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छोड़ आये हम वो गलियाँ — ममता कालिया


लोकभारती में पाठ करते अमृतलाल नागर, साथ हैं महादेवी वर्मा, इलाचंद जोशी व सुमित्रनंदन पंत

जब दिग्गजों को छोड़कर, रवींद्र कालिया ने तय किया तो कॉफी हाउस में हलचल मच गई 

गुजरे जमाने का शहर — ममता कालिया

पत्नी के साथ अमरकांत
पत्नी के साथ अमरकांत 


एक समय था कि इलाहाबाद हिंदी साहित्य का सबसे बड़ा तीर्थ था। उसकी चमक, ठसक, शान और शोहरत का लोहा चतुर्दिक था। बड़ी बात यह कि उसकी अपनी संस्कृति शैली और मौलिकता थी। बड़े कवियों की परंपरा से संपन्न होने के बावजूद वह कथा की तरह दिलचस्प, सच्चा, काल्पनिक और खुरदुरा था। उस इलाहाबाद को अपने अनुभवों के आधार पर रच रही हैं — प्रसिद्ध कथाकार और कथेतर गद्य में अप्रतिम ममता कालिया।अखिलेश (तद्भव से साभार)

एक दिन खबर मिली लोकभारती प्रकाशन के प्रमुख दिनेशचंद्रजी नहीं रहे। दिल को धक्का लगा। इलाहाबाद की सिविल लाइंज में लोकभारती प्रकाशन लेखकों पाठकों और दोस्तों दुश्मनों का सबसे बड़ा अड्डा था। सवेरे 10 बजे से लेकर 11 बजे तक लोकभारती धीरे धीरे खुलता! सन् 1970 के दशक में जब हम इलाहाबाद पहुंचे ही थे, लोकभारती का हॉल चारों तरफ की दीवारों में ऊंची आलमारियों से ठसाठस पुस्तकों से भरा रहता। हॉल में दो तीन पुराने पंखे मरियल रफ्तार से चलते रहते। दरअसल यह एक प्राचीन इमारत का हिस्सा था जो काफी सस्ते किराए पर लोकभारती को मिल गया। यहां तीन मेज कुर्सी लगी थीं। जिन पर क्रमशः राधे बाबू, रमेश चंद्रजी और दिनेशजी बैठते। ये बराबर के व्यापार पार्टनर थे, लेकिन प्रतिष्ठान के कार्यकलाप में दिनेशजी बाकी दोनों पर हावी रहते। दिनेशजी रमेशजी ने किताबों के व्यापार में ही होश संभाला। ओमप्रकाशजी इनके मामा थे और उनकी देखरेख में इन्होंने पुस्तक प्रकाशन, मुद्रण और विपणन के समस्त गुर सीखे। हॉल से सटा एक छोटा कक्ष था, जिसमें दोनों भाइयों की सुंदर पत्नियां बैठतीं और बड़े धैर्य से किताबों के लंबे उबाऊ बिल बनातीं। दोनों भाई जितने मुंहफट और हेकड़ीबाज थे, उनकी पत्नियां उतनी ही शालीन और संभ्रांत थीं।

लोकभारती में पाठ करते अमृतलाल नागर, साथ हैं महादेवी वर्मा, इलाचंद जोशी व सुमित्रनंदन पंत
लोकभारती में पाठ करते अमृतलाल नागर, साथ हैं महादेवी वर्मा, इलाचंद जोशी व सुमित्रनंदन पंत


 लोकभारती ऐसा अड्डा था जहां हर कोई, किसी न किसी को ढूंढ़ते हुए आता।

 ‘‘दूधनाथ यहां आए थे क्या?’’

 ‘‘घंटे भर पहले आए थे, मार्कण्डेयजी की तलाश में कहीं निकल गए।’’

 ‘‘मार्कण्डेयजी भी वापस यहां आएंगे?’’

 ‘‘बताकर नहीं गए।’’

 इतनी पूछताछ करने वाला वहीं सामने की कुर्सी पर बैठ जाता। कुछ पुस्तकें उलटता, पलटता। शरमा शरमी में एकाध पुस्तक खरीद लेता। दिनेशजी चाबुकदस्ती से बिल बनाते, पैसे वसूल करते, बाकी पैसे लौटाते और आवाज लगाते, ‘‘जेपी इनको हिंदी साहित्य का इतिहास एक कॉपी दे दो।’’ जेपी भैरव प्रसाद गुप्त के बेटे जयपकाश थे जो लड़कपन से लोकभारती में खरीद फरोख्त संभालते।

 साहीजी का बड़बोलापन इसी से जाहिर होता था कि उन्होंने सुमित्रनंदन पंत जैसे मृदुभाषी, मितभाषी कवि के लिए कह दिया, ‘‘पंतजी की लोकायतन न तो मैंने पढ़ी है और न पढ़ंईगा।’’ जबकि साही जी के निधन के बाद जब उन पर एक स्मृति सभा रखी गई तब विभूतिनारायण राय ने कहा कि ‘शिक्षक के तौर पर साही जी ने हमारा बहुत समय नष्ट किया, वे विद्यार्थियों को कन्फ्यूज किया करते थे।’

 लोकभारती का इतिहास वास्तव में इलाहाबाद की साहित्यिक जलवायु का इतिहास है। कभी यहां सुमित्रानंदन पंत के दर्शन हो जाते तो कभी अमृतराय के। महिलाएं कम नजर आतीं। पता नहीं वे किताबों की जरूरत कैसे पूरी करती होंगी। महादेवी वर्मा भी गिनती की एक दो बार दिखी होंगी वहां।

वर्तमान समय से ज्यादा ईमानदारी थी पिछली सदी में जब किताबें लेटरप्रेस में छपतीं। हाथ से कंपोज हुई किताब का अगला संस्करण तुरंत पकड़ में आ जाता क्योंकि हाथ की कंपोजिंग में हर बार अलग जगह त्रुटियां होतीं
मार्कण्डेय ,शेखर जोशी एवं डॉ रामकमल राय
मार्कण्डेय ,शेखर जोशी एवं डॉ रामकमल राय

 दिनेशजी की बेबाकबयानी की भी इसमें बड़ी भूमिका थी। गजब का आत्मविश्वास था दिनेशजी में। नौ नकद न तेरह उधार में यकीन करने वाले रमेश और दिनेश बंधु, लेखकों की गपबाजी के बीच भी इतने चौकन्ने और चुस्त रहते कि एक प्याला कॉफी से ज्यादा कोई उनसे कुछ हासिल न कर पाता। उन वक्तों में लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद में हिंदी साहित्य की पुस्तकों का एकमात्र प्रकाशक था। अन्य प्रकाशन जैसे भारती भंडार, साहित्य भवन, साहित्य महल, वोरा एंड कंपनी थोड़े क्लांत शांत श्लथ और शिथिल से थे। कई लेखकों ने अपने प्रकाशन गृह खोले जैसे भैरवप्रसाद गुप्त, मार्कण्डेय, शिव कुमार सहाय, अमरकांत और शैलेश मटियानी। इनमें सबसे सफल उपेंद्रनाथ अश्क रहे और उनका नीलाभ प्रकाशन आज भी जिंदा है। बहुत से लेखक प्रकाशक अपनी स्वयं की पुस्तकें छापकर चुप बैठ गए। प्रकाशन के बाद विपणन और विक्रय संभालने के लिए जिस तंत्र की अनिवार्यता होती है वह नीलाभ प्रकाशन के अलावा कोई नहीं संभाल पाया। नीलाभ प्रकाशन में अश्कजी का पूरा संयुक्त परिवार सहयोग करता। कौशल्या अश्क जी ने अपना लेखन ताक पर रखकर इस प्रकाशन का प्रबंध संभाला और अश्क जी को लिखने के लिए आजाद छोड़ दिया। लेकिन नीलाभ प्रकाशन में बैठकर लेखकों को बतरस का वह सुख नसीब नहीं होता जो कॉफी हाउस या लोकभारती में होता। अश्कजी के बड़े बेटे उमेश जरा भी बातूनी नहीं थे। पारिवारिक चिंताओं में उनकी गर्दन हमेशा झुकी रहती।

