Hindi Story on Depression: बेनियाज़ मियाद के पार — मृदुला गर्ग की कहानी


वरिष्ठ साहित्यकार मृदुला गर्ग डिप्रेशन पर अपनी कहानी (Hindi Story on Depression) के बारे में बताते हुए कहती हैं,
भारत में सच्चे मनोचिकित्सक नहीं के बराबर हैं। उनका सिर्फ दवा पर निर्भर रहना और मरीज को न समझ पाना अवसाद बढ़ाता है, कम नहीं करता।


"ज़्यादातर लोग जो अवसाद की गिरफ्त में होते हैं उसे स्वीकार और सच सच बयान करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। दीपिका पादुकोण एक सेलेब्रिटी हैं जिन्होंने यह हिम्मत की थी। मैं भी हूँ। असलियत जानना चाहें तो हंस जनवरी 2019 में छपी मेरी कहानी बेनियाज़ मियाद के पार पढ़िए। इसमें डाक्टर के सिवा सब नाम असली हैं। जिन महीनों में मैं अवसाद में थी, मेरी मित्र रोज़ फोन पर कहती थीं। यह बहुतो के साथ होता है पर उनमें उसे लिखने की हिम्मत या प्रतिभा नहीं होती। तुम इसे सच सच लिखो। वचन दो कि लिखोगी। अंततः  मैं ने कहानी लिखी। दोस्त की संवेदनशीलता और बातचीत से काफी मदद मिली। दोस्त अक्लमंद और नियाज़मन्द हो तो ज़रूर मिलती है, यह याद रखें । यह दीगर है कि ऐसे दोस्त कम लोगों के मिलते हैं। साथ में इलाज तो चाहिए ही। भारत में सच्चे मनोचिकित्सक नहीं के बराबर हैं। उनका सिर्फ दवा पर निर्भर रहना और मरीज को न समझ पाना अवसाद बढ़ाता है, कम नहीं करता।

अवसाद वह मानसिक समस्या है जो सबसे मामूली है,  ज़्यादातर अस्थायी होती है पर हमेशा नहीं। कुछ को बार बार होती है, पर असली बात यह कि वह किसी को कभी भी हो सकती है। जब होती है तो आत्महत्या भी करवा सकती है। दरअसल आत्महत्या करने न  करने के बीच कुछ पलों का फासला होता है। कहने को और भी बहुत मेरे पास  पर फिलहाल आप कहानी  पढ़ लें , फिर  बात करेंगे ।

बेनियाज़ मियाद के पार

मृदुला गर्ग

यह कहानी कहने से पहले दो बातें साफ़ कर देना चाहती हूँ।

पहली यह कि इसमें जो लिखा है वह सब सच है और मेरा अपना भुगता हुआ है। सच के सिवाय इसमें कुछ नहीं है। बस डाक्टर का नाम ज़रूर बदला है। पर पूरा सच इसमें मत खोजिएगा। सच का काफ़ी हिस्सा इसमें नहीं लिखा गया। कुछ बातें इतनी घिनौनी होती हैं कि उन्हें सार्वजनिक रूप से न लिखा जा सकता है, न उचारा।

दूसरी, इसे लिखे जाने का श्रेय मैं अपनी बचपन की दोस्त उर्मिल को देती हूँ, जिसने मुझसे कौल भरवा लिया था मैं अपनी यह आपबीती ज़रूर लिखूंगी। उसका कहना था कि गुज़रती तो बहुतों पर है पर सबके पास उसे लिखने की कला और हिम्मत नहीं होती। कला का तो पता नहीं पर हिम्मत ज़रूर है, सो लिख रही हूँ।


मृदुला गर्ग भाग 1: 

मैं 79 बरस की हो चुकी थी। अब ख़रामा खरामा 80 की तरफ़ बढ़ रही थी। कोई ख़ास फ़र्क़ महसूस नहीं हो रहा था। किसी उत्सव की चाह नहीं थी। हाँ बालमन जैसी एक चाहत यह ज़रूर थी कि कहीं किसी पहाड़ी प्रदेश पर पचास साला बेटे के साथ दो चार दिन के लिए सैर को जाऊं। यानी सारा इन्तज़ाम करके वह मुझे साथ ले उड़ जाए या सड़क के रास्ते ही चले। मुझे पता भी न हो हम ठीक कहाँ जा रहे हैं। बहू साथ हो तो बहुत बढ़िया पर बस, और लोग नहीं। चन्द दिन, शान्त और रोमांचक दोनों। मन में बारिश सी घुमगती एक अनुपम घुमक्कड़ी। आप यक़ीन नहीं करेंगे, बच्चे की मानिन्द कह भी डाला दोनों से। बहुत समझिए कि यह नहीं कहा कि बना लो मुझे अपनी बेटी तीन दिन के लिए। कितना बेवकूफ़ाना अरमान था, अस्सीवे जन्मदिन के लिए। बेटे ने कहा वह मुझे उसके लिए, बतौर उपहार रक़म दे देगा, सहेलियों के साथ घूम आऊं, जहाँ चाहूँ। और क्या कहता! पर सुन कर मेरा मन ऐसा मरा जैसे 175 साल का बूढ़ा हो।

ऐसी यात्राएं तो मैं जब तब कर ही लेती हूँ। किसी गोष्ठी या साहित्योत्सव में। सब चाक चौबन्द रख कर तैयारी के साथ बोलना और उतनी ही तैयारी के साथ गन्तव्य पर जाना। वह गन्तव्य होता है, घुमक्क्ड़ी नहीं। सहेलियाँ हों या सेमिनार। यानी जो करना हो ख़ुद करूँ, कोई मुझे साज सम्भाल कर घुमाने न ले जाए। पहले जगह चुनूं, फिर सहेलियाँ, फिर तारीख टिकट वगैरह, फिर सारा इन्तज़ाम मुकम्मल करके यात्रा को घुमक्कड़ी का नाम दूँ।

जब मेरे बच्चे छोटे थे, यही बेटा भी, हम जाया करते थे पारिवारिक छुट्टी मनाने। बीसेक साल पहले भी, एक दो बार, बेटा- बहू सब तैयारी करके हमें साथ ले गये थे। पता नहीं क्यों अब दोनों अनुभवों ने मिल कर यह सपना तामीर कर दिया। कितना सुगम तो था उसे पाना; दावत वावत देने के तामझाम से कहीं आसान। बात सुगमता- दुर्गमता की नहीं थी, लकीर पर न चलने की थी। अलहदा होने की वजह से ही उसे दीवानगी मान लिया गया या नरमाई से कहें तो खब्तीपन। मनोवैज्ञानिक किस्म के लोग शायद कहें कि इस बचकाना सपने के पीछे एक वजह यह रही होगी कि बचपन में मैंने अपने पिता के साथ काफ़ी तफ़रीह भरी सैरें की थीं।

खैर उस पर दुबारा बात करने की नौबत ही नहीं आई।

अभी मैं उस अल्हड़ बचकाना लालसा को मन ही मन उलट पुलट कर उसके फ़रेबी मज़े लेने में लीन थी कि आँधी के एक झोंके से मेरा पूरा अस्तित्व तिनकों के ढेर सा बिखर गया। और मैं एक खौफ़नाक चक्रव्यूह में प्रवेश कर गई। अभिमन्यु की तरह मैंने कोई बेलगाम बहादुरी नहीं दिखलाई थी कि यह जानते हुए भी कि चक्रव्यूह से बाहर निकलना मुझे आता नहीं, गुरु का नाम ले, उसमें घुस जाऊँ। वह तो खुद मुझ पर लपका और अपनी गिरफ़्त में ले, तम्बू की तरह मुझ पर तन गया।

