चइता गाते हुए स्त्रियों ने गुहराया इतना राम को कि/ अगिन समा गई भीतर/ इतने भीतर की सीता का संताप आज भी हरा है यहाँ
कविता में लोक की एंट्री
बारहमासा
= 1 = चैत्र
महुआ रात भर गाता है बसंत गीत
कोयली देती है तान कूँहू-कूँहू
आम की मंजरियों में लटक रहे टिकोरे कर रहे हैं अठखेलियाँ
फागुनी हवा ने पी लिया है महुए का गंध
और बहती है झर झर
उधर से गुज़रती स्त्रियाँ पकड़ लेतीं कसकर आँचल
कि लाज की मोटरी बची रहे
लाजवती स्त्रियों ने ही चैत्र के पाँव में महावर रचे
सतुआ-पीसान की गठरी-मोटरी सहेजती स्त्रियाँ पूज आतीं हैं इन दिनों वट वृक्ष, नीम और पीपल को
अम्मा एक किस्सा सुनाती कि इन्हीं दिनों ब्रह्मा ने की थी सृष्टि की रचना
ये जाड़े के उतरने के दिन
इन दिनों नदियों की धार पकड़ लेती गति
वह बहती हवा के झोंके संग थोड़ा रहस-बिहस
स्मृति में बसा अम्मा का गाँव उमापुर
जहाँ बहती है टौंस
इसी टौंस में बहाया था अम्मा ने
बचपन के सपनों की पिटारी को
ब्याह दी गई बचपन में ही फिर
अटका रहा बचपन वहीं तमसा की लहरों में
कितनी-कितनी बार लेना चाहा था उसने जल समाधि
और टौंस ने उसे फेंक दिया था किनारे पर
नदियाँ अनायास नहीं डुबोती किसी को
वह पाँच बार उछालती हैं सतह पर
अम्मा कहती कि उसे टौंस नहीं मारेगी
मारेगी दुनिया की नदी
बाहर की नदी से अधिक गहरी थी दुःख की नदी
चार बेटियों वाली अम्मा डूबी हर बार
जन कर बेटी लाज की नदी में
बेटियाँ कहाँ तारती हैं माँ को
सबने कहा
उसने सुना, बेटियाँ ही जीती हैं माँ को
कनैर, गुड़हल, गुलदाउदी,सूरजमुखी, गेंदा, सदाबहार, बोगनवेलिया और टह-टह लाल टेसू के फूल इन्हीं दिनों कुछ अधिक चटख खिलते
धूप भी पकड़ने लगती अगिन
चैत का महीना नीम के फूलों का महीना
वह फूलते और झरते झर्रss झर्र पाकर फागुन का झोंका
दुवार का नीम गुलज़ार रहता
गौरैया,तोता,मैना, ललमुनिया चिरई से
आकाश के ताखे पर रखा चाँद का दीया जब बुझने लगता
सुकऊवा उग आता पूरब में
अम्मा भिनसहरे डाली ले चुपके से निकल जाती बारी
सफेद महुआ के फूल हरी मटमैली धरती की चादर पर दूर तक बिखरे जोहते बाट
महुआ और अम्मा एक से
एक से उनके रस-गंध
रस-गंध से बनी एक स्त्री है अम्मा
वह कभी सूखती नहीं है
महुआ के तीनों पेड़ कट गये पिछले साल
अब वहाँ सड़क बनेगी
लोग सरपट भागेंगे शहर
दौड़ेंगी गाड़ियाँ
इक्का बिला गया अब मेरे गाँव का
महुवे को लील गई काली सड़क…
सेमल के टहटह लाल फूल
चइत की अगिन
चइता गाते हुए स्त्रियों ने गुहराया इतना राम को कि
अगिन समा गई भीतर
इतने भीतर की सीता का संताप आज भी हरा है यहाँ
इसी चइत में किसी अभागन की झुलनी ले भागा कागा
और उसका संइया अभागा नहीं जागा
तबसे ही बैठती है मंडली चौबे बाबा के दुवार पर
गाते हैं लोग - नकबेसर कागा ले भागा, मोरा संइया अभागा ना जागा।
शायद इसीलिए इन स्त्रियों ने कागा को बना लिया अपने बच्चों का मामा
कागा मामा तबसे लिए आते हैं पाहुनों का संदेश
और उसे उधो का प्रतिनिधि मान करती हैं शिकायतें