नई कहानी’ शब्द किसी कहानीकार का दिया शब्द नहीं था। यह शब्द दुष्यंत कुमार की देन थी, जिन्होंने सन् 1955 में कल्पना में एक लेख लिखकर ‘नई कहानी’ अवधारणा की पुष्टि की और नए कहानीकारों के नाम भी घोषित कर दिए यथा — मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, मार्कण्डेय, अमरकांत, शेखरजोशी, केशव प्रसाद मिश्र, भैरव प्रसाद गुप्त, अश्कजी, भीष्म साहनी और राजेंद्र अवस्थी। बाद में एक शरारत के तहत दुष्यंत, मार्कण्डेय और कमलेश्वर ने डॉ. नामवर सिंह से कहानी/नई कहानी के सैद्धांतिक पक्ष पर लेख लिखवा लिया। 

 वैसे तो हिंदी का लेखक सर्वत्र सर्वहारा होता है, दिल्ली हो या लखनऊ पर इलाहाबाद का हिंदी लेखक सर्वस्वहारा माना जाय तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। इसकी कई वजहें हैं। रोजगार की  दृष्टि से इलाहाबाद एक लद्धड़ और अवसरविहीन शहर है। सत्तर के दशक में जब हम यहां पहुंचे केवल तीन स्तर के रोजगार उपलब्ध थे। एक विश्वविद्यालय की प्राध्यापकी जिसमें हरदम ठाकुर ब्राह्मण घमासान मचा रहता व जिसका फायदा कायस्थ अभ्यर्थी ले जाते। दूसरा मित्र प्रकाशन से निकलने वाली दस पत्रिकाओं में सहायक या उपसंपादक किस्म का पद और तीसरा किसी प्रकाशन गृह में बैठकर सुबह से शाम प्रूफरीडरी। सबसे उबाऊ, थकाऊ और दिलजलाऊ यह तीसरा रोजगार था, जिसमें अच्छे लेखक भी अपनी प्रतिभा और आंखें झोंकते और शाम को प्रकाशक उन्हें गिनकर पचास रुपए ऐसे पकड़ाता जैसे भामाशाह की थैली सौंप रहा है। जिन लेखकों की पुस्तकें किसी प्रकाशक के यहां छप रही होतीं वहां भी अग्रिम राशि के भुगतान का चलन न के बराबर था। अश्कजी कहा करते, ‘‘बालू में से तेल निकालने की जीनियस बस एक  लेखक के पास है, वह है दूधनाथ सिंह।’’ अश्कजी दूधनाथ सिंह की प्रतिभा और वाक् चातुर्य के प्रशंसक थे। वे उनकी सफलताएं गिनाते और भूल जाते कि किन विषम परिस्थितियों में पड़कर एक फ्रीलांसर झूठ का सहारा लेता है। उसे पता होता है कि सच बोलकर जिंदा नहीं रहा जा सकता। दूधनाथ सिंह सर्वहारा सरवाइवर का जीता जागता दस्तावेज हैं। इसमें उनकी पत्नी निर्मला का बराबर का सहयोग रहा। इतनी मुश्किलों में रहकर उन्होंने अपने तीनों बच्चों को जिस विवेक और वात्सत्य से पाला, वह हममें से कोई और नहीं कर पाया।
दूधनाथ सिंह, रवीन्द्र कालिया, काशीनाथ सिंह व अन्य
दूधनाथ सिंह, रवीन्द्र कालिया, काशीनाथ सिंह

भैरवजी और अश्कजी की अदावत कई वर्ष पुरानी थी। एक जमाने में दोनों दोस्त थे। फिर इतनी लड़ाई हो गई कि भैरवजी ने अश्कजी पर एक पूरा उपन्यास लिख डाला — ‘अंतिम अध्याय’। वर्षों बाद अश्कजी ने अपनी पुस्तक ‘चेहरे अनेक’ में उनको जवाब दिया।

 साल में एक बार दिनेशजी लेखकों की रॉयल्टी का भुगतान करते। उन दिनों किताबों की कीमतें काफी कम होतीं। मेरी किताबों का मूल्य होता छह या सात रुपए। लेकिन छपता 2100 का संस्करण। लोकभारती प्रकाशन का काम और हिसाब साफ रहता। वे अक्सर मुझे रॉयल्टी का चेक इस प्रकार देते रु. 527. 41 पैसे। एक बार मेरे पूछने पर दिनेशजी हंसे और उन्होंने बताया, ‘इस चेक का मतलब है मैंने आपका पैसे पैसे का हिसाब चुकता कर दिया।’’

‘‘मैंने पच्ची पच्ची (25-25) कताबा बंडल बांधकर पड़छत्ति पे चढ़ा देणी हैं। नईं खत्म होई कताब। कर लो की करदे हो तुसीं।’’ जब हम और आग्रह करते, जीत भाई, विस्की का बड़ा घूंट लेकर, अंगीठी पर कुकर में देसी घी से मीट भूनते हुए कहते, ‘‘कालिया जी तुसी समझाओ इन मूरखां नू, मैं थीसिस छापूंगा या इनकी कताबां? एक थीसिस छापने के मैनूं पांच हजार मिलदे हैं।’’

 वर्तमान समय से ज्यादा ईमानदारी थी पिछली सदी में जब किताबें लेटरप्रेस में छपतीं। हाथ से कंपोज हुई किताब का अगला संस्करण तुरंत पकड़ में आ जाता क्योंकि हाथ की कंपोजिंग में हर बार अलग जगह त्रुटियां होतीं। अब तो पुस्तक का अगला संस्करण घोषित करना प्रकाशक को नागवार लगता है। वह पुनर्मुद्रित लिखकर काम चला लेता है। लेखक के स्वाभिमान में उत्थान न आ जाए, उसे इसकी चिंता सताती है। दिनेशजी लोगों को अपनी जुमलेबाजी से सताते, लेकिन रॉयल्टी देने में साफगोई बरतते। अपने कड़की के दिनों में मैंने लोकभारती के लिए बहुत सा संपादन, पुनर्लेखन, रूपांतरण आदि किया, जिसका भुगतान उन्होंने तत्परता से किया। लेकिन दिनेशजी की जुबान उनकी दुश्मन थी। कभी वे गंगाप्रसाद पांडेय का किस्सा लेकर बैठ जाते कैसे उन्होंने महादेवी वर्मा को महीयसी बना दिया, कभी उन्हें वह घटना याद आ जाती जब वे गुस्से में मार्कण्डेयजी के पीछे कुर्सी उठाकर दौड़े। एक शाम रवि और मैं लोकभारती में दिनेशजी के पास बैठे थे। तभी एक आदमी आया और उसने दिनेशजी के हाथ में कागज की एक पुर्जी दी। दिनेशजी ने पढ़ी और उस आदमी से कहा, ‘‘भई किसी और डॉक्टर के यहां जाओ, यह दवा यहां नहीं मिलेगी।’’ मैंने कहा, ‘‘दिनेशजी, पुर्जी पर क्या लिखा था?’’ दिनेशजी हंसे और रवि को बताया वह आदमी मृदुला गर्ग का उपन्यास ‘चितकोबरा’ लेने आया था। दिनेशजी को अपनी समस्त दुकान की पुस्तक सूची कंठस्थ रहा करती। हमने उन्हें बरस दर बरस देखा। उनके दिमाग में कोई गफलत नहीं। कोई सामान खरीदना हो, दिनेशजी अपने एक फोन से दस प्रतिशत रियायत दिलवा देते। लोग दिनेशजी की दो टूक बात का बुरा मानते, लेकिन दिनेशजी अपने दिल पर कभी कोई बोझ लेकर घर नहीं जाते। उनकी अगले दिन की बैठक फिर हा हा ही ही से शुरू होती। रवि को वे प्रकाशन जगत के लटके झटके बताते। उनके पास विश्वविद्यालयों के विभागाध्यक्षों का कच्चा चिट्ठा मौजूद था, कौन किताब पाठ्यक्रम में लगाने के लिए प्रकाशक से कितनी रकम लेता है। पता चलता पवित्र कोई नहीं है। दिनेशजी मुझसे कहते, ‘‘आप ‘बेघर’ उपन्यास के दो चार पन्ने संपादित करने की छूट दीजिए, तब देखिए मैं कैसे खट से आपका उपन्यास पाठ्यक्रम में लगवाता हूं।’’ मैं तब नई, अनगढ़ और अकड़ई लेखिका थी। मैं तनकर कहती, ‘‘दिनेशजी मैं एक भी शब्द बदलने नहीं दूंगी।’’ वैसे ‘बेघर’ लोकभारती से प्रकाशित नहीं हुआ था। उसका प्रकाशन रचना प्रकाशन ने किया था। रचना प्रकाशन के स्वामी जीत मल्होत्रा थे, जो रवि की सहायता से साहित्यिक पुस्तकें छापने का जोखिम उठा रहे थे। हम सबको प्रकाशक की तलाश थी जो सुंदर, सुरुचिपूर्ण तरीके से हमारी पुस्तकें प्रकाशित करे। जीत भाई ने पचासों रीम कागज हमारे प्रेस में डलवा दिया और रवि को यह आजादी दी कि वे अच्छी, आधुनिक और उत्कृष्ट साहित्यिक किताबें छापते जाएं। प्रेसों की नगरी इलाहाबाद में हम लोग नए थे, हमारे प्रेस को काम की सख्त जरूरत थी।
रचना प्रकाशन से उन दिनों रवींद्र कालिया, दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह, विजयमोहन सिंह और मेरी कहानियां, उपन्यास प्रकाशित हुए। ढर्रेवादी, बदरंग पुस्तकों के बीच रचना प्रकाशन की पुस्तकों की साज सज्जा और छपाई में ताजगी और तेवर था। ये पुस्तकें खूब बिकीं, इन्हें पाठकों और आलोचकों ने सराहा किंतु जीत भाई में इस सफलता के साथ साथ अभिमान आ गया। जब हममें से कोई कहता, ‘‘जीत भाई किताब का अगला संस्करण कब कीजिएगा?’’ जीत भाई अपने घुटने पर हाथ मारकर कहते, ‘‘मैंने पच्ची पच्ची (25-25) कताबा बंडल बांधकर पड़छत्ति पे चढ़ा देणी हैं। नईं खत्म होई कताब। कर लो की करदे हो तुसीं।’’ जब हम और आग्रह करते, जीत भाई, विस्की का बड़ा घूंट लेकर, अंगीठी पर कुकर में देसी घी से मीट भूनते हुए कहते, ‘‘कालिया जी तुसी समझाओ इन मूरखां नू, मैं थीसिस छापूंगा या इनकी कताबां? एक थीसिस छापने के मैनूं पांच हजार मिलदे हैं।’’

