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Suman Keshari |
सुमन केशरी के आगामी कविता संकलन 'लोहे के पुतले' से कुछ कवितायेँ
जबसे दास्तान-गो महमूद फ़ारूक़ी से “दास्तान ए कर्ण” सुना…देखा…जीया उस युग को जिसकी अनुगूंजें आज भी सुनाई पड़तीं है…लगता है चल रहा है महाभारत सब ओर…इसमें हम भी भागीदार बने, कट रहे हैं…मर रहे हैं…मर मर कर भी जी रहे हैं..जीए जा रहे हैं लगातार महाभारत पल में…
गजब कहते हैं दास्तान महमूद…महाभारत से शुरु करके अब तक रची संस्कृत, उर्दू, फ़ारसी, अरबी, ब्रज, हिंदी आदि की ढेरों रचनाओं से लेते हुए अपनी कथा बुनते हुए। कर्ण सामने आ खड़ा होता है अपनी अपराजेयता के साथ…पराजित हुआ था कर्ण महाभारत में , पर जिसने युगों-युगों से सहृदयों का मन जीत लिया हो, वह कभी पराजित होता है क्या…
एक बात बतलाऊँ, गर्व के साथ…इस दास्तान ए कर्ण में महमूद जी ने मेरी “कर्ण” शीर्षक कविता के कुछ हिस्सों को भी शामिल कर लिया है…
इसीलिए मन हुआ कि कर्ण पर लिखी अपनी कुछ कविताएँ आप लोगों से साझा करूँ…
ये सारी कविताएँ महाभारत पर आधारित मेरे आगामी संकलन “लोहे के पुतले” में शामिल रहेंगी।
भरत तिवारी और शब्दांकन का धन्यवाद, छापने के लिए…
— सुमन केशरी
आज परात्पर की दाँयी हथेली में
घाव की पीड़ा
रह रह कर उभरती है
यह कैसी पीड़ा है
सोचते हैं परात्पर
बचपन के सारे खेल
मैया की मार
गोपियों का प्यार
सब कौंध जाता है
पर ऐसी दाह
हैरान हैं परात्पर
कहीं यह पूतना का विष तो नहीं
जो फूट रहा है
अब हथेली पर
या कि कालिया का फुत्कार..
कहीं यह युद्ध में उठाए
रथ के पहिए की चोट तो नहीं
या अश्वत्थामा पर फेंके ब्रह्मास्त्र का प्रभाव
आह किसी दुखिया का शाप है शायद
कैसी पीड़ा यह
ऐंठता है शरीर धनुष-सा
एकाएक
कहीं स्मृति में
आभा स्वर्ण की
ब्राह्मण बन रणक्षेत्र में लिए दान की
वरदान की
याद आता है कर्ण को दिया वचन
फूटता भीतर कहीं जल का सोता
और एक आँसू टपकता है
हथेली पर
उभरता है एक चेहरा विकल
समेटता अश्रुकण परात्पर का
अंतिम अर्घ्य-सा
अस्तगामी सूर्य ठिठकता है पल भर
देखता पुत्र की महामुक्ति का क्षण
फिर अपना रक्ताभ मुख छिपा लेता है
क्षितिज की गोद में
अनंत में बिखेरता
आँसुओं की लड़ी
मृत्योर्मा अमृतं गमयः
जल में क्रीड़ा करती है द्रौपदी
सपने में कर्ण के
स्वेद-तन कर्ण
छूता है उसे
उंगली की कोर से
कमल की पंखुड़ी-सा रूप
पीता है
नयनों से
सपने का आह्वान कर
तिरता है मादक रस में
बसता है
उसी में हर पल
कर्ण
स्वयंवर के बाद
अधसूखी लकड़ी-सा
जलता-धुंधुआता है
कर्ण
जीवन भर
नगर से आ रही
रुदन-क्रंदन में
आज
कर्ण को
द्रौपदी के रूदन का स्वर सुनाई पड़ता है
धिक्कारों और शापों से भरी
वही बेबस, कातर आर्तनाद...