देतीं हैं ताने कि उनके पाहुन इस चइत भी नहीं लौटे गाँव
खिलने लगे सेमल, कनेर, अड़हुल, अमलता, बोगनवेलिया, बुरांश
और किसिम-किसिम के फूल फूले इन दिनों
आमों के बौराए मौरों में लगने लगे टिकोरे
कोयल कूहुक उठी आदिम राग
स्त्रियों ने बटोर लिए रंग आँचल में
इन्हीं रंगों से सजी धरती
एक स्त्री के स्वागत में सबने
लीप कर दुवार
पूर दिया चौक चंदन
शक्ति स्वरूपा स्त्री पूजी गई
घर की औरतें रहीं कोना-कतारी
इनकी आराध्या भवानी खुश हो जातीं हैं इनके मंगल गीतों को सुन
जब स्त्रियों ने गाया - निमिया के डाल पर देवी डालती हैं झूला
और झूलते हुए मांगती हैं अँजुरी भर जल मालन से
सृष्टि की मालिनें स्त्रियाँ
जानतीं हैं नीम और जल के महत्व को
इसी लिए बार-बार बचा लेना चाहतीं हैं अपने गीतों में
नीम और जल को…
= 2 = वैशाख
गेहूँ की पक चुकी बालियों से उखाड़ते हुए खरपतवार
फसल के घर लाने की शुरू होती है तैयारी
नवान्न की गंध घुल जाती है चारों ओर
गर्म हो उठती है दोपहर की हवा
आसमान में छाई बादलों की खिड़कियाँ बंद होने लगतीं
बारह मासे का सबसे श्रेष्ठ मास यह
कहती अम्मा ज्ञान, निर्वाण एवं अक्षय वर का वरदान लिए आता है वैशाख
स्त्रियों ने गंगा से मिलने के अनेक बहाने खोजे
पियरी चुनरी लिए चल पड़ीं गंगा घाट वैशाखी स्नान को
वैशाख स्नान कर महीरथ ने पाया वैकुंठ
वरूण का तेज़ लिए जगता इन दिनों सूरज
सिद्धार्थ के बुद्ध बनने का साक्षी
नाना सुनाते हुए कथा, कहते–
ग्रंथों में श्रेष्ठ वेद
नदियों में गंगा
मंत्रों में प्रणव
वृक्षों में कल्पवृक्ष
धेनुओं में कामधेनु
धातुओं में सुवर्ण इत्यादि
वैसे ही मासों में वैशाख…
इन्हीं दिनों निकलते बीज भण्डारे से
मूंग-, मेथी, लौकी, भिंडी, करैला
सबसे सुंदर लगते सूरजमुखी के बीज
दुवार के चक पर छींटे जाते
फूटते कोंपलों से सजी धरती
थोड़ी पीली, थोड़ी लाल
कटने को तैयार
जौ, गेहूँ, चना, मटर
जब पहुँचते सिवान से घर
गोबर से लीपी, पुती कोठरी के चौखट का
निहुरकर अम्मा छूती पैर
कोठार, कोठिला, कुंडा भर जाते
भर जाती हवाओं में वैशाख की गंध
अन्नपूर्णा अम्मा,
छिपाती कुछ अन्न हांड़ी-पतुकी
गठिला-मेटी में
दुर्दिन के लिए…
= 3 = जेठ के दिन
मैदानी नदी से दिन
बढ़ते ही जाते हैं
सूरज के उगने और ढ़लने के क्रम में
बदलता है रंग जीवन…
दिन उदास सा साथी
अपने कांधे पर उम्मीदों की गठरी धरे
बढ़ा जाता है
अम्मा हिदायत देते हुए कहती
सम्हाल के रखो अंगारी
माचिस की तीली मत फेंकना
इधर-उधर
इन दिनों जेठ आती है नईहर
नईहर में बेटियाँ रहती हैं
बहुत चंचल
चंचल अग्नि भक्क से पकड़ती है
झट से फैलती है और लील लेती है
गाँव के गाँव
खलिहान में पड़े भूसे के ढेर को देखता है किसान
अब न चरन है न पशु बचे हैं दुवार पर
गर्म हवा संग उड़ गई चिरई
बिला गए सुंदर दिन
बहुत शोर है चारों तरफ़
कुछ भी साफ-साफ सुनाई नहीं देता
हर आदमी खो जाना चाहता है भीड़ में
दुनिया का रेला बढ़ा आता है गाँव की ओर
एक शोर बढ़ रहा है इन दिनों
गाँव चिहुँक कर जाग जाता है….
