के पास कुर्सी के सहारे खड़े होकर गिलास के ऊपरी किनारे पर उंगली घुमाने लगा। थोड़ी देर तक ऐसा करने के बाद उसे खुद ही बहुत अजीब लगा। फिर वह अपने कमरे में फ्रेश होने चला गया।

अभिजीत बच्चों के कमरे में आया तो दोनों बच्चियां पढ़ रही थीं। दोनों ने पापा को याद दिलाया कि कल शनिवार है और अभिजीत के यह कहने पर कि कल उसे ऑफिस जाना है, दोनों उदास हो गयीं। नंदिनी ने महसूस किया कि अभिजीत कुछ अनमना-सा है। उसने कारण जानना चाहा। अभिजीत ने कहा आज तो शुक्रवार है। नंदिनी ने समझ लिया कि अब बात रविवार को ही होगी।


'सितारों के बीच टँका है एक घर' पर अमर उजाला में टिप्पणी (भरत तिवारी)

दो

यह घर आकाश में सितारों के बीच टँगा हुआ वह घर है जिसमें अभिजीत का बचपन गुज़रा है। बचपन क्या गुज़रा, यहीं जन्म हुआ। यहीं उसने खड़ा होना सीखा, चलना सीखा, बोलना सीखा। यहीं माता-पिता की स्मृतियां हैं। यहीं आस-पड़ोस के अपने लोग हैं। अपनी भाषा है। अपनी पहचान है। अपनी रवायत है। जब भी मन उदास होता है यहां दिल्ली में बैठा अभिजीत आसमान की तरफ अपनी आंखें उठाकर अपने इस घर को इन सितारों के बीच ढ़ूंढ लेता है।

जिस रेलवे स्टेशन पर अभिजीत उतरता है वहाँ से उसका गाँव लगभग चालीस किलोमीटर दूर है। वह रेलवे स्टेशन से बस लेता है और बस से उतरने के बाद भी लगभग छः किलोमीटर उसे रिक्शे या तांगे से जाना होता है। अब तो पिछले कुछ वर्षों में सड़क बन गयी है, नहीं तो लगभग एक किलोमीटर तो रोड नहीं होने के कारण गाँव में पैदल ही प्रवेश करना होता था।

अभिजीत का यह गाँव बाइस टोलों में बँटा है। जिस टोले में उसका घर है एक तरफ से देखें तो वह अंत है और दूसरी तरफ से देखें तो एकदम शुरुआत।

अभिजीत के दादा का निधन कम उम्र में हुआ और अभिजीत के पिता घर के बड़े बेटे थे। जब दादा का निधन हुआ तब अभिजीत के पिता, जिन्हें अभिजीत ने हमेशा बाबूजी कहा, की उम्र यही अठारह वर्ष के करीब रही होगी। इंटरमीडिएट की पढ़ाई वे कर रहे थे। लेकिन पिता के निधन ने उनकी पढ़ाई को बाधित कर दिया। अभिजीत के पिता के बाद दो छोटे भाई थे और तीन बहनें। एक बहन बड़ी थी और उनकी शादी हो चुकी थी। पिता पर तब दो छोटे भाइयों और दो बहनों की ज़िम्मेदारी आ गयी। कुछ खेत ज़रूर थे लेकिन वे इतने पर्याप्त नहीं थे कि बहुत आराम से यह परिवार इस आपदा को झेल लेता। पिता की पढ़ाई जबरन खत्म हुई और सबसे पहली समस्या इस घर को चलाने की आई। धीरे-धीरे वक्त बीतते-बीतते सभी भाइयों को सेटल करते हुए, बहनों की शादी करते हुए अपने परिवार को भी उन्होंने आगे बढ़ाया। अभिजीत इस बात को जानता है कि पिता ने अपने जीवन में बहुत संघर्ष किया है और इस संघर्ष में सदा उसकी माँ उनके साथ रही। वक्त बीता तो चाचा अपने-अपने परिवार के साथ अलग हुए, बुआएं अपने-अपने ससुराल चली गईं।

पिता पढ़ने में काफी तेज थे और अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाने का उन्हें बहुत मलाल था। लेकिन इस पढ़ाई ने ही उनके जीवन को आगे सँवारा। पिता अमीन बन पाए तो इसके लिए उनके पास कोई डिग्री नहीं थी या उनकी ऐसी कोई नौकरी नहीं लग गई थी। अमीन थे नहीं, बल्कि अमीन कहे जाने लगे। ज़मीन की नपाई के सिद्धहस्त। परन्तु वे सिद्धहस्त इतने थे कि लोग अपनी ज़मीन की नपाई के लिए उन्हें अवश्य याद करते थे। ज़मीन की नपाई की उन्हें इतनी समझ थी कि सरकारी अमीन भी अक्सर उनसे सलाह-मशविरा लेते थे। दूर-दूर के गाँवों में भी ज़मीन को लेकर कोई विवाद हो तो लोग अभिजीत के पिता पर ही भरोसा करते थे। चूंकि पिता पढ़ने में खुद बहुत ज़हीन रहे थे इसलिए उन्होंने अपने बच्चों की पढ़ाई को हमेशा केन्द्र में रखा। गाँव में लड़कियों के पढ़ने का तब उतना माहौल नहीं था लेकिन उन्होंने अपनी दोनों बेटियों की ना केवल स्कूल की पढ़ाई पूरी करवाई बल्कि कॉलेज पूरा करवाया और बीएड करवा कर दोनों बेटियों को सेटल करवाया। दोनों बेटियां शिक्षिका बनीं। अपनी कमाई से पिता ने जो कुछ बचाया उससे उन्होंने कुछ ज़मीन खरीदी और अपने इस घर को ठीक-ठाक बना लिया। ज़मीन बेटियों को पढ़ाने से लेकर उनकी शादी तक में काम आयी। दोनों बेटियां अच्छे घरों में ब्याही गयीं तो मां-पिता के जीवन में सुकून आ गया। इसी ज़मीन के पैसों से अभिजीत ने पहले छोटे शहर और बाद में दिल्ली में अपनी पढ़ाई पूरी की और अब वह गुड़गाँव में बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनी में अच्छे ओहदे पर नौकरी कर रहा है।

यह घर पहले जितना बड़ा था, अभिजीत के पिता ने उसे विस्तार दिया था। तीनों भाइयों यानि पिता के अतिरिक्त दोनों भाइयों ने भी आगे चलकर अपना घर बनाया। तीनों घर ऐसे थे कि सामने से सारे घर अलग-अलग लेकिन घर का पिछला हिस्सा तीनों का एक साथ मिला हुआ। अभिजीत के पिता जितनी अच्छी तरह से जमीन को नापते-जोखते थे उतनी ही अच्छी तरह से वे उस ज़मीन से उगने वाले पौधों को प्यार भी करते थे। अभिजीत का जो यह पुश्तैनी घर था इसके अब तीन हिस्से होकर सभी ने अपनी सहूलियत के हिसाब से घर बना लिया है। पुश्तैनी कुआँ अभिजीत के घर के सामने था इसलिए यह उनके हिस्से ही आया। अभिजीत के पिता ने अब अपने पैसों से अपने घर के साथ की ज़मीन भी खरीद ली थी। यह ज़मीन उनके घर के साथ लगा हुई थी इसलिए अब वह घर से एकदम से जुड़ गयी थी। एक तरह से यह ज़मीन अब उस घर का आँगन था और बगीचा भी।

तीन

यह बगीचा अभिजीत के पिता के दिल के बहुत करीब था और इसे उन्होंने बहुत करीने से संजोया था। इस घर के एक तरफ रास्ता था। एक तरफ बराबर में यह बड़ा-सा बगीचा और पीछे की तरफ एक और आंगन जो इस घर को अन्य भाइयों के परिवार से और कुछ और साथ के परिवारों से जोड़ता था। कुछ और परिवार भी एक तरह से विस्तारित परिवार ही था जिसे इधर गोतिया कहा जाता है। यानि दादा के दूसरे-तीसरे भाई का परिवार या फिर दादा के भी पिता के बच्चों का परिवार आदि-आदि। पिता ने अपनी अमीनी के अलावा सबसे ज़्यादा वक्त इस बगीचे को ही दिया। उन्होंने जब यह ज़मीन खरीदी थी तब अभिजीत का जन्म नहीं हुआ था। दोनों बेटियों का जन्म हो गया था। यह बगीचा तब एकदम बंजर था, पिता ने इसमें अमरूद, आम, अनार, नींबू और केले के पेड़ लगाए। कुछेक वर्षों में ही यह बगीचा एकदम से हरा-भरा हो गया। बगीचे में ये सारे पेड़ पीछे की तरफ थे। शुरू में, जिसे इस घर का एक तरफ का आँगन भी कहा जाए, वहाँ सबसे पहले एक ओर दो गायों को पाला जाता था और दूसरी तरफ से कुछ पीछे तक हरी सब्ज़ियां लगायी जाती थीं। पिता हमेशा अपने इस आँगन में गाय रखा करते थे। और अपने इस बगीचे में इतनी सब्ज़ियां वे अवश्य तैयार कर लेते थे कि उन्हें कभी बाज़ार से सब्ज़ी खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती थी।

अभिजीत अपने घर में सबसे छोटा था तो उसे बहुत प्यार मिला। उसकी माँ ने उसका एक प्यारा-सा नाम रखा था - अन्नु। उसकी माँ उसे अन्नु बुलाती थी और डेढ़ साल का अन्नु पाँव में पायल पहने हुए रुनझुन-रुनझुन करता हुआ माँ के पास आ जाता था। वह अपनी इसी पायल के साथ पीछे के आँगन में खूब मटका करता था। बीच वाली चाची उसे कन्हैया कहती थी और कहती ही नहीं थी बल्कि ऐसा मानकर उसे माखन भी खिलाती थी। अन्नु बचपन में पेड़ा खाने का बहुत शौकीन था। छोटी चाची उसके लिए अपने हाथों से पेड़ा बनाती थी अपने घर में शीशे की बरनी में उसे संभालकर रखती थी। बड़े वाले चाचा उसे कहानियां सुनाते थे। अन्नु कब कहाँ है, किसी को नहीं पता। कभी इस घर, तो कभी उस घर। इन तीनों घरों से बाहर निकलकर भी ढ़ेर सारे गोतिया-दियाद का घर था। वह कभी इनके साथ, तो कभी उनके साथ। जब अंधेरा घिरने को होता तब ढूँढा जाता कि अन्नु है कहाँ। अन्नु कभी किसी चाचा के घर में मिलता तो कभी बाहर दालान पर।

