इरफ़ान ख़ान पर लिखा, विविध भारती के उद्घोषक, फिल्मों के गहरे जानकार, लेखक यूनस ख़ान का यह लेख इरफ़ान ख़ान की जीवनी तो नहीं है, लेकिन अब तक पढ़ी इरफ़ान ख़ान की प्रोफाइल में सर्वश्रेष्ठ है। ... भरत एस तिवारी/शब्दांकन संपादक
इरफ़ान ख़ान, गहरी आंखों और समंदर-सी प्रतिभा वाला कलाकार
वो जो था ख़्वाब-सा...
(इरफ़ान के लिए)
— यूनुस ख़ान
‘हैलो भाईयो और बहनो, नमस्कार।
मैं इरफ़ान।
मैं आपके साथ हूं भी और नहीं भी। ख़ैर।
मेरे शरीर के अंदर कुछ अनवॉन्टेड मेहमान बैठे हुए हैं। उनसे वार्तालाप चल रहा है।
देखते हैं किस करवट ऊँट बैठता है।
जैसा भी होगा आपको इत्तला कर दी जायेगी।
कहावत है,
When life give you lemon. You make a lemonade,
बोलने में अच्छा लगता है।
पर सच में जब जिंदगी आपके हाथ में
नींबू थमाती है ना,
तो शिकंजी बनाना बड़ा मुश्किल हो जाता है,
लेकिन आपके पास और च्वॉइस भी क्या है,
पॉजिटिव रहने के अलावा’।
मैं इरफ़ान।
मैं आपके साथ हूं भी और नहीं भी। ख़ैर।
मेरे शरीर के अंदर कुछ अनवॉन्टेड मेहमान बैठे हुए हैं। उनसे वार्तालाप चल रहा है।
देखते हैं किस करवट ऊँट बैठता है।
जैसा भी होगा आपको इत्तला कर दी जायेगी।
कहावत है,
When life give you lemon. You make a lemonade,
बोलने में अच्छा लगता है।
पर सच में जब जिंदगी आपके हाथ में
नींबू थमाती है ना,
तो शिकंजी बनाना बड़ा मुश्किल हो जाता है,
लेकिन आपके पास और च्वॉइस भी क्या है,
पॉजिटिव रहने के अलावा’।
बारह फ़रवरी को इसी बरस ये विज्ञापन यूट्यूब पर जारी किया गया था। मैंने इस इबारत में से फिल्म से संबंधित जानकारी हटा दी है। पर इरफ़ान जिंदगी को कितनी जिंदादिली से ले रहे थे और किस तरह वो इस मुसीबत के समय में भी खूबसूरती से अपनी हालत का बयां कर रहे थे—इस बात ने उसी दिन मेरे दिल को छू लिया था। पर इसमें कहीं एक आशंका छिपी थी। इस आशंका के राक्षस ने मेरे मन में अपना सिर उठाया और लगा कहीं ऐसा तो नहीं कि.....
और वही हुआ। इरफ़ान नहीं रहे। गहरी आंखों वाले इरफ़ान। विश्वसनीय अभिनय वाले इरफ़ान। हमारे…..हम सबके इरफ़ान। इरफ़ान के अवसान के बाद सोशल मीडिया पर जिस तरह का सामूहिक दुःख देखा गया—वह जताता है कि इस अभिनेता से लोगों को किस क़दर लगाव था। सामान्य चेहरे मोहरे वाले इस व्यक्ति को जिंदगी ने कितना कम समय दिया, ख़ुद को साबित करने के लिए—पर वो इतने कम समय में बहुत सारी रोशनी कर गए। ये लेख इरफ़ान को खिराजे-अक़ीदत तो है ही पर साथ में यह भी पड़ताल करेगा कि इरफ़ान क्यों ख़ास थे। उनमें क्या ख़ास था।
इरफ़ान एक जिद का नाम
दरअसल इरफ़ान होने का मतलब है एक जिद का होना। ये जिद उनकी जिंदगी में एक अंतर्धारा की तरह चलती रही है। 1987 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से अभिनय में डिप्लोमा लेने के बाद एक अभिनेता के तौर पर अपनी मुकम्मल पहचान कायम करने में इरफ़ान को तकरीबन सोलह साल लग गए। इन सोलह सालों में इरफ़ान अभिनय में करियर की तलाश की ऊबड़-खाबड़ राहों पर चलते रहे। अपने घरों में क़ैद या अपने जीवन में मुब्तिला हम लोग नहीं समझ सकते कि मुंबई में अभिनय का संघर्ष किस क़दर थकानदेह, निचोड़ने वाला और उतार-चढ़ाव से भर होता है। हर रोज़ उम्मीद का कोई सूरज चमकता है और हर रोज़ किसी और की छत पर फूल खिला देता है। पर इरफ़ान डटे रहे। मुझे लगता है कि कहीं ना कहीं ये लंबा संघर्ष भी इरफ़ान के जल्द अवसान का कारण बना होगा।