किसी हठी बच्चे सा अड़ा मन
दोपहर की तपती धरती पर रखता है पैर
पैरों में छाले हैं
मन पहचानने लगा है धरती का ताप
सूरज की गरमी से ज्यादा आग है धरती के पास
या इतनी दाह है लोगों के मन में कि
अक्सर जल उठती है धरती
यहाँ सर्दियों की सुखद दोपहरी संग
जेठ के लू भरे थपेड़े भी हैं
किसान पहचानता है इन दिनों को
सतुवा- पिसान सा उसका मन
हमेशा याद रखता है जीवन में
मौसम की आवाजाही को
इस लिए जमाए रखता है पैर ज़मीन पर
उसका सुच्चा मन चमकता है सोने-सा
सूरज इसी से उधार लेता है उजास
ऋतुएँ पहचानती हैं इनका मन
जब तक धरती पर इनका डेरा है
बची रहेंगीं सभ्यताएँ
क्यों कि यह न थकते हैं न हार मानते हैं
किसान धरती का रंग, गंध पहचानते हैं…
= 4 = आषाढ़ की रात
रोपनी के दिन हैं
किसान उतरता है पानी लगे खेतों में
गहराती रातों में
नींद की लुका छिपी के बीच
बहती है स्मृतियों की नदी
बेकली भरी इन रातों का स्याह अंधेरा
सन्नाटे के बीच पहरेदार झिंगुर बजाते हैं जब सीटी
चौकन्ना करने से ज्यादा चौंकाते हैं
किसी प्रेत की तरह डोलता है मन
कितना कुछ पीया है अनचाहा
कितने अनचीन्हे रास्तों पर चला है
कितनी बार बँधा है पीपल पर घण्ट उसके नाम का
कितना बहा है पानी जीवन नदी का
पर कोई किनारा दीखता ही नहीं…
आषाढ़ उम्मीद का नाम है उसके लिए
बीज बढ़ाती है उम्मीदों की बाती
इस साल आएगा गोड़़ तोड़कर धान घर
भर जाएगा कोठिला, कुण्डा
कोना, अतारी
सोचता है बैठकर खेत के मेढ़ पर
जैसे-जैसे बढ़ते हैं धान के शिशु
दस्तक देने लगता है क्वार
खलिहानों तक आते-आते धान
बहने लगती है फागुनी पवन
खेत दरअसल किसान की पोथी है
वहीं वह लिखता-बांचता है जीवन
कम- से- कम में जी लेने का हुनर
वह इन खेतों से सीखता है
इधर गाँवों की ओर बढ़ रहा है शहर
आषाढ़ सूखने लगा है
उसके आँखों की नमी सूख रही है
एक अनकही बेचैनी बनी रहती है मन में
दिन का कोलाहल कितना पराया है
जानने लगा है इन दिनों
अब न पहले से दिन रहे न रातें रहीं
एक दिन शायद सब भूल जाएंगे उसका नाम
वह उदास है इन दिनों
पानी की कमी से ज्यादा जीवनी की नमी खोने से….