अन्नु जब बड़ा होने लगा तब वह कभी अपने पिता की उंगली पकड़कर, तो कभी अपनी माँ या बहन की उंगली पकड़ कर इस बगीचे में आता था। उसकी माँ बाद में इस बगीचे को दिखलाकर बतलाती थी कि एक बार पिता ने खेलने के लिए उसे एक प्लास्टिक की छोटी-सी बाल्टी खरीद दी थी। उस बाल्टी को लेकर अन्नु इस बगीचे में पहुँच जाता था और बैगन के छोटे-छोटे पौधों में लगे फूल को तोड़कर बाल्टी में भर लेता था। वह बाल्टी लेकर खुशी के साथ माँ को दिखलाता, माँ गुस्सा होती कि सारी सब्ज़ी बर्बाद कर दी। माँ को लगता था कि पिता बहुत गुस्सा करेंगे लेकिन वह पिता जो अपनी अमीनी के बाद सबसे अधिक इस बगीचे को प्यार करते थे, गुस्सा करने के बदले बेटे की इस भोली हरकर पर मुस्कुरा देते थे। कहते थे ‘बच्चों की खुशी से बढ़कर कुछ भी नहीं।’

अभिजीत को यह तो याद है कि एक छोटी-सी गाय वर्षों तक यहाँ रही थी जिसका नाम उसने गन्नु रखा था। अन्नु की दोस्त गन्नु। वह स्कूल जाते वक्त हर दिन उससे गले अवश्य मिलता था। गाय जहाँ बंधी रहती थी वहाँ एक मचान था। थोड़ा स बड़े होने पर अन्नु उस मचान पर चढ़ बैठता था। गाय से बातें करता था, अमरूद खाता था और तितलियों से बातें किया करता था। पेड़ों पर चिड़ियों की चहचहाहट की आवाज़ थी। अन्नु उस आवाज को सुनता था और उसमें खो जाता था। बाबूजी अपने हाथों से गाय को दुहते थे। सुबह और शाम। सुबह तो अन्नु के लिए संभव नहीं था। लेकिन शाम को अन्नु गाय दुहने में प्रायः पिता के साथ रहता था। वह गाय को सहलाता था, गाय उसके हाथ को अपनी जीभ से चाटती थी। यहाँ अन्नु के संग-साथ के कई बच्चे थे, कुछ उससे बड़े तो कुछ उससे छोटे। अन्नु ने इस बगीचे में खूब छुपम-छुपाई खेला है। अन्नु ने केले के पेड़ से यहाँ पकते हुए केले को अपने हाथों से तोड़ा है और अपने साथियों के साथ खाया है।

यह मचान उसका स्टडी रूम भी था। वह वहां पढ़ने बैठता था। वह पढ़ता था तो सारी चिड़िया खामोश हो जाती थीं। अन्नु को वैसे यह डर हमेशा लगता था कि अमरूद के पेड़ पर भूत होते हैं परन्तु कभी-कभी वह अपनी बड़ी बहनों के साथ रात में इधर आया करता था। रात में इन पेड़ों पर जुगनू होते थे। वह अक्सर सोचता कि दिन में ये जुगनू किधर चले जाते हैं। घर के बाहर जो कुआँ है, अन्नु के लिए वह रहस्य था। अन्नु के पिता वहीं नहाते थे। उनके चाचा भी कई बार वहाँ नहाते थे। कई लोग वहाँ से पानी खींचते थे। अन्नु उस कुएँ की जगत पर बैठकर सोचता कि यह पानी आता कहाँ से है। कौन भरता है रोज़ इसमें पानी। कुएँ के भीतर वह झांकता तो सूरज की रोशनी में पानी चमक रहा होता। उसे लगता रात के बगीचे वाले सारे जुगनुओं का घर यही है। वह कुएँ के भीतर आवाज लगाता और उधर से जुगनुओं की आवाज आती। अन्नु ने अपने पिता को कई ज़मीनों की नापी करते देखा है। वह सोचता है यदि इस कुएँ का बीचों-बीच नापी कर दिया जाए तो आधा पानी इधर हो जाएगा और आधा उधर।

चार

इसी घर से दोनों बहनों की शादी हुई। बहनों की शादी में इस घर को ऐसे सजाया गया जैसे यह उसका घर नहीं हो, इसे सीधे आसमान से उतारा गया हो। जब बड़ी बहन की शादी हुई तब अभिजीत छठी कक्षा में पढ़ता था। कुएँ के बगल से शामियाना लगा। कुएँ को घेर दिया गया कि वह दिखे नहीं। शामियाना टंग रहा था तब अन्नु को मालूम था कि यहाँ जैनेरेटर भी आएगा। मर्करी भी लगेगी। उसने कई शादियों में देख रखा था। भुकभुक करता हुआ बल्ब। लेकिन वह इंतज़ार करता रहा था। जैनेरेटर नहीं आया। पैट्रोमैक्स में शादी! शादी का सारा काम बड़े चाचा देख रहे थे। अन्नु बड़े चाचा के कुर्ते से लटक गया था। लाइट तो लगा दो चाचा। लेकिन चाचा टस से मस नहीं हुए। पिता ने कहा, यह सब तो भाई ही जाने।

शादी भले ही पैट्रोमैक्स की रोशनी में हुई पर दीदी सच में विदा होने लगी। दीदी जब विदा होने लगी तो अन्नु को लगा वह पछाड़ खाकर गिर पड़ेगा। दीदी चली गयी तो दूसरी वाली दीदी की पिटाई से बचाएगा कौन? दीदी चली गयी तो पढ़ने में मदद कौन करेगा? दीदी चली गयी तो खेल कर देर से लौटने पर पिता की नज़र से छुपाएगा कौन? ऐसा लगा उस गाड़ी में बैठकर दीदी नहीं जा रही है बल्कि उसकी सारी आज़ादी, सारी मस्ती सब जा रही है। गाड़ी चली तो लगा कि वह भी उसी गाड़ी पर लटक जाए। दीदी ने चलते वक्त छोटी दीदी के हाथ में अन्नु का हाथ दे दिया ‘अब तुम्हारे हवाले है यह शैतान’। लेकिन भरोसा नहीं हुआ। यह छोटी दीदी ही तो मारती है, यह क्या रक्षा करेगी।

लेकिन बड़ी दीदी क्या गयी, छोटी दीदी तो एकदम ही बदल गयी। ऐसा लगा जैसे उसका हाथ पकड़ कर बड़ी दीदी ने अपना सारा डाटा ट्रांसफर कर दिया हो छोटी दीदी के दिमाग में। अन्नु के तो दिन ही खिल गए। ना पीटाई। ना ही पिता से शिकायत। बड़ी दीदी की याद तो आती थी पर मस्ती में कोई कमी नहीं। फिर एक दिन छोटी दीदी यहीं रह गयी और उसे बाहर शहर पढ़ने के लिए भेज दिया गया। उसने सोचा बिना किसी दीदी के वह कैसे रहेगा। कैसे खाएगा, कैसे पढ़ेगा, कैसे अपनी यादों को संभालेगा। उसने सोचा कम से कम छोटी दीदी को इस घर से जाने तो देते। लेकिन पिता एकदम सख्त थे। छोटी दीदी की पढ़ाई कॉलेज में चल रही थी। ग्रेजुएशन के सैकेंड इयर में थी दीदी और उसकी भी शादी की बात चलने चली।

दूसरी बहन की शादी में अन्नु ने सारी कसर पूरी कर ली। इंटरमीडिएट में पढ़ रहा था। बाहर से आकर उसने पूरी तैयारी अपने हाथों से की। पूरे घर को उसने बल्ब की चादर से ढँक दिया। जहाँ से बारात प्रवेश करती वहाँ से रोलैक्स लगा। इस बगीचे के कई पेड़ों को भी बल्ब से नहलाया गया। रात को जब घर रोशनी में डूबा हुआ था तब उसने इस बगीचे में जुगनुओं को ढ़ूँढने की कोशिश की थी। वहाँ कोई जुगनू नहीं था। उसने कुएँ के भीतर झांका, आज रात पानी में चमक थी। अन्नु ने समझ लिया आज सारे जुगनू कुएँ में शांत बैठे हुए हैं। उसने इस कुएँ को अब की छुपाया नहीं था। अब लोगों ने कुएँ का इस्तेमाल बहुत कम कर दिया था। उस कुएँ पर अब लोहे का एक जाल लगा दिया था। उसमें एक फाटक था। पिता अभी भी कभी-कभी उस कुएँ से पानी निकालकर नहा लेते थे। लेकिन कुएँ का अब ज़्यादातर काम उससे पानी निकाल कर बगीचे की सब्ज़ियों में पानी देने का था। छोटी दीदी जब विदा हुई तब भी अन्नु को दुख तो बहुत हुआ परन्तु अब वह इस तरह रो नहीं सकता था। एक तो वह अब बड़ा हो रहा था और दूसरा यह कि उसे अब बाहर अकेले रहने की आदत हो गयी थी। छोटी दीदी के जाने का दुख उसे अपने से ज़्यादा अपने माता-पिता के लिए हुआ, जो अब अकेले रह गए थे।

दोनों दीदियों की शादी भले ही हो गयी थी परन्तु दोनों शादियों में पिता की यह पहली शर्त थी कि दोनों अपनी पढ़ाई पूरी करेंगी और नौकरी करने की कोशिश करेंगी। पिता ने यह भी शर्त रखी थी कि जब तक उन्हें कोई मनमुताबिक नौकरी नहीं मिल जाती, दोनों की पढ़ाई का खर्च यही से चलेगा। पढ़ाई के लिए कभी ससुराल में कोई भी दिक्कत आएगी तो उनकी पढ़ाई फिर यहाँ से चलेगी। और इस तरह दोनों दीदियों ने अपनी पढ़ाई पूरी की और शिक्षिका बन पायीं।