doodhnath singh, ravindra kalia, kashi nath singh and gyan ranjan
काशीनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह व रवीन्द्र कालिया


 रचना प्रकाशन ने अपने हाथों अपना व्यवसाय चौपट किया। जीत को मधुमेह था, आंखों से कम दिखता, लेकिन वे किताबों की बिक्री के लिए पूरे भारत का भ्रमण करते, गटागट दारू पी जाते और शौक से सामिष भोजन करते। जल्द लोग प्रकाशक के रूप में उनका नाम भूलने लगे, किंतु एटलस और थीसिस विक्रेता के रूप में वे जमे रहे।

 अगर इलाहाबाद में कामकाजी लोगों की गणना की जाए तो बहुत कम निकलेगी। कई ऐसे खानदान मिल जाएंगे, जिनके यहां चार पीढ़ियों से कभी कोई दफ्तर नहीं गया। अधम नौकरी, मद्धम बान वाले सिद्धांत पर चलने वालों की धजा निराली है। अतरसुइया, लोकनाथ और रानी मंडी के मुहल्लों में नौकरी को हिकारत से देखा जाता है और नौकरी करने वाले पर लोग तरस खाते हैं। हालात से घबराकर अगर किसी ने ए.जी. ऑफिस में कलर्की कर ली या किसी लड़की ने स्कूल में पढ़ाने का काम ढूंढ़ लिया तो मुहल्ले ने उसके पूरे परिवार का तिरस्कार आरंभ कर दिया। ‘उसका क्या है सारा दिन दफ्तर में दो दूनी चार करता है।’ ‘दीपा को देखा मास्टरानी बन गई है। ब्याह होवै न करी, पढ़ावा करै उमिर भर।’

 इसका मतलब यह नहीं कि जो दफ्तर नहीं जाते, वे निठल्ले बैठे हैं। राम कहो। उन्हें दम मारने की फुसरत कहां। सुबह छह बजे चारखाने के तहमद का फेंटा कसकर मारते वे बड़े नवाब की चाय की दुकान पर तब पहुंच जाते हैं, जब उनकी अंगीठी ठीक से दहकी भी नहीं। सलाम वालेकम, वालेकम सलाम के साथ वे बैंच पर पड़ा अखबार उठाते हैं। दो चार मिनट उसी अखबार से अंगीठी को ताव देकर वे अखबार खोलते हैं। अच्छन भाई की आदत है वे पीछे के पन्ने से अखबार पढ़ना शुरू करते हैं। कुश्ती, कबड्डी और क्रिकेट की खबरें देख पढ़ लेने के बाद बारी आती है तीसरी पन्ने पर मरे गिरे की खबरों की। सबसे फारिग होकर वे पहले पन्ने पर आते हैं और चाय का ग्लास अपनी तरफ सरकाते हुए फतवा जारी करते हैं, ‘‘अब इस प्रधान से देश कुछ संभल नईं रहा है, जहां देखो उत्पात मचा है।’’
छोड़ आये हम वो गलियाँ — ममता कालिया
 अब तक आंखें मलते हुए कुछ और चायप्रेमी आ जुटते हैं। चाय के साथ चर्चा और खबरों का तबसिरा होता है। पता ही नहीं चलता कब नौ बज जाते हैं। चायप्रेमियों की इस खेप में बड़े नवाब की दिलचस्पी खात्मे पर है। वे लसौढ़े जैसा मुंह बनाकर अंगीठी के बुझते कोयले कोंचने लगते हैं। तभी यादगारे हुसैनी स्कूल से एक साथ तेरह चाय का ऑर्डर लेकर कादिर चपरासी आ जाता है और बड़े नवाब की केतली का ढक्कन खुल जाता है। यादगारे हुसैनी का मतलब है पंचमेल चाट नींबू मसाला मार के। किसकी भतीजी किसके साथ फंसी है, कौन मंगनी के बाद मां बाप से रूसी पड़ी हैं, किसका निकाह जुम्मे को पढ़ा जाएगा, इन सब खबरों का कच्चा चिट्ठा कादिर की जुबान पर रहता है। लेकिन कादिर खैनी का शौकीन है। लिहाजा, मुंह में खैनी भरकर वह मुंह उठाकर गों गों आवाज में क्या कहता है, वह पता लगाना अच्छे अच्छों के बस की बात नहीं है। इस बीच चाय उबल जाती है। कादिर के जाते ही काजमी साहब तशरीफ फरमाते हैं। वे कब्ज के पुराने मरीज हैं। किसी तरह फारिग होकर वे बड़े नवाब के अड्डे पर मुखातिब हुए कि नई खबरों से अपने को लैस करें कि खुद ईरम काजमी के किस्से का चिथड़ा उनके हाथ लगता है। वे अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हैं, लाहौल बिलाकुव्वत, नवाब साब हमारे जीते जी सैयदों के खून में गिरावट तो आ नहीं सकती। यह आप पूरी तरह जान लीजिए। मैं आज ही बेगम से दरयाफ्त करूंगा। वे बिना चाय पिए वापस चल देते हैं। अंगीठी मद्दी हो गई है। बड़े नवाब की दिलचस्पी अंगीठी दहकाने में खत्म हो गई है। वे घर जाकर अपनी नींद पूरी करेंगे।

 हमारा घर 370 रानीमंडी भी गप्पों का अड्डा था। मुद्रणालय के काम की एकरसता, मशीनों की घर्र घर्र गुर्राहट, बिजली की मनमानी, इन सबसे कुछ देर के लिए राहत तभी मिलती जब कोई अचानक आ बैठता। जो भी आता अपनी समस्त मौलिकता के साथ बात शुरू करता, ‘‘आपने सुना अश्कजी के यहां स्वर्ण आभूषणों की चोरी हो गई।’’ एक शाम सत्यप्रकाश ने एकदम गंभीर मुद्रा में बताया। रवि ने कहा, ‘‘सत्यप्रकाश, अश्कजी तो अपने आपको हिंदी का ग्रीब (गरीब) लेखक कहते हैं। चोर को गहने कहां मिल गए।’’ अब सत्यप्रकाश की हंसी छूट गई, ‘‘यार कालिया, वह जमलिया है न अपना, उसने उनकी इंटरव्यू की पूरी फाइल, दिन दहाड़े, अश्कजी के कमरे से उड़ा ली।’’ सतीश जमाली की हिम्मत और हिमाकत का उसके चेहरे की बेचारगी से कोई रिश्ता नहीं था। वह किसी से कुछ भी कह सकता था, कुछ भी कर गुजरता था।

