इलाहबाद वाया ममता कालिया : छोड़ आये हम वो गलियाँ — पार्ट 2

दूधनाथ सिंह, रवीन्द्र कालिया, काशीनाथ सिंह व अन्य

छोड़ आये हम वो गलियाँ — पार्ट 2 — ममता कालिया  

इलाहाबाद के मटुकनाथ के मुंह पर न तो स्याही मली न ही दूधनाथ की पत्नी निर्मला ने उनकी सार्वजनिक पिटाई की हालांकि ...





पिछले चार पांच बरसों से ऐसा हो रहा है। जब भी कहीं कोई इलाहाबादी हमसे टकराता तो सारी खैरियत के बीच हम उससे शहर की खैरियत जरूर पूछते— और बताएं, इलाहाबाद का क्या हाल है? इलाहाबादी कहता, क्या बताएं, शहर का नक्शा एकदम बदल गया है। ये ऊंची ऊंची इमारतें बन गई हैं और बनना अभी जारी है। सारा दिन बालू सीमेंट उड़ाती धूल भरी आंधी चलती है। सड़कों की शान फना हो गई है, लोग अपनी हरियाली बेचकर खुशहाली खरीद रहे हैं। हम भी बेचैन हो जाते, यह अपने अलमस्त शहर को क्या हो गया। वहां टैगोर टाउन और लूकरगंज में बंगले से बड़ी बारादरी और बारादरी से बड़ा लॉन हुआ करता था। वहां रहने वालों के घर जब उत्सव आयोजन होते, उन्हें कोई जलसाघर लेने की जरूरत नहीं पड़ती। सारा काज अपने द्वार पर निपट जाता। व्यग्रता थमने पर हमें अहसास होता कि हमारा डर निर्मूल है। इलाहाबाद का हाल और माहौल ईंट गारे से न कभी बना, न बनेगा। शहर की ऊपरी सतह पर चाहे जितनी मंजिलें चढ़ जाएं, उसकी अंदरूनी खूबसूरती नष्ट नहीं होगी। इलाहाबाद साहित्य, संस्कृति, कला और इतिहास का नगर है। ये संपदाएं सैकड़ों साल से यहां मौजूद हैं। पीढ़ियां बदल जाएं, संवाद विवाद गतांक से आगे बढ़ जाएं किंतु इलाहाबाद की इयत्ता स्थापित रहेगी। भारतीय राजनीति में भी इलाहाबाद का अन्नप्राशन काम आता है। मंजे हुए राजनेता वे ही व्यक्ति रहे हैं जिन्होंने यहां के हवा पानी में सांस ली है। विश्वविद्यालय के छात्रसंघ का चुनाव, राजनेता की पहली मंजिल रहा है। कुछ तो खास है यहां के मिजाज में कि यहां सत्ता पक्ष की राजनीति की जगह प्रतिपक्ष की राजनीति ही पनपती है। साहित्य में भी विरोध और प्रतिरोध की घोषणा यहीं से आरंभ होती है। भैरव जी, मार्कंडेय जी और अमरकांत जी, शेखर जी के बाद सठोत्तरी पीढ़ी ने यहीं रहकर अपने पैर जमाए और नई कहानी की शक्तिशाली त्रयी मोहन राकेश, कमलेश्वर तथा राजेन्द्र यादव के किले को ध्वस्त किया। कहानी के कलपतरु की उपशाखा बनने की बजाय साठोत्तरी कहानीकारों ने अपना अलग वृक्षारोपण किया। इतने बड़े बड़े विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित हो जाते हैं जिनमें मूल समस्या का समाधान नहीं निकलता, वहीं एक हिंदी कथा समारोह में, सन् 1965 में कलकत्ते में, यह तथ्य स्पष्ट हो गया कि कहानी में नई कहानी के युग का पटाक्षेप हुआ। इस तेवर और तैयारी के पीछे इलाहाबाद की पृष्ठभूमि और अग्रगामिता थी। ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह और रवीन्द्र कालिया ने नई कहानी की फार्मूला बद्धता के खिलाफ अपनी ताजा, मौलिक रचनाओं से जिहाद छेड़ा। दूधनाथ सिंह बलिया से आए किंतु उनकी शिक्षा इलाहाबाद में हुई और