= 5 = सावन
सावन आसमान से झरते प्रेम पातियों का महीना
इन्हीं दिनों लिखतीं हैं स्त्रियां घिरते बादलों की पीठ पर प्रेम-पत्र
पिता,पति,प्रेमी और सखियों के नाम
सावन में पिताओं ने पढ़े बेटियों के सुख-दुख
परदेसी पतियों ने विरह का दुःख पढ़ा
प्रेमियों ने स्त्री का मन पढ़ा
नहीं रहा अब सावन वैसा
जैसा हुआ करता था
न बाबा का लगाया दुवार का नीम बचा
अब अम्मा की लरजती आवाज़ में भी वह खनक नहीं बची
अब वह नहीं गाती-
निमिया के पेड़ जनि काटा ए बाबा!
निमिया चिरईया लेली वास…
वह कोई कजरी की तान भी नहीं छेड़ती
उदास आँखों से देखती है सावन को
और स्मृतियों में उभर आतीं सखियाँ
सब गा रही हैं—हरि-हरि ना माने
सावन के बदर रस-रस बरसे लगे
लौटती है स्मृतियों के कपाट बंदकर और देखती है कि
अब काले बादलों की वह उमड़- घुमड़ भी नहीं रही
बूंदों की वह झनक- खनक नृत्य भी खो गए
गली में बहती बरसाती नदी और काग़ज़ के नाव खो गए
कजरी, झूला और सखियों का हिलना- मिलना भी स्वप्न हुआ
इस सावन में पकड़कर बैठ जाना चाहती हूँ माँ का आँचल
रोक लेना चाहती हूँ पुराने दिनों को
इतनी नई हुई जाती है दुनिया कि
नीम कटते जा रहे
चिरई बिलाती जा रही
सावन सूख रहा
कृषि सुखानी हुई…..
= 6 = भादों
भादों में मन भंदईं के भात-सा खदबदाता और उठने लगती भाप बन इच्छाएँ
अनन्त इच्छाओं की पोटली सिर पर लिए लौट जाता सावन
बिरह की मोटी परत जम जाती भादों की रातों में
रात भर पिघलती आकाश की अटारी से विरहन की देह
भादों प्रेमियों के लौटने का महीना…
इन दिनों अम्मा के पैर पर लगा आलता और चटख हो जाता
तीज के दिन वह पूजती शिव संग गौरी को
गौरी ने पाया था मनचीता वर
वह पहली प्रेमिका रही जिसने पाया अपने प्रेयस को
इन्हीं अँधेरी रातों में जन्मा था वह प्रेमी ब्रज में
जिनसे स्त्रियों ने प्रेम किया ब्रज की
वह उसके प्रेम में भूल बैठीं लोक लाज
मीरा ने भी प्रेम किया उसी से
भादों प्रेमियों के उगने का महीना
श्याम घन जब घिरते आकाश में
धरती हुलस कर गाने लगती मंगलगीत….
चतुर्मास के इस महीने में
रहती रज-गज
धनिये की पंजीरी, हलवा-पूड़ी
खीर, मिठाई के स्वाद संग ओरवानी से चूते पानी में
घुल जातीं मेंहदी के रंग में स्त्रियाँ
हरियाली घुल जाती उनकी देह में
हरित पल्लवों की ओट से वह निरखतीं वह जग को
स्नेह, दुलार से रिक्त बेटियाँ
पूरित हुईं प्रेम से इन्हीं दिनों
इन्हीं दिनों तीज का उपहार लिए मिलने आए भाई-पिता
स्त्रियों ने प्रेम किया ज्वार, बाजरे, मूंग, उड़द तथा मक्के के बीजों से
वह बीज बोतीं और सहेज लेतीं जीवन।
यह दुनिया
उन्हीं बीजों से बची है।