बहरहाल... इरफ़ान एक जिद का नाम हैं। हैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मेरा मन नहीं स्वीकारता कि वो नहीं हैं। उन्होंने ‘अंग्रेज़ी मीडियम’ के प्रचार में भी यही कहा था, ‘मैं हूं भी और नहीं भी’। वे होने और ना होने का द्वैत रच गए। टोंक में पैदा हुए इरफ़ान के पिता का कारोबार टायरों का था। पर ध्यान पढ़ाई पर ज्यादा था। परिवार जल्दी ही जयपुर आ बसा था और घर के पास एक मैदान था, जो इरफ़ान को पुकारता था। वहां उन्होंने ख़ूब क्रिकेट खेला। जयपुर के आयुर्वेद कॉलेज का ये मैदान इरफ़ान के क्रिकेट की दुनिया में फलने फूलने का गवाह बना। यहां भी इरफ़ान हरफनमौला थे। वे अच्छे बैट्समैन भी थे और तेज़ गति की बॉलिंग करते थे। यहां तक कि उनका सिलेक्शन सी.के.नायडू ट्रॉफी के लिए हो गया था। पर घरवालों ने इजाज़त ना दी और वे चाहकर भी क्रिकेट की दुनिया में नहीं जा सके।
घर वालों का ज़ोर था पढ़ाई पर। अब दिक्कत ये थी कि किसी तरह इरफ़ान ने ख़ुद को पढ़ाई में लगाया और उन्हीं दिनों राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित एक व्यक्ति कॉलेज में बच्चों को नाटक करवाने आया करते थे। इरफ़ान उनसे मिले और उनका गहरा प्रभाव पड़ा। ये अभिनय की दुनिया में उनका पहला क़दम था। यहां से ये तय हो गया था कि इरफ़ान एक्टिंग की दुनिया में ही जायेंगे। मैं बार बार इरफ़ान की जिद का जिक्र कर रहा हूं तो उसकी एक वजह है। जब इरफ़ान राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में डिप्लोमा के लिए चुन लिए गए—उन्हीं दिनों में पिता का ना रहना और परिवार की परेशानियां अड़चन बनकर खड़ी थीं। दो रास्ते थे। उन्होंने जिद के तहत अपना रास्ता चुना और एन एस डी चले गए।
इरफ़ान, एन एस डी से निकले और मुंबई में संघर्ष कर रहे अभिनेताओं के गौरव
डिप्लोमा के दिनों में इरफ़ान ने दूरदर्शन के लिए मिखाइल शत्रोव (Mikhail Shatrov) का एक नाटक किया था, जिसका अनुवाद साहित्यकार उदय प्रकाश ने किया था, ‘लाल घास पर नीले घोड़े’ में उन्होंने लेनिन की भूमिका निभायी थी। तकरीबन इसी समय उन्हें मीरा नायर की ‘सलाम बॉम्बे’ में कास्ट तो किया गया पर उनका रोल संपादन में काट दिया गया। ज़रा देखिएगा कि अपनी यात्रा की शुरूआत में इरफ़ान किस तरह हर किस्म का काम कर रहे थे। जब अली सरदार जाफरी दूरदर्शन के लिए ‘कहकशां’ बना रहे थे तो इरफ़ान ने उसमें मखदूम मोहीउद्दीन वाला रोल निभाया। अगर आप यूट्यूब पर खोजें तो आपको ये एपीसोड भी मिल जायेगा और इसमें जगजीत सिंह की आवाज़ में ‘इक चमेली के मंडवे तले’ गाते हुए इरफ़ान भी नज़र आ जायेंगे। इस दौरान इरफ़ान ने टीवी के लिए बहुत सारा काम किया। जिसमें ‘भारत एक खोज’, ‘चंद्रकांता’, ‘बनेगी अपनी बात’, ‘ग्रेट मराठा’, ‘श्रीकांत’ जैसे ना जाने कितने सीरियल थे।
मुझे याद है कि इरफ़ान की मौत पर संजय मिश्रा ने किस तरह उन दिनों को याद किया था जब इरफ़ान को पहली फिल्म मिली ‘एक डॉक्टर की मौत’ और मुंबई में वर्सोवा में उसका पोस्टर लगा था जिसमें इरफ़ान भी नज़र आ रहे थे। एन एस डी से निकले और मुंबई में संघर्ष कर रहे अभिनेताओं के लिए इरफ़ान गौरव बन गये थे और सभी ने इस कामयाबी का जश्न मनाया था।