 हमें याद आया सुरेश सिन्हा ने अश्कजी का एक लंबा इंटरव्यू लिया था। उसे सवाल बनाने मुश्किल लग रहे थे। अश्कजी ने कहा, ‘‘लाओ मैं बना देता हूं।’’ इस तरह उस इंटरव्यू के सवाल और जवाब दोनों अश्कजी के थे। उन्होंने अपनी बातचीत का एक फोटो भी गुड्डे (नीलाभ) से खिंचवा लिया था। फोटो खिंचवाने के लिए अश्कजी ने जैकेट पहनी, कंघी की और सुरेश सिन्हा को कंघा देकर कहा, ‘‘तुम भी अपने बाल संवार लो।’’

 दोनों की एक राजा बेटे जैसी तस्वीर खिंच गई। अश्कजी ने सिन्हा से कहा, ‘‘तुम देखते जाओ, यह किताब इतनी अच्छी छपेगी कि तुम चोटी के लेखक गिने जाओगे। मुखपृष्ठ पर तुम्हारी फोटो रहेगी।’’

 शाम के समय कॉफी हाउस में सुरेश सिन्हा ने यह बात दोस्तों के बीच जाहिर कर दी।

 फिर क्या था। बात को इतने पंख लगे कि वह उड़ चली।

 दूधनाथ सिंह ने कहा, ‘‘मैं तो भुगते बैठा हूं, तुम कैसे फंस गए।’’

 ज्ञानरंजन बोले, ‘‘अब देखना तुम्हें नीलाभ प्रकाशन का लेखक मान लिया जाएगा। तुम क्या उनके स्टाफ पर हो।’’

 सुरेंद्रपाल ने कहा, ‘‘अश्कजी ने आज तक किसी का अच्छा किया है जो तुम्हारा कर देंगे। बेट्टा इस किताब को चार जगह कोर्स में लगवा लेंगे पर तुम्हें बदनामी के सिवा कुछ न मिलेगा।’’ सुरेश सिन्हा घबरा गया।

 वहां सतीश जमाली और सत्यप्रकाश भी बैठे थे।

 तय किया गया कि जैसे तैसे सुरेश सिन्हा को इस मुसीबत से छुटकारा दिलाया जाए।

 सत्यप्रकाश ने कहा, ‘‘यार जमाली, तुम्हारी हिम्मत तब जानें जब तुम ससुरी वह फाइल ही उड़ा लाओ।’’

 जमाली जलवा दिखाने का कोई मौका छोड़ता नहीं था। उसने सुरेश सिन्हा से विवरण इकट्ठे किए। फाइल किस रंग की है, कितनी मोटी है। कहां रखी है। कहीं टाइपिंग में तो नहीं चली गई?

 सिन्हा ने सारे तथ्य समझाए।

 सुरेंद्रपाल ने कहा, ‘‘अश्कजी की टाइपिंग शिवशंकर मिश्र करते हैं। मैं उससे पूछ लूंगा।’’

 सारी सूचनाओं से लैस, सतीश जमाली अगले रोज सुबह 11 बजे 5 खुसरोबाग रोड पहुंचा। रोज की तरह अश्क जी बगल वाले ब्लॉक में अपने अध्ययन कक्ष में बैठे कुछ लिख रहे थे। उन्होंने जमाली को साइकिल खड़ी करते देखा तो खिल गए, ‘‘आओ जमाली, क्या हालचाल हैं?’’ अश्कजी किसी भी लेखक मित्र को देखकर खुश हो जाते। एक तो लेखन की एकरसता से थोड़ा विराम मिलता, दूसरे कभी मन किया तो दो चार पृष्ठ सुना भी डालते आने वाले को। अश्कजी ने जमाली को बैठने का इशारा किया, ‘‘आज मैं ‘अंजो दीदी’ रिवाइज कर रहा था। कुछ हिस्से तो इसके इतने अच्छे लिखे गए हैं कि यकीन ही नहीं होता मैंने लिखे हैं। मैंने थोड़ी फेरबदल की है। तुम्हें बताता हूं मैंने क्या पत्ते लगाए हैं। पहले ठहरो, मैं जरा अंदर चाय के लिए बोल आऊं।’’ अश्कजी अपनी घुमैया कुर्सी पर से उठे और पुराने ब्लॉक में बहू बिम्मा से चाय के लिए कहने गए। इंटरव्यू की फाइल बड़ी मेज की बाईं तरफ रखी थी। जमाली ने कवर खोलकर पुष्टि की कि सही माल है। उसने फाइल बगल में दबाई और अपनी साइकिल पर बैठकर चलता बना। जमाली ने फाइल सही ठिकाने पहुंचाई। सुरेश सिन्हा खुल्दाबाद में रहता था। जमाली ने कहा, ‘‘तुम थोड़े चुगद लगते हो। तुमसे यह फाइल संभलेगी नहीं। अच्छा हो तुम इसे भैरवजी के यहां जमा कर दो।’’

अश्कजी


 भैरवजी और अश्कजी की अदावत कई वर्ष पुरानी थी। एक जमाने में दोनों दोस्त थे। फिर इतनी लड़ाई हो गई कि भैरवजी ने अश्कजी पर एक पूरा उपन्यास लिख डाला — ‘अंतिम अध्याय’। वर्षों बाद अश्कजी ने अपनी पुस्तक ‘चेहरे अनेक’ में उनको जवाब दिया।

जब कभी कथा साहित्य की मुख्यधारा का चर्चा चला उसमें नरेश मेहता का नाम सिरे से गायब रहा।

 इलाहाबाद में ऐसी अदावतें होती रहती हैं। अदावतों में प्रतिभाओं की टक्कर होती है। कई बार अदावती लेखक एक दूसरे की प्रतिभा से प्रभावित होकर संधि कर लेना चाहते, पर उनके समर्थकों की भरपूर कोशिश रहती कि संधिवार्ता विफल हो जाए। अश्कजी अक्सर अपने को हिंदी का ग्रीब (गरीब) लेखक कहा करते। उनके विशाल परिसर में कमरे पर कमरे बनते जाते, उनकी किताबें समस्त भारत में पाठ्यक्रम में लगती जातीं लेकिन कॉफी हाउस में अश्कजी आते ही घोषित करते, ‘‘भई मैं हिंदी का ग्रीब (गरीब) लेखक हूं।’’ एक दिन नरेश मेहता ने इस वाक्य का अनुवाद कर डाला, ‘‘ही इज ए पुअर हिंदी रायटर।’’ उस दिन से अश्कजी ने यह जुमला बोलना छोड़ दिया। नरेश मेहता थोड़े नफीस किस्म के व्यक्ति थे। पूरी तरह मसिजीवी होते हुए भी वे घर से लकदक निकलते। कॉफी हाउस में बैठते मगर पांच दस मिनट में वहां से उठकर बगल में लोकभारती प्रकाशन पहुंच जाते। उनकी नाजुकमिजाजी को कॉफी हाउस का शोर और धुआं ज्यादा देर गवारा न होता। जब उनकी जुबान पर सरस्वती आ जाती वे अद्भुत बातें करते। पति पत्नी दोनों सुंदर, स्मार्ट। नरेशजी में मालवी भोलापन भी समानांतर चलता। उन्हें बड़े बड़े पुरस्कार व सम्मान मिले। लेकिन जब कभी कथा साहित्य की मुख्यधारा का चर्चा चला उसमें नरेश मेहता का नाम सिरे से गायब रहा।

 एक शाम इसी खलिश पर बात होने लगी। रवि ने नरेशजी से पूछा, ‘‘आप शौक फरमाएंगे।’’

 नरेशजी ने कहा, ‘‘सिर्फ आधा पैग।’’

 स्टीरियो पर बेगम अख्तर की गजल लगा दी गई। मैंने नमकीन और सलाद की प्लेट लाकर रख दी।

 नरेशजी को माहौल से ही सुरूर आ गया। वे बोले, ‘‘कालिया तुम्हें अपनी नई प्रेम कविताएं सुनाऊं?’’