सब कुछ बहुत सरल भलमनसाहत के साथ शुरु हुआ। मुझे तब तक (79 की होने के बावजूद) कभी दिल की कोई बीमारी नहीं हुई थी। अब अपने बचकाने सपने को मन ही मन जीते. अचानक ज़बरदस्त पसीने आने लगे। गरमी का मौसम तो था, वह भी दिल्ली का पर ऐसा भी नहीं कि पूरा बदन चोड़ा हो जाए और माथे से पसीना यूँ गिरे कि चश्मे से देखना दूभर हो जाए। जैसे सिर्फ़ मेरे लिए इन्द्र्देव मूसलाधार बारिश बरसा रहे हों। इतनी भी क्या कृपा! देवता ठहरे, सोचा होगा बड़ा पहाड़- पहाड़, बारिश- बारिश रटती रहती है, इसे यहीं सारा मंज़र चखा दो। मैंने सोचा अस्सी पर पहुँचते-पहुँचते, एक बार दिल की जाँच करवा ही लेनी चाहिए। दिल तो खैर दुरुस्त था, अलबत्ता ब्लडप्रेशर काफ़ी बढ़ा हुआ निकला। कोई बड़ी बात नहीं थी, दवा ले ली गई। पसीना बदस्तूर गिरता रहा। मैंने सोचा पानी ज़्यादा पिऊँ तो शायद पसीने की भरपाई हो जाए। तो पिया। पसीना तो वैसे ही बहता रहा, ज़्यादा पानी पीने का जो असर उस उम्र में हो सकता था, हो लिया। यानी अपनी फ़ितरत बिन प्यासे ऊँट सी हो रही (पता नहीं ऊँट को पसीना आता है या नहीं) पर बाक़ी हाल यकसाँ था। पसीने से लगातार भीगते जाने के नतीजतन, दिल भी घबराने लगा और नींद ग़ायब हो गई। पसीने के पयोधरा बादल के बीच से ठीक से देख न पाने के कारण, लिखना- पढ़ना कम हो गया।

गलती यह की कि दुबारा डाक्टर के दर्शन करने चली गई। उन्होंने कहा था पन्द्रह दिन बाद चेक करवा लूँ। अब उन्होंने फ़रमाया कि प्रेशर तो ज़रा मरा कम है पर दिल के दुरुस्त होने के बावजूद, बाक़ी सब जो हो रहा है, उसका मतलब है एंक्शायटी है। मैंने कहा भइया, मैं लेखक हूँ, चिन्ता करना मेरा पेशा है। चिन्ता होगी तभी न चिन्तन होगा। बल्कि सच कहें तो हम लोग चिन्ता ज़्यादा करते हैं, चिन्तन कम। एंक्शायटी नहीं होगी तो रचना कैसे होगी? दिमाग़ी अफ़रा तफ़री कह लो या तुम्हारी अंग्रेज़ी में एंक्शायटी, वह तो उद्गम स्रोत है रचनाकर्म का।

मुझे लगा मुझे खासा मार्के का जुमला सूझा है सो खुदा की मार, बेटे- बहू से भी कह डाला। अब तो कहर ही टूट पड़ा। कुशल विदुषी बहू ने कहा, तुरंत मनोवैज्ञानिक को दिखाइए, डिप्रेशन होगा, बुढ़ापे में हो जाता है, मेरी माँ को भी है, एन्टी डिप्रेसन्ट दवा खाएंगी, दो- तीन महीनों में ठीक हो जाएगा। ! बुढ़ापा! डिप्रेशन! ये दो शब्द मैंने अपने ऊपर कभी लागू नहीं किये थे। साहित्य जगत में वरिष्ठ कहलाते थे, मनोजगत में "अभी तो मैं जवान हूँ" की तर्ज़ पर जीते थे। शरीर का क्या था, बेचारा अधेड़, साथ साथ घिसट लिया करता था।

और अब इस मुकाम पर आ कर मुझे डिप्रेशन क्योंकर होगा? ज़िन्दगी में इतने बड़े बड़े हादसे झेल गई, लिखने में व्यवधान ज़रूर आया। पूजा पाठ करने की ज़रूरत भी पड़ गई पर डिप्रेशन का नामोनिशान नहीं हुआ। कुछ महीनों के अन्तराल के बाद वापस लिखना शुरु कर दिया। बल्कि जब डिप्रेशन होना चाहिए था, तभी सबसे हास्यपूर्ण व्यंग्य लिखा। एक दो नहीं पूरे सात साल। वेदना और पीड़ा की ऐसी तैसी हो रही। अब तक तो उस ज़लिम आलम से काफ़ी राहत पा चुकी थी। यहाँ वहाँ घूम रही थी; लेक्चर दे रही थी; हाल ही में नया उपन्यास प्रकाशित हुआ था। हाँ, एक उपन्यास छप जाने और दूसरा शुरु करने के बीच, हमेशा की तरह, कुछ अकुलाहट ज़रूर थी। पर उसे हम रचनात्मकता को सहेजना कहते थे, डिप्रेशन नहीं। कभी मज़ाक में किसी ने कह दिया तो दूसरी बात है कि साहब आजकल तो हम डिप्रेशन में चल रहे हैं। सुनने वाला समझ जाता था कि नये मिसाइल से जूझ रहे हैं बन्दापरवर।

पूरी बात सुनना समझना तो छोड़ो किसी ने एक वाक्य को तरजीह नहीं थी। सब दोस्तों की बूढ़ी सासों या माओं को अवसाद था तो मैं बूढ़ी अपवाद कैसे रह सकती थी!

एक बार कहा गया, कई बार कहा गया, बार-बार कहा गया, आपको डिप्रेशन है, साइक्याट्रिस्ट हम ढूँढे देते हैं, आप जा कर दिखला आइएगा। मैंने बहुत रार तकरार की। पर मूसलाधार पसीने (सॉरी, बारिश की तौहीन कर रही हूँ) और धाराप्रवाह भाषण के बीच मेरी इच्छा शक्ति डगमगाने लगी... कुछ दिन बाद डिप्रेस्ड माँओं में से एक की औलाद की मार्फ़त, उनके मौजूदा साइक्याट्रिस्ट का नाम धाम मुझ तक पहुँच गया। तब तक मेरी विपक्षीय बुद्धि काफ़ी डगमगा चुकी थी। सोचा इतने अक्लमन्द, अक्लमन्द जवान बन्दे एक ही बात कह रहे हैं तो प्रयोग करके देखने में क्या हर्ज है।

लिहाज़ा डा. कामधेनु से जा कर मिल ली। एक ही दिन पहले मैं मंच से घुँआघार भाषण दे कर चुकी थी। एयर कन्डीशन्ड हॉल के चलते पसीने की धार कम रही थी। मैंने डाक्टर से कहा कि बेइन्तिहा पसीने और कुछ ज़्यादा फिक्र करने के प्रवृति के लिए कोई दवा दे दें। बाक़ी सब दुरुस्त है। उन्होंने मेरे पेशे के बारे में पूछा तो बतला दिया लेखक हूँ, 30 क़िताबें छप चुकीं। बोले, एक बात बतलाइए, आपको यह कैसे पता चलता है कि आपकी कितनी क़िताबें वाकई बिकीं और रॉयल्टी सही संख्या पर मिल रही है? मैंने कहा, नहीं पता चलता, सब ट्रस्ट पर मुन्हस्सिर है। अरे! वे बौखला कर बोले, यह तो सरासर धोखाधड़ी है! आप भोलेपन से उसे बर्दाश्त कर लेती हैं! मैं हँस दी। हम लोग ऐसे ही होते हैं! वे नहीं हँसे। अजीब सी नज़रों से मुझे देखते रहे, फिर मेरे परिवार के बारे में पूछताछ करने लगे। उस सब का बयान ज़रूरी नहीं है। असल बात यह हुई कि उन आलिम फ़ाज़िल ने फ़ैसला सुनाया कि मुझ बेअक्ल औरत को डिप्रेशन है और उन्होंने दवाओं की एक लम्बी फ़ेहरिस्त मुझे थमा दी। मैंने आपत्ति की और उनके न सुनने पर तय किया कि एन्टी डिप्रेसन्ट दवा नहीं लूंगी।