मुझे याद है कि इरफ़ान की मौत पर संजय मिश्रा ने किस तरह उन दिनों को याद किया था जब इरफ़ान को पहली फिल्म मिली ‘एक डॉक्टर की मौत’ और मुंबई में वर्सोवा में उसका पोस्टर लगा था जिसमें इरफ़ान भी नज़र आ रहे थे। एन एस डी से निकले और मुंबई में संघर्ष कर रहे अभिनेताओं के लिए इरफ़ान गौरव बन गये थे और सभी ने इस कामयाबी का जश्न मनाया था।
आंखों में उतरा रक्त
हालांकि इरफ़ान के लिए असली कामयाबी के दिन अभी बहुत दूर थे। तेरह साल दूर। मैंने इरफ़ान को टीवी के अलावा फिल्मों में पहली बार मामी फिल्म फेस्टिवल में देखा था। शायद 2001 या 2002 की बात है। आसिफ कपाडिया की फिल्म ‘वॉरियर’ दिखायी जा रही थी। इस इंटरनेशनल फिल्म की कहानी युद्ध और उसमें बहे रक्त से विरक्त होकर शांति की ओर मुड़ने की थी। यहां थियेटर के घने अंधेरे में इरफ़ान की आंखों में उतरा रक्त और फिर बाद के हिस्से में उनकी तरल करूणा देखना याद रह गया।
उसके बाद उन्हें तिग्मांशु धूलिया की ‘हासिल’ में देखा। इरफ़ान जिस दर्जे के कलाकार थे—उस धारा में नसीर, ओम पुरी और उनके बाद मनोज बाजपेयी जैसे धाकड़ अपना नाम चमका चुके थे। पर ना तो अब समांतर सिनेमा का वो ताब रहा था, ना ही दर्शकों का वो हुजूम। जो करना था, वो पेशेवर सिनेमा के दायरे में करना था, जैसे मनोज कर रहे थे। कमाल की बात ये है कि हिंदी सिनेमा हर दस बारह साल में खुद को फिर से खोजता है। अपना रूप बदलता है। इरफ़ान बस इसी दौर में आए थे। हिंदी सिनेमा अब मल्टीप्लेक्स स्क्रीनों के ज़रूरत के मुताबिक बदल रहा था। नये कंटेन्ट की तलाश की जा रही थी और उसे निभाने वाले अभिनेताओं की भी। सही वक्त पर उनके संघर्ष का अंत हुआ और ‘हासिल’ ने उन्हें मुकम्मल पहचान दी। ‘हासिल’ में इरफ़ान ने दिखाया कि फिल्म का खलनायक रणविजय भी इसी संसार का सामान्य व्यक्ति है। जिस तरह उन्होंने इस किरदार को ‘अंडरप्ले’ किया, ये समझ में आ गया था कि यह अभिनेता बहुत समझदार है। वो संवाद याद कीजिए—‘भगवान ने हमको आंखें ऐसी दे दी हैं कि...’ और फिर आंखों पर थप्पड़ मारना। इस दृश्य में वो प्रेम की तलाश में निकले एक युवक नज़र आते हैं, एक क़ातिल, एक बिगड़ैल नहीं।
‘अंडरप्ले’ करना इरफ़ान का मुहावरा बन गया। और फिल्म हासिल में उनका इलाहाबादी टोन तो जैसे उनकी कामयाबी के बाद मिमिक्री करने वालों तक के लिए एक ज़रूरी कंटेंट बन गया। इसी बरस तो वो विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘मकबूल’ में मियां मकबूल बने थे। ये शेक्सपीयर के ‘मैकबेथ’ पर आधारित फिल्म थी। पंकज कपूर, तब्बू, ओमपुरी, नसीर, पियूष मिश्रा जैसे कलाकारों के सामने भी इरफ़ान ने खुद को बड़ी खूबसूरती से साबित किया। इरफ़ान की सबसे बड़ी खासियत ये थी कि उनके भीतर ‘इंप्रेशनिज्म’ नहीं था। वो कभी, किसी भी तरह अपना प्रभाव कायम करने के लिए ओवर द बोर्ड नहीं जाते। उन्होंने अपने कई इंटरव्यू में बताया था कि लोग उनकी गहरी आंखों की बातें करते हैं, जबकि इसमें उनका कुछ नहीं, उनके जीन्स का योगदान है। उनकी आंखों की तारीफ तो उनके पिता भी किया करते थे। इरफ़ान गहरी आंखों और समंदर-सी प्रतिभा वाले कलाकार थे।