यहीं उनकी वैचारिकता निर्मित हुई। ज्ञानरंजन खांटी इलाहाबादी हैं। काशी जी रहते बनारस में हैं पर जब भी इलाहाबाद आते, यहां रम जाते। रवीन्द्र कालिया कई शहरों की खाक छानकर इलाहाबाद पहुंचे और यहीं के होकर रह गए। इस शहर में रचना करना बड़ी मुमकिन सी बात है। दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन और रवीन्द्र कालिया ने अपनी तमाम यादगार कहानियां यहीं लिखीं। दूधनाथ सिंह ने जटिल फंतासी के जरिये ‘रक्तपात’, ‘रीछ’, ‘स्वर्गवासी’ जैसी कहानियों में भयावह यथार्थ का शोध किया। ज्ञानरंजन की सभी महत्वपूर्ण रचनाएं इलाहाबाद में संभव हुईं जैसे दांपत्य, यात्र, घंटा और बहिर्गमन। काशीनाथ सिंह ने बनारस में रहते हुए इलाहाबादी लेखकों की टक्कर की कहानियां लिखीं, अपना रास्ता लो बाबा आदि और रवीन्द्र कालिया ने शहर में रानीमंडी की गली में जीवन के अनेक रंग देखे जो उनकी कहानियों— गरीबी हटाओ, टाट के किवाड़ों वाले घर, पनाह और नया कुरता में व्यक्त हुए। इन रचनाओं ने कहानी सृजन का पैमाना तय कर दिया और तापमान भी। इससे यह न समझा जाये कि ये कहानीकार हर वक्त कागज कलम लिए बैठे रहते थे। इन सबमें जिंदगी जीने की अदम्य आग थी। दो पहिया वाहन तक उपलब्ध न होने पर भी ये शहर का कोना कोना छान मारते। इलाहाबाद में पैदल चलना कभी भी निरुपायता का पर्याय नहीं था। ‘मस्ती का आलम वहीं रहा हम धूल उड़ाते जहां चले’ वाले अंदाज में इन सबके लिए शंभू बैरक, लूकरगंज और रानीमंडी से सिविल लाइंस तक टहलते हुए निकल जाना मामूली सी बात थी। काशी जी तो दूर थे पर इन तीनों में सबसे शाहदिल ज्ञानरंजन थे। उनकी जेब में जैसे छेद था। वे खर्च करने में सबसे अव्वल रहते। उनके आसपास दोस्तों का जमघट भी सबसे ज्यादा लगता। सिविल लाइंस में एक मिठाई की दुकान थी ‘मुरारी’। कॉफीहाउस की बजाय ज्ञान जी यहीं महफिल जमाते। मुरारी का मालिक शायद ज्ञान जी की मुहब्बत में गिरफ्तार था। वह बिना एतराज चाय के बेहिसाब प्याले ऊपर की मंजिल पर भिजवाता रहता। लेखकों, गैर लेखकों से सजी यह महफिल तब तक चलती जब तक ‘मुरारी’ के बंद होने का वक्त न हो जाता। ‘मुरारी’ से जुड़ा एक और किस्सा याद आया। इस वाकये पर आज भी मन उद्विग्न हो जाता है...।



दरअसल रवि बंबई में धोखा खाकर, प्रताड़ित होकर इस पूरी तैयारी से आए थे कि जैसे भी हो इलाहाबाद में पैर जमाने हैं। उनके विपरीत मैं पैर पटकती इलाहाबाद पहुंची थी। मुझे बंबई की रफ्तार रास आई थी। धोखे मेरे साथ भी हुए थे, मैं फिर भी वहां रहना चाहती थी। नौकरी छूटने पर, जब मैं मुंबई से इलाहाबाद पहुंची तो एक बड़े शहर से छोटे लद्धड़ शहर में आने की उदासी के साथ साथ घर चलाना बड़ी चुनौती थी। चौक का मकान घर से ज्यादा गोदाम था। समस्त दीवारें तारकोल से पुती हुईं कि दीमक न लगे। नीचे छापाखाना ऊपर बेढंगे कमरों में रिहाइश। मकान मालिक जो इस छापेखाने के मालिक भी थे उन्होंने इस ऊपरी हिस्से में अपना पुस्तक गोदाम बना रखा था। हमारे लिए अन्यत्र घर लेना सामर्थ्य से बाहर था सो यहीं डेरा जमाया। मकान मालिक ने आंगन पार के एक बड़े कमरे में रसोई के लिए एक प्लेटफॉर्म बनवा दिया था, बस। नीचे रवि के आफिस में चाय ले जाने के लिए रसोई से आंगन, गलियारा, कमरा पारकर ऊंची ऊंची अंधेरी सीढ़ियां उतरनी पड़तीं। हमारी कुकिंग गैस भी अश्क जी के यहां काम आ रही थी सो मांगते नहीं बन रहा था। स्टोव पर, अंगीठी पर मैंने कभी काम नहीं किया था। मैंने बहुत से परिचितों, दोस्तों से एक घरेलू सेवक के लिए कह रखा था। घर के कामों में मदद कर दे, बाजार का फेरा लगा दे, और नीचे रवि के दफ्तर में चाय पहुंचाता रहे तो जीवन जीने लायक बने।

एक शाम सिविल लांइस की मिठाई की दुकान ‘मुरारी’ में हम सब बैठे हुए थे— यानी ज्ञानरंजन, सतीश जमाली, शैलेश मटियानी, अमर गोस्वामी, रवि और मैं। और भी दोस्त थे, नाम याद नहीं आ रहे। यह ज्ञान जी का प्रिय अड्डा था। नीचे दुकान में मिठाई बिकती, ऊपर चाय पीने के लिए कुर्सी मेज थी। जो लड़का चाय लेकर आया, बड़ा खूबसूरत, भोलाभाला पहाड़ी बालक था। उम्र मुश्किल से तेरह चौदह। मटियानी जी ने बात शुरू की— ‘‘कहां के हो, कब आए।’’ ज्ञान जी ने पूछा— ‘‘यहां क्या मिलता है?’’ ‘‘पंद्रह रुपये और खाना।’’ लड़के ने बताया। ज्ञान जी ने कहा— ‘‘पच्चीस रुपये पर काम करोगे?’’