पाँच

पटना, दिल्ली होते हुए जब अभिजीत एनआईटी में सोलहवां रैंक लाकर सूरतकल पहुंच गया तब इस टोले में वह चर्चा का विषय बन गया था। छुटिट्यों में घर आए हुए अभिजीत को अवधेश चा ने अपने दरवाजे़ पर बैठाकर चाय पिलायी। अवधेश चा पढ़े-लिखे व्यक्ति थे और हिन्दी बोलते थे। वे ट्यूशन पढ़ाते थे और उनके पढ़े छात्र गणित में काफी माहिर हो जाते थे। ‘तुमने इस गाँव का नाम रौशन कर दिया है अभिजीत। हम जानते ही थे कि तुम कुछ करोगे, यह तुम्हारे पिता की लगन है। उन्होंने कभी शिक्षा का रास्ता नहीं छोड़ा।’ उन्होंने अन्नु की जगह ‘अभिजीत’ कहा तब अभिजीत को थोड़ा अजीब लगा था।

जब अभिजीत दिल्ली से अपने गाँव लौटा करता था तब गाँव के अलग-अलग लोग उसे अपने पास बैठाकर इस बड़े महानगर के बारे में जानना चाहता थे। लोगों के लिए तब यह बहुत ही आश्चर्य का विषय होता था कि दिल्ली में एक ऐसा मार्केट भी है जो ज़मीन के अन्दर है। ‘अरे ऐसा कैसा भाई। जमीन के अन्दर सांस कहाँ से आएगी।’ तब वे लोग आश्चर्य व्यक्त करते थे कि वहाँ नंबर से बसें चलती हैं और यह नंबर कोई बस का नंबर नहीं होता है बल्कि रूट का होता है। बाल्मीकि दा अब तो रहे नहीं, तब ही काफी बुजुर्ग थे, कहते -‘एक ही नंबर की इतने सारी बसें कैसे हो सकती हैं।’

लेकिन सूरतकल से लौटने पर हर कोई अभिजीत को पकड़कर अपने पास बैठाना चाहता था। माता-पिता अपने बच्चों को सामने लाकर कहते ‘कुछ रास्ता तुम ही बता दो बाबू। तुम तो बहुत आगे निकल गए। परिवार का बच्चा आगे निकलता है तो खुशी तो बहुत होती है। अब ये सब छोटे भाई-बहन तुमको देखकर आगे बढ़ने की कोशिश तो जरूर करेंगे।’

कोई पूछना चाहता इ सूरतकल है कहां? कौन-सा इलाका है। अभिजीत ने जब बतलाया कि उसके इंस्टीट्यूट से तो समुद्र एकदम सामने ही है तब आँगन में दादी-चाची की भीड़ आश्चर्य में पड़ गयी और चेहरे पर चिंता की एक लकीर भी खिंच गयी। ‘बाबू कोई खतरा तो नहीं है ना। कभी पानी बहुत बढ़ जाए तो पानी कॉलेज में भी तो घुस सकता है।’ ‘बाबू मन लगाके पढ़ो, नौकरी करो लेकिन उ समुदद्र में ना जाया करो।’ ‘समुदद्र का पानी तो बड़ा नमक वाला होता है, पीते कैसे हो? उधर दक्षिण में तो सुने है सारा खाना ही नारियल तेल में बनता है।’ और फिर उठते हुए ‘सुरक्षित और बहुत खुश रहो बेटा। सारे गाँव का आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।’

नंदिनी से अभिजीत सूरतकल में ही मिला। पहले परिचय, फिर प्यार और फिर एक बंधन की तरफ बढ़ने लगा यह संबंध। डिग्री के बाद अभिजीत हैदराबाद या बैंगलुरू भी जा सकता था परन्तु अभिजीत और नंदिनी ने मिलकर यह निर्णय लिया कि उन्हें दिल्ली ही रहना है। नौकरी पा लेने के बाद जब अभिजीत ने अपने संबंध को सार्वजनिक करने के बारे में सोचा तब उसकी नज़र में माता-पिता और पूरा गाँव घूम गया था। नंदिनी की जाति अलग, क्षेत्र अलग, रहन-सहन अलग, बोली-बानी अलग। यह डर अंदर तक घर कर गया था कि नंदिनी को वे लोग स्वीकार कैसे करेंगे। पहले तो सवाल यह था कि माता-पिता ही स्वीकार करेंगे या नहीं। वे स्वीकार कर भी लें लेकिन इस गाँव के बीच रहकर उनके लिए भी इसे स्वीकार करना आसान नहीं था।

अभिजीत ने पिता से सीधे ही बात की थी। अंदेशे के विपरीत सब कुछ कितना खुशनुमा था। पिता उसी बगीचे में बैठे थे। गर्मी का मौसम था, पिता उसी मचान पर सुस्ता रहे थे। शाम के चार बज रहे होंगे। मस्त हवा चल रही थी। छुट्टियों में घर आये अभिजीत ने खाना खाने के बाद घर से ही मचान पर लेटे पिता को देख लिया था। मचान के पास वह गया तो पिता की नींद खुल गयी। पिता ने उसे बुलाया और पास बिठाया। अन्नु बैठा और थोड़ी देर चुप रहा। पिता ने सब भांप लिया। ‘क्या कहना चाहते हो। खुल कर कहो।’ पिता के इस वाक्य ने और उनके एक हाथ कंधे पर रखने ने काफी ढाँढ़स बंधाया था। अभिजीत ने जब पूरी बात बतलायी तो पिता बहुत खुश हुए। ‘तुम्हें क्या लगा था कि मैं दुखी होउंगा। तुम कुछ गलत कर नहीं सकते अन्नु। मैं तुम्हारा पिता हूँ मैं तुम्हें नहीं समझूंगा तो कौन समझेगा।’ फिर थोड़ी देर रुककर ‘तुम्हारा निर्णय सही है, तुम्हें अपने जैसे पढ़ी-लिखी लड़की से ही शादी करनी चाहिए। और अब यह जाति, धर्म, क्षेत्र कुछ नहीं होता है। बात सिर्फ समझदारी की होती है।’

अभिजीत पिता के पास से उठकर सीधे अपनी माँ के पास गया। माँ ने जाना तो वह भी उतनी ही खुश हुई। माँ-पिता जब खुश हो गए तब अभिजीत का दिल एकदम से हल्का हो गया। उसे लगा माता-पिता ने तो अपने पुत्र के आगे समर्पण कर दिया परन्तु यह गाँव। उसने सोचा, पिता इस गाँव का अब सामना कैसे करेंगे। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि जिस बात को अभिजीत इतना बड़ा समझ रहा था उस बात को उसके टोले के सभी लोगों ने बहुत प्यार से लिया। टोले पर कुंवर बाबू तब बुजुर्गों में से एक थे। उन्होंने बुलकार अपने पास बिठाया। अभिजीत को लगा, अब जो नसीहत मिलने वाली है, उसे चुपचाप झेलना होगा। परन्तु यह एकदम उलटा था। कुंवर बाबू ने कहा- ‘विकास हमेशा आगे की तरफ चलता है। और विकास हर समय होता है। हमने भी अपने समय में कुछ न कुछ अलग जरूर किया होगा। आज तुम नहीं करोगे तो कौन करेगा। तुम पढ़े-लिखे हो तुम्हीं तो नज़ीर बनोगे इस गाँव के लिए।’ थोड़ा रुककर उन्होंने कहा- ‘दो अलग-अलग संस्कृतियों के मिलने से ही उन्नति होती है।’ कुंवर बाबू वे थे जो अपने समय में अपने पते पर ‘धर्मयुग’ और ‘दिनमान’ मंगाया करते थे। विमल चा ने तो बांहों में भरकर उठा ही लिया। ‘तुम इस टोले के लिए, यहां के आगे की पीढ़ी के लिए मार्गदर्शन कर रहे हो।’ अभिजीत के पिता ने घूम-घूमकर अपने बेटे की पसंद का ढिंढोरा पीटा।

शादी तो दिल्ली में हुई लेकिन शादी के बाद नंदिनी जब यहाँ गाँव आयी तो उसके स्वागत में अभिजीत के पिता ने भव्य भोज का आयोजन किया। नंदिनी ने जब इस घर मे प्रवेश किया तब उसने इतनी भीड़ में भी मुख्य दरवाजे़ पर लिखा हुआ ‘आनन्दी निवास’ पढ़ लिया। उसने अपने मन में सोचा अभिजीत की माँ का नाम आनन्दी तो है नहीं। अभिजीत इस बात को आज भी याद करता है कि जब भीड़ थोड़ी कम हुई तो नंदिनी ने सबसे पहले उससे यही सवाल किया था। आनन्दी, अभिजीत की दादी का नाम था।

जिस कोह्वर में अभिजीत और नंदिनी को बैठाया गया वह इस घर का वह हिस्सा था जिसे बदला नहीं गया था। इस घर को बढ़ाया गया था उसे तोड़कर नया नहीं बनाया गया था। अभिजीत की माँ ने नंदिनी को कहा था ‘आज जिस कोह्बर में तुम बैठी हो वहीं कभी मैं बैठी थी और तुम्हें यह जानकर और आश्चर्य होगा कि यहीं कभी अन्नु की दादी भी बैठी थी।’ अभिजीत ने पलट कर देखा वहाँ ‘अभिजीत संग नंदिनी’ लिखा था। उसने अपनी हथेली से उस दीवार को छूकर बहुत पीछे पहुँच जाना चाहा। दीवार मज़बूत थी। उसने सिर को बाएँ की तरफ ऊपर उठाया, वहाँ सीमेंट वाली रोशनदानी लगी हुई थी। अभिजीत एक बारगी यह समझ नहीं पाया कि यह रोशनदानी तब की ही लगी हुई है या इसे बाद में लगाया गया है।

छः

शादी के बाद शुरू-शुरू में तो अभिजीत और नंदिनी साल में दो-तीन बार घर अवश्य आ जाते थे लेकिन धीरे-धीरे ज्यों-ज्यों ज़िम्मेदारियां बढ़ती गयीं यह आवृत्ति कम होती चली गयी। बच्चों के जन्म के बाद बच्चों के स्वास्थ्य ने बहुत रोका। दिल्ली में पलने वाले बच्चे गाँव पहुंचते ही वहाँ के हवा-पानी में अस्वस्थ हो जाते। और वहाँ ढंग का इलाज नहीं होने के कारण आने की आवृत्ति थोड़ी कम अवश्य हुई। अभिजीत हमेशा अपने माता-पिता को कहता था कि अब आप लोग मुक्त हैं तो आप लोग ही यहाँ रहा कीजिए या कम से कम आते जाते रहा कीजिए। माता-पिता को आने में दिक्कत तो नहीं थी परन्तु सबसे बड़ी दिक्कत थी कि उनका मन वहाँ नहीं लगता था। जब दोनों बच्चियां उम्र से थोड़ा संभल गयीं और अभिजीत को उनकी बीमारी का खतरा कम लगने लगा तब उसे थोड़ा सुकून मिला कि अब वह आराम से गाँव आ-जा सकता है।