पर अन्त तक मेरा फ़ैसला चला नहीं। बेटे–बहू के दबाव और अपनी ढलती इच्छाशक्ति के बीच बिला गया। ग़लती मेरी और सिर्फ़ मेरी थी। क्यों मैंने अपनी इच्छाशक्ति को कमज़ोर होने दिया। क्यों मैं अपने स्नेहपात्रों के स्नेहिल आग्रह से द्रवित हो गई। ग़लत को क्यों सही मान लिया। पर मैंने नेक्सिटो नाम की वह दवा ले ली। दवा इस हिदायत के साथ दी गई थी कि ऐसी कोई दवा नहीं होती जिसके साइड इफ़ेक्ट्स न हों। एक बार, बार-बार दुहराया गया। मैंने सुन लिया और आज़िज़ आ कर कह दिया, जी प्यार के भी होते हैं! वे नहीं हँसे। कम हँसते थे। तभी मुझे समझ जाना चाहिए थे हम विपरीत प्रकृति के लोग थे, राज़दार नहीं बन सकते थे। पर मैंने अपना फ़ैसला मुल्तवी रखा।


नेक्सिटो के मुझ पर असरात काफ़ी दिलचस्प थे। ज़रूरी नहीं है कि सब पर हों। पैर टेढ़े मेढ़े पड़ने लगे. कुर्सी से उठती तो वापस गिर पड़ती, कई बार कोशिश करने पर उठ पाती, चाल डगमगाने लगी यानी उसमें संतुलन नहीं रहा। उन्होंने कहा था अच्छे दिन आने में दो हफ़्ते गुज़र जाते हैं, तो सोचा कुछ दिन भुगत लेती हूँ। तीसरी रात अजब मंज़र पेश आया। आधी रात को गुस्लखाने जाने को उठी तो बदन जने किस भँवर में फ़ँस कर फ़िरकनी सा घूमा और बाथटब में जा गिरा। अजब कैफ़ियत हुई, उठूँ तो कैसे? किसी को पुकार भी नहीं सकती थी। घर में बस हम दो बूढ़ा बूढ़ी (पति-पत्नी) रहते थे। बेटा तो दूसरे शहर में था। मेरा प्रियतम बूढ़ा सुन नही पाता था सो आवाज़ लगाने का कोई फ़ायदा नहीं था। मैं यह ख़ुशफ़हमी पाले रखना चाहती हूँ कि सुन पाते तो दौड़े चले आते! खैर हाल फिलहाल तो उठना ज़रूरी था! मौक़े की नज़ाकत को परख कर खुमारी उड़ गई और इच्छाशक्ति रंग दिखलाने लगी। किसी तरह घुटनों के बल बैठ, सर्कसी करतब की कई मिसालें पेश कर, मैं टब से बाहर उछल ही आई और बिस्तर पर जा कर ढेर हो गई।

अगली सुबह डाक्टर से कहा तो बोले, " आप रात को चली क्यों?" मैंने कहा "गुस्ल में जाना था अलबत्ता गुस्ल के लिए नहीं। " बोले, "रात को नींद के बीच उठेंगी तो यही होगा। " "तब क्या हैलीकॉपटर मँगवाऊँ!" वे अपनी बात दुहराते रहे। वे थे मर्द मानुष; उन से भला गुस्लखाने की बाबत और कितनी तफ़्सील में बात करती। रूखेपन से उन्हें नमस्कार किया और सोचा अगले दिन से नेक्सिटो को भी नमस्कार कर दूँगी। कर भी दिया।

यहाँ मृदुला गर्ग भाग 1 का अन्त हो गया। क्योंकि अस्सी साल पर पहुँचने से पहले यह मेरा आख़िरी स्वतंत्र निर्णय था।

नहीं ग़लत कह गई। एक और था।

कुछ दिन पहले मेरी कुशाग्र बहू ने बड़े आदर और स्नेह के साथ मुझे सुझाव दिया था कि जैसे मैं पच्चीस साल पहले करती थी, वैसे ही दुबारा श्रीशिवमहिम्नः स्तोत्रम् का रोज़ पाठ करूँ। बेटे ने अनुमोदन किया ही बल्कि नई किताब भी मुझे मुहैया करवा दी। आम् फ़हम तौर पर सुझाव एकदम वाजिब था। पर... गद्य और जीवन में यह "पर" बड़ा ज़ालिम बन कर नाज़िर होता है। पच्चीस बरस पहले मैंने वह पाठ किया था, अपने छोटे बेटे बहू के गुज़र जाने पर! रोज़ उपासे एक दो घण्टे करती थी। भूख प्यास नहीं लगती थे। कपाट खुले रखती थी पर भय डर आशंका सब दूर रहते थे। मौहल्ले की शैतान बिल्ली भी सरहद पर चहलक़दमी करती रहती थी; मेरे पास नहीं आती थी। श्लोकों की ध्वनि, स्मृति में हथौड़ों की तरह बजती नामुराद आवाज़ों को, रूई के फ़ाहों में लपेट, नर्म और धीमा कर दिया करती थी। दो तीन बरस बल्कि ज़्यादा 1993 से ले कर 1998 तक मैंने मुतवातिर यह पाठ किया और बहुत कुछ पीड़ा-दुख-हताशा, दिमाग़ के अलग थलग कोनों में फ़ेंकने मे कामयाब हो गई। फिर ज़िन्दगी लुट पिट, कट फ़िट कर, दुबारा, उसी नहीं, तो छोटी लाइन पर आ गई। कुछ हद तक तो आ ही गई। खुशी भी बड़ी बेढब शै है। ज़बरन ज़िन्दगी में घुस जाती है। पोती पोते का जन्म, लिखे स्तम्भ को त्रासद से कटाक्ष बना पाना, उस घुसपैठ में शामिल था। कुछ कहानियों और उपन्यासों का लेखन भी। तभी तो अब मै यहाँ वहाँ अपने पाठ का पाठ करती घूम रही थी।

ज़मीनी मसाइल छोड़ अचानक श्रीशिवमहिम्नः स्तोत्रम् का पाठ करना कितना दुश्कर और हौलनाक था मेरे लिए, शायद मैं ख़ुद भी नहीं जानती थी। तभी तो अपने से बुद्धिमान युवाओं की सलाह मान, एक सुबह, ठीक पच्चीस बरस पहले की तरह, पाठ कर डाला।

अगली चार रात पूरे ब्रह्माण्ड के बीच मुझे अपने दिवंगत बेटे का शिवमय चेहरा दिखता रहा और चारों दिशाओं से गूंजता रहा, पाठ का एक एक शब्द। इतना ऊँचा, स्पष्ट और धारदार कि प्रलय का आह्वान क्या था उसके सामने। चार रात, चार दिन छटफटाने के बाद मैंने उसे न करने का स्वतंत्र निर्णय लिया, बिना किसी को बतलाये। बल्कि कभी-कभी क़िताब खोल कर बैठ भी जाती थी, दिखलाने को कि हाँ कर रही हूँ पाठ! किसका भय था मुझे ? किसे दिखलाना चाहती थी की हाँ कर रही हूँ पाठ? किसी को नहीं। बस मैं भयभीत थी, सबसे, अपने से, शायद पूरी क़ायनात से। तब क्या इसे स्वतंत्र निर्णय कहेंगे!

नहीं अस्सी बरस का होने से पहले मेरा अंतिम स्वतंत्र निर्णय वही था, नेक्सिटो न खाने का।

पर ऐसा निर्णय लेने से क्या फ़ायदा जो चार क़दम चल कर उल्टे मुँह गिर पड़े?