= 7 = क्वार
पियराने लगते हैं जब दिन
धूप के दर्पण में खिल उठती है धरती
क्वार की चटख धूप में खोलती हैं औरतें
अपनी झांपी के संदूक
इन संदूकों में तहा कर रखी उनकी पियरी- चुनरी
इस ताकिद के साथ सहेजी गयीं कि
अन्तिम बेला में उन्हें इन्हीं में लपेट कर भेज दिया जाए अंतिम यात्रा पर
गुलाबी सिहरने जब उतरने लगती नसों में
हरे हो उठते पुराने ज़ख्म
दर्द से कहरते स्त्रियों ने क्वार से कहा- चलो लौट चलते हैं पुराने ठिहे पर
पर वह यह भी जानती थीं कि
लौटना उन्हें बदा ही नहीं
क्वार की नमी सहेजे हवा संग
मिट्टी भी हो जाती है थोड़ी नम
जलने लगता है दुवार पर कउड़ा
ओल्हा-पाती
लकड़सुंघनी
अंटी-चौक
चिप्पी, गिट्टी खेलती दुवार पर लड़कियाँ
स्त्रियों ने धान की हरी बालियों से जाना हाल क्वार का
दूध के दाने भरे धान
चिरई का प्रान
वह मंत्र की तरह जपेगी क्वार को
दीया-बाती के दिनों में महक उठेगा गाँव सोन्ही माटी के गँध से
चाक पर गढ़ते दीयों की कहानी
चली आ रही है ना जाने कबसे
कुम्हार का आंवा सजेगा
पकेंगे दीये
यह पकने और गढ़ने के दिन
धरती ओढ़ लेती है क्वार में नरम धूप की ओढ़नी
= 8 = कातिक
विष्णु के योग निद्रा से जागते ही
तुलसी की आराधना आरंभ होती
नीम अंधेरे
तुलसी के चौरे पर
बार कर दीया
रख गई है एक स्त्री
कतकी नहाते भोर में
वह जपती है प्रेम मंत्र
तुलसी ने प्रेम किया था विष्णु से
स्त्रियों ने याद रखा प्रेम
वह करती हैं आज भी तुलसी का ब्याह
कतकी की ठिठुरती रातें
सर्द हवाएं
नहीं रोक सकतीं उन्हें
वह करतीं हैं अपनी भाषा में प्रेम
बहुत अंबोली है यह भाषा
खो चुकी पगडंडियों का गवाक्ष है अब गाँव
धूल, मिट्टी,गर्द से पट चुके पोखर,ताल,तलइया
अबकी पुरखों का बनाया वह कुआँ भी पाट दिया गया
जिसकी जगत पर बैठकर बिदाई के दिन गिनती थीं बेटियाँ
कुछ परदेसी अपनी पीठ पर श्रम श्वेद लादे लौटते थे इन्हीं दिनों
दीया, दिवाली के दिन,
हरखू कुम्हार के डोलते चाक पर बनते दीये
कतार में सजाती चुनिया और मुनिया
आंवा तैयार करता रामहरख
सब बिला गये
सब चले गए परदेस
देस में बस इतना बचा कि
हरखू काका अपनी बूढ़ी आँखों से टकटकी लगाए
जोहते हैं सालभर कतकी को
दीया-दीवारी के दिन
कम- से कम ग्यारह दीया तो जरूर जलेगा
डीह, ब्रह्म,इनार, दुवार,घूरा,तुलसी,
नीम,पीपल,पूरब, पश्चिम
एक जम का दीया
इतनी भर दीवारी बची है
बाकी धुआं है
धमाका है
लाइट है,झालर है
सेल्फी और तमाशा है
न अड़ोस बचा न पड़ोस
पुरईन के पात सा डोलता मन
किसी अँखुवाई कुमुदिनी के लोभ में भागता है
कहाँ खोजेंगी आँखें उस देस को
जो अब परदेस हुआ जाता है….