इशिका और अवनी ने जाकर वहाँ उस बगीचे, उस घर, गाँव, गाँव की संस्कृति, हरियाली को खूब एंज्वाय किया था। वे घर से निकल कर उस बगीचे में निकल आती थीं और पेड़ से तोड़कर अमरूद खाया करती थीं। अपने हाथों से उन्होंने नींबू तोड़ा था। इस मचान पर बैठती थीं और पेड़ों की हरियाली को देखा करती थीं। उनके दादा उन्हें गाय से दूध दूहना सिखाते थे। वे मच्छरदानी लगाकर छत पर माता-पिता के साथ सोती थीं। अभिजीत उन्हें वहाँ से बगीचे के जुगनुओं को दिखलाया करते थे। बच्चियाँ दादा के साथ बैठकर इस घर की, इस गाँव की और दादा के पिता की कहानियां सुना करती थीं। वे यह सोचने लगती थीं कि यह घर जिसमें अभी वह बैठी हैं कितने साल पुराना है। इशिका तब महज छः साल की रही होगी तब उसने अपने दादा से पूछा था कि फिर तो इस घर को बनाने में भगवान ने भी मदद की होगी ना। दादा हँसे जरूर थे लेकिन सिर तो सहमति मे ही हिलाया था। जिस तरह बचपन में अभिजीत अपने आस-पड़ोस में यहाँ-वहाँ खोया रहता था अब इशिका और अवनी ने भी इस गाँव, इस परिवेश, इस घर को खूब जीया था। जितने दिन के लिए नंदिनी यहाँ आती थी, उसे नहीं याद कि कभी उसने अपने बच्चों को अपने घर में खाना खिलाया होगा। उन बच्चों के लिए कभी किसी घर में दलपूड़ी बन रही है तो कहीं घरपूआ। कहीं चूड़ा का भूंजा तो कहीं भुट्टा।

अभिजीत का परिवार यहाँ आता था तो उनकी बहनें भी यहाँ आकर साथ रहती थीं। दोनों बहनों का परिवार, उनके बच्चे तब यह घर गुलज़ार हो जाया करता था।

अभिजीत का परिवार अपनी व्यस्तताओं से समय निकाल कर जितना ही आ पाता था, आता था और यहाँ के प्यार में पूरी तरह डूब जाता था। सब अच्छा चल रहा था। लेकिन फिर एक दिन अभिजीत की माँ का अचानक निधन हो गया।

अभिजीत की माँ के पार्थिव शरीर को इसी बगीचे में रखा गया था। अभिजीत दुखी था, नंदिनी दुखी थी, बच्चे दुखी थे। पूरा गाँव-परिवार दुखी था। अभिजीत के पिता अकेले रह गए थे, ज़िन्दगी में भी और इस घर में भी। अभिजीत आज भी वह दिन नहीं भूल पाता है कि पार्थिव शरीर के पास पिता इसी मचान से टिककर बैठे थे और शांत मन से आसमान को एकटक देख रहे थे। अभिजीत ने देखा था उनकी आँखों से आंसू की धार बह रही थी।

पिता के अकेलेपन को दूर करने के लिए अभिजीत ने बहुत कहा कि वे अब उनके साथ दिल्ली चल लें परन्तु पिता इस घर, इस गाँव, इस परिवेश, इस भाषा को छोड़ने को तैयार नहीं थे। अभिजीत की ज़िद पर पिता ने कहा था कि अगर तुम मुझे कुछ और दिन ज़िंदा देखना चाहते हो तो बेटा यहीं रहने दो। वहाँ जाकर दिन-दिन भर चारों तरफ बिल्डिंगों को देखते-देखते और जल्दी मर जाउंगा। तुम लोग अपना काम-धाम देखो, मैं आता-जाता रहूँगा।’ अभिजीत पिता के संघर्ष को समझ रहा था इसलिए वह भी चाहता था कि पिता गाँव से जुड़े रहें ताकि स्वस्थ और मस्त रहें। अभिजीत को यह पता था कि पिता यहाँ बगीचा, गाय, समाज आदि आदि में व्यस्त रहेंगे तो दिल लगा रहेगा। वैस पिता घर में अब अकेले थे तो इस घर में अब आवाज़ गूंजने लगी थी। इस घर में कैलेंडर में अब तारीख नहीं बदलते थे। इस घर में अब मकड़ियों का जाल बनने लगा था। नंदिनी जब यहाँ आती थी तो सबसे पहले पूरे घर की सफाई करवाती थी। नंदिनी ध्यान रखती थी कि वह अब कभी-कभी ही आ पाती है तो पिता को ज़्यादा दिक्कत ना हो इसलिए वह सारी व्यवस्था देखकर जाती थी। जब पिता दिल्ली आते तो वह वहीं से घर की जरूरत के सामान को उनके चलते वक्त बांध देती थी। चादर, पर्दे, कप, गिलास, पिता के कपड़े आदि-आदि।

लेकिन अपनी अर्धांगिनी के बिना पिता भी बहुत चल नहीं पाए। बीमार रहने लगे तो अभिजीत ने उनका इलाज दिल्ली से शुरू करवाया। एक वर्ष तक तो पिता अपने इलाज के लिए निरंतर दिल्ली आते-जाते रहे। स्वास्थ्य में काफी सुधार भी हुआ, परन्तु बुढ़ापा एक ऐसा रोग है जिसका इलाज संभव ही नहीं है। और फिर एक दिन पिता भी गुज़र गए। इसी बगीचे में पिता के पार्थिव शरीर को भी रखा गया। ठीक वहीं, जहाँ माँ के पार्थिव शरीर को रखा गया था। अभिजीत ने मचान से टेक लगाए पिता को ढ़ूँढना चाहा लेकिन पिता अब वहाँ नहीं थे। बगीचे के सारे पेड़-पौधे उदास थे। खूंटे से बंधी गाय मुँह लटकाए खड़ी थी। पार्थिव शरीर के पास बैठा अभिजीत यह सोच रहा था कि इन सारे पेड़-पौधों को पिता ने अपने हाथों से लगाया था। इन्हें पाला-पोसा, प्यार किया, दुलराया। तो आज उनका उदास होना लाज़िमी है। पिता के पार्थिव शरीर को जब उठाया गया तो ऐसा लगा जैसे घर उनके शरीर के पीछे-पीछे दौड़ लेगा। अभिजीत पार्थिव शरीर को कंधा दिए हुए आगे की ओर बढ़ रहा था और वह पीछे घर की तरफ देख रहा था। घर उदास था। घर के आंसू दिख रहे थे। अभिजीत पार्थिव शरीर को लिए आगे बढ़ रहा था और वह घर पीछे छूटता जा रहा था।

पिता के श्राद्ध के बाद और सारे ज़रूरी काम निपटाने के बाद वहाँ से चलने का वह दिन था। गाड़ी बाहर खड़ी थी। गाड़ी में सामान रखा जा चुका था। अभिजीत रुंआसा हो रहा था। उसने पूरे घर को देखा, घर सूना था। घर में माता-पिता की आवाज़ नहीं थी। उनकी उपस्थिति नहीं थी। पूरा घर भांय-भांय आवाज़ कर रहा था। वह बगीचे में गया। बगीचे में खूँटा खाली था। गाय वहाँ नहीं थी। मचान खाली था वहाँ कोई भी नहीं था। पेड़ों में फल लदे हुए थे। अभिजीत ने कुएँ को देखा, कुएँ में कोई आवाज़ नहीं थी, कोई रोशनी नहीं थी। अभिजीत ने सारे दरवाजों को अच्छी तरह से चेक किया, सबमें ताला लगाया। उसने जब घर से निकलते हुए बाहर के दरवाजे़ पर ताला लगाया तब ऐसा लगा जैसे वह गिर जाएगा। नंदिनी वहीं खड़ी थी, वह समझ रही थी। उसने अभिजीत को संभाल लिया। अभिजीत ने बाहर ‘आनन्दी निवास’ को ध्यान से देखा उसे अपनी उंगलियों से छुआ और फिर वह गाड़ी में बैठ गया।

ठीक एक वर्ष के बाद जब पिता की बरसी हुई तब अभिजीत ने पूरे परिवार के साथ इस घर में प्रवेश लिया। घर मुरझाया हुआ था। उसने दरवाजे को खोला तो उसमें जान आ गयी। उसने दीवारों को अपने हाथों से छुआ और अपने माथे से उसे लगाया। उन्हें दो दिन तो उस घर को रहने लायक बनाने में लग गए। बरसी के बाद जब अभिजीत का परिवार फिर से यहाँ से चला तो यह सोच कर चला कि वह साल में यहाँ दो बार आने की कोशिश अवश्य करेगा। पर ऐसा हो कहाँ पाया। उन्होंने सोचा, चलो दो बार नहीं तो कम से कम साल में एक बार तो अवश्य। परन्तु हो तो यह भी नहीं पाया।

सात

पिता की बरसी को गुज़रे चार वर्ष से ऊपर हो गए और इतने ही वर्ष हो गए अभिजीत को अपने घर पर ताला लटकाए हुए। ऐसा नहीं है कि अभिजीत ने या उसके पूरे परिवार ने इस बीच गाँव जाने की कोशिश नहीं की। लेकिन सारी कोशिशें नाकाम हुईं। ऐसा भी नहीं है कि अभिजीत, नंदिनी या बच्चों के भीतर गाँव जाने, उस घर में रहने की इच्छा नहीं है परन्तु परिस्थितियां लगातार ऐसी बनती रहीं कि यह संभव नहीं हो पाया। कभी अभिजीत को छुट्टी है तो नंदिनी को नहीं। बच्चों की जब छुट्टी होती तो अभिजीत की नहीं। पिछले दो वर्षों से इशिका की टयूशन टयूटर ने सख्ती कर रखी है कि ‘छुट्टियों में ही तो बच्चों की पढ़ाई का बेस मजबूत किया जाता है।’ वह कहती हैं- ’बेटी नाइन्थ में चली गयी अगले कई दिनों तक तो कहीं जाने का भूल ही जाओ आपलोग।’ अभिजीत सोचता है कि इशिका से तीन साल पीछे अवनी है। फिर गांव वाले घर का क्या होगा?