कहते हैं कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में सिखाया जाता है अपने किरदार को घोलकर पी जाओ। उसे ओढ़ो मत। उसे जियो। इरफ़ान ने इस सबक को कुछ ज्यादा ही अच्छी तरह अपनाया था। इसलिए इरफ़ान कभी भी बड़े सितारों से नहीं घबराए। उनका हमेशा अपने ही अंदाज़ में सामना किया। शूजित सरकार की ‘पीकू’ में वो अमिताभ बच्चन को चुनौती देते नज़र आए। ‘हैदर’ और ‘मकबूल’ में तब्बू, शाहिद कपूर, पंकज कपूर वग़ैरह के सामने अपनी मौजूदगी साबित करते देखे गए। ‘डी डे’ में ऋषि कपूर के सामने नज़र आए। उन्होंने ‘बिल्लू’ में शाहरूख ख़ान के साथ स्क्रीन पर गहरा प्रभाव छोड़ा।
कई ऐसी फिल्में थीं जो उन्होंने अकेली ढोईं। इन फिल्मों में उनके सामने खुला मैदान था ख़ुद को साबित करने का। तिग्मांशु धूलिया की ‘पान सिंह तोमर’ इसी तरह की फिल्म थी। इस फिल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। इरफ़ान की फिल्मोग्राफी में अनूप सिंह की ‘किस्सा’ जैसी कम चर्चित फिल्म है जिसमें उन्होंने कमाल का काम किया है। उनके पास खुद की प्रोड्यूस की ‘मदारी’ भी है। तनूजा चंद्रा की फिल्म ‘करीब करीब सिंगल’ में तो जैसे उन्होंने अंडरप्ले का अलग ही जादू रचा है। रितेश बत्रा की फिल्म ‘लंचबॉक्स’ तो लॉक डाउन के इन दिनों में सबसे ज्यादा देखी और खोजी जाने वाली फिल्मों में से एक है। ऐसा लगता है जैसे ये फिल्में इरफ़ान के लिए ही थीं। उनके सिवा इनमें कोई ना जंचता।
सितारा नहीं कलाकार
भारतीय सिनेमा से परे हॉलीवुड में अभिनय का एक अलग मुहावरा चलता है। पश्चिम में परतों वाला अभिनय चलता है। वहां ‘ओवर द बोर्ड’ होने की गुंजाईश कम आती है। इसलिए भारतीय पेशेवर सिनेमा के मुख्यधारा के इक्का दुक्का स्टार ही वहां अपना असर छोड़ पाते हैं। वहां कलाकार चाहिए। सितारा नहीं। और इसीलिए इरफ़ान ने हॉलीवुड में अपना गहरा असर छोड़ा। मीरा नायर की फिल्म ‘नेमसेक’ हो या फिर आंग ली की ‘लाइफ ऑफ पाइ’ या फिर रॉन हॉवर्ड की ‘इंफर्नो’, मार्क वेब की ‘द अमेजिंग स्पाइडर मैन’ या कोलिन ट्रैवरो की ‘जुरासिक वर्ल्ड’... ऐसी तमाम फिल्मों में इरफ़ान एक भारतीय होकर भी छाए। वो हॉलीवुड की धाक के बीच गुम ना हुए। उनके अभिनय का एक आयाम था ‘जंगल बुक’ में बल्लू के लिए डब करना। यहां भी वो अपने जलवों के साथ आए और बल्लू इरफ़ान बन गया और इरफ़ान बल्लू।
मुंबई का फिल्म उद्योग कलाकारों की कड़ी परीक्षा लेता है। कभी कभी लोगों में इतना धीरज नहीं होता। इरफ़ान के पास इतना धीरज था। वो पहले टीवी में खपते रहे और अपनी बारी का इंतज़ार किया। बड़े परदे ने भी उन्हें देर तक बेंच पर बैठाए रखा। तब जाकर एंट्री दी। जब उनका समय आया तब तक ‘अनचाहे मेहमानों’ ने क़ब्ज़ा कर लिया। इरफ़ान जिंदगी के सबसे शानदार दौर में थे। जहां वो ‘डिक्टेट’ कर सकते थे। वो तय कर सकते थे कि उनके लिए किस तरह की फिल्में बनें। वो अपने लिए फिल्में खुद भी बना सकते थे। वो वक्त आ रहा था जब वो नई चुनौतियों की डगर पर चलते। नया मुहावरा रचते। पर जीवन की ये अनिश्चितता ही इसे रहस्यमय बनाती है। इरफ़ान को जीवन ने वो मौक़ा नहीं दिया। वो कामयाबी की ऊँचाई से अपना सिनेमा रचने के कगार पर थे। ख्वाब बन गये इरफ़ान। कुछ अच्छे बेमिसाल कलाकारों या रचनाकर्मियों के साथ ऐसा ही होता है। वो ख्वाब बन जाते हैं। इरफ़ान जाओ, हमारे ख्वाबों में चमकते रहना।
यूनुस ख़ान
801 कासा बेलिसिमो,
प्लॉट नंबर 9, गोराई 3,
बोरीवली पश्चिम
मुंबई 91
मोबाईल: 9892186767
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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1 टिप्पणियाँ
बढ़िया लेख.
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