 ‘‘इरशाद।’’ हमने कहा।

 नरेशजी ने बड़ी भावप्रवण कविताएं सुनाईं।

 मैंने उस समय नोट नहीं कीं पर उनमें प्रेम की इतनी उत्कट और विराट अनुभूति थी कि कमरा भर गया। स्टीरियो भी बंद करना पड़ा। एक कविता में बिंब था कि ‘‘तुम्हारी चाय से उठी भाप ने तुम्हारे कानों के पास कुंडल बना दिया है, कहीं वह मैं ही हूं।’’

 हम काफी देर चुप बैठे रहे। रवि ने ही खामोशी तोड़ी। उन्होंने कविता का उत्स जानने की जिज्ञासा की। नरेशजी ने बताया कि वाकई ऐसी उनकी एक परिचिता थी।

 ‘‘इतनी इंटेंस प्रेम कविताएं तो आपने अपनी युवावस्था में भी नहीं लिखीं?’’

 नरेशजी बोले, ‘‘युवावस्था में आदमी प्रेम करता है, प्रेम लिखता नहीं।’’

 रवींद्र ने और कोंचा, ‘‘इन्हें सुनते हुए एक बंगाली खूबसूरत महिला का चेहरा उभरता है।’’

 नरेशजी मान गए, ‘‘मेरे संपूर्ण लेखन में वह बांग्ला गंध ही तो है।’’

 रवींद्र, ‘‘मत्स्यगंधा!’’

 नरेशजी, ‘‘यह ठीक कहा, मत्स्यगंधा हा हा हा। एक बात बताऊं। देयर वाज ए गर्ल। शी वॉज बंगाली। मेरा दुर्भाग्य...’’

 वे बड़ी देर के लिए चुप हो गए। ग्लास अधपिया छोड़ दिया, धीरे से बोले, ‘‘आय एम अपसैट। आय वॉंट टु गो नाउ।’’

 कितनी अजीब बात है कि नरेश मेहता ने इतने बहुल व पृथुल उपन्यास लिखे। लेकिन वे कहते थे उन्होंने आज तक कोई कहानी या उपन्यास नहीं पढ़ा। उन्होंने स्वीकार किया कि अगर कविता लिखकर उनका गुजारा चल जाता तो वे गद्य की ओर कभी झांकते भी नहीं।

 भैरव प्रसाद गुप्त के व्यक्तित्व में ऐसे कोमल कोने अंतरे नहीं थे अथवा वे उनका पता नहीं लगने देते थे। उनका संघर्ष भी विकट था। वे मित्र प्रकाशन में काम करते थे, जो एक वक्त, इलाहाबाद के साहित्यकारों का सबसे बड़ा पोषण और शोषण केंद्र था। एक बार अपने कॉलेज के लद्धड़पने से घबराकर जब मैं मित्र प्रकाशन जॉइन करने की सोच रही थी, भैरवजी ने मुझे आगाह किया, ‘‘ममता ऐसी गलती मत करना। वे छह महीने तो बड़ा अच्छा सलूक करते हैं, उसके बाद वहां अपमान ही अपमान है।’’

 भैरवजी ने, पता नहीं, कब यह निष्कर्ष निकाल लिया था कि प्रगतिशील रचनाकार होने का अर्थ है बाकी सबको पतनशील समझो। वे भरी सभा में किसी युवा रचनाकार को झाड़ पिला देते, ‘‘आप क्या समझते हैं अपने आपको? क्या जानते हैं आप। बैठ जाइए। मैं कहता हूं, बैठ जाइए।’’

 डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने सही लिखा है कि भैरवजी शहर के सोटा गुरु थे। दफ्तर में वे डांट खाते थे, दफ्तर के बाहर वे डांट पिलाते थे। जब रवि के साथ उनकी कभी ज्यादा तू तू मैं मैं हो जाती वे अगली सुबह मुझे फोन करते, ‘‘ममता, रवि आजकल बहुत पीने लगा है। पीने के बाद उसे छोटे बड़े का कोई लिहाज नहीं रहता। तुम उसे रात में घर से बाहर मत निकलने दिया करो।’’ रवि कौन सा मुझसे पूछ कर निकलते थे। प्रेस में छुट्टी होने के बाद वे छुट्टा हिरन हो जाते।

  पता नहीं यह इलाहाबाद की खासियत थी या रवि की अथवा भैरवजी की; इतनी ले दे के बाद जब भैरवजी को अपनी नई पुस्तक छपवानी थी, उन्हें हमारा प्रेस ही याद आया। उन्होंने आकर पांडुलिपि रवि को पकड़ाई। साथ ही उन्होंने एक छोटा सा संस्मरण सुनाया कि क्यों वे किताब की छपाई का भुगतान यथासमय कर देंगे। उन्होंने कहा, ‘‘कालिया एक बार मेरे साथ ऐसा हुआ कि मेरा हाथ तंग था और पत्नी बीमार पड़ी थी। मुझे एक प्रकाशक से रुपए मिलने की उम्मीद थी पर वह ऐन वक्त मुकर गया। हमारा होने वाला बच्चा पत्नी के पेट में ही मर गया। तभी से मैंने प्रण किया कि कभी किसी का मेहनत का पैसा नहीं रोकूंगा।’’

 पता नहीं उनके इस संस्मरण में कितनी सच्चाई थी। रवि ने उनकी पुस्तक छापकर दे दी। महीनों छपाई के दाम नहीं मिले।

 एक दिन चौक में भैरवजी केले खरीदते हुए दिखे। रवि को देखते ही तपाक से बोले, ‘‘मैं तुम्हारी तरफ ही आ रहा था। घर चल रहे हो या कहीं और जाना है।’’ रवि ने उनकी साइकिल के साथ घर की ओर रुख किया।

 ऑफिस में बैठकर भैरवजी ने अपनी जेब से एक एयरोग्राम निकाला, ‘‘ममता को बुलाओ।’’ मैं नीचे आई।

 भैरवजी ने एयरोग्राम मेरे आगे रखते हुए कहा, ‘‘तुमने तो फ्रैंच भाषा पढ़ी हुई है। ‘गंगामैया’ फ्रैंच में अनुवाद होकर धड़ाधड़ बिक गई और उसका प्रकाशक मेरी रॉयल्टी मारे बैठा है। लिखो लिखो, सख्त शब्दों में लिखो। मैं हिंदी में बोलता हूं, तुम तर्जुमा करती जाओ।’’

 मैंने डरकर कहा, ‘‘भैरवजी मैंने तो तेरह साल पहले स्कूल में फ्रेंच पढ़ी थी। चिट्ठी लिखने की लियाकत कहां से लाऊंगी। कुछेक शब्द भर याद हैं।’’

 भैरवजी ने गर्दन हिलाई, ‘‘अच्छा चलो, इंग्लिश में लिखो कि वह मेरी रॉयल्टी फौरन भेजे।’’

 रवि समझ गए कि आज की उनकी विजिट में पैसे मिलने की कोई सूरत नहीं है।

 जैसे तैसे चिट्ठी लिखकर मैंने भैरवजी को थमाई। भैरवजी ने चिट्ठी थूक से चिपकाई और रवाना हो गए।

हरामियों की पीढ़ी

 इलाहाबाद की पुरानी पीढ़ी के साहित्यकारों ने हम नए लेखकों को कभी घास नहीं डाली। भैरवजी तो हमें इतनी हिकारत से देखते थे कि एक दिन हम सब को ‘हरामियों की पीढ़ी’ तक कह डाला। लक्ष्मीकांत वर्मा परिमल में सक्रिय थे। लेकिन वे हर जगह पाए जाते। जिन वर्षों में वे उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के अध्यक्ष बने, उन्होंने सही निर्णय लेकर संस्थान का नाम चमका दिया। कमजोर शरीर के लंबे लक्ष्मीकांत जी पहले साइकिल चलाते थे। बाद में रिक्शे से आते जाते थे। वे लगातार लिखते थे। उन्होंने डॉ. रघुवंश और एक अन्य साथी के साथ संयुक्त संपादन में अनियतकालीन पत्रिका निकाली ‘क ख ग’। सन् 1965 में उन्होंने इस पत्रिका के मुखपृष्ठ पर बोल्ड अक्षरों में मेरी छोटी सी कविता छापी थी जो ठीक 12 दिसंबर, 1965 को दिल्ली पहुंची। कविता थी — ‘प्यार शब्द घिसते घिसते चपटा हो गया है। अब हमारी समझ में सहवास आता है।’ इसी तारीख में मेरी और रवींद्र कालिया की शादी दिल्ली के मॉडल टाउन में हुई। जब मैं पंडाल में पारंपरिक वेशभूषा में पहुंची, मैंने देखा मेरे ही परिवार के हितैषी ‘क ख ग’ का अंक हाथ में उठाए परचम की तरह लहरा रहे थे।