अभिजीत के दिमाग में हर वक्त उस घर के मुख्य दरवाजे़ पर लटका हुआ ताला टंगा रहता है। कई बार अपने ऑफिस में बैठकर उस शीशे के पार वह देखता रहता है। देखता नहीं रहता है बल्कि कुछ ढ़ूँढता रहता है। ऐसे जैसे वह यहीं से अपने घर के उस बगीचे को देख लेगा। वह अपलक देखता हुआ सोचता है कि पिछले इन चार वर्षों में उन पेड़ों पर कितनी बार फल आकर चले गए होंगे। उसे लगता है कि सारे फल पक कर खुद ही ज़मीन पर गिर जाते होंगे। वह सोचता, उस मचान का क्या हुआ होगा। वह सोचता है उन जुगनुओं का क्या हुआ होगा। क्या वे अब भी वहाँ आते होंगे। क्या जुगनू अब भी कुएँ के भीतर बैठे रहते होंगे। अभिजीत को हमेशा लगता कि गाँव वाले, उनके गोतिया, उनके इस विस्तारित परिवार के लोग उसे कहीं भूल ना जाएं।

परन्तु ऐसा है नहीं। गाँव में रहने वाले चाचा या फिर थोड़े दूर के चाचा के यहाँ से कभी-कभार न्यौता वगैरह आ जाता था। अभिजीत हर बार यह सोच भी लेता था कि वह इस बार वहाँ अवश्य जाएगा। परन्तु ऐसा हो नहीं पाता था।

घर बन्द पड़ा हुआ है और उसे देखने वाला अब वहाँ कोई नहीं है, यह एक इतना बड़ा सवाल था जिस पर अभिजीत कई दिनों तक और कई तरीके से सोच चुका था। उसे यह बात तो बहुत ही शिदद्त से पता थी कि उसके लिए या उसके परिवार के लिए यह संभव तो है भी नहीं कि वह अब दिल्ली के ताम-झाम को छोड़कर गाँव के उस घर में जाए। यदि कभी-कभार वह चला भी जाए तो इस तरह गाँव के घर को, गाँव की ज़मीन को यूं छोड़े रखना भी कितना सही है। इस सवाल के जवाब में वह कई बार यहाँ तक आकर रुक जाता था। वह इस सवाल पर यह सब सोच चुका है कि बंद घर का जीवन ही कितना होता है। वह यह भी सोच चुका है कि बगीचे की ज़मीन यूं ही पड़ी हुई है। क्या पता लोग अपनी ज़मीन की आड़ में बगीचे की कुछ ज़मीन ना खींच ले। वह सबकुछ सोच चुका है लेकिन इसके आगे.......। इसके आगे का जवाब उसे पता था लेकिन वह जानबूझकर उसे अपनी जु़बान पर लाना नहीं चाहता था। लेकिन कब तक!

और अंत में नंदिनी से बातचीत के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इस घर और बगीचे को बेच देना ही ठीक रहेगा।

घर बेच देने का निर्णय अभिजीत के लिए आसान नहीं था लेकिन वह जानता था कि इससे बेहतर और कोई विकल्प उसके पास नहीं है। दुखी तो नंदिनी भी कम नहीं थी लेकिन बच्चों ने इस खबर को बहुत गंभीरता से लिया। इशिका ने कहा ‘यह तो बहुत ही गलत डीसीज़न है पापा।’ ‘आपको पता है इस देश की सबसे बड़ी प्रॉब्लम है कि हम अपने रूट से कटते जा रहे हैं। अपने कल्चर से हमारा नाता टूटेगा तो यह ठीक नहीं है।’ अवनी की यादों में जितना यह घर है उससे अधिक इशिका ने वहां के किस्से सुना-सुना कर उसे रोमांचित कर दिया है। अभिजीत ने इशिका को समझाना चाहा कि इस निर्णय से खुश तो कोई भी नहीं है परन्तु आप खुद बताओ इसका समाधान क्या है। इशिका जानती है कि पापा सही कह रहे हैं परन्तु मन बहुत दुखी है। अवनी पापा के पास आकर कहती है ‘पापा वे सारे पेड़ हमारा इंतजार कर रहे होंगे।’

इस निर्णय से भले ही खुश कोई भी नहीं हो लेकिन निर्णय को स्वीकार किया गया और फिर अभिजीत ने गांव में कुछ लोगों के साथ उस घर और बगीचे को बेचने के निर्णय को साझा किया। दामोदर का फोन उसी सिलसिले में आया था। दामोदर रिश्ते में अभिजीत का भाई ही लगेगा लेकिन गांव के रिश्ते में। वह अभिजीत से छोटा है और वह अभी वहीं गांव में रहकर दूध का काम करता है। उसने वहां दूध का सेंटर खोला है जहां से वह दूध इकट्ठा कर डेयरी को भेजता है। उसने अभिजीत को हामी भरी और यह कहा कि अगर आपने निर्णय ले ही लिया है तो इसके लिए ग्राहक तो यहीं मिल जायेगा। आसपास के ही ग्राहक।

अभिजीत ने अपने चाचाओं से पहले पूछा था। लेकिन चाचा अब बुजु़र्ग हो चुके थे। उनके बच्चों की इसमें कोई खास रुचि थी नहीं। दामोदर ने गांव के ही मास्टर साहब से यह डील तय की थी। मास्टर साहब के दो बेटे थे। एक तो बाहर बैंक में नौकरी करते थे लेकिन दूसरे यहीं किसानी।

आठ

अब कहानी की शुरुआत में पहुँचते हैं। अभिजीत रविवार की सुबह बहुत शांत मन से उठा और चाय नाश्ते के बाद बाल्कनी में धूप में बैठ गया। नंदिनी जानती थी कि आज अभिजीत उससे बात करना चाहता है। वह क्या बात करना चाहता है वह यह भी जानती है।

नंदिनी भी आज सुकून में है। वह अभिजीत के ठीक सामने बैठी। अभिजीत चुप रहा और बाल्कनी से बाहर देखता रहा। फिर बाहर देखते हुए ही कहा - ‘ठीक कर रहे हैं ना हम।’ नंदिनी चुप रही। वह अभिजीत के मन की उलझन को जानती थी। ‘सोचो घर नहीं रहेगा तो हमारा तो पूरा नाता ही वहाँ से खत्म हो जाएगा। कभी जाना भी चाहेंगे तो जा ही नहीं सकते हैं। एक दम रास्ता ही बन्द।’ नंदिनी बोली - ‘अभि मैं तुम्हारी उलझन को समझती हूं लेकिन हमारे पास कोई उपाय कहाँ है। हम कई बरसों में कभी एक बार जाने के लिए इस बड़े एसेट को यूं छोड़ भी तो नहीं सकते हैं ना। सहेजना तो हमें ही पड़ेगा ना।’

‘लेकिन सोचो नंदिनी हम इस देश में रह रहे हैं और हमारे पास अपनी कोई जड़ नहीं है। हमारा कोई घर नहीं है। यह हमें कितना खोखला कर देगा।’ अभिजीत जब यह कह रहा था तब भी उसे लग रहा था कि यह घर, जिसमें बैठकर वह यह बात कह रहा है यह भी तो उनका अपना ही है।

‘जड़ से कटने का मतलब समझती हो तुम।’

नंदिनी ने कहा - ‘अब यही अपना घर है अभि। बच्चों का इमोशन अब यहीं से जुड़ेगा।’

अभिजीत ने सुना लेकिन उसके उत्तर देने के बजाय फिर से कहा - ‘कभी बहनों के यहां जाना होगा तो यहां से सीधे बहन के यहां ही जाना पड़ेगा।’

‘कोई मुझसे पूछेगा कि तुम हो कहाँ के, तो क्या बतलाउंगा? गुड़गांव का, नोएडा का या फिर दिल्ली का। यह जवाब अन्दर से कितना खाली कर देगा मुझे।’

‘वह ज़मीन, वह मिट्टी, वह भाषा, वह परिवेश, वहाँ की हवा-पानी ही तो पहचान है मेरी। मुझसे मेरी पहचान खत्म हो रही है नंदिनी।

‘हूं..................प्रॉब्लम तो है ही। लेकिन अन्य कोई रास्ता नहीं है अभि। बन्द रखे-रखे घर एक दिन खण्डहर हो जाएगा। बगीचे की ज़मीन एक दिन कोई हथिया लेगा। सभी को पता है हम यहाँ से उसे नहीं देख सकते हैं। बहुत व्यावहारिक होकर हमें सोचना होगा।’

नंदिनी ऐसा कहते हुए उठने लगी। अभिजीत अभी भी बाल्कनी से बाहर देख रहा था।

इशिका ने देखा पापा-मम्मी गम्भीर बात कर रहे हैं। उसने बात को भी समझ लिया और बात की गम्भीरता को भी। उसने आकर पिता से कहा - ‘नहीं पापा, प्रैक्टिकल तो यहीं है कि आपने जो डीसीजन लिया है वही सही है। हां लेकिन यह भी इतना ही सच है कि इसके लिए हम सब को दुखी भी बहुत होना चाहिए।’

अभिजीत ने इशिका की तरफ नहीं देखा। नंदिनी को लगा अभिजीत की आंखों से कहीं आंसू की बूंदें ना टपक जाए।

नौ

अभिजीत की जिस दिन मास्टर साहब से मुलाकात थी उससे ठीक एक दिन पहले वह यहाँ पहुंचा। गाँव में प्रवेश करते हुए आज फिर अभिजीत को उस दिन की तरह का डर लग रहा था जिस दिन उसने अपनी शादी की बात उठायी थी। उसे तब लगा था कि यह पूरा गाँव बुरी तरह से उसे घेर लेगा, लेकिन हुआ इसका ठीक उलटा था। आज भी उसके मन में यह संशय था कि इस तरह घर बेचने के निर्णय को गांव वाले पता नहीं किस तरह लेंगे।