लड़का भौचक ज्ञान जी की तरफ देखता रहा। फिर बोला— ‘‘अगर हम से कप प्लेट टूटेगा, तो पैसे तो नहीं काटोगे?’’ ज्ञान जी ने आश्वस्त किया— ‘‘नहीं कटेगा। यहां सैकड़ों लोगों का काम करते हो, घर में सिर्फ दो लोगों का काम होगा।’’

लड़के ने थोड़ी देर सोचा, फिर कहा— ‘‘अभी मालिक हमको सौंफ लेने बाहर भेजेंगे। हम चौराहे पर मिलेंगे।’’

हम सब सिविल लाइंस के चौराहे पर इंतजार करने लगे। वादे के मुताबिक लड़का आया।

अमर गोस्वामी ने उसे अपनी साइकिल के कैरियर पर बिठाकर हमारे घर पहुंचाया। उस लड़के की भोलीभाली सूरत ने हमारा मन मोह लिया। जगदीश नाम के इस लड़के को सब्जी काटना, चाय बनाना, बिस्तर बिछाना सब आता था। सबसे बड़ी बात, वह ऊपर नीचे के दसियों चक्कर लगाता। बहुत जल्द जगदीश हमारे लिए घर का सदस्य बन गया। दोस्तों के आने पर वह झट ऊपर जाकर चाय बना लाता। जगदीश प्रेस के कर्मचारियों से भी हिलमिल गया। कुछ महीने बाद जगदीश को गांव की याद सताने लगी। वह कहता— ‘‘मुझे घर जाना है। तीन साल से मैं घर नहीं गया।’’ मैं कहती— ‘‘साल भर बाद जाना। तब तुम्हारे हाथ में कुछ रुपये भी हो जाएंगे।’’

एक शाम हमें अश्क जी के यहां जाना था। जगदीश ने बताया घर में सब्जी एकदम खत्म है। मैंने उसे पैसे दिये और चाबी का गुच्छा कि वह ताला लगाकर बाजार जाये और लौटकर अपने लिए खाना बनाकर खा ले। अश्क जी कभी भी हमें बिना खाना खिलाये नहीं भेजते थे।

हम रात दस बजे घर लौटे। ताला बाहर से बंद था। हमने अपनी चाबी से फाटक खोला तो ड्योढ़ी में चाबियों का गुच्छा पड़ा मिला।

रवि ने फौरन कहा— ‘‘लगता है जगदीश पहाड़ चला गया। देखो कितना सच्चा है। ताला लगाकर चाबियां अंदर डाल गया।’’

यह तो ऊपर जाकर पता चला कि लड़का चोरी करके भागा था। कमरे से रुपये, ट्रांजिस्टर, रवि की हाथघड़ी और लोहे के टंªक से घर की कुल संपदा तेरह सौ रुपये उसने उड़ाये थे।

हम सन्न रह गए। हानि से अधिक यह धक्का था जो हमारे विश्वास को लगा।

अगले दिन जिसने भी सुना यही कहा कि पुलिस में रपट लिखा दो। लड़के को पूरे घर की जानकारी है, वह फिर कभी चोरी कर सकता है। अतरसुइया थाने में हमने रपट लिखवाई। दो घंटे में पुलिस ने उसे बरामद कर लिया। हम सोच रहे थे अब पुलिस इसे हमारे हवाले कर देगी पर पुलिस ने इनकार कर दिया। जगदीश को हवालात में बंद कर दिया गया।

घर लौटकर रवि एकदम उदास हो गए। उन्होंने उस दिन खाना भी नहीं खाया, कहने लगे—
‘‘पता नहीं पुलिस ने जगदीश को कितना पीटा होगा। कहीं वह मर न जाये।’’ मेरा मन भी कच्चा हो रहा था जैसे हमारे हाथों अपराध हो गया।

दो तीन दिन बाद साहस करके हम थाने पहुंचे तो पता चला जगदीश को किसी बालसुधार गृह में भेज दिया गया। हम बेहद उदास हो गए।