टूटे रथ की ओट में पड़ा कर्ण
बूंद-बूंद रिस रहे
लहू के आलोक में
देख रहा है
जीवन
रूकता है मन पहुँच बिसात पर
सभा में बिलखती
द्रौपदी के अपमान में जल रहा है
आज
अस्ताचलगामी
सूर्यपुत्र..
घायल शिशु-सा
कुरूक्षेत्र में
अकेला पड़ा रक्तस्नात
राधा के कलेजे की हूक
कुंती की आँखों से
लहू बन बहती है रह-रह
व्याकुल हो वह
भींचती है वक्ष
पूरे प्राणपन से
पुकारती है कर्ण…
ओ कर्ण…
ध्वनि के उसी हिंडोले में
झूलता फिर
सोता है कर्ण
आश्वस्ति की गहरी नींद
कुंती अब देखा करती है
शिशु कर्ण को
अहर्निश...
पहली संतान किसी स्त्री का
अनाम
ढूंढता रहा जड़ अपनी
उसी पल से
जिस पल धनुष उठाया पहली बार
और सुना सबको कहते
क्षत्रिय के गुण हैं इसमें
सारथि-पुत्र नहीं है यह
राधेय नहीं है यह!
दरका विश्वास उसी क्षण
उन संबंधों से
सगा जिन्हें कहते हैं
दौड़ कर आया घर
तुम ही हो न माँ मेरी
कह दो बस एक बार
जा छिपा राधा के आंचल में
भीग गया माँ का अाँचल..
‘सूत-पुत्र’
जिव्हा पर मानो नीम पत्र
कानों में पिघला सीसा
कितना उपहास
कितनी घृणा
पर कैसी विडंबना
नहीं हूँ मैं सूत-पुत्र
जानता हूँ मैं
जानते हैं वे भई
जिनका नाम जुड़ गया है मुझसे
और जानती है वह भी
जिसने मुझे छोड़ दिया जनमते ही
तिरस्कार की इस ज्वाला में
जलने को आजन्म
जाने क्योंकर
सुना है मैंने
कवच जड़ित अभेद्य है यह देह
पर खोज लेता है कीड़ा भी
एक मर्मस्थल
जिसकी शिराओं से बहता
अभिशाप फैल जाता है पूरी देह में
क्षण भर में
आह
नहीं हूँ ब्राह्मण मैं
सो भूल जाऊँगा ब्रह्मास्त्र ज्ञान
उस पल
जब जरूरत होगी उसकी सर्वाधिक
यही अभिशाप है गुरु का
धंस जाएगा जीवन रथ
बीच समर में
ब्राह्मण
जिसका वेश धर मांग ले गए कवच-कुंडल
इंद्र स्वयं
पिता अर्जुन के
फिर से स्मरण हो आया
अभिशाप ब्राह्मण का
निःशब्द…
अर्जुन हों श्रेष्ठ धनुर्धर
सो गवाँ बैठा
एकलव्य अंगूठा दाहिना
और
उपहासित हुआ सभा में यह सूत-पुत्र
जान गया-
जन्म से नहीं
कर्म से भी नहीं
संबंधों से तय होती है नियति
इसी का भार चुकाया
द्रौपदी ने सभागार में
अभिमन्यु ने व्यूह में
प्रतिद्वन्द्वी अर्जुन
विजेता द्रौपदी का
पिता अभिमन्यु का
अर्जन
सहोदर मेरा
यही तो कहा था कृष्ण ने
युद्ध के ठीक पहले
मिलीं थीं कुंती
अश्रुपूरित नयनों से
मांगा था जीवन-दान
अपने जायो का
अपने उस पुत्र से
जिसे जन्मते ही बहा दिया
योगी की-सी निःसंगता से
उत्ताल लहरों से खेलने
भंवर जाल से अकेले जूझने
उन्हीं कुंती ने
मांगा था जीवन दान
अपने पुत्रों का
मुझ सूत-पुत्र से
मुझ राधेय से
खौलता है रक्त धमनियों में
भार हो जाता है सब
यह धन-धान्य
वे कवच-कुंडल
यह देह
सब
मुक्त हो जाना चाहता हूँ
सभी से
मित्र-अमित्र
अपने पराए
सभी से
स्वयं अपने से
और
इस जन्म के अभिशाप से
मुक्ति की यही कामना
महादानी बनाती है मुझे
इसी जन्म में
यह कैसी विडंबना है!