 विकट आर्थिक संघर्षों में कई बार वर्माजी को मिथ्याचार भी करना पड़ता, किंतु शेष समय वे फक्कड़पन में गुजारते।

 एक बार किसी कवि का कवितापाठ चल रहा था। लक्ष्मीकांत जी श्रोताओं के बीच से यकायक उठकर बाहर चल दिए। कवि ने अपना कवितापाठ भी रोक दिया। लक्ष्मीकांत जी वापस आकर बैठे और बड़े इत्मीनान से बोले, ‘‘मैं पान थूकने गया था।’’ इस पर एक ठहाका उठा और इस कवि का कवितापाठ ध्वस्त हो गया।

 इलाहाबाद की फितरत है यहां कोई हमेशा विजेता नहीं बना रह सकता। रसूलाबाद घाट पर एक कृशकाय शव का अंतिम संस्कार हो रहा था। वहां अत्येष्टि कार्य संपन्न कराने वाली एक वृद्धा थी, जिसे सब महाराजिन बुआ कहते थे। उन्हीं से पूछकर दाहकर्म का सामग्री जुटाई जाती। उस हाड़ हाड़ शव के लिए महाराजिन बुआ ने विधि विधान के अनुसार बारह मन लकड़ी, पाव भर चंदन, दो सेर देसी घी आदि से जब चिता चुनवाई और अर्थी को उस पर लिटाया गया, लक्ष्मीकांत जी से बोले बिना न रहा गया, ‘‘यह तो कुछ ज्यादा बड़ी हो गई महाराजिन बुआ।’’ महाराजिन बुआ ने अपने हाथ का लंबा डंडा गंगा की रेती में मारते हुए कहा, ‘‘बड़ी है गई तो तुमहु पौढ़ लो बुढ़ऊ।’’

 मार्कण्डेय और लक्ष्मीकांत वर्मा भैरवजी से ज्यादा लोकतांत्रिक थे। वे नए लेखकों की रचनाएं पढ़ते। अच्छी लगतीं तो वे पसंदगी जाहिर करते। मेरे पहले उपन्यास बेघर के शुरू के कुछ पृष्ठों का पाठ मार्कण्डेयजी के घर में हुआ और उन्होंने मुक्त कंठ से उसकी प्रशंसा की। मैं तब उपन्यास लिखने के बारे में कुछ भी नहीं जानती थी। मार्कण्डेयजी के यहां हुई गोष्ठी से मेरी बहुत हौसलाअफजाई हुई।

 बातचीत करते वक्त मार्कण्डेयजी की कई भंगिमाएं बड़ी मोहक थीं। सुंदर तो वे थे ही; अपने सफेद बालों के बावजूद वे आकर्षक लगते। उनके चेहरे पर एक रहस्यमय स्मिति रहती। हम सबकी लंतरानियां वे सुनते रहते और धीरे से एक जुमला सरका देते। वह एक बात इतनी वजनदार होती कि पूरी बैठक उनके नाम हो जाती। सेंट जोजफ स्कूल की सेमिनरी से उनके बहुत अच्छे संबंध थे। वे फादर कामिल बुल्के को भी जानते थे। उनके कमरे में एक तख्त था जिस पर मसनद के सहारे वे आराम से बैठते। हजरते दाग जहां बैठ गए, बैठ गए वाली मुद्रा में। उनकी पत्नी विद्याजी अंदर से चाय, नाश्ता भिजवातीं। शाम को जब मार्कण्डेयजी कॉफी हाउस के लिए निकलते, उनके चेले पीछे पीछे साइकिल पर उनके साथ चलते। इनमें विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्र होते और युवा रचनाकार भी। मार्कण्डेय ने अपना प्रकाशन तो खोला ही हुआ था, वे ‘कथा’ शीर्षक से एक अनियतकालीन पत्रिका भी निकालते। वामपंथी लघु पत्रिकाओं में ‘कथा’ अच्छी, सुलझी हुई मानी जाती।

 कॉफी हाउस के सत्र में भैरव, मार्कण्डेय और शेखर जोशी की त्रयी एक मेज पर नजर आती। मेज के अगल बगल सभी के चेलों का चक्र बढ़ता चला जाता। बैरे मेज पर पानी के ग्लास बढ़ाते जाते। काफी देर तो ठंडे पानी के सहारे ही गर्मागर्म बहस चलती। फिर कोई समर्थ समर्थक इशारे से बैरे को कॉफी लाने को कह देता। भैरवजी इस मंडली में सबसे वाचाल रहते। अमरकांत इस समूह में अपनी मौन उपस्थिति बनाए रहते। हमें उनकी चुप्पी पर कोफ्त होती। खासकर भैरवजी के डपट मार्का संवादों से। अमरकांत उत्तेजना का चरमबिंदु स्पर्श ही न करते। कहानी की इस त्रयी या त्रिकोण से वे बाहर रहते। शेखर जोशी भी अपनी ऊर्जा व्यर्थ नहीं गंवाते। भैरव जी एक तरफ परिमल के सदस्यों को बुरा भला कहते, दूसरी तरफ प्रलेस की कमियां गिनाते। कोई उन्हें टोकने की कोशिश करता तो वे सिगरेट का कश खींचते हुए आंखें तरेरकर उसे देखकर कहते, ‘‘बकिए आपको क्या बकना है।’’ इस मंडली में अमरकांत की मौजूदगी एक अबूझ पहेली लगती। कभी कभी लगता भैरवजी उन्हें दबाकर रखना चाहते हैं। इसीलिए लोग उन्हें भैरव का भैरोमीटर कहा करते।

 अमरकांत का एक कहानी संग्रह भैरवजी के यहां से प्रकाशित हुआ था। वर्षों पहले कॉमरेड ज्ञानरंजन ने कहा, ‘‘आपको इसकी रॉयल्टी जल्दी से जल्द मिलनी चाहिए।’’

 अमरकांत ने धीरे से ज्ञानरंजन से कहा, ‘‘पहले आप पी.पी.एच. (पीपल्ज पब्लिशिंग हाउस) से तो मेरी रॉयल्टी दिलवाइए।’’

 नेपथ्य से दृश्य चुराने में अमरकांत सिद्धहस्त थे। जब हमने सन् 1970 में उन्हें देखा, ऐसा लगा जैसे वे भैरव और मार्कण्डेय दोनों द्वारा उपेक्षित व शोषित थे। केवल शेखर जोशी उनके साथ मानवीय व्यवहार करते। उन दिनों इलाहाबाद शहर को त्रयी या तिकड़ी बनाने का बड़ा चस्का था। जो भी तिकड़ी यहां गढ़ी जाती, वह चल निकलती जैसे निराला, पंत और महादेवी। भैरव, मार्कण्डेय और शेखर जोशी। इसमें चर्चा की सहूलियत भी रहती। अमरकांत इन तिकड़ियों के बीच नदी के द्वीप थे। वे न इधर थे न उधर। उधर परिमल गुट में भी त्रयी घोषित थी।

निराला और महादेवी
निराला और महादेवी

तीन का पहाड़ा 

इलाहाबाद में तीन का पहाड़ा हर जगह प्रचलित था। नदियां थीं तीन — गंगा, यमुना, सरस्वती जिनकी त्रिपथगा मिलकर संगम बनाती। छायावाद के दिग्गज तीन — निराला, पंत और महादेवी। प्रगतिवाद के प्रतिनिधि तीन भैरवप्रसाद गुप्त, मार्कण्डेय और शेखर जोशी। प्रमुख भाषाएं तीन हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी। उर्दू साहित्य के दिग्गज तीन — फिराक, फाखरी और ऐजाज हुसैन