वही हुआ।


यूँ शुरु हुआ मृदुला गर्ग भाग 2 : 

नेक्सिटो तो बन्द कर दी पर उसके साथ की बाक़ी दवाइयाँ चल रही थी, वही एन्टी एंक्शायटी टाइप। देह शिथिल रहती, दिमाग़ धुँआ- धुँआ। नींद आ कर देती नहीं थी जो कुछ ताज़ादम हो पाती।

फिर कमज़ोर इच्छाशक्ति का प्रदर्शन कर यह भी बेटे-बहू से कह डाला। फ़ौरन फ़रमान ज़ारी हुआ एन्टी डिप्रेसन्ट दवा तो लेनी ही होगी। तुम नहीं तो और सही, और नहीं तो और सही। मैंने काफ़ी प्रतिरोध –विरोध किया। बार- बार कहा मुझे डिप्रेशन नहीं है पर हर बार पसीने की बेरोक धार और कभी दमदार रही मेरी आवाज़ की कृश पड़ती लय ने मेरे कहे पर पानी फेर दिया। तय रहा कि अन्य माँओं की तरह मुझे भी अवसाद है। जी हाँ, वही अवसाद, जिसे मैं पच्चीस साल से धता बतलाती आई थी।

एक नई गोली तजवीज़ हुई। कहा गया उससे शरीर वैसे नहीं डगमगाता जैसे नेक्सिटो से डगमगाया था। बिकुल सही कहा गया था। दुबारा फ़िरकनी सा घूम टब में गिरने का रोमांचक अनुभव मुझे नहीं हुआ। पर उसके साथ यह भी कहा गया था कि ऐसी कोई दवा नहीं होती जिसके साईड इफ़ेक़्ट न हों। प्यार की तरह, हँस कर नहीं कह पाई इस बार मैं। वाक़ई इस नई दवा, ज़ोसर्ट के साइड इफ़ेक्ट या असरात, प्यार से कहीं ज़्यादा मारक थे।

फिर एक बार दुहरा रही हूँ कि ज़रूरी नहीं है कि सब पर उसका असर वैसा ही हो जैसा मुझ पर हुआ।

मैंने उसे हमेशा ज़ोसर्ट के डेसर्ट की तरह याद रखा। वरना हिज्जे गड़बड़ा जते थे। ज़ोसर्ट का ओर छोर विहीन रेगिस्तान, जिसमें सूखे गले को तर करने को तरसते इंसान को इच्छित पानी नहीं मिल सकता था, किसी भी कीमत पर। न कोई और रसमय द्रव्य। पी कितना भी लो, गला खुश्क ही रहता। बतलाया गया अच्छे दिन दो हफ़्ते बाद आऐंगे तब तक सब्र रखें और बिला नागा गोली खा लें। अब तो दिमाग़ ने काम करना ही बन्द कर दिया। अपनी याददाश्त पर बहुत फ़ख्र था मुझे, अब छोटी छोटी बातें भी भूलने लगी। ऑनलाइन बिल का भुगतान करना मुश्किल लगने लगा। और तो और ए टी एम से पैसे निकालने तक दूभर हो गये। क़िताब पढ़ने पर अक्षर धुँधलाने लगे। दैहिक तौर पर, ज़िदगी में पहली बार ज़बरदस्त कब्ज़ हो गया, जिसे सब प्यारे घरवालों ने कहा कि "इगनोर" करो। इगनोर अंग्रेज़ी का ऐसा शब्द है जिसका हिन्दी में उसके क़रीबन, उतना दहशतज़दा पर्याय नहीं है। नज़रअंदाज़ में शख्सियत को नेस्तनाबूद करने की वह कातिलाना धमक नहीं आती, जो इगनोर में आती है। डाकटर ने अलबत्ता इगनोर करने के बजाय ज़ोरदार जुलाब पिलाने शुरु कर दिये। और भी कुछ अश्लील किस्म की राय दीं, जिन्हें मैंने इगनोर कर दिया। अदब के क़ायदों का तकाज़ा है कि आप से भी इगनोर करवाऊँ। दिमागी सुकून पाने की खातिर उनकी बतलाई नींद की गोली निगलनी शुरु कर दी। उससे बदन पर जो तीन- साढ़े तीन घन्टे की बेहोशी का आलम तारी होता, उसे किसी हाल नींद नहीं कहा जा सकता था। उससे बाहर आने पर न कोई ताज़गी महसूस होती, न आराम। बस एक उनींदापन छाया रहता और दिमाग़ सुन्न रहता। चिन्ता नामुराद कहाँ से होती जब चिन्तन की सब राहें बन्द थीं। लिखने का सवाल ही पैदा नहीं होता था।

बीच रात एक बजे ऐसा नापाक आलम चारों तरफ़ घेरा डाल लेता कि मैं अपने दिवंगत बेटे को आवाज़ पर आवाज़ देने लगती.... अपु अप्पू अपऽऊ ऊउऊऊऊऽ...... काफ़ी देर बाद जब अहसास होता कि वह तो दूर से भी दूर कहीं नहीं है तो कभी कभी गफ़लत में बड़े बेटे को फ़ोन मिला बैठती, बिला यह सोचे कि वह आधी रात का वक़्त था। जो लोग ज़ोसर्ट के रेगिस्तान से बाहर थे, वे सो रहे होंगे। वह काफ़ी नाराज़ होता, कभी कभी दिलासा भी देता प्यार से। उसका मानना था ये सब डिप्रेशन के लक्षण थे। मेरे बार-बार कहने पर कि यह सब ज़ोसर्ट की करामात थी, उसने कोई ध्यान नहीं दिया। आखिर उसकी पत्नी की माँ को भी डिप्रेशन था न और वे अथक आराम और दवा के सहारे बेहतर हो रही थीं। खुशक़िस्मत थीं कि उन्हें ज़ोसर्ट का रेगिस्तान नहीं झेलना पड़ रहा था।

सबसे भयानक असर यह हुआ कि मेरी आँखों की दृष्टि जब-तब धुँधलाने लगी, हमेशा धुँधलाई नहीं रहती थी, अचानक कभी भी अख़बार या क़िताब पढ़ते, अक्षर दिखने बन्द हो जाते। पूरी तरह नहीं; बस ऐसे जैसे कहीं कहीं उन्हें कोहरे से ढक दिया गया हो। वही हाल कम्प्यूटर या टी वी पर तस्वीर या अक्षर देखते हुए होता। यह कितना हौलनाक था, यह वही जान सकता है, जो कुछ दिन नीम अन्धेपन में गुज़ार चुका हो। एक आँख में शून्य विज़न हो और दूसरी में विकृत। मैं छह महीने तक यह भुगत चुकी एक नाकाम रेटिना सर्जरी के बाद, अभी चार साल पहले। तब भी आने वाली मुसीबत ने अचानक धावा बोला था। डाक्टर के सर्जरी के प्रस्ताव को मैंने बहुत हल्केपन से लिया था। तारीख लेने के बाद मैं हिचकोले खाती रेलगाड़ी में अजमेर साहित्योत्सव के लिए रवाना हो गई थी। डाक्टर से पूछा था, " कोई बुरा असर तो नहीं होगा?" बड़ी अदा से जवाब मिला था, " होगा तो हो। सर्जरी तो होनी ही है न। उसे भी सम्भाल लेगी। " तब यह क्या पता था कि सम्भालने के बजाय सर्जरी सबकुछ बिगाड़ देगी! यहाँ तक कि पट्टी खुलने पर जब बड़े फ़िल्मी अंदाज़ में मैंने डायलाग बोला, " मुझे कुछ नहीं दिख रहा!" तो उतने ही फ़िल्मी अदाज़ में उनका जुमला उछला, "तो मैं क्या करूँ!" ज़ाहिर है वे मुझसे भी ज़्यादा घबरा गये थे।

पर अब? सब चाक चौबन्द था। एक महीना पहले ही मैं चैक अप करवाने गई थी और वे बोले थे, " वाह आप तो मुझसे भी बेहतर देख पाती हैं!" जैसे वे ख़ुदा हों! मुझे एतराज़ न था। बेहतर ही थी न, बदतर तो नहीं। कहीं कुछ धुँधला नहीं था।