(इसी कविता के अंशो का उपयोग महमूद फ़ारुक़ी ने दास्तान-ए-करण में किया है। यह याज्ञवल्क्य से बहस, राजकमल प्रकाशन, 2008 में संकलित है )
एक बात बतलाऊँ, गर्व के साथ…इस दास्तान ए कर्ण में महमूद जी ने मेरी “कर्ण” शीर्षक कविता के कुछ हिस्सों को भी शामिल कर लिया है…
इसीलिए मन हुआ कि कर्ण पर लिखी अपनी कुछ कविताएँ आप लोगों से साझा करूँ…
ये सारी कविताएँ महाभारत पर आधारित मेरे आगामी संकलन “लोहे के पुतले” में शामिल रहेंगी।
भरत तिवारी और शब्दांकन का धन्यवाद, छापने के लिए…
— सुमन केशरी
महामुक्ति
युगों बादआज परात्पर की दाँयी हथेली में
घाव की पीड़ा
रह रह कर उभरती है
यह कैसी पीड़ा है
सोचते हैं परात्पर
बचपन के सारे खेल
मैया की मार
गोपियों का प्यार
सब कौंध जाता है
पर ऐसी दाह
हैरान हैं परात्पर
कहीं यह पूतना का विष तो नहीं
जो फूट रहा है
अब हथेली पर
या कि कालिया का फुत्कार..
कहीं यह युद्ध में उठाए
रथ के पहिए की चोट तो नहीं
या अश्वत्थामा पर फेंके ब्रह्मास्त्र का प्रभाव
आह किसी दुखिया का शाप है शायद
कैसी पीड़ा यह
ऐंठता है शरीर धनुष-सा
एकाएक
कहीं स्मृति में
आभा स्वर्ण की
ब्राह्मण बन रणक्षेत्र में लिए दान की
वरदान की
याद आता है कर्ण को दिया वचन
फूटता भीतर कहीं जल का सोता
और एक आँसू टपकता है
हथेली पर
उभरता है एक चेहरा विकल
समेटता अश्रुकण परात्पर का
अंतिम अर्घ्य-सा
अस्तगामी सूर्य ठिठकता है पल भर
देखता पुत्र की महामुक्ति का क्षण
फिर अपना रक्ताभ मुख छिपा लेता है
क्षितिज की गोद में
अनंत में बिखेरता
आँसुओं की लड़ी
मृत्योर्मा अमृतं गमयः
जल में क्रीड़ा करती है द्रौपदी
जल में क्रीड़ा करती है द्रौपदी
सपने में कर्ण के
स्वेद-तन कर्ण
छूता है उसे
उंगली की कोर से
कमल की पंखुड़ी-सा रूप
पीता है
नयनों से
सपने का आह्वान कर
तिरता है मादक रस में
बसता है
उसी में हर पल
कर्ण
स्वयंवर के बाद
अधसूखी लकड़ी-सा
जलता-धुंधुआता है
कर्ण
जीवन भर
सूर्य पुत्र
रात के इस पहरनगर से आ रही
रुदन-क्रंदन में
आज
कर्ण को
द्रौपदी के रूदन का स्वर सुनाई पड़ता है
धिक्कारों और शापों से भरी
वही बेबस, कातर आर्तनाद...
टूटे रथ की ओट में पड़ा कर्ण
बूंद-बूंद रिस रहे
लहू के आलोक में
देख रहा है
जीवन
रूकता है मन पहुँच बिसात पर
सभा में बिलखती
द्रौपदी के अपमान में जल रहा है
आज
अस्ताचलगामी
सूर्यपुत्र..
माँ माँ पुकारता है कौन्तेय..