मिर्जा गालिब की जीवनी लिखने वाले रचनाकार, स्वाधीनता सेनानी रामनाथ ‘सुमन’ का लूकरगंज में बहुत विस्तृत और विशाल बंगला था। वह चारों तरफ हरियाली से भरा रहता। कथाकार मित्र ज्ञानरंजन इन्हीं सुमन जी के मझले सुपुत्र हैं। ज्ञान जी का जिक्र आया तो यह चंद सतरों में कैद नहीं किया जा सकता। विलक्षणता के अपने वलय होते हैं। सन् 1970 के ज्ञानरंजन को हम बेधक रचनाकार, बेधड़क इंसान और बेमिसाल दोस्त की तरह जानते थे। मैंने उन्हें सुनयना के साथी और पाशा के पापा की भूमिका में भी देखा और सराहा। तब पिता के बड़े से बंगले में ज्ञानरंजन फकीर की तरह बसते थे। गर्मी की दोपहरें वे अपने घर के ठंडे कमरों में नहीं बल्कि प्लाजा बिल्डिंग की दुकान पेट्रोला में गुजारते। कभी हम सब रानीमंडी में मिल बैठते। रवि तो लगातार सिगरेट होठों से लगाये होते। कभी कभार ज्ञानरंजन भी सिगरेट आजमाते। उनके बेटे पाशा के अंदर सिगरेट को लेकर दिली दहशत थी। ज्ञान जी जैसे ही सिगरेट का पहला कश लेते, पाशा जोर जोर से रोने लगता—
‘पापा फू पियो ना। पापा फू नहीं पीना।’ ज्ञानरंजन उसी वक्त सिगरेट मसलकर बुझा देते। आप पूछ सकते हैं ज्ञानरंजन तो जबलपुर में काम करते थे, उन्हें इलाहाबादी क्यों समझा जाये? ज्ञान जी जबलपुर में सिर्फ नौकरी करते थे। उनका मन इलाहाबाद में रहता था। यहीं उनकी यारी दोस्ती थी, यहीं घुमक्कड़ी। छुट्टियां खत्म हो जातीं, ज्ञान जी की तफरीह खत्म न होती। दोस्तियां और अदावतें धारावाहिक चलती रहतीं। सच और सही के लिए अड़ने के लिए ज्ञान जी में बेकाबू आग थी। कभी काशीनाथ सिंह बनारस से आ जाते तो चारों यार जमकर बैठते। दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह ज्ञानरंजन और रवीन्द्र कालिया ये सब साठोत्तरी पीढ़ी के प्रमुख कथाकार थे जिनमें कोई किसी की कार्बन कॉपी नहीं था। दूधनाथ सिंह इन सबमें वरिष्ठ थे और गरिष्ठ। वे जटिल फंतासी के जरिये अलक्षित यथार्थ तक पहुंचने की कोशिश करते। उनकी कहानियों में इस तरह के प्रयोग अधिकाधिक हुए। ज्ञानरंजन, दम तोड़ती व्यवस्था, टूटते रिश्ते और घिसटती विसंगतियों के कहानीकार थे। उन्होंने अपने कथा संकलन का शीर्षक भी ‘सपना नहीं’ रखा। वे अपनी कहानियों में सच का क्रूरतम स्वरूप दिखाने से नहीं हिचकते। यथार्थवाद का दामन तीनों ने अपनी तरह से थाम रखा था। रवीन्द्र कालिया ने अपनी कहानियों में कथ्य के कॉमिक एंगिल बनाकर लिख डाला तो सहज ही अबसर्ड विधा का सूत्रपात हो गया। पुरानी पीढ़ी के जो साहित्यकार जीवन की कटु सच्चाइयों को रेशमी रुमाल के नीचे दबा छुपाकर रखने के कायल थे, एकबारगी चिहुंक पड़े।

अपने शहर इलाहाबाद की विलक्षण सामर्थ्य का पता ऐसे ही मौकों पर चलता रहा है। इस छोटे से शहर का पेट इतना गहरा है कि ये कई सैंकड़ा परिमलियन रचनाकार हजम कर लेने के बाद भी प्रगतिशीलों की अगवानी में लेखक सम्मेलन बुलवा लेता है। प्रलेस, जलेस के किंचित शिथिल पड़ने पर यह जसम (जन संस्कृतिमंच) की गतिविधियां आयोजित होने देना है। दरअसल इलाहाबाद ने लोगों, विचारधाराओं, आंदोलनों और एजेंडों को इतनी उल्टी पल्टी खाते देख लिया है कि अब उसे आश्चर्य नहीं होता। उन दिनों साहित्यिक हलकों में दो जुमले जालिम बेइज्जती माने जाते थे। 1. तुम सीआईए के एजेंट हो। 2. तुम मीडियॉकर हो। आरोपित लेखक यह सोच सोचकर चकराता कि एक अदद ‘स्पैन’ पत्रिका की कॉपी भेजने के सिवा अमेरिका ने उसे और क्या दे दिया। लेखन के क्षेत्र में मीडियॉकर कहलाना सबसे निकृष्ट गाली थी। इसका दागी रचनाकार खुद ब खुद महफिलों से उठ जाता, गोष्ठियों से गायब हो जाता और साहित्यिक पत्रिकाओं से बाहर। उसके लिए सिर्फ दैनिक अखबारों के रविवारी पृष्ठ और सरिता, निहारिका जैसी व्यावसायिक पत्रिकाएं बचतीं। कई बार दागी रचनाकार अपनी nuisance value विकसित कर लेता। वह गोष्ठियों में गुलगपाड़ा मचाता और कॉफी हाउस में कोलाहल।

साहित्य से इतर इलाहाबाद में बहुत बड़ी तादात विद्यार्थियों की है। स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्र तो लाखों की संख्या में हमेशा से थे ही, साल दर साल हुजूम के हुजूम छात्र बाहर से यहां आकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगे रहते। शहर में इतनी हॉस्टल व्यवस्था नहीं थी। बिहार, बंगाल, मध्य प्रदेश से आए मेहनती लड़के मिलजुल कर एक मकान किराये पर लेते, यूनिवर्सिटी रोड से किताबें खरीदते। वहां ठेलों पर किलोग्राम के हिसाब से कॉपियां मिला करतीं।