= 9 = अगहन
बाबा ने कहा- “मंगल मूल लग्न दिन आवा ।
हिम ऋतु अगहन मास सुहावा।।”
कृष्ण ने कहा- “मासानां मार्गशीर्षोऽहम्।”
अम्मा के लिए यह अगहनिया भात
हरे धनिया के पत्ते संग चटख तीखी मिर्ची की चटनी और ललका भात सा अगहन
स्त्रियों ने कर्मरेख की सीधी पकड़ी
चल पड़ी एक-दूसरे का हाथ थामे
उनके हिस्से हमेशा पसिंजर ट्रेनें ही रहीं
ढुलमुल-ढुलकते बैलगाड़ियों में वो बैठीं
इक्के के किनारे पर बाँध भूलीं नहान से लौटते अपने रेशमी फूलने
ख़ूब रसदार सब्जियों संग रिन्हें मकई के भात
गुड़ की ढ़ेलियों संग ख़ूब महकीं बाजरे की हथरोटिया
दाल टूटन की लिट्टी से तृप्त हो जाती आत्मा जब अगहनिया बरखा बरसती
गीता के संदेश का मास कर्मयोग मास अगहन
अम्मा कहती- अगहन दूना,पूस सवाई
बाबूजी कहते- अमृत बरसा रहे हैं मेघ
मिथिला की स्त्रियों ने ख़ूब सुनाई थी गाली राम को अगहन में
अवध में लहंगा झटका कर रूठीं थी कौशल्या
कहा था बेटे से–“एक ही रात पूत रहला ससुरारी, सासु के एतनी बड़ाई!
जानकी ने वरा राम को अगहन में
अगहनिया बियाह तबसे नहीं होते
बेटियाँ मिथिला की कम ही ब्याही जातीं हैं तबसे अवध में
कहती बुढ़िया नाउन कि राम-सा बर न मिले बेटियों को
उसे अड़भंगी बहुत भाते
रखकर बेटियों के माथे पर अँचरा असिसती
मिले भोले सा संगी
संग साथ के ताने-बाने में बँधी स्त्रियों ने गीता के कर्मयोग की साधना की
सबको पाला
सबको दिया
सबकुछ बचाया
बिना किसी उलाहने के चलती रहीं
पर बाबा ने नहीं देखा
सुना तो बिल्कुल नहीं
वह दुवार पर आँखवाले रहे
आँगन में आन्हर हुए
किसी मंत्र की तरह दुहराते गये दुनिया से
औरतों के नाक न हो तो बिष्टा खाँए…
= 10 = पूस
बोरसी की आग बची रहती है तब तक
जबतक स्त्रियों के बच्चे
चिरई चुरूंग
कुक्कुर बिलार
सो नहीं जाते
कउड़ा के इर्द-गिर्द
बैठती है संगत गांती बाँधकर
पुवाल,खोई,गोईंठा,भूसी
लकड़ी की मध्यम आँच
आलू,गंजी,प्याज को भूनकर खाते बच्चे
अँधेरा घिरते दुबक जाते है
पुवाल की बिछी पहल पर
पूस की संझा बजती है झन- झन
झिंगुरों की आवाज़
कुत्तों का रूदन
सियार की हुंकार
भर देते हैं अंधेरी रातों को स्यापा से
सब सिमट जाते हैं अपनी गठरी-मोटरी में
ठण्ड की सफेद चादर जब उतर आती है
आसमान से धरती तक भींज जाते चिरई-चुरुंग
खोजते वह ओखवानी ताखा,
कोना, डांड-मुंडेर
और कुछ ही दिनों बाद
उनके घरौदों से आने लगती
चीं-चीं-चीं की मधुर गुंजन
आजी रख आतीं वहीं ओट में
बोरसी की आग में बचा ताप
बचाये रखता सबको
वह सृष्टि का आवां
इसी आंवे में बची रहीं सभ्यता
बार-बार नष्ट होने के
बाद भी…
= 11 = माघ
सूर्य के उत्तरायण होते
समेटने लगती है सर्दी अपना साजो सामान
गर्म होने लगते हैं धीरे-धीरे दिन
तिल, गुड़ ,चिउड़ा को गांती में बाँधे लौटने लगते हैं बचपन के दिन
संक्रांति के मेले और नहान-दान कर जब लौटते हैं बच्चे
छतों पर पतंग ले
आसमान में उड़ते पतंगों के पेंचे जा लड़ते हैं कुछ आँखों में