अब हो क्या रहा था? कहीं दूसरी आँख पर भी वही कहर तो नहीं टूट रहा था जो बमुश्किल डाक्टर श्रौफ़ ने छ्ह महीने में जा कर दुरुस्त किया था। डरती घबराती दिखलाने गई। हिदायत मिली कि रेटिना चैक करवाऊँ। करवाया। तौबा! क्या तो कह रही थी एक्सपर्ट। वैसे सब ठीक है, बस बीच बीच में दृष्टि धुँधला जाती है। बुढापे में ऐसा हो जाता है। किसका बुढापा? आपका या मेरा? कुल एक महीने में मैं बूढ़ी कैसे हो गई! अभी एक महीना पहले तो मैं ज़मीनी ख़ुदा से बेहतर देख पा रही थी। वह और कुछ भी फरमा रही थीं, " बुढ़ापे में अखबार पूरा पढ़ लो, वही बहुत है"। "भाड़ में जाए अखबार और बुढ़ापा। आप जानती हैं मैं एक लेखक हूँ। " हाँ, मैंने आपका लेटेस्ट नॉवल पढा है। " " क्या अखबार पढ़ कर लिखा हुआ लगता है आपको!" "नहीं, नहीं बिल्कुल नहीं पर सब दिन एक समान नहीं रहते। डोन्ट वरी। "

दुनाली बन्दूक की गोली की तरह मेरी समझ में आया, यह भी ज़ोसर्ट का असर था। प्यार अन्धा होता है न? एक साइड इफ़ेक्ट है उसका। मगर उससे बड़े भय ने तभी मुझे जकड़ लिया। न हुआ तो? मुझे जल्द से जल्द अपनी कहानी पूरी करनी है, इससे पहले कि आँखें और धुँधला जाएं।

बेटे ने सुना और मान लिया, बुढ़ापे में ऐसा होता है।

ये जवान लोग दूसरों के बुढ़ापे की तस्दीक सुन इतने खुश क्यों होते हैं? क्या वे नहीं जानते कि सिर्फ़ यही एक सनातन सच है। जिओगे तो उम्र आगे बढ़ेगी ही। या यही खौफ़ अपने आगत को सामने देख उन्हें भयभीत और नतीजतन क्रूर बना देता है। भय और क्रूरता का गहरा सम्बन्ध है कौन नहीं जानता। वह रोज़ अख़बार ला मेरे सामने करने लगा। बेचारा ड्यूटी बजा रहा था। मुझे अख़बार में कोई दिलचस्पी नहीं थी। कभी नहीं रही थी, कम से कम इतनी नहीं कि धुँधलाई आँखों से उसे पढ़ूँ। बेचारा मेरा भला भोला बेटा। सच जवानी कितनी भोली होती है।


फिर वह मुबारक दिन आया कि मेरा पूरा चेहरा ऐसे जलने लगा जैसे आग पर बैंगन भुन रहा हो! आप कहेंगे उस में मुबारक क्या था? वह यूँ कि मुझे याद आया कि मेरी बहिन को जब अलर्जी हुई थी तो उसका बेटा उसे अस्पताल इमेरजेन्सी में ले गया था और उन्होंने उसे एक एन्टीडोट का इन्जेक्शन दे कर, वह ख़ास दवा लेने से मना कर दिया था। काश मुझे भी अलर्जी निकल आये! मैंने अपनी युवा पड़ोसिन, सोनाली, को गुहार लगाई, ज़रा मेरे साथ अस्पताल चले। बड़ी प्यारी लड़की है। जब उसे देखती हूँ, सोचती रह जाती हूँ कि भगवान ने मुझे बेटी क्यों न दी। मेरी बेटी होती तो क्या इतने दिन मेरी खोज ख़बर लेने न आती। काश सोनाली मेरी बेटी हुई होती। वह फ़ौरन आ गई और मेरे साथ अस्पताल चल दी। पर बदाक़िस्मती मेरी कि मुँह पर चकत्तों के बावजूद, ललाई और खुजली न होने के कारण, उन्हें उसमें अलर्जी के आम लक्षण नज़र नहीं आये। जलन की बात उन्होंने इगनोर कर दी। सोनाली और मेरे लाख कहने पर कि चेहरा आग सा जल रहा है, एलोवेरा जेल लगाने से भी फ़र्क़ नहीं पड़ा है, तनिक मिनक भी, और न अलेगरा खाने से, उनके कान पर जूँ न रेंगी। बल्कि ज़ोसर्ट का नाम सुन कर वे कुटिलता से मुस्कराये और बोले, "वह तो आपका साईक्याट्रिस्ट ही बतला सकता है"। यानी उन्होंने मुझे नीम पागल घोषित कर दिया। यही तो हमारे महान देश की ख़ासियत है कि जिसकी बात समझ न आये उसे पागल घोषित कर दो।

घर से अस्पताल और वापसी के दौरान एक अजीब बात और हुई। मुझे लगा सोनाली ने गाड़ी का ए. सी नहीं चला रखा इसलिए मात्र ब्लोअर चालू होने के कारण मिट्टी भरी हवा भीतर आ रही है। मेरा साँस घुट रहा था। पर मैंने कुछ कहा नहीं। जब वापसी में भी वही मंज़र रहा तब मैं यह कहने से रुक नहीं पाई, बहुत मिट्टी है न हवा में? तुरंत औरों ने अचरज से कहा, " नहीं तो। हवा तो एकदम ठण्डी और साफ़ है। रात का एक बजा है। और ए.सी भी चल रहा है। " मेरी समझ में आ गया कि वह रेतीला बवण्डर मेरे जिस्म के भीतर चल रहा है, जिसने मेरे दिलो-दिमाग़ पर भी क़ाबू पा लिया है। । यह था ज़ोसर्ट का मेरा निजी रेगिस्तान!

सोनाली इमेर्जेन्सी के डाक्टर से काफ़ी नाराज़ थी। घर लौट कर उसने उस नापाक दवा के बदनुमा साइड इफ़ेक्ट्स के बारे में मय अस्पताल की गाथा, मेरे बेटे को सुना दी। तब तक उस भली लड़की ने गूगल पर उसके साईड इफ़ेक्ट्स पढ़ लिये थे, जो सब के सब मुझ पर लागू हो रहे थे।

फ़ायदा कुछ न हुआ। बेटे ने कहा गूगल पर तो यूँ ही अनाप शनाप लिखा रहता है। दवा बन्द नहीं की जा सकती। असल बात यह थी कि दवा अचानक बन्द नहीं की जा सकती थी। उसकी मात्रा धीरे-धीरे कम करनी होती थी। और मेरा डाक्टर था कि यह मानने को ही तैयार नहीं था कि जो हो रहा था, वह ज़ोसर्ट का साइड इफ़ेक्ट था। मेरे अस्पताल जा कर ज़ोसर्ट से निजात पाने के असफल प्रयोग का नतीजा यह हुआ कि मेरे बारे में एक और किंवदन्ती प्रचलित हो गई कि मुझे अस्पताल जाने का शौक़ है। जबकि मेरे तो दो बच्चों में से भी एक, घर पर पैदा हुआ था। हिस्ट्रेक्टोमी के लिए ज़रूर अस्पताल में भर्ती हुई थी पर तब मेरी तीमारदारी करने को बेटी से बढ़कर छोटा बेटा मौजूद था।

बाद में तो ट्यूबरकल निमोनिया होने पर भी मैं एक बार ज़रूर बुरे हाल अस्पताल में भरती हुई थी। पर जब दूसरी बार हुआ तो अपनी मददगार काम करने वाली के भरोसे, घर पर ही रही।

डाक्टर कामधेनु से पूछा कि क्या ज़ोसर्ट से त्वचा में जलन हो सकतो है तो बोले....सही अंदाज़ लगाया आपने, इसके सिवा कह भी कया सकते थे ... "ऐसी कोई दवा नहीं होती जिसके साइड इफ़ेक्ट न हों!" अब हाल यह था कि चेहरे की जलन गले छाती तक फैलने लगी, जिससे बचने लिए मैं ए. सी चला कर ठिठुरने लगी।

