सोच कर जवाब देना

बेचैनी है. सही गलत के पैमाने, जो खुद बनाये, उन पर भी शक है.

समझ नहीं आता कि पांच साल की बच्ची के साथ बलात्कार करने वाला, पकड़ तो लिया गया, लेकिन ऐसी विक्षिप्त मानसिकता रखने वाला क्या वो आख़िरी इन्सान था ?

बेचैनी इस बात की है कि वो आख़िरी नहीं है, कि और कितने हैं जो अभी इस वक़्त, दुनिया के किसी हिस्से में, या तो ये दुष्कर्म कर रहे होंगे, या करने वाले होंगे.

  ये बात भी परेशान कर रही है कि क्या ये पहली बार ही हुआ है या फिर पहले (या अब भी) दो-हज़ार-रूपये ने ऐसी घटना के होने को, न होना, करा है.

बहरहाल इस बेचैन दिमाग ने ये भी सोचा कि पुलिस इसमें क्या कर सकती है ? मतलब कैसे रोक सकती है ? ना. नहीं रोक सकती. क्या मैं रोक सकता हूँ या फिर आप ? या कोई सरकार या विपक्ष या आन्दोलन ?

गुस्सा आता है ये देख कर कि बहस पर बहस, इस बात पर होती है कि ये प्रशासन की नाकामी है. शर्म आती है ऐसी घटनाओं पर किसी नेता को अपनी राजनीति करते देख.

और ये कहते हुए हिचक नहीं होती कि हम फिर भूल जायेंगे कि ये हुआ था. अगर आप की सोच ये नहीं कहती तो फिर आखिर दिल्ली में खेल के नाम पर लूट कैसे भूल गये आप, या फिर कश्मीर से विस्थापित लोग क्यों विस्थापित हुए , पता करा ? वहाँ भी तो पांच साल के बच्चे रहे होंगे . ये बातें करना शुरू करी तो ख़त्म नहीं होंगी , करी इसलिए की – ये बात सच है कि आप फिर भूल जायेंगे.

ये भूलना ही कारण है, इन घटनाओं का, क्योंकि भूल जाते हो कि देश जब विभाजित हुआ तो खून नालियों में बहा – इसलिए खून फिर बहता है कभी दिल्ली में चौरासी होता है, कभी गुजरात में...

भूल जाते हो कि चारा पशु ने नहीं खाया , इसलिए रोज़ एक घोटाला होता है, आप बहस करते हो, गलियां देते हो. रोज़. लेकिन कल किसको गाली दी थी याद है ? और परसों ....

भूल जाते हो रंगा-बिल्ला को और फिर किसी नयी घटना पर सीना पकड़ कर बैठ जाते हो.


एक बात बोलो – सोच कर जवाब देना – क्या ऐसा नहीं लगता कि आप ये सब बातें भूलना नहीं चाहते थे ? लगता है ना ? तो फिर आखिर ऐसा होता क्यों है ... ऐसा कही इसलिए तो नहीं होता कि कोई आपसे ये सब भुलावा देता हो कि राजनीति के हमाम में जब सब नहाते हों तो “भूलवाने की राजनीति” तय करते हों ? फिर बाहर निकल कर अपनी अपनी टोपी लगा कर, हमें आपको कुछ ऐसा परोस देते हैं कि हम भूल जाते हैं...

बंद करो इस भूलने की आदत को, डर डर के रहना है तो फिर रोते क्यों हो ? डर छोड़ो, ये सब जाती-वाती का, स्त्री-पुरुष का, आरक्षण-वारक्षण का खाना जो तुम्हे रोज़ नयी थाली में नया बेयरा परोसता है, इसमें भूलने की दवा मिली होती है... जब तक ये खाते रहोगे, जिंदा मरते रहोगे (मारे जाते रहोगे).

भरत तिवारी
nmrk5136

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
कोरोना से पहले भी संक्रामक बीमारी से जूझी है ब्रिटिश दिल्ली —  नलिन चौहान
गिरिराज किशोर : स्मृतियां और अवदान — रवीन्द्र त्रिपाठी
मन्नू भंडारी की कहानी — 'रानी माँ का चबूतरा' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Rani Maa ka Chabutra'
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
मन्नू भंडारी: कहानी - एक कहानी यह भी (आत्मकथ्य)  Manu Bhandari - Hindi Kahani - Atmakathy
मन्नू भंडारी की कहानी  — 'नई नौकरी' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Nayi Naukri' मन्नू भंडारी जी का जाना हिन्दी और उसके साहित्य के उपन्यास-जगत, कहानी-संसार का विराट नुकसान है
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल Zehaal-e-miskeen makun taghaful زحالِ مسکیں مکن تغافل
सांता क्लाज हमें माफ कर दो — सच्चिदानंद जोशी #कहानी | Santa Claus hame maaf kar do
मन्नू भंडारी, कभी न होगा उनका अंत — ममता कालिया | Mamta Kalia Remembers Manu Bhandari