पतंगों के रंग में सराबोर आशिक
कलाबाजियों दिखाते आसमान में ऐसे उड़ते हैं जैसे वह ही आसमान में हों
रहीम भाई की पतंगों के आशिक भी कम न थे हमारे शहर में
छोटी बड़ी,लम्बी पूँछों वाली
कुछ काजल-सी काली तो कुछ टेसू से लाल
रहीम भाई बड़े कमाल से धनुष की तरह मोड़ते तानी और पतले रंगीन काग़ज़ से तैयार करते पतंग
अजब हुनर था उनके हाथ में
रहमत बरसाती थीं उनकी पतंगें
लूटी गई पतंगों का अलग ही मिजाज था उन दिनों
लूटी की पतंगों के मालिक अपनी प्ररेतियों में लपेटते हुए मंझा।
समझते खुद को साहब बहादुर
मघ बदरी के घिरने पर
चिरई हो जाती है चौकन्नी
अपने नन्हें शिशुओं को ढ़ंक लेती है पंखों से
आजी कहतीं की माघ में चूल्हा नहीं डालते
माघ के चूल्हे बाघ होते हैं
खा जाते हैं जवानों को।
= 12 = फागुन
जब धरती ओढ़लेती छिंटदार ओढ़नी और खिलखिलाकर हँसने लगती ऐसे
जैसे नई ब्याहता हँसती है प्रिय को देखकर
घर की मुंडेर पर बैठकर उचारते कागा
पाहुनों के आने का संदेश लिए
आमों के मौर पर बैठी तितली पंख पसार कर समेट लेती रस-गंध
धरती का रंग थोड़ा और पीत हो जाता
वह किसिम किसिम के फूलों की पंखुड़ियाँ गूँथ लेती गजरे में
थोड़ी चटख काजर पारती और आम के फाँको से नैनो में तीर-सी खींचती अंजन
पीत रंग की ओढ़नी ओढ़कर बैठी दुल्हिन-सी धरती
पियराये सरसों के फूलों संग बैठकर गाती है फगुवा
पात पात पर चढ़ा है फगुवे का रंग
अम्मा की टोली ने ढ़ोलक की थाप पर छेड़ा है तान…
रसमाते महुए की डाल से मदनरस टप टप चूता है
रंस गंध में डूबीं हवा बहती है मदमस्त हो
मासों में मधुमास यह
महारास की बेला
चन्द्रमा की सोलह कलाओं का आलोक खिलता है इन्हीं दिनों
रंग बहुत थे दुनिया में
लाल,नीले,पीले,जामुनी,चंपई,गुलाबी,बैंगनी
रानी,धानी,बसंती,काही,भूरा,सफेद
और बहुत से ऐसे जिसे स्त्रियाँ
चटकहवा,फेकस्हवा,फीका इत्यादि कह कर बतातीं
इन्हीं रंगों के दिनों में स्त्रियों ने रंगने के देसी विकल्प खोजें
कीच,माटी,गोबर,पानी जो मिला उसी से रंगा सभी को
ये रंग कहीं दर्ज हों न हों
उनकी आत्मा में बहुत गहरे बसे
इतना की हर साल अभावों में भी फगुवा हुलसता बीता
डॉ. सोनी पाण्डेय
जन्म: 12 जुलाई, मऊ नाथ भंजन (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा: एम.ए.(हिन्दी), बी.एड., पी.एच.डी.
पीएचडी विषय: निराला का कथा साहित्य: कथ्य और शिल्प
प्रकाशित पुस्तकें:
- मन की खुलती गिरहें (कविता संग्रह) 2014
- बलमा जी का स्टूडियो (कहानी संग्रह)
- मितरा कब मिलोगे (तीन लम्बी कहानियों का संग्रह)
- मोहपाश (कहानी संग्रह)
- निराला का कथा साहित्यः वस्तु और शिल्प (2019)
- आखिरी प्रेम-पत्र (कविता संग्रह)
- सुनो कबीर (उपन्यास)
- उषाकिरण खान का कथा लोक
- खुश रंग लिफ़ाफ़ों में बचपन की चिट्ठियां
ईमेल: pandeysoni.azh@gmail.com
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