कल्पना कीजिए, क्या कार्टून नुमा मंज़र होता था। ठोडी तक कम्बल लपेटे मैं ठिठुर रही हूँ और मुँह माथे से घुआं निकल रहा है। छुओ तो अंगार, बुखार लो तो मात्र 97 डिग्री। यानी और चीज़ों के साथ मुझे बुखार रहने का भी वहम था। बहू ने कहा हम तो घर में थर्मामीटर ही नहीं रखते। यानी जबसे पुराने वाला टूटा, नया नहीं रखा था।

यह भी कहा कि कि मेरे वहमों की वजह से ही उस पूरे बेसहारा वक़्त में मेरी कोई बहन या भांजी मुझे मिलने नहीं आई थी। व्यस्त थीं नहीं आ पाईं, मुझे उनसे कोई शिक़ायत नहीं थी।

पर उसे मेरी शिकायत से नहीं, अपनी आपत्ति से मतलब था। उफ़, किस कदर आपत्तियाँ थीं उसको, जैसे कोई महाभारत नुमा महाकाव्य हो।

सोनाली ने हार नहीं मानी। वह बराबर मुझे समझाती रही कि अगर मैंने ज़ोसर्ट बन्द नहीं की तो पूरी तरह बर्बाद हो जाऊंगी। यही नहीं, वह मुझे एक होम्योपैथ डाक्टर के पास भी ले गई। उन्होंने दवा तो दे दी पर ज़ोसर्ट का नाम सुन कर घबरा गये। कहने लगे उसे एकदम तो बन्द किया नहीं जा सकता। आप अपने डाक्टर से पूछ कर धीरे धीरे उसे बन्द कर दें। मैंने सोचा उनकी दवा से फ़ायदा हो गया ज़रा मरा भी तो मैं ज़ोसर्ट की मात्रा घटाना शुरु कर दूंगी। इतना मेडिकल ज्ञान मुझे था पर बदक़िस्मती मेरी। उन्होंने जो सुबह ख़ाली पेट एक ख़ूराक लेने को कहा था, उसे लेते ही मेरे गले और छाती में ऐसी जलन शुरु हुई कि ठण्डा दूध तक पीना मुश्किल हो गया। सारी योजना धरी कि धरी रह गई।

आप कहेंगे उस हाल भी तुम उस नापाक दवा को निगलती क्यों चली गईं? ठीक कहेंगे। मेरी ही इच्छाशक्ति का ह्रास हो गया था। चेहरा ही नहीं मेरा पूरा व्यक्तित्व झुलस चुका था। जब बेटा समझा कर और बहू डरा कर कहते कि कुछ दिन खा लो फिर सब ठीक होने लगेगा तो मेरी आँखों पर वही धुंध छा जाती जो दिमाग पर छाई थी और मैं उनकी बातों में आ जाती। कह सकते हैं कि उनके सेडिज़्म के बरक्कस मैं मेसोकिस्ट बनती जा रही थी।

बीतते दिनों के साथ, कोई फ़ायदा तो नज़र आया नहीं, बस मेरे पैर ज़रूर जकड़ने लगे और मैं कुछ काम करने लायक़ न रही। ज़रा सा चलने में भी दिक़्क़त महसूस होने लगी। बेवकूफ़ी की हद देखिए कि अच्छी तरह जाने रहने के बावजूद मेरे दिमाग़ में यह नहीं आया कि यह जकड़न मेरे ऑस्टोपोरोसिस के कारण थी, जो वर्जिश और चलने फिरने के अभाव में अपनी ऐंठ दिखला रहा था। कितने दिन से मैने अपनी रोज़ाना की वर्जिश नहीं की थी और सैर पर जाना भी छूट गया था।

एक रात बड़ा दिलचस्प कारनामा हुआ।

पैरों से शुरु हो कर जकड़न मेरे बदन में फैलने लगी। नींद के अभाव में जो खुमारी दिमाग़ और जिस्म पर छाई थी, उसमें लगा कि वह मेरे दिल तक जा पहुँची है। काफ़ी खुशी हुई कि चलो, क़िस्सा खत्म होने वाला है।

कुछ देर बद आँखे मुँदने लगीं। काफ़ी नाटकीय अंदाज़ में मैंने अपनी बाँह सीने पर रखी, जो बेहद अटक अटक कर साँस भर रहा था। लगता था हवा अन्दर गई तो बाहर निकली नहीं, या बाहर फिंकी तो वापस भीतर खिंची नहीं। देर तक मुझे साँस का विवेचन करने का मौक़ा नहीं मिला क्योंकि जल्दी ही मैंने होश खो दिये। खोने से चन्द मिनट पहले, मैंने निस्सीम संतोष अनुभव किया कि चलो ज़िन्दगी की रिवायत तो खत्म हुई।

पर नहीं जनाब, क़रीब ढ़ाई घण्टे बीते होंगे कि आँखें यूँ आहिस्ता से खुलीं जैसे नर्गिस की कली खिल रही हो; पहले एक, फिर दूसरी। आँख खुलते ही कलाई पर बँधी घड़ी देखने की आदत के चलते, टाइम फ़ौरन नोट हो गया। बस ढ़ाई घण्टे की मोहलत और मैं बाक़ायदा न सही, बेक़ायदा ज़िन्दा और होश में थी। पल भर को लगा ज़रूर कि मैंने किसी और खुशबूदार और सुहावनी हवा व दिलकश रोशनी में आँखें खोली हैं; कि अब यह किसी और जगह, किसी और हाल, कोई और ही ज़िन्दगी है। पर जैसे ही पलंग से नीचे उतरने को पाँव उठाया, भ्रम भरभरा कर ढह गया। पाँव उठ कर ही नहीं दिया। वही एढ़ी चोटी का दम लगा कर बदन उठाया और बाथरूम तक जाने लायक़ बनी। फिर भी मैंने उम्मीद नहीं छोड़ी। अगर दो चार रात बराबर ऐसा होता रहा तो ख़ूब मुमकिन था कि एक रात, मैं वाकई, उस गुलिस्तां दुनिया में पहुँच जाऊँ, जिसमें नर्गिस धीमे- धीमे चेहरा बेनक़ाब करती है।

मेरी मासूमियत की हद देखिए कि मैंने अपनी बहू से कह डाला कि कल रात मैं डाई घण्टे बेहोश रही। मेरी दिक्कत असल में यह है कि बेटी न होने और बेटी जैसा बेटा खोने के बाद मैं बहू को ही बेटी मानती रही हूँ। इसलिए बहुत बार राज़ की बात उससे कह बैठती हूँ।

उसने तुरंत दारोगाई लहजे में कहा, " आपको कैसे पता! जब आदमी बेहोश होता है तो उसे थोड़ा पता रहता है कि वह बेहोश है। वह तो और लोग बतलाते हैं। " मुझे बहुत हँसी आई। मैंने कहा हे विदुषी, होश आने पर तो चल जाता है न पता कि बेहोश थे? नहीं तब भी नहीं चलता। हमारे स्कूल में लड़कियाँ फ़ेन्ट होती रहती थीं और उन्हें पता नहीं होता था कि वे फ़ेन्ट हुईं। ज़ाहिर है फ़ेन्ट वे दस पाँच मिनट के लिए होती थी। और फ़ेन्ट तो लड़कियाँ मेरे स्कूल में भी होती रहती थीं पर इतनी जाहिल नहीं थीं कि ज़मीन से उठने पर भी उन्हें मालूम न हो कि वे ज़मीनंदोज़ हुई थीं, होश खो कर और अब बाहोश हैं। पर ठीक है अगर उसकी सोहबत ऐसे कूढ़मग्ज़ों की रही तो उस बेचारी का क्या क़सूर। मैं हँस कर रह गई। पर उसकी जिरह ज़ारी थी। " और आपको कैसे पता आप ढाई घन्टे बेहोश रहीं?" अब मैं हँस ही तो दी, कुछ अपने पर कुछ उस पर। घड़ी देखी थी उठते ही और आँख मुंदने से पहले भी। सब जानते हैं मेरी इस आदत को। पर वह मेरी बेटी- बेटा नहीं थी, वह क्योंकर जानती? अब बेटे ने फ़ोन ले लिया, क्या पता तुम गहरी नींद में रही हो। बेहोशी और गहरी नींद में कोई फ़र्क़ नहीं होता। " काश, मैंने सोचा, ऐसी नींद मैंने जानी होती!