गाँव में प्रवेश करते हुए अभिजीत ने यह महसूस किया यहाँ अभी भी कुछ खास बदला नहीं था। गाँव में वैसी ही शांति थी, वैसा ही सुकून। जब वह गाँव पहुँचा तब दिन के बारह-साढे़ बारह बज रहे होंगे, इस समय गाँव शांत रहता है। लोग बाहर खाट निकाल कर आराम कर रहे थे। मंदिर के प्रांगण में जो कुआँ है उसकी जगत पर लोग धूप सेंक रहे थे। अभिजीत ने सभी को प्रणाम किया। सभी ने हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया। जो खाट पर सोए थे वे उठकर बैठ गए। अभिजीत को एक बार यह मन किया कि वह देख आए कि कुएँ में पानी है या नहीं। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया।

विमल दा की उम्र अब उनके चेहरे पर दिखने लगी थी। उन्होंने वहीं से उन्होंने अपनी पत्नी को आवाज़ दी। ‘अरे अन्नु तुम अचानक यहां।’ अभिजीत ने अपने लिए ‘अन्नु’ सुना तो उसके कान में जैसे मिश्री घुल गयी। विमल दा ने यह सवाल पूछ तो लिया लेकिन फिर उन्हें याद आया कि कारण तो उन्हें मालूम है। अभिजीत पास आया और खाट पर बैठ गया। विमल दा ने कहा - ‘तुम्हारी समस्या सही तो है पर लोग अपनी डीह थोड़े ना बेचते हैं बेटा।’ विमल दा अभिजीत से छः-सात वर्ष ही बड़े होगे लेकिन लगते कम से कम पंद्रह वर्ष बड़े थे। अभिजीत ने उनके मुँह से अपने लिए बेटा सुना तो थोड़ा अजीब लगा लेकिन अच्छा भी बहुत लगा। अभिजीत ने कहा - ‘क्या करें दादा, आना अब आसान नहीं रह गया है।’

अभिजीत आज लगभग साढ़े चार वर्ष के बाद अपने घर का ताला खोल रहा था। उसके हाथ कांप रहे थे। ताले ने थोड़ी दिक्कत दी, लेकिन ज़्यादा नहीं। घर में प्रवेश करते हुए अभिजीत की निगाह नेमप्लेट पर गयी। नेमप्लेट पर नाम अभी भी दिख रहा था। उसपर बहुत धूल जमी हुई थी। उसका एक मन किया कि वह पहले नेमप्लेट को साफ कर ले। लेकिन उसने ऐसा ना करते हुए घर में प्रवेश किया।

घर में चारों तरफ धूल थी, जाले लटक रहे थे। आंगन में लम्बे-लम्बे जंगली पौधे उग आए थे। घर में प्रवेश करने पर पहला कमरा पिता का था। उस कमरे में एक चौकी रखी थी। चौकी खाली थी और उस पर छत से सफेदी का चकत्ता गिरा हुआ था। वहीं एक टेबुल-कुर्सी रखी थी। अभिजीत को उस चौकी पर पिता नहीं दिखे। उस कुर्सी पर मास्टर जी बैठे थे, इस चौकी पर तीनों भाई-बहन अपने-अपने बस्ते के साथ बैठे हैं और रियाज़ सर कुर्सी पर बैठ गणित और अंग्रेजी पढ़ा रहे हैं। अचानक अभिजीत को लगा, फिर पिता कहाँ गए। वह बाहर दरवाज़े की तरफ भागा। बाहर एक कुर्सी और दो चौकी रखी हैं। पिता कुर्सी पर बैठे हैं। अब वहीं चौकी पर बारह साल का अन्नु दर्द मे कराह रहा है। वह दर्द में भी अपनी शिकायत कर रहा है ‘मनटन भैया एक तो हैं इतने लम्बे और उन्होंने जानबूझकर लंघी मारकर गिराया भी है मुझे।’ सामने मनटन भैया खड़ा है और कह रहा है, चाची हम सब तो बस कबड्डी खेल रहे थे। अभिजीत रो रहा है। माँ एक कटोरी में गर्म पानी और दूसरी कटोरी में हल्दी का पेस्ट ले आयी है। दूसरी दीदी कह रही है ‘ठीक हुआ, है ही बदतमीज।’

अभिजीत अन्दर के कमरे में प्रवेश करता है। अंदर दो कमरे साथ-साथ हैं। बन्द दरवाजे़ खुलने से एक धसक-सी बाहर निकलती है। अभिजीत को छींक आती है। उसने उस कमरे को खोला जो माँ का है और जिसमें कोह्बर बना था। कोह्बर की दीवार खाली है। चूने के अन्दर कुछ रंग दिख रहे हैं। कमरे में थोड़ी रोशनी कम हो गयी है। अभिजीत ने सीमेंट के झरोखे की ओर देखा, वहाँ से रोशनी कम आ रही है। उसे समझ में आ गया, बाहर चिड़ियों ने घोंसला बना लिया है। उस कमरे में कोई नहीं था। उसने सोचा, माँ रसोई में होगी। दूसरा कमरा वह है जिसमें पहली बार नंदिनी आयी थी। लेकिन उस कमरे में अभी बड़ी दीदी थी। बड़ी दीदी पलंग पर बैठा कर उसे समझा रही है। पढ़ोगे नहीं तो क्या भैंस चराओगे। फिर दीदी दुल्हन के वेश में आ जाती है। उसका खोंयचा भरा जा रहा है। माँ उसके खोंयचे में धान रख रही है। उसका सामान पैक हो रहा है। उसे अभी विदा होना है। उसी कमरे में एक कोने में सीरा घर बना हुआ है। सीरा में बड़ी दीदी को प्रणाम करवाया जा रहा है। दीदी प्रणाम करने को झुकती है और उठती है तो वह नंदिनी बन जाती हैं। नंदिनी भी दुल्हन के वेश में है। अब बड़ी दीदी उसे अपनी बांहों में समेटे है। पूरा कमरा ठसाठस भरा हुआ है। शहरी दुल्हन आयी है पता नहीं सिन्दूर भी लगाती है कि नहीं।

इस कमरे के साथ ही लगी है रसोई लेकिन माँ यहाँ भी नहीं है। इस रसोई में गैस चूल्हा रखा है। यह गैस चूल्हा तब आया जब नंदिनी इस घर में आयी। पिता ने एलान किया ‘दुल्हिन जलावन वाले चूल्हे पर खाना नहीं बनाएगी।’ बड़ी दीदी ने चुटकी ली ‘हां बेटी की चिंता कौन करता है यहाँ।’ नंदिनी भी हँस देती है। लेकिन माँ, माँ किधर है? इस घर से बाहर निकल कर पीछे आँगन की तरफ जाने पर खपरैल के छप्पर की एक रसोई है। चूल्हा तो चल रहा है। एक टोकना चूल्हे पर चढ़ा हुआ है। छप्पर पूरी तरह से उजड़ चुका है। छप्पर से छन कर रोशनी आ रही है । माँ यहाँ गाय का घट्टा बना रही है। अन्नु तो यहाँ माँ के पीठ पर लटका हुआ है। माँ बोली अभी मकई का भूंजा बना देती हूं। तभी एक बिल्ली छत की सीढ़ी की तरफ दौड़ गयी। अभिजीत की तंद्रा टूट गयी। माँ नहीं है लेकिन चूल्हा तो अभी भी जल रहा है। घट्टा तो अभी भी बन रहा है। एकबारगी ऐसा लगा जैसे माँ घट्टे का बरतन उतारना भूल गयी है और यह वर्षों से बनता ही जा रहा है। फिर उसे लगा, नहीं, चूल्हे का इस्तेमाल आंगन की महिलाएं करती होंगी।

अभिजीत वहाँ से लौट आया। माँ के कमरे से गुज़रते हुए उसे माँ का संदूक दिखा। उसे याद आया, इस संदूक में माँ की कई नई साड़ियां अभी भी पड़ी हुई हैं। माँ के निधन के बाद, पिता के निधन के बाद कई रिश्तेदारों ने न्यौते में साड़ियां दी थीं, वे सब भी इसी में बंद हैं। नंदिनी ने कहा था, उन साड़ियों में से कुछ चुनकर ले आने को या कम से कम किसी को दे देने को। वह घर से बाहर की तरफ निकलने लगा। पिता की अलमारी ने फिर से उसे रोक लिया। इसमें पिता का पसंदीदा उपन्यास रखा था - गणदेवता। लेखक हैं ताराशंकर बंदोपाध्याय। अभिजीत ने उस किताब को बाहर निकाला। पुस्तक की हालत बहुत खराब थी। लेकिन पिता की राइटिंग में उनका नाम लिखा था - ‘फुलेना सिंह, अमीन, रहीमपुर’। अभिजीत ने पिता की उस लिखावट को छुआ। पिता ने उसे अपनी बाँहों में भर लिया। माँ को भी पढ़ने का शौक था। इसलिए यहां निर्मला, गबन के साथ श्रीकांत और गृहदाह भी रखे हुए थे। इन पुस्तकों में माँ की लिखावट मौजूद नहीं थी बस उनकी छुअन थी वहाँ।

इस अलमारी में पिता का एक लकड़ी का एक बक्सा था। अभिजीत ने पिता के बक्से को उठाकर चौकी पर रखा। उस बक्से में पिता के कई पासबुक थे। माँ और पिता के वोटिंग कार्ड थे। कुछ जनेउ थे। कुछ खुल्ले पैसे। एक दो डायरी। अभिजीत के बचपन के एक-दो खिलौने। उसे अजीब लगा कि उसके बचपन के खिलौने यहाँ इस बक्से में कैसे। उसने उन खिलौनों को हाथ में लेकर देखा, उसे लगा वह इसे अपने साथ ले जाएगा, अपने बच्चों को दिखलाएगा।

अभिजीत अभी इसी बक्से में खोया था कि बाहर किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। अब उसे अहसास हुआ कि यहाँ आने के बाद अभी तक वह बैठा भी नहीं है। और यह भी कि बाहर का दरवाज़ा खुला हुआ है। अभिजीत बाहर आया तो वहाँ दो बच्चे खड़े थे। हाथ में एक ट्रे थी। ट्रे में एक कप चाय, एक गिलास पानी और एक कटोरी में दो-चार बिस्किट थे। एक बच्चे की उम्र दस साल के करीब होगी और दूसरे की इससे भी कम। अभिजीत ने पहले बच्चे के हाथ से उस ट्रे को पकड़ लिया और फिर पूछा - ‘अरे आप मुझे जानते हैं।’ बड़े वाले ने कहा - ‘हाँ आप बड़े बाबू हैं।’ ‘बड़े बाबू!’ अभिजीत को थोड़ा अजीब लगा। ‘आप हमारे पापा के बड़े भाई हैं तो बड़े बाबू ही तो हुए ना।’