हर छात्र दो तीन किलो कॉपी खरीदता और उसका अध्ययन आरंभ हो जाता। सुबह का अखबार वे चाय की दुकान पर पढ़ लेते और शाम की खबरें पानवाले के टीवी सेट पर सुन लेते। न्यूनतम सुविधाओं में रहकर ये छात्र आई.ए.एस., पी.सी.एस., रेलवे भर्ती बोर्ड, स्टाफ सेलेक्शन कमिशन जैसे पेचीदा इम्तहानों से जूझते। बहुत से इस परीक्षा प्रतियोगिता को जीत जाते तो काफी सारे छात्र वापस लौट जाते। जो नहीं लौटते वे शहर की हताश जनसंख्या में बढ़ोत्तरी करते और अपने अभिभावकों पर एक और साल अपना व्यय भार डालने का इसरार करते। कुछ छात्र पत्रकारिता और लेखन की तरफ मुड़ जाते। विद्यार्थियों में वामपंथी विचारधारा सर्वाधिक स्वीकार्य रही। इस दीक्षा में विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों की शिक्षण संस्कृति का भरपूर योगदान रहा। कई बार गुरुओं को धूल चटा दी, ऐसे भी तेजस्वी शिष्य निकले। हीनभावना से हताहत प्राध्यापकों ने विद्यार्थियों के शोधकार्य में अड़ंगे लगाकर उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ किया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्र मीनू दुबे ने एम.ए. के बाद पीएचडी करने की सोची। बतौर गाइड उसे दूधनाथ सिंह मिले। दूधनाथ ने उसके अध्ययन में इतने रोड़े अटकाए कि तंग आकर उसने शोध का उपक्रम ही छोड़ दिया। उन दिनों दूधनाथ, विश्वविद्यालय की एक प्राध्यापिका के प्रेम में पड़े थे। हिंदी विभाग इस प्रेम प्रकरण का साक्षी रहा। शहर और विश्वविद्यालय का चरित्र इतना सहिष्णु था कि उन्होंने पटना के मटुकनाथ की तरह इलाहाबाद के मटुकनाथ के मुंह पर न तो स्याही मली न ही दूधनाथ की पत्नी निर्मला ने उनकी सार्वजनिक पिटाई की हालांकि वह दुखी रहती थी। जब कभी मैं निर्मला से कहती— ‘‘तुम उस गोष्ठी में क्यों नहीं आईं?’’ वह उदास होकर जवाब देती— ‘‘ये हमें लेकर ही नहीं गए। दूसरी वाली को ले गए होंगे।’’ उनके रिटायर होने पर यह प्रेमप्रसंग भी अवकाश प्राप्त कर गया।

यह उदारता और सहिष्णुता हमारे इस शहर को रहने योग्य बनाती है। हमारी कमजोरियों को लुकोने वाली, हमारी गलतियों को छुपाने वाली, हमें बार बार जीवन शुरू करने का मौका देने वाली। हम उत्तीर्ण होकर तो जीते ही हैं, अनुत्तीर्ण होकर भी यहां जी सकते हैं। ऐसे कई निठल्लों को मैंने नजदीक से देखा जो हर परीक्षा और इंटरव्यू में असफल रहे लेकिन अपने घर परिवार में हेकड़ी बनाये रहे। किसी दिन मां या पत्नी ने ज्यादा चूंचपड़ की तो रसोई में जाकर पानी का मटका एक धक्के से फोड़ दिया। सारी रसोई पानी पानी हो गई। मां और पत्नी मटके के अवशेष बीनने में व्यस्त हो गईं और उनका मूल प्रश्न ‘कहीं पर काम मिला?’ हवा में विलीन हो गया।

एक युवा पत्रकार वर्षों राष्ट्रीय सहारा में काम करता रहा जहां तनख्वाह ही नहीं मिली। तंग आकर उसने कार्यालय जाना बंद कर दिया। वह जब भी कभी मिलता, सिगरेट सुलगाकर घोषणा करता—
‘‘मैं बहुत जल्द अपना अखबार शुरू करने जा रहा हूं।’’ एक और लड़का जो हमारे घर के पास रहता था, हर साल मुझसे कहता— ‘‘इस बार पर्चे बहुत अच्छे हुए हैं। मैं श्योर लिखित परीक्षा निकाल लूंगा। आप मुझे थोड़ी सी इंगलिश पढ़ा दें तो इंटरव्यू भी पार लग जाये।’’

उसकी इस सादगी पर फिदा होना मुश्किल था क्योंकि तीन बरसों में मिले तीन अवसरों में वह लिखित परीक्षा भी पास नहीं कर पाया। तंग आकर वह एक दिन बोला— ‘‘अच्छा आप मुझे कहानी लिखना ही सिखा दीजिये।’’ उसे कैसे समझाती कि कहानी का कोई विद्यालय नहीं होता। ऐसे लड़कों से बात करते हुए मुझे अरुण प्रकाश की कहानी ‘भाषा’ का ध्यान आता। जिसमें युवाओं और छात्रों का संत्रस व्यक्त हुआ है।



किसी शहर की शख्सियत महज पढ़े लिखे लोग, विद्यालय और विश्वविद्यालय से नहीं बनती। उसकी नींव में वे पुराने मोहल्ले और चौबारे होते हैं जहां दादा नाना, नानी परदादी किस्म के दुर्लभ पात्रों ने निवास किया। इलाहाबाद में पुरनिया मोहल्लों और गलियों की भरमार है। कई बार एक गली से गुजरते हुए कई मोहल्लों की सैर हो जाती है।