तुमने कुशीनगर में बुद्ध की शैयाशायी प्रतिमा नहीं देखी, मेरे बेटे, जिसे, सिरहाने खड़े हो कर देखो तो लगता है, बुद्ध गहन सौम्य निद्रा में लीन हैं। और अगर पायताने खड़े हो कर देखो तो लगता है कि वह निस्पंद मृत देह है। एक ही प्रतिमा, एक ही रूप और काया, एक ही शिल्पकार और ऐसा अद्भुत द्विअर्थ। जब निद्रा और मृत्यु का अन्तर इतना महीन हो सकता है तो सोचो, निद्रा और बेहोशी का कितना नामालूम, महीन होगा। कौन जाने उस रात मैं गहरी नींद में थी, या बेहोश थी या मृत थी, ढाई घण्टों के लिए। कौन जानता है मैंने नर्गिस को आहिस्ता से खिलते देखा था या ईश्वर के नेत्र ने पलक झपका कर दर्शन दिये थे मुझे। और उस क्षणिक मृत्यु के बाद मैं लौट आई थी पृथ्वी पर। मैं बस इतना जानती थी कि जिस मृदुला ने आँखे मूँदी थीं, वह, वह मृदुला नहीं थी जिसने आँखें खोली थीं। उनसे मैंने यह सब नहीं कहा। उन्हें फ़लसफ़े में दिलचस्पी नहीं थी, बस यह साबित करने में थी कि मैं बेहोश नहीं हुई थी।

बेटा कब इतना संवेदनहीन हुआ मेरा? मेरा तो उसकी प्रज्ञा पर अथाह विश्ववास ;गुरु मानती थी उसे अपना। अभी भी उसके बतलाये ढ़ँग से ध्यान लगा रही थी। पर रिटेना एक्सपर्ट ने कितनी ज़ोरदार आवाज़ में कहा था न, जैसे नगाड़े पर चोट की हो, "सब दिन एक समान नहीं रहते!"

ऊपरी तौर पर बात वहीं के वहीं रही। न बेहोशी ने मौत को आलिंगन में लिया, न बदन ने जकड़न छोड़ रफ़्तार पकड़ी। आप देख रहे हैं न, इन बदहवास अवसाद के लम्हों में कितना कुछ कॉमिक या तफ़रीह के क़ाबिल था? तभी न मेरे दिमाग़ में यह खयाल कभी न आया कि डाक्टरों के भरोसे, जो नींद की बेशुमार गोलियाँ, मेरे पास इकट्ठा हो गई हैं, उन्हें एक साथ निगल कर इस बेरंगत और असंगत ज़िन्दगी से छुट्टी पाऊँ।

दरअसल मेरे आत्मघात की कोशिश न करने के के पीछे एक सच्चे दोस्त, दिनेश द्विवेदी का कहा सूफ़ीयाना जुमला था। यह कि जैसे ज़िन्दगी एक मियाद होती है, वैसे ही उसमें घटने वाले हर अच्छे बुरे हादसे की भी एक मियाद होती है, जो अपनी मियाद पूरी करके ही खत्म होता है और ज़िन्दगी आगे बढ़ पाती है। कितना सही खुशनुमा फ़लसफ़ा था। मैंने अपनी तरफ़ से उसमें यह जोड़ लिया था कि कभी- कभी हादसे की मियाद और ज़िन्दगी की मियाद एक हो जाती है। बहू सुनती तो कहती "बी पॉज़िटिव!" अरे मेरी चतुर सुजान, पॉज़िटिव न होने के कारण ही तो मैं तुम्हें और तुम्हारे जैसे अन्य चतुर लोगों को मेरी तरह न सही पर अपनी तरह से सही मान पाती हूँ, वरना मैं भी उनसे बी पॉज़िटिव, बी पोज़िटिव कह कर उनका भेजा फ़्राई कर देती। आखिर पोज़िटिव के कितने अलग अलग रूप हैं।

मेरी असली फिक्र थी कि मेरी दृष्टि का धुँधलापन किस मियाद के भीतर आएगा? ज़िन्दगी की मियाद से मेल खाएगा या उससे छोटी मियाद में निबट जाएगा।



आप समझ ही गये होंगे कि मेरे जैसे धत्ती लोगों का दिमाग़ कभी चलना बन्द नहीं करता। कितना भी दवा की मार के नीचे दबाओ, सोचने की जुर्रत कर ही उठता है। ऊंट जब तक बिन प्यासा रहे तभी तक पानी के पास नहीं जाता। फिर जो एक बार प्यास जग जाए तो तालाब का तालाब पी जाता है। मेरे दिमाग़ ने भी उस रेगिस्तान से निकलने की एक राह निकाल ली। आपमें से जो ज़रा भी मनोविज्ञान का इल्म रखते होंगे या सोनाली की तरह संवेदनशील होंगे, मेरी भाग निकलने की अजब कोशिश को समझ जाएंगे। बाक़ियों का अल्लाह मालिक है।

जिस रात मैं बेहोशी के आलम में ईश्वर के दर्शन कर आई, उसी रात शुरु हुआ मृदुला गर्ग भाग 3: 

एकदम तार्किक तौर पर सोच कर मैंने अपनी उलझन का हल निकाला। यह कि अगर मुझे कोई थोड़ी बहुत गम्भीर जिस्मानी बीमारी निकल आती है तो हम उसके इलाज में लग जाएंगे और मैं ज़ोसर्ट की प्रेतनगरी से निकल पाऊंगी।

दिलचस्प बात यह कि इस सोच में मेरे साईक्याट्रिस्ट ने मेरी बहुत मदद की। यह जतला कर कि मेरी जो भी अलामात थीं, उनका एन्क्शायटी या उनकी दवा से कोई ताल्लुक नहीं था। उनकी वजह कोई गम्भीर "मेडिकल प्रोबलम" थी। मसलन दे मार पसीना आने का एन्क्शायटी से कुछ लेना देना नहीं था। उसका सम्बन्ध हाई ब्लड प्रेशर और दिल वगैरह से था। मैंने कहा मगर प्रेशर तो उतना हाई है नहीं और दिल का ई. सी. जी और इको बिल्कुल ठीक हैं। वे बोले उससे क्या होता है। यह देखिए मैं आपका प्रेशर नापता हूँ। 180/ 90 है और पल्स रेट 92. जाकर अपने डाक्टर से फिर से मिलिए और कहिए, ठीक से जाँच करें। कान्स्टिपेशन का भी ज़ोसर्ट से ताल्लुक नहीं है, आप किसी गैस्ट्रोएन्ट्रोलोजिस्ट से सलाह लीजिए। कौन जानता है आँतों या पेट में क्या गड़बड़ है। क्या पता कोई......समझ गई न?