‘अच्छा इस तरह।’

बच्चे ने देख लिया कि ट्रे को उन्होंने पकड़ लिया है तब बड़े बच्चे ने कहा - ‘माँ ने भेजा है। और कहा है जल्दी से हाथ-मुँह धोकर खाना खाने के लिए तैयार हो जाइए। अभी हम थोड़ी देर में आपको लेने आएंगे।’

अभिजीत को यह तो समझ आ गया कि यह व्यवस्था चेचेरे भाई के परिवार की तरफ से है लेकिन कहां से। वह समझ नहीं पाया। उसे समझ यह भी नहीं आया था कि उसे खाना खाने कहाँ जाना है। परन्तु उस बच्चे ने यह कहकर समस्या का समाधान कर दिया था कि वह लेने आएगा।

अभिजीत ने वहाँ रखे किसी कपड़े से चौकी को थोड़ा झाड़ा और वहीं बैठकर चाय पीने लगा। चाय पीकर उसने आंगन में उतरना चाहा। लेकिन आँगन में जंगल उग आया था। उसने घर से बाहर निकल कर बाहर की तरफ से बगीचे में जाने का सोचा। बगीचा वीरान हो चुका था। सब्ज़ी के पूरे बाग में कुछ भी नहीं था। उसे बैगन के पौधों में से उसका फूल तोड़ना याद आया। उसके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान आ गयी। लेकिन अभी वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था। पिता यहाँ क्यारियां बनाकर धनिया, पुदीना, गोभी लगाया करते थे। उसके अंदर बहुत बेचैनी-सी होने लगी। उसने उस अनायास उग आए जंगल में धनिया और पुदीना के पत्ते ढूंढ़ना शुरू कर दिया। बहुत ढूंढने पर वहाँ उसे करेले की एक लत्ती मिली जिसमें दो-चार करेले फले हुए थे। उसे बहुत सुकून मिला। उसने करेले को छुआ और मन में सोचा इस मिट्टी को उपजाऊ बनाने में मेरे पिता की मेहनत है। उसने इसके बाद वहाँ की मिट्टी को छुआ, उसे चूमा।

अभिजीत को यह तो पता है कि गाय को उसने बेच दिया था लेकिन उसने गाय के खूंटे को ढूंढना शुरू किया। लेकिन उस जंगल में उसे वह नहीं मिला। इतना जंगल उग आया था कि उसे यह तय करना भी मुश्किल हो रहा था कि ठीक-ठीक गाय को बांधा कहाँ जाता था। उसने अमरूद के पेड़ की तरफ देखा, अमरूद फले हुए थे। कुछ अमरूद के टुकड़े ज़मीन पर पड़े थे। कुछ ईंटों के टुकड़े वहाँ बिखरे हुए थे। उसने समझ लिया लोग यहाँ अमरूद तोड़ते होंगे। उसे यह अच्छा ही लगा।

उसने वहीं से खड़े होकर मचान को देखा। उसे अपने फुरसत के पल याद आने लगे। उसने वहीं से खड़े होकर नंदिनी को फोन लगाया। ‘पता है नंदिनी मैं अभी उसी मचान के सामने खड़ा हूँ जहाँ पर बैठकर मैंने पिता से तुम्हारी बात की थी।’ नंदिनी ऑफिस में थी लेकिन वह अभिजीत की भावना को समझ रही थी इसलिए उसने कहा - ‘यह सब हमारी यादों से, हमारी खुशियों से जुड़ी हुई चीजें हैं अभि।’

‘लेकिन कुछ ही दिनों तक के लिए और।’ इसे अभिजीत ने बनिस्पत धीमी आवाज़ में कथा था लेकिन नंदिनी ने सुन लिया था। फिर बात को बदल कर अभिजीत ने कहा -

‘लेकिन देखो अभी भी यह मचान वैसा ही है। सिर्फ चारों तरफ जंगल उग आए हैं।’

फिर उसने मचान को गौर से देखकर कहा - ‘रुकना एक मिनट, तुम्हें दुबारा मिलाता हूँ।’

फोन पर बात करते हुए मचान को देखते हुए अचानक अभिजीत को यह लगा कि मचान में बँधी बांसों में कीड़े लग गए हैं। उसने करीब आकर उसे देखना चाहा। वह करीब आया तो उसे मचान पर पिता बैठे मिले। वह एकदम से रुक गया। उसे लगा पिता बैठे हैं और उसे देखकर मुस्कुरा रहे हैं। अभिजीत भावुक हो गया। लेकिन फिर पिता के चेहरे पर एक खिंचाव आ गया। अभिजीत को अजीब लगा। उसने पिता के पाँव की तरफ देखा, बांस से निकलकर कीड़ों ने पिता के पाँव को अपनी जद़ में ले लिया था। पिता के दोनों पाँव कीड़ों से भर गए थे और कीड़े ऊपर की तरफ बढ़ते चले जा रहे थे। अभिजीत को बहुत घबराहट होने लगी, वह वहाँ से भाग गया।

फ्रेश होकर वह खाना खाने गया। चाचा-चाची बहुत बुज़ुर्ग हो गए थे। उनके बेटों के परिवार से मिलना हुआ।

कुछ मजदूरों को लगाकर घर की रहने लायक सफाई करवाई।

शाम को भी वह यहां-वहां, बड़े-बुजु़र्गों के दरवाजे़ पर, मंदिर पर मिलता-जुलता-टहलता रहा। सभी ने पहले तो यही समझाया कि डीह की जमीन को बेचते थोड़े ना हैं। आपकी डीह (जन्मस्थली) तो आपकी सांसों का पता होती है। लेकिन जब सबने यह सुना समझा कि महानगर की व्यस्तता, बच्चों की पढ़ाई, पत्नी की नौकरी के कारण आकर देखना भी संभव नहीं है तब सभी ने मन मसोस कर इस निर्णय को स्वीकार किया। लेकिन सबने यह जरूर कहा - ‘लेकिन इससे यह मत सोचना कि यहाँ तुम्हारा घर नहीं है। घर कभी किसी का खत्म नहीं होता है। घर हमेशा हमको बुलाता है बस हम ही हैं कि उस पुकार को समझ नहीं पाते हैं।’

इस गहरी बात के बाद फिर उन्होंने यह कहा - ‘घर खत्म होगा तो वजूद खत्म हो जाएगा। इसलिए हमेशा यह सोचना कि तुम्हारे घर में बस कुछ दिनों के लिए कोई और रह रहा है। तुम यहाँ आना, तुम्हारे लिए सारे घर खुले हैं। घर है तभी तो हम हैं।’

दस

अगले दिन लगभग सुबह ग्यारह बजे दामोदर, मास्टर साहब को लेकर आया। मास्टर साहब बहुत शालीन व्यक्ति थे। अभिजीत सुबह से ही बहुत खामोश था। दामोदर ने पूछा ‘रात में नींद अच्छी नहीं आई क्या।’ अभिजीत ने टालने के लिए हाँ में सिर हिला दिया। बातचीत शुरू हुई। अभिजीत के साथ बड़े वाले चाचा के बडे़ लड़के भी थे और मास्टर साहब के साथ उनके छोटे बेटे। अभिजीत की तरफ से ज़्यादा बात बड़े चाचा के बडे़ बेटे ही कर रहे थे। अभिजीत से जो पूछा जाता वह हाँ या ना में या कम से कम शब्द में वह उत्तर दे देता था। मास्टर साहब ने एक बार पूछा भी कि मन नहीं है बेचने का क्या। तो दामोदर ने कहा ‘मन किसका होता है अपने डीह की जमीन बेचने का। डीह तो हमारी पहचान होती है।’

यह बातचीत जहाँ चल रही है वह घर का बीच का हिस्सा है जिसे शहरी भाषा में ड्राइंग हॉल कहा जा सकता है। इस हॉलनुमा जगह में एक चौकी रखी है और सामने दो कुर्सी रख दी गयी है। एक कुर्सी पर मास्टर साहब हैं और दूसरी कुर्सी पर दामोदर। चौकी पर अभिजीत अपने भाई के साथ। साथ में एक स्टूल रखा गया था उस पर दीवार से टेक लगाकर मास्टर साहब का बेटा बैठा है। अभिजीत जहाँ बैठा है ठीक उसके सामने दीवार पर माता-पिता की तस्वीर टंगी हुई है। दोनों तस्वीरें कैमरे के फोटो से ड्राइंग करवायी कराई गयी थीं जिसे वह अपने साथ बनवा कर लाया था। पिता क्रीम रंग के कुर्ते में थे और माँ हरी साड़ी में। अभिजीत ने तस्वीर की तरफ देखा। उसे लगा माँ की तस्वीर थोड़ी तिरछी है। वह बातचीत के बीच से उठा और स्टूल पर चढ़कर उसने तस्वीर सीधी कर दी।

अभिजीत ने बातचीत के सिलसिले में कई ऐसी शर्तें रखीं जो उसे लगता था कि मास्टर साहब नहीं मानेंगे। परन्तु मास्टर साहब ने मन पक्का कर रखा था। पैसों की बात, समय की बात। ज़मीन पर बने मकान की कीमत की बात। बगीचे के पेड़ों की बात। यहाँ तक कि अभिजीत ने उनसे कुएँ की बात भी की। दामोदर ने मास्टर साहब से लगभग सारी बातें कर ही रखी थीं। लेकिन कुएँ की बात पर मास्टर साहब थोड़ा सकपका गए थे।

ये सब बातें चल रही थीं और अभिजीत सोच रहा था कि जिस चौकी पर वह अभी बैठा है वहीं तो तीनों भाई-बहन रात में पढ़ने बैठते थे। शाम को ट्यूशन बाहर वाले कमरे में और रात की पढ़ाई यहाँ। शाम को खेलने मे देर हो जाती तो पीछे के रास्ते से रसोई होकर बड़ी दीदी ही तो यहाँ तक छुपा कर लाती थी। और फिर पढ़ते वक्त इतनी नींद। पिता की आहट होते ही दीदी ही तो जगाती थी। इसी कमरे के इसी चौकी पर बैठ कर उनके बच्चे - इशिका और अवनी ने अपने भाई-बहनों के साथ खूब उनो और बिजनेस गेम खेला है। पिता इसी कमरे में ज़मीन पर बैठ कर खाना खाते थे। खाना खाने से पहले वे पानी से ज़मीन की पूजा करते थे। इसी कमरे में माँ के साथ लाया गया संदूक भी रखा हुआ है।