प्रकाश चंद्रगुप्त एक तरह से प्रगतिशील लेखक संघ के एडमिन थे। परिमल के उल्लेखनीय नाम थे: धर्मवीर भारती, गोपी कृष्ण गोपेश, गिरिधर गोपाल, विजयदेव नारायण साही, जगदीश गुप्त, केशव चंद्र वर्मा और रामस्वरूप चतुर्वेदी। कुछ लोग मध्यमार्गी थे, फेंस के इधर उधर मंडराया करते। परिमल के बुद्धिजीवी ज्यादातर गीतकार और कवि थे, जबकि प्रगतिशील खेमे में गद्यकार थे। इलाहाबाद के माहौल में एक और विचित्रता थी। गोष्ठियों में एक खेमा दूसरे खेमे को लाख ललकारे पर शाम को कॉफी हाउस में सब इकट्ठे हो जाते। कभी कभी प्रलेस और परिमलियन के अलग गोल घेरे बनते लेकिन एक दूसरे को लक्षित कर फिकरेबाजी चलती रहती। जब किसी को घनघोर निंदा करनी होती तो उसे सी.आई.ए. का एजेंट घोषित कर देते। भैरवजी का कहना था लक्ष्मीकांत वर्मा सी.आई.ए. के एजेंट हैं, जबकि लक्ष्मीकांतजी अपने पान तम्बाकू के लिए भी सत्यप्रकाश मिश्र की संगत करते। भैरवजी ने एक कहानी लिखी, ‘मैं अमरीकी गेहूं नहीं खाऊंगी’ और अपने को प्रगतिशील सिद्ध करने का आग्रह करने लगे। इलाहाबाद में चार पांच रचनाकारों को छोड़कर बाकी सब मुफलिसी के मारे थे। कारुणिक यह था कि जिसके घर दो वक्त चूल्हा जलने लगता उसी को सी.आई.ए. का एजेंट घोषित कर दिया जाता। सी.आई.ए. का एजेंट कहलाना निकृष्टतम गाली माना जाता।

 इतनी गहमागहमी उसी शहर या कस्बे में हो सकती है जहां रुचियां आपस में रगड़ खाती हों, सब एक दूसरे को पढ़ते हों और संवाद गतिशील रहे। इलाहाबाद में एक स्पर्धा बनी रहती। कोई नई किताब प्रकाशित होती तो सब उस पर टूट पड़ते। खरीदकर, मांगकर, उड़ाकर उसे पढ़ना ही होता। इस स्पर्धा में लेखक, सह लेखक तो होते ही विद्यार्थी, शोधार्थी और प्रतियोगी परीक्षाओं के अभ्यर्थी भी शामिल होते। एकाध मील पैदल चलकर, किताब मांगने पहुंच जाना किसी भी पाठक के लिए आम बात थी।

 इलाहाबाद विश्वविद्यालय से जुड़े एक से एक विद्वान विभिन्न विभागों की शान थे। उनसे वार्तालाप के लिए जितनी अदब की जरूरत थी उतनी ही अदब (साहित्य) की जानकारी की। परिसर के अंदर और बाहर प्रतिभाओं की टक्कर बनी रहती। हिंदी विभाग में धीरेंद्र वर्मा, रामकुमार वर्मा, रघुवंश, हरदेव बाहरी, धर्मवीर भारती, रामस्वरूप चतुर्वेदी, जगदीश गुप्त जैसे चर्चित नाम थे। इनमें से कई सृजनात्मक लेखन में स्थापित हो चुके थे। अंग्रेजी विभाग भी कम समृद्ध नहीं था। वहां प्रकाश चंद्र गुप्त तो थे ही फिराक और यदुपति सहाय, एस.सी. देव और विजय देव नारायण साही जैसे दिग्गज भी थे। ये सभी एकाधिक भाषाओं के ज्ञाता थे। इनकी प्रखरता का आलोक और आतंक दूर दूर तक फैला था। इनमें से किसी के भी निर्देशन में शोधकार्य करना कठिन तपस्या था। नियमित रूप से कॉफी हाउस आनेवालों में विजयदेव नारायण साही और रामस्वरूप चतुर्वेदी थे। शनिवार को कुछ और लोग शामिल हो जाते जैसे केशवचंद्र वर्मा, विश्वंभर मानव, इलाचंद्र जोशी, गिरिधर गोपाल आदि। परिमलियन माहौल बन जाता। साहीजी इस बैठक के सरगना हो जाते। वे एक समय समाजवादी सोशलिस्ट पार्टी से चुनाव भी लड़े थे। हालांकि वे चुनाव हार गए थे, अपनी अदा से वे यही दिखाते जैसे वे दिग दिगंत के विजेता हैं। उनके आगे कोई बोल ही न पाता। उनका पाइप पीने का अंदाज, लंबा चौड़ा डील डौल और बुलंद आवाज लोगों को आकर्षित करती। उनकी पत्नी कंचन साही दुबली पतली कनक छड़ी सी थीं। कभी कभी वे भी कॉफी हाउस आतीं। वे महिलाओं के लिए बने पारिवारिक कक्ष में बैठतीं। साही जी चार छह गर्वोक्ति करके घोषित करते, ‘‘चलूं, थोड़ी देर परिवार के पास भी बैठूं।’’ उनका बड़बोलापन इसी से जाहिर होता था कि उन्होंने सुमित्रनंदन पंत जैसे मृदुभाषी, मितभाषी कवि के लिए कह दिया, ‘‘पंतजी की लोकायतन न तो मैंने पढ़ी है और न पढ़ंईगा।’’ जबकि साही जी के निधन के बाद जब उन पर एक स्मृति सभा रखी गई तब विभूतिनारायण राय ने कहा कि ‘शिक्षक के तौर पर साही जी ने हमारा बहुत समय नष्ट किया, वे विद्यार्थियों को कन्फ्यूज किया करते थे।’

 इसी शहर में प्रलेस के तीन खंड हुए — प्रलेस, जलेस और जसम — जिसके कारण प्रलेस कमजोर पड़ने लगा। परिमल की प्रभा भारतीजी के बंबई चले जाने से मंद पड़ी। अकेले भैरवजी कोतवाल की तरह जब तब हांक लगाते रहते — ‘जागते रहो’। हिंदुस्तानी अकादमी की एक गोष्ठी में मार्कण्डेय काट्जू अध्यक्षता कर रहे थे। वे जाने माने न्यायामूर्ति थे और शहर में उनका दबदबा था। अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा, ‘‘वैसे देखा जाय तो प्रेमचंद इतने बड़े कथाकार नहीं थे कि....’’ भैरवजी हॉल में चिंघाड़े, ‘‘आप प्रेमचंद के बारे में क्या जानते हो, क्या समझते हो। किसने आपको जज बना दिया। भागो यहां से।’’

 भैरवजी उन्हें मंच से धकेलने के लिए लपके तो मार्कण्डेय काट्जू तपाक से कूदकर मंच से उतरे और नंगे पैरों बाहर भागे। उनका अर्दली उनके जूते हाथ में उठाकर पीछे पीछे दौड़ा। भैरवजी के रौद्र रूप के आगे सब सहम गए।

 एक बात जो मेरी कभी समझ में नहीं आई कि यह लेखकों की त्रयी बनाने का आधार क्या होता था। कुछ लेखक कभी त्रयी का हिस्सा नहीं रहे, फिर भी वे लिखते थे। कुछ त्रयी में थे, लेकिन उनके गुणधर्म एकदम विरोधी थे। जैसे जब हम इलाहाबाद पहुंचे तब लोगों की जुबान पर जिस त्रयी की नाम था वह थी भैरव, मार्कण्डेय और शेखर जोशी की त्रयी। जबकि तीनों एकदम अलग मिजाज के रचनाकर्मी थे। भैरवजी बवंडर थे तो मार्कण्डेयजी मंद समीर और शेखरजी पहाड़ी झरना। अमरकांत इनके साथ बने रहते, लेकिन वे शिवलिंग की तरह तटस्थ और तरंगहीन थे। एक से एक बेहतरीन कहानियों के रचयिता — डिप्टी कलक्टरी, जिंदगी और जोंक, दोपहर का भोजन, हत्यारे और मौत का नगर लेकिन मजाल है जो उनके मुंह से कोई आत्मप्रशंसा का ‘अ’ भी सुन पाए। वे एक दर्शक की तरह साथ बैठे रहते। भैरवजी बहस को कटुता की हद तक पहुंचा देते मगर मार्कण्डेय, एक हथेली से अपने पतले होंठ दबाए चुप बने रहते। शेखर जोशी कभी कभी एक अर्थपूर्ण जुमला फेंक देते लेकिन क्या मजाल जो वे भैरवजी को सबक सिखाएं। इसीलिए जब दिग्गजों को छोड़कर, रवींद्र कालिया ने तय किया कि ‘वर्ष’ पत्रिका का विशेषांक अमरकांत पर निकलेगा, कॉफी हाउस में हलचल मच गई।

 मार्कण्डयजी में कटुता का कोई ऐसा कोष नहीं था कि वे हर किसी से भिड़ें। वे मद्धम स्वर में अपनी बात कहते, लेकिन उनका एक बार का कथन पर्याप्त होता। उनका सबसे प्रिय शगल तो यही था कि वे घर पर अपने तख्त ए ताऊस पर विराजमान रहें, उनके आगे हिंदी का दरबार लगा रहे, किस्से बयां हों, लतीफे पैदा हों, साहित्यिक शरारतों के नक्शे खींचे जायं, किसी न किसी पर कयामत बरपा हो। कभी कभी महफिल बर्खास्त होने तक मार्कण्डेय बख्श भी देते गुनहगार को, ‘‘जाने दो यार, मरे हुए को क्या मारना!’’