माँ-माँ पुकारता हैघायल शिशु-सा
कुरूक्षेत्र में
अकेला पड़ा रक्तस्नात
राधा के कलेजे की हूक
कुंती की आँखों से
लहू बन बहती है रह-रह
व्याकुल हो वह
भींचती है वक्ष
पूरे प्राणपन से
पुकारती है कर्ण…
ओ कर्ण…
ध्वनि के उसी हिंडोले में
झूलता फिर
सोता है कर्ण
आश्वस्ति की गहरी नींद
कुंती अब देखा करती है
शिशु कर्ण को
अहर्निश...
कर्ण
मैं कर्णपहली संतान किसी स्त्री का
अनाम
ढूंढता रहा जड़ अपनी
उसी पल से
जिस पल धनुष उठाया पहली बार
और सुना सबको कहते
क्षत्रिय के गुण हैं इसमें
सारथि-पुत्र नहीं है यह
राधेय नहीं है यह!
दरका विश्वास उसी क्षण
उन संबंधों से
सगा जिन्हें कहते हैं
दौड़ कर आया घर
तुम ही हो न माँ मेरी
कह दो बस एक बार
जा छिपा राधा के आंचल में
भीग गया माँ का अाँचल..
‘सूत-पुत्र’
जिव्हा पर मानो नीम पत्र
कानों में पिघला सीसा
कितना उपहास
कितनी घृणा
पर कैसी विडंबना
नहीं हूँ मैं सूत-पुत्र
जानता हूँ मैं
जानते हैं वे भई
जिनका नाम जुड़ गया है मुझसे
और जानती है वह भी
जिसने मुझे छोड़ दिया जनमते ही
तिरस्कार की इस ज्वाला में
जलने को आजन्म
जाने क्योंकर
सुना है मैंने
कवच जड़ित अभेद्य है यह देह
पर खोज लेता है कीड़ा भी
एक मर्मस्थल
जिसकी शिराओं से बहता
अभिशाप फैल जाता है पूरी देह में
क्षण भर में
आह
नहीं हूँ ब्राह्मण मैं
सो भूल जाऊँगा ब्रह्मास्त्र ज्ञान
उस पल
जब जरूरत होगी उसकी सर्वाधिक
यही अभिशाप है गुरु का
धंस जाएगा जीवन रथ
बीच समर में
ब्राह्मण
जिसका वेश धर मांग ले गए कवच-कुंडल
इंद्र स्वयं
पिता अर्जुन के
फिर से स्मरण हो आया
अभिशाप ब्राह्मण का
निःशब्द…
अर्जुन हों श्रेष्ठ धनुर्धर
सो गवाँ बैठा
एकलव्य अंगूठा दाहिना
और
उपहासित हुआ सभा में यह सूत-पुत्र
जान गया-
जन्म से नहीं
कर्म से भी नहीं
संबंधों से तय होती है नियति
इसी का भार चुकाया
द्रौपदी ने सभागार में
अभिमन्यु ने व्यूह में
प्रतिद्वन्द्वी अर्जुन
विजेता द्रौपदी का
पिता अभिमन्यु का
अर्जन
सहोदर मेरा
यही तो कहा था कृष्ण ने
युद्ध के ठीक पहले
मिलीं थीं कुंती
अश्रुपूरित नयनों से
मांगा था जीवन-दान
अपने जायो का
अपने उस पुत्र से
जिसे जन्मते ही बहा दिया
योगी की-सी निःसंगता से
उत्ताल लहरों से खेलने
भंवर जाल से अकेले जूझने
उन्हीं कुंती ने
मांगा था जीवन दान
अपने पुत्रों का
मुझ सूत-पुत्र से
मुझ राधेय से
खौलता है रक्त धमनियों में
भार हो जाता है सब
यह धन-धान्य
वे कवच-कुंडल
यह देह
सब
मुक्त हो जाना चाहता हूँ
सभी से
मित्र-अमित्र
अपने पराए
सभी से
स्वयं अपने से
और
इस जन्म के अभिशाप से
मुक्ति की यही कामना
महादानी बनाती है मुझे
इसी जन्म में
यह कैसी विडंबना है!
(इसी कविता के अंशो का उपयोग महमूद फ़ारुक़ी ने दास्तान-ए-करण में किया है। यह याज्ञवल्क्य से बहस, राजकमल प्रकाशन, 2008 में संकलित है )
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