अभिजीत यह सब सोचता रहा और इधर बात फाइनल हो गयी। दामोदर ने कहा ‘तो फिर सब ठीक! मास्टर साहब तो आज कुछ टोकन पकड़ा कर डील को पक्की करते हैं।’ ऐसा कहते हुए दामोदर ने अभिजीत की तरफ देखा। लेकिन अभिजीत किसी और ही दुनिया में था। दामोदर ने उसे झकझोरा - ‘कहां हैं भैया। फाइनल करें फिर।’ ‘पकड़ लें न फिर इनसे कुछ रकम।’

अभिजीत अचानक होश में आया। मास्टर साहब ने कहा - ‘कुछ और कहना है क्या आपको।’

‘नहीं-नहीं ऑफिस का कुछ टेंशन है’ अभिजीत ने अचानक से कहा।

मास्टर साहब को यह बहुत अजीब लगा। बात को दामोदर ने संभालना चाहा। ‘अरे सर इ अमेरिका वाली सारे कम्पनी ऐसे ही परेशान करता है। हमेशा कुछ न कुछ टेंशन।’ दामोदर ने ऐसे कहा जैसे उसके पास अनुभव की कमी नहीं है।

अभिजीत के दिमाग में अचानक से आया ‘पर यह तो कोरिया की कम्पनी है।’ लेकिन उसने कुछ कहा नहीं। झटके से वह उठ गया। ‘कल रकम पकड़ लेते हैं। कम्पनी को लेकर कुछ टेंशन है। अभी दिमाग एकदम से पजल हो गया है। प्लीज़।’ दामोदर की इस ‘टेंशन’ वाली बात से यह आइडिया दिमाग में आया। दामोदर ने कुछ पूछना चाहा लेकिन अभिजीत ने प्लीज़ कहके उसे समझाना चाहा। अभिजीत फोन पर बहुत गम्भीर होकर कुछ काम करने लगा।

‘कोई नहीं, टिकट तो परसों की है। कल सब फाइनल कर लेंगे। इ कम्पनी वाला सब परेशान करता है। अब नौकरी है तभी तो सब फुटानी है बाबू। उसकी बात तो माननी ही होगी ना।’ दामोदर मास्टर साहब को कनविंस कर रहा था।

शाम को नंदिनी का फोन आया। अभिजीत ने बहुत ही अनमने ढंग से फोन उठाया। उसे बस इतना बतलाया कि आज नहीं, कल फाइनल होगा।

उस समय से अभिजीत कहीं बाहर नहीं गया। खाना भी घर पर ही आया। रात को वह सोने गया पर नींद बहुत देर तक नहीं आयी। सोने से पहले अभिजीत ने बरामदे से बगीचे की तरफ देखा, वहां जुगनुओं की चमक नहीं थी। वह उदास हो गया।

ग्यारह

गहरी नींद में डूबने के बाद अभिजीत सपने के एक गहरे दलदल में भी उतर गया। सपने में पिता की उंगली पकड़े अन्नु मेले में आया हुआ है। अन्नु दस-बारह साल का है और साथ में इशिका और अवनी भी है। मेले में बहुत भीड़ है और पिता का हाथ छूट जाता है। पिता खो जाते हैं। अन्नु इशिका और अवनी को समझाता है कि हमारे पास अपना घर है तो हमें कुछ नहीं होगा। अचानक माँ मिल जाती है। माँ उसे ढ़ूंढ़ते हुए बदहवास वहाँ आती है। बच्चों के मिल जाने पर माँ बहुत खुश होती है और कहती है आज उसने घर पर पूरी और हलवा बनाया है। जब बच्चे घर पहुँचते हैं तब इशिका और अवनी बड़ी और छोटी दीदी बन जाती है। घर आते हुए वे देखते हैं कि पिता तो यहाँ कुएँ पर स्नान कर रहे हैं। पिता ने कहा, तुम लोग कहाँ चले गए थे तुम्हारे लिए पेड़ से पके हुए आम लाया हूँ।

फिर अचानक से माँ पलंग पर दिखती है और बहुत खुश। वह कहती है बड़ी की शादी होने वाली है। बहुत बढ़िया लड़का मिला है। फिर शादी हो रही है। लेकिन शादी में अभिजीत और नंदिनी हैं। पिता कहते हैं बस अब छोटी की शादी हो जाए तो यह घर-ज़मीन बेचकर हरिद्वार चला जाउंगा। माँ कहती है फिर मेरा क्या होगा। पिता गुस्सा हो जाते हैं, कहते हैं - दोनों बेटियों की शादी हो तो गयी अब क्या। तुम कहीं भी जाओ। अभिजीत कहता है तुम मेरे साथ चलना। माँ कहती है पहले बड़ा तो हो जा बेटा। अब दृश्य बदल जाता है सभी लोग एक खेत में पैदल चल रहे हैं। सबलोग यानि माता-पिता, जवान अभिजीत और नंदिनी। नंदिनी थक जाती है, पूछती है और कितना चलना है, घर कहाँ चला गया। अभिजीत कह रहा है वही तो ढ़ूँढ रहे हैं। मिल नहीं रहा है पहले तो यहीं कहीं हुआ करता था।

फिर घर का दृश्य आता है। घर में अवनी का जन्मदिन मनाया जा रहा है। इसी घर में अभिजीत के ऑफिस के कलीग भी हैं और उसके माता-पिता भी। केक कटने के बाद सारे कलीग कहते हैं, अपना बगीचा दिखाओ। अभिजीत घबरा जाता है। दूसरे कमरे में वह नंदिनी के पास जाता है यह पूछने के लिए कि अब वह क्या करे। अब बगीचा वह लाए कहाँ से। बगीचा तो कल ही गायब हो गया है। सारे कलीग को जब यह पता चलता है तब वे बिना केक खाए वापस चले जाते हैं और कहते हैं तुम अब ऑफिस भी मत आना। तुम्हें अब वहां पहचानेगा ही कौन। अभिजीत उदास हो जाता है। पिता कंधे पर हाथ रखते हैं और कहते हैं - फिर से उठकर खड़े होने को ही ज़िन्दगी कहते हैं। पिता उसे अपने साथ ज़मीन पर बैठाकर खाना खिलाते हैं। फिर अचानक बाहर बहुत तेज आंधी-तूफान और फिर बारिश शुरू हो जाती है। बिजली चमकने से इशिका-अवनी डर जाती हैं। पिता उठकर घर का दरवाज़ा बंद कर देते हैं और कहते हैं अब तुम सब सुरक्षित हो।

अभिजीत अपने परिवार को लेकर दिल्ली जाने को होता है और पिता रोने लगते हैं। कहते हैं मेरा अंत समय आने वाला है अभी मत जाओ तुमलोग। अभिजीत रुक जाता है और पिता का अंत समय आ जाता है। पिता का शरीर इसी कमरे में रखा हुआ और माँ अपने संदूक को पकड़ कर खड़ी है। कहती है अब मैं भी रहकर क्या करूंगी बेटा बस तुम यह संदूक मत फेंकना। अभिजीत अब फिर से बारह वर्ष का बच्चा बन जाता है। वह छत पर है और वह वहीं चलना शुरू कर देता है। चलते-चलते वह किनारे आ जाता है और वह गिरने को होता है कि पिता अपने पार्थिव शरीर में से उठकर आ जाते हैं। वह गिरते हुए अन्नु को गोद में पकड़ लेते हैं और उसे घर के अन्दर ले जाते हैं।

अभिजीत की घबराहट से नींद खुल जाती है। वह उठ जाता है। वह पसीने से तरबतर होता है। पसीना उसके कान के पीछे से बह रहा होता है। उसकी सांसें तेज़ हैं। बिस्तर के बगल में रखी पानी की बोतल से वह पानी पीता है और अपनी घड़ी में समय देखता है - सुबह के चार बजे हैं। वह उठता है और थोड़ी देर शांत बैठकर अपनी सांसों को नियत करने की कोशिश करता है। फिर वह अचानक उठता है, बाहर देखता है। बाहर अंधेरा है। वह जल्दी जल्दी अपना सामान पैक करता है। पूरे घर में बढ़िया से ताला मारकर चुपचाप घर से निकल जाता है। निकलते हुए वह फिर से उस नेमप्लेट को देखता है। उसे याद आता है कि उसने नेमप्लेट की सफाई नहीं की। वह वहीं सामान रख कर अपनी शर्ट की बाजू से नेमप्लेट को साफ कर देता है। वह बाहर निकलकर बगीचे की तरफ जाता है। बाहर अभी घुप्प अँधेरा है। सर्द हवा चल रही है। बगीचे में जुगनू चमक रहे हैं। यह देखकर वह बहुत खुश हो जाता है। वह बैग को कंधे पर लटकाए कुएँ के पास आता है और कुएँ के भीतर झाँक कर एक बार धीमी हँसी हँसता है। वह कुएँ में एक तरह से अपने मुंह को घुसाकर बहुत धीमी आवाज़ में, लेकिन पूरे आत्मविश्वास से कहता है - ‘यह हमारी डीह है और हमारी ही रहेगी। डीह को छोड़ेगे तो हम कैसे बचेंगे।’ इतना कहकर वह पलटकर सीधी दिशा में चल देता है। थोड़ी दूर जाकर, रुककर वह पीछे घर को देखता है, घर उसे देखकर मुस्कुरा रहा था।

उमा शंकर चौधरी, बी-364, सरिता विहार, दिल्ली-110076, मो0-9810229111

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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1 टिप्पणियाँ

  1. ममता कालिया जी -
    टिप्पणी का स्थान नही दिखा।तुम्हीं वहां पहुंचा देना।
    अभी उमाशंकर चौधरी की कहानी,"सितारों के बीच टंका है एक घर"शब्दांकन डॉट कॉम पर पढ़ी।कहांनी लंबी है जो प्रायः उमा की विशिष्टता होती है।लेकिन कहानी एक खास मर्मस्थल खोलती है कि जड़ों को छोड़ना हर व्यक्ति के लिए आसान नही होता।जिसके भी अंदर स्मृतियों की नमी बची हुई है,उसके लिए अपना ठिया ठिकाना छोड़ना वजूद के अहम हिस्से का छिल जाने जैसा है।अच्छी और महत्वपूर्ण लगी रचना।

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