दिल का डाक्टर तो ख़ास काम आया नहीं। उन्होंने कहा, अभी तो प्रेशर 170/80 है। उस वक़्त बढ़ा हुआ निकल आया होगा, कामधेनु साहब की बातों से आपकी एन्क्शायटी बढ़ गई होगी। वैसे आप सोडियम-पोटैशियम टेस्ट करवा लीजिए, बी. पी की दवा लेते हुए करवाना ज़रूरी है। और यह ज़ोसर्ट वोसर्ट लेते हुए भी। जिस लहजे में उन्होंने यह बात कही, उससे साफ़ लगा कि उनकी राय, डाक्टर कामधेनु के बारे में खास ऊँची थी नहीं। मेरी तरह वे भी समझ रहे थे कि उनका सार्थक नाम था, नाकाम वृषभ, कामधेनु नहीं।

मैं उस नामी-गिरामी गेस्ट्रोएण्ट्रोलोजिस्ट से मिल ली जिनका नाम उन्होंने मुझे सुझाया था। मशहूर था कि वे हर मरीज़ को कोलोन्सकॉपी का मशविरा दिया करते हैं। एक बार पहले मेरी कर भी चुके थे, पर वह दस साल पुरानी बात थी। मेरे पति की सर्जरी भी उन्होंने उसी के बाद की थी। तो वही मशविरा अब भी उन्होंने मुझे दिया। मैंने काफ़ी कोशिश की कि करवा डालूँ, और ख़ुदा के फ़ज़ल से कुछ निकल आये, जिससे ज़ोसर्ट से पीछा छूटे। पर तमाम इच्छा शक्ति के बावजूद, शरीर ने साथ नहीं दिया। मैं वह लाव लशकर वाला टेस्ट करवा न पाई। अलबत्ता मुझे बख्शा गया, वह नादिर तमगा और चमक उठा कि मुझे डाक्टरों के पास जाने का शौक़ है।

पर सोडियम ज़िन्दाबाद! मैं तो टेस्ट करवाते वक़्त उसे बेहद नाचीज़ समझ रही थी; वह निकली परम बलवान पवनपुत्री!

उसी की वजह से अन्ततः मुझे उस चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता दिखलाई दिया।

प्रभु कृपा! टेस्ट में सोडियम की कमी निकल आई। दिल के डाक्टर उसे ही पकड़ कर बैठ गये। पहले कहा, रोज़ाना 6 ग्राम नमक अलग से खाने में मिलाओ। जिससे कड़ुवे मुँह खाया खाना पहले से भी ज़्यादा बेस्वाद हो गया। जब उसके बावजूद, ख़ुदा के फ़ज़ल से सोडियम और कम निकला तो कोई दवा दी, जिससे कब्ज़ और काबिज़ हो गया। उन दिनों, मुझे अपने में पीकू फ़िल्म के अमिताभ बच्चन की बेहूदा छवि नज़र आने लगी थी। पर ज़ोसर्ट का रेगिस्तान ऐसा मन पर काबिज़ था की हँसी आते-आते बिला जाती थी। जब उस दवा के बाद भी सोडियम और कम निकला तो उन्होंने मुझे अस्पताल में भरती होने की सलाह दी। तब तक मेरे पैर बिल्कुल लकड़ी जैसे सख्त पड़ चुके थे। मैंने उनसे कहा भी कि उस जकड़न का सोडियम से कोई ताल्लुक नहीं है, उसकी वजह मेरा ऑस्टोपोरोसिस है, पर उन्होंने मेरी राय को कोई तरजीह नहीं दी।

अस्पताल में भरती कर वे हर छ्ह घण्टे में मेरा खून चूसने लगे, बाक़ायदा, सोडियम टेस्ट करने को, साथ में सैलाइन की बोतल लगा दी। और चलने फिरने से मना कर दिया। लिहाज़ा पैरों में कोई जुम्बिश बाक़ी न रही। मैं पहले से भी बेहतर तरीके से जान गई थी कि बिला ज़ोसर्ट से निजात पाये, मेरा और मेरे पैरों का कोई भविष्य नहीं था। पैसे के माध्यम से जो ख़ून चुस रहा था, वह अलग था। जिसकी वजह से बेटे की, मेरी वहाँ से भाग निकलने की राय से सहमति हो गई।

अन्ततः मैं मेडिकल सलाह के खिलाफ़, पर पूरा पैसा भर कर, वहाँ से डिस्चार्ज हो पाई। और तब हुआ दैवी चमत्कार! जाते समय डाक्टर ने बिदाई का ऐसा तोहफ़ा दिया कि तबीयत बाग़ बाग़ हो गई। उन्होंने कहा अपने उस धेनु नामक डाक्टर से कह कर ज़ोसर्ट कम करवा लीजिए, क्योंकि उसी की वजह से सोडियम कम होता जा रहा था।

अब बेटे के पास मेरे उस दवा को न खाने के ख़िलाफ़, कोई दलील नहीं थी।

आखिर हमने नया डाक्टर ढ़ूँढा जो खुशक़िस्मती से औरत थी और ज़ोसर्ट धीरे धीरे बन्द कर दी गई।

वाह प्रभु तो ज़ोसर्ट की भी एक मियाद थी और सोडियम वह ब्रह्म वाक्य था, जिसने उसे पटखनी दी।

अब पैरों की फिज़ियोथेरेपी करवाने और करने के साथ, मैं मन ही मन एक नया मन्त्र गुनगुनाने लगी थी।

ऊँ सोडियमाया स्वाहाः
तत सवितुर वरेणयम
भर्गो देवस्य धीमहि
धियो यो न प्रचोदयात

पृथ्वी और आकाश दोनों के ऊपर छा गया था सोडियम! स्वाहा हुआ तो ज़ोसर्ट को साथ ले कर। वाह प्रभु, आप भी खासे अलबेले विदूषक हैं।


फिर शुरु हुआ मृदुला गर्ग भाग 4: कभी न कभी तो होना ही था। 

मियाद का सिद्धान्त झूठा नहीं हो सकता था। ज़ोसर्ट बन्द होने के एक हफ़्ते बाद से उसके तमाम असरात खत्म होने लगे।

वह शरद पूर्णिमा की रात थी और मेरे अस्सीवे जन्मदिवस की पूर्व संध्या। मैंने कमरे के भीतर से देखा, बाईं तरफ़ के आसमान पर चाँद पूरे शबाब पर है। जितना तेज़ चल सकती थी, चल कर मैं बाहर बाल्कनी की तरफ़ लपकी। पर जब तक मैं बाहर पहुँची, आसमान काले बादलों से ढका हुआ था, जहाँ तक मेरी दृष्टि जा पाई वहाँ तक। चाँद कहाँ गया? क्या सिर्फ़ मुझे दिखलाई नहीं दे रहा! क्या हुआ? मेरी आँखें फिर धुँधलाने लगीं? मृदुला गर्ग भाग 1 अपने को दुहराने लगा?

मैं भूल चली थी कि मैं पूरी आँखें खोल एकटक आसमान को ताक रही थी जाने... अनजाने...पता नहीं कितनी देर से......कि मैंने देखा परिपूर्ण, धूम्रहीन; स्याह कुँए से बाहर उछलता, उज्जवल दमकता पूर्णमासी का चाँद! उफ़ कितना चमकीला, ज्योत्सना से मढ़ा जैसे अभी अभी जन्म लिया हो। ऐसा बाल सुलभ, जाज्वल्य, शुभ्र कि धुँध-अवसाद का हल्का सा आभास भी नहीं था उसके सर्वांग पर। कैसे होता? आखिर वह पूनम का चाँद था! अचरज यह नहीं था वह जैसा था, था। अचरज यह था कि मुझे वह वैसा दिखा, जैसा वह था। बिला धुँधलाये, एकदम स्पष्ट। दोनों, बादल का रमणीक काला स्याह कुआँ और रोशनी के लहकारे मारता उसके बाहर आया गोल मुकुट सा मनोरम चाँद। तो मेरी आँखें बुढ़ापे की वजह से धुँधलाने नहीं लगी थीं। वे पहले की तरह थीं, स्याह सफ़ेद देख सकतो थीं; रोशनी अँधेरा देख सकती थीं। गोल आकार और गड्ढा बनाती आकृति में फ़र्क़ कर सकती थीं। तो कागज़ पर अक्षर भी, कुछ पास से, कुछ दूर से देख पहचान ही लेंगी।

मैं अस्सी की हो पाऊँगी।

मैं यह कहानी खत्म कर पाऊँगी!

मृदुला गर्ग
ई 421 ( भूतल) जी के 2, नई दिल्ली 110048



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