 मार्कण्डेयजी के अंदर निश्छल शरारत का स्थायी भाव था। पढ़ाई के दिनों में मार्कण्डेय, दुष्यंत कुमार और कमलेश्वर का तिगड्डा मशहूर था। ये तीनों, विश्वविद्यालय से लेकर कॉफी हाउस तक अपने कारनामों से उत्पात मचाए रहते। कभी कभी ये ऐसे प्रेक्टिकल मजाक कर डालते जो खुद इन्हीं पर भारी पड़ जाते। तीनों खूबसूरत थे, तीनों प्रतिभाशाली। छठे दशक की लड़कियों में ये तीनों लोकप्रिय थे, हालांकि तीनों विवाहित थे। मार्कण्डेयजी का ग्रामीण स्वभाव उन्हें मेंड़ उलांकने से रोकता, लेकिन वे दुष्यंत और कमलेश्वर को उकसाने में प्रमुख भूमिका अदा करते। दरअसल मार्कण्डेय जी व्यक्ति से अधिक समाज के प्रेम में गिरफ्तार थे। वे जीवन संदर्भों के बीच से कहानी चुनने और बुनने को ज्यादा महत्व देते। उन्हें ग्रामीण समाज की गहरी पकड़ थी।

 मार्कण्डेय में विनोदप्रियता कूट कूट कर भरी थी, लेकिन वे अपने आपको मजाक का पात्र बनने से साफ बचा ले जाते। उनके झकाझक कुरते पर कभी हमने छींटा या शिकन पड़ते नहीं देखी। भैरवजी जब कालभैरव बन जाते, उन्हें शांत करना मार्कण्डेय के ही वश की बात थी। इलाहाबाद के साहित्य जगत में दो बार तिगड्डों की घोषणा हुई।

 1. भैरव प्रसाद गुप्त, मार्कण्डेय और शेखर जोशी

 2. मार्कण्डेय, दुष्यंत कुमार और कमलेश्वर

 दोनों ही घोषणाओं में मार्कण्डेय का नाम केंद्रीय भूमिका में रहा, जबकि पहले तिगड्डे में मार्कण्डेय और भैरव दो ध्रुवांत थे। दोनों की सृजनधर्मिता भी अलग थी और जीवनशैली भी। हां मार्कण्डेय, दुष्यंत और कमलेश्वर का तिगड्डा ज्यादा विश्वसनीय था। वे समवयस्क समकालीन और सहपाठी थे। तीनों में दो एक भी पैदाइशी इलाहाबादी नहीं था, किंतु तीनों ने यहां का तेवर अपनाने में ज्यादा वक्त नहीं लगाया। मार्कण्डेय शुरू में कविता लिखते थे लेकिन ‘गुलरा के बाबा’ की ख्याति के बाद पूरी तरह गद्य को समर्पित हो गए। दुष्यंत कुमार मूलतः और पूर्णतः कवि थे, लेकिन उनकी गजलों में बदलते समाज के संकट साफ नजर आते। कमलेश्वर ने कस्बे के आम आदमी को अपना नायक माना। घनघोर विषमताओं के बीच उन्होंने नई कहानी को साहित्य की केंद्रीय विधा के रूप में स्थापित किया हालांकि ‘नई कहानी’ शब्द किसी कहानीकार का दिया शब्द नहीं था। यह शब्द दुष्यंत कुमार की देन थी, जिन्होंने सन् 1955 में कल्पना में एक लेख लिखकर ‘नई कहानी’ अवधारणा की पुष्टि की और नए कहानीकारों के नाम भी घोषित कर दिए यथा — मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, मार्कण्डेय, अमरकांत, शेखरजोशी, केशव प्रसाद मिश्र, भैरव प्रसाद गुप्त, अश्कजी, भीष्म साहनी और राजेंद्र अवस्थी। बाद में एक शरारत के तहत दुष्यंत, मार्कण्डेय और कमलेश्वर ने डॉ. नामवर सिंह से कहानी/नई कहानी के सैद्धांतिक पक्ष पर लेख लिखवा लिया। अश्कजी ने ‘संकेत’ नाम से संकलन निकाला तो परिमल गुट ने ‘निकष’ नाम से रूपवादी रचनाकारों को लामबंद किया। कुछ लेखक दोनों गलियारों में चतुराई से चहलकदमी करते रहे। मार्कण्डेयजी बहुत बढ़िया किस्सगो थे। मामूली सी घटना को भी वे आवाज दबाकर, धीमे धीमे मुस्कराकर होठों पर हाथ रखकर इतना अर्थपूर्ण बना देते कि सुननेवाले को लगता उनका राजदार बस वही है। उनके अंदर कथा के सोते फूटते रहते। उन्होंने अपनी पत्रिका का नाम भी ‘कथा’ रखा।

 एक बार मुहर्रम के तीसवें रोज के मातम, चेहल्लुम में वे हमारे रानीमंडी वाले घर में फंस गए। वे सवेरे, सतीश जमाली के साथ आए थे। इत्तेफाक से उस दिन मार्कण्डेय धोती कुरते में थे। बातों ही बातों में दिन चढ़ आया और हमारी गली में भीड़ बढ़ने लगी। रानीमंडी के तीन प्रमुख इमामबाड़े, हमारे घर की अगल बगल ही थे। काले लिबास में स्त्री पुरुषों और बच्चों के हुजूम के हुजूम आते गए। गली में फूलमालाएं और सिन्नी (प्रसाद) बेचने वाले भी घूम रहे थे। पैगंबर साहब के अलम और दुलदुल की सजधज भी निराली थी। हम बरसों से यह सब देखकर इसके अभ्यस्त हो चले थे। हमारे प्रेस की ड्योढ़ी और ऊपरी मंजिल की बालकनी औरतों, बच्चों से ठसाठस भर गई।

 मार्कण्डेयजी घबराकर बोले, ‘‘कालिया, हमें यहां से बाहर निकालो किसी तरह।’’

 रवि ने कई दोस्तों, परिचितों को फोन किए पर किसी में यह हिम्मत नहीं थी कि उस धार्मिक जुलूस के बीच से हमारे मेहमानों को ले जाय। सबने कहा, ‘‘शाम पांच बजे मातम हल्का पड़ेगा तब आप चले जाएं।’’

 मार्कण्डेयजी एकदम सन्न बैठे रहे। चाय, नाश्ते, खाने में उनकी दिलचस्पी खत्म हो गई। वे बार बार गली की तरफ देखते और उदास हो जाते।

 बाद में उन्होंने दोस्तों से कहा, ‘‘पता नहीं कालिया उस माहौल में कैसे रह लेता है!’’

 चौक इलाके की अपनी मस्तियां थीं। रानीमंडी से जरा हटकर हिंदू मुहल्ले थे — अतरसुइया, कल्याणी देवी, लोकनाथ और भारती भवन। भारती भवन के ढलान वाला इलाका अहियापुर था। वहां के लोगों की बोली बानी अहियापुरी मानी जाती। ‘कस गुरु’, ‘का गुरु’ ‘सरऊ का नाती’, ‘चकाचक’ उनकी शब्दावली के स्थाई हिस्से थे। वहां सड़क में बाजार और बाजार में सड़कें थीं। सब्जी बेचने वाले कहीं भी एक कपड़ा बिछाकर अपनी दुकान लगा लेते। जब हिंदुस्तान में हर जगह से आना पाई के सिक्के हट गए तब भी लोकनाथ, अहियापुर में सब्जीवालियां पुकार लगातीं —  चले आओ आलू के खायेवारो, बीस आना पंसेरी। मालवीयनगर यहां से सटी हुई गली थी, जहां एक मकान जनेश्वर मिश्र का था। दो चार समाजवादी नेता वहां अवश्य टहलते मिलते। जनेश्वरजी को छोटे लोहिया के नाम से जाना जाता।

 (क्रमशः)


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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