चौक इलाका अपने आप में गुलजार रहता है। रोजमर्रा की जरूरत की हर चीज यहां किफायती दाम पर उपलब्ध है। चौक से चार राहें फूटती हैं। एक घंटाघर और जॉन्सनगंज की तरफ चली जाती है तो दूसरी खुल्दाबाद की तरफ। तीसरी राह बताशामंडी, गुड़मंडी, मीरगंज से गुजरती बहादुरगंज, कोठापारचा होती हुई बाई का बाग, कीडगंज, बैरहना निकल जाती है। चौथी राह कोतवाली से अंदर मुड़ती है उस तरफ जहां शहर की सबसे सघन बस्ती है। इन गलियों में रहने वाले बखूबी जानते हैं कि कैसे कुत्तों, कूड़े और सांड़ों से बचते हुए घर तक पहुंचना है। स्कूल जाने वाले बच्चे, पतली गलियों में, दोनों तरफ की नाली में गिरने से अपने आप को बचाते हुए, साइकिल चलाने में निष्णात हो जाते हैं। कोतवाली के पिछवाड़े से ही रानीमंडी शुरू हो जाती है। चौड़ी सड़क के एक तरफ बच्चा जी की कोठी और दूसरी तरफ काशी कोठी दो अमीरों की वैभवगाथा के प्राचीन नमूने हैं। यहां से सड़क फिर तीन तरफ की गलियों में मुड़ती है। एक हाथ को घनघोर हिंदूवादी मोहल्ला लोकनाथ है तो दूसरी तरफ अतरसुइया और तीसरी तरफ रानीमंडी का अंदरूनी इलाका।

मैं रोज बैरहना से रिक्शे में बैठकर वापस घर आती। कॉलेज से बाहर निकलते ही मेरे सिर पर घर सवार हो जाता और मैं रानीमंडी की बजाय चौक पर उतर जाती। पाठक स्टोर से डबलरोटी बिस्किट वगैरह खरीदकर, फलमंडी से केले, संतरे, अमरूद लेती। चौक लांघकर लोकनाथ की लंबी लंबी दो गलियां पड़तीं। वहां सब्जी सस्ती और ताजा मिलती। लोकनाथ की गली में मिठाइयों के साथ साथ हरि नमकीन नाम की दुकान भी थी जिसके समोसे, खस्ता और दमआलू की दुनियाभर में धूम रही। कई लोगों का तो सुबह का नाश्ता ही यह होता। छप्पर वाले हलवाई की दही जलेबी और हरि नमकीन का खस्ता दमआलू, ऊपर से एक कुल्हड़ लस्सी, इलाहाबाद का रईसी नाश्ता था। यही नाश्ता खाने खिलाने, ज्ञानरंजन लूकरगंज से लोकनाथ आया करते। लोकनाथ में दुमंजिले, तिमंजिले पुराने मकान थे जिनमें भूतल के कमरों में छोटी छोटी दुकानें थीं। देखा जाये तो ये वर्कशॉप जैसी थीं। बड़े सर्राफों के कारीगर यहां बैठकर गहने गढ़ते और पॉलिश करते। किसी का यहां जूतों का गोदाम होता। कहीं कोई औरत सिलाई मशीन पर गुड़ियों के धड़ों पर सिर सिल रही होती तो कहीं दो औरतें चबूतरे पर बैठ दस रुपये पंसेरी के हिसाब से खरबूजे के बीज छील रही होतीं। मकानों की ऊपरी मंजिल से समृद्ध घरों के विंडो एयरकंडिशनरों से टप टप टपकता पानी सब्जी वालियों के लिए मुसीबत पैदा करता। वे कभी अपना माल बचातीं कभी कपड़े। घर पहुंचने की उतावली में मैं जल्दी जल्दी पैर बढ़ाती, गलियां पारकर जाती। रानीमंडी का नामकरण उस जमाने में हुआ था जब यहां तवायफों के कोठे हुआ करते थे। सभी मकानों की रचना एक सी थी; प्रवेशद्वार की शक्ल में खूब बड़ी ड्योढ़ी जिसमें दो विशाल पल्लों का फाटक। कहते हैं यहां नवाबों के इक्के आकर खड़े होते थे। अंदर दो या तीन आंगन, उसके बाद बारादरी। खिड़की के स्थान पर बिना सींखचे वाले खिड़के, जैसे फिल्म पाकीजा में दिखाये गए थे। मकान की रचना देखकर ही अतीत का अनुमान लग जाता। मकान का पटाव इतना ऊंचा था कि घनघोर गर्मी में भी कमरे ठंडे रहते। ऊपर की मंजिल में बड़ा आंगन और उतनी ही बड़ी छत। रहते रहते वह बेढंगा घर भी हमें प्यारा लगने लगा था।

एक बार रवि को बागवानी का जुनून चढ़ा। उन्होंने 180 गमले लगा लिये। हर रंग का बेगनबेलिया लगाया गया। हमारा आंगन छोटा मोटा टेरेस गार्डन (terrace garden) लगने लगा। एक कवि की पंक्ति थी— बेला, गुलाब, जुही, चंपा, चमेली। रवि ने पांचों पौधे नर्सरी से लाकर लगाये। कोई ऐसा फूल न था जो हमारे यहां नहीं था। स्याही के ड्रमों को साफ करवाकर उनमें रबर के पेड़ उगाये गए। शाम को वे अपने हाथ से पौधों में पानी डालते। अगर उन्हें कहीं बाहर जाना पड़ता तो वापस आने पर टॉर्च से अपने पौधे देखते कि मैंने पानी डाला या पौधे सूखे पड़े हैं। एक रात मैंने कहा— ‘‘तुम्हें पौधों से बहुत प्यार है न?’’

रवि ने एक नजर मुझे देखा, लंबी सांस भरी और कहा— ‘‘मनुष्य से निराश होकर ही इंसान प्रकृति की ओर मुड़ता है।’’ रवि वृश्चिक की तरह अचानक वार करते। उनकी जन्मराशि भी वृश्चिक थी। गनीमत यह कि मेरी जन्मराशि भी वृश्चिक है। दंश का अंश हम दोनों में समान था। कभी मैं तुरंत हिसाब चुकता कर देती, कभी भविष्य के लिए डंक जेब में डालकर रखती। 370 रानीमंडी में जो मित्र पहली बार आता वह कहता— ‘‘कालिया तुम्हारी हवेली का बड़ा जोरदार चरित्र है।’’ लोगों को बड़ा सा फाटक उस पर लटकती लोहे की लंबी सांकल और सात लीवर का गोदरेज ताला, देखकर आनंद आता। घर के अंदर बदइंतजामी थी, उसमें रहने वाले ही समझ सकते थे।

370 रानीमंडी वाले घर का बहिरंग तो दिलचस्प था ही, उसका अंतरंग भी कम अनोखा न था। ऊंची छत वाले बड़े बड़े दो कमरे, उसके बाद एक संकरा गलियारा जो बहुत चौड़े आंगन में खुलता। आंगन के पार फिर दो विशाल कमरे जिनमें एक रसोईघर और एक जालीनुमा हवादार कमरा जहां बैठकर कुल मकान का जायजा लिया जा सकता। आंगन में एक गुसलखाना था जहां नल नहीं था। हमारे यहां मोबिल ऑयल का बड़ा ड्रम और चार पांच बालटियां पानी से भरकर रखते। एक गुसलखाना बैठक से सटकर बना था जो नई तकनीक का था। रसोई, आंगन और गुसलखानों में बड़े मुंह वाली नालियां थीं जिनका निकास बाहर गली में होता। इसी रास्ते से घर में जंगी चूहे दाखिल हो जाते। चूहे इतने जबरदस्त थे कि वे रात में तो धींगामुश्ती मचाते ही, दिन में भी मौका नहीं चूकते। बच्चे उन दिनों ‘रामायण’ धारावाहिक देखा करते थे। अन्नू ने एक बड़े चूहे का नाम जामवंत रखा हुआ था।

दोनों गुसलखानों में मैं एक बट्टी लाइफबॉय और एक टिकिया पियर्ज साबुन रखा करती। कई बार अगले ही दिन पियर्ज गायब। हैरान होकर बच्चों से पूछताछ होती— ‘‘तुमने नाली या कमोड में तो नहीं गिराया।’’ बच्चे सिर हिला देते। जाड़े में पियर्ज साबुन के कुतरे हुए टुकड़े आंगन में मिलते। अन्नू कहता— ‘‘मां हम पांच लोग एक ही साबुन से नहा रहे हैं, पापा, आप, मन्नू, मैं और जामवंत। खर्च तो बढ़ेगा ही।’’

घर में बिल्लियों की तादाद भी मजे की थी। आस पड़ोस में मांसाहार बनने की वजह से बिल्ली को छिछड़े की आस लगी रहती। चूहों में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। हमारे घर में कभी कभी दूध दही पर वह हाथ साफ करती। एक बार सिविल लांइस के डिपार्टमेंटल स्टोर बीएन रामा एंड संस से मैंने हॉकिन्ज का ‘स्नो कुकर’ खरीदा। मेरे साथ मीनू दुबे भी थी। हमें यह जानकर बड़ा अचंभा हुआ कि यह बिजली की ऐसी हंडिया थी जिसमें रात को खाना चढ़ाओ तो सुबह पककर तैयार मिले और सुबह चढ़ा दो तो रात में खाना हाजिर। उन वक्तों में भी इस कुकर की कीमत शायद 2300 रुपये थी। रवि ने पहले इस बर्तन का मजाक उड़ाया कि जब सारी दुनिया आगे जा रही है तो ममता कालिया पीछे चल रही हैं। बाद में यह तय हुआ कि इसमें सबसे पहले चिकन बनाकर पहल की जाये।

रवि को खाना बनाने का शौक चर्राया हुआ था। उन्होंने ‘डालडा पाक’ पुस्तक के सहारे चिकन को हंडिया में चढ़ाकर बच्चों से कहा— ‘‘आज तुम लोगों को स्पेशल दावत मिलेगी।’’ उधर हम सब शाम के कामों में मशगूल हुए इधर एक काले बिल्ले ने रसोई में घुसकर बिजली की हांडी पर ऐसा हमला किया कि उसका ढक्कन जमीन पर गिरकर चूर चूर हुआ और चिकन बिल्ले के पेट में। जब शाम सात बजे मैं रसोई में आई चिकन की सिर्फ हड्डियां आसपास बिखरी पड़ी थीं। पहले ऐसी निराशा हुई जैसे कोई बड़ी दुर्घटना घटित हो गई है। अन्नू मन्नू बिल्ले के खून के प्यासे बनकर ऊपर नीचे दौड़ने लगे। रवि ने दर्शनशास्त्र झाड़ा— ‘‘दरअसल हमारा घर ऐसी चीजों के लिए बना ही नहीं है।’’ मैं इस घटनाक्रम पर सन्न बैठी रह गई। अगली शाम मैं ढक्कनविहीन हंडिया लेकर वापस स्टोर पर पहुंची— ‘‘इसे वापस ले लीजिये हमें नहीं चाहिए ऐसा बर्तन।’’

सेल्समैन ने पूरी बात सुनी और कहा— ‘‘मैडम हम आपके लिए दूसरा ढक्कन मंगाने का इंतजाम कर सकते हैं पर बिल्ली चूहों पर काबू तो आपको खुद रखना होगा।’’

सेल्समैन की हाजिरजवाबी की कायल होती हुई मैं अपने अराजक घर में लौट आई। हाकिंस की हांडी का दूसरा ढक्कन नहीं आया। व्यस्तताओं का नमूना बन रसोईघर के एक कोने में उपेक्षित पड़ी रही।

रानीमंडी वाले घर के नल में जो पानी आता उसके पाइप गली की अंदरूनी सतह से गुजरकर घरों तक पहुंचते। कई बार शोर मचता, ‘जमींदोज पाइप जंग लगने से फट गए हैं। साफ पानी के साथ गंदा पानी मिल जाने से संक्रामक बीमारियों का खतरा है। पानी उबालकर पिया जाये।’ यह एक झमेले का काम था। कालेज की पूर्णकालिक ड्यूटी के कारण घर का काम सेविका के हवाले रहता। उसने पानी ठीक से उबाला या नहीं, इसका कोई भरोसा नहीं था। खेलते समय बच्चे किसी के भी घर पानी पी लेते। उन पर नियंत्रण रखना संभव नहीं था। घर पर हम जीरोबी नामक फिल्टर खरीदकर लाये कि इससे पानी स्वच्छ हो जाएगा। लेकिन फिल्टर से गुजरकर पानी बेस्वाद और बेमजा लगता। हम हेकड़ी से कहते— ‘‘हमने अपने अंदर इतनी प्रतिरोधी शक्ति अर्जित कर ली है कि यहां के मच्छर, मक्खी, चूहे, बिल्ली और बंदर हमारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते।’’ वहां के बौड़मपने के हम इतने आदी हो गए कि जब सन् 1992 में रवि और माता जी ने मैहदौरी कालोनी के मकान का रुख किया तो अन्नू, मन्नू और मैं रानीमंडी छोड़ने को तैयार नहीं हुए। मैंने कहा— ‘‘वहां से कालेज जाना मुश्किल होगा।’’ बच्चों ने कहा— ‘‘उनका स्कूल और यूनिवर्सिटी यहीं से पास पड़ेगी।

रवि तो अड़ियल थे ही। वे इतनी दूर से इलाहाबाद प्रेस आते। दिन भर काम करते। शाम को अपना एक गमला स्कूटर पर रखकर वापस मैहदौरी कालोनी चले जाते। हम तीनों शनिवार इतवार को वहां जाते। उनके जाने पर अन्नू कहता— ‘‘पापा यहां से अपने तमाम पौधे उठा ले जाएंगे। बस दो पौधे नहीं जा पाएंगे।’’ यह कोई अच्छी व्यवस्था नहीं थी। आधा सामान रानीमंडी में था, आधा मैहदौरी वाले घर में। रवि के मनोविज्ञान पर इसका गहरा असर पड़ रहा था। वे दोस्तों से कहते— ‘‘ममता अपने को बहुत स्वतंत्र समझने लगी है।’’

सचाई यह थी कि बहुत दिनों के बाद घर में हम तीनों एक रेग्युलर जिन्दगी जी रहे थे। अन्नू एम.बी.ए. की प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहा था तो मन्नू आईसीएससी की। पक्का बनने पर मेरा कालेज बहुत से नियमों की गिरफ्त में था। कुछ महीनों बाद अन्नू एमबीए करने इंदौर चला गया। मन्नू के इम्तहान खत्म हो गए। एक दिन ऐसा कि रानीमंडी हमेशा के लिए हमसे छूट गई। कभी कभी मेरी दोस्त अनिता गोपेश और शशि शर्मा घर आ जातीं। दोनों के पास अच्छी नौकरी थी लेकिन परिवार की उलझनें उन्हें परेशान रखतीं। दोस्तों को देखते ही हमारी तबियत खिल उठती। उनकी कोशिश होती कि हमें प्रसन्न देखें और हमारी कोशिश होती कि वे अपनी समस्या भूल जाएं। तब शशि की शादी नहीं हुई थी और वह बिंदास लड़की थी। हम तीनों मिलकर पकौड़े बनाते और लिपटन की ग्रीन लेबिल चाय। नीचे प्रेस के आफिस में हम मिल बैठकर समय बिताते। शशि कहती— ‘‘मेरी प्रॉब्लम यह है कि— ‘अब तक तो जो भी दोस्त मिले, शादीशुदा मिले’।’’ हम आदर्श दंपति की तरह दोनों लड़कियों पर दबाव डालते कि शादी कर लो। कई युवकों ने हमारे माध्यम से भी शादी का प्रस्ताव भेजा पर इन लड़कियों को अपनी आजादी प्यारी थी। कहतीं— ‘‘ममतादी रविदा जैसा कोई ढूंढ़कर लाओ तो हम सोचें।’’
बड़ा गुरूर होता।

रानीमंडी के हमारे घर के ठीक सामने उर्दू पत्रिका ‘शबखून’ का दफ्तर था। शबखून के प्रधान संपादक, उर्दू और अंग्रेजी के प्रख्यात रचनाकार शम्सुर्रहमान फारुखी थे। जिस मकान में यह दफ्तर था, वह फारुखी साब की पत्नी जमीला आपा का था। उनके पूरे परिवार से हमारी पारिवारिक संबंध थे। रवि को उर्दू की अच्छी जानकारी थी। जिस दिन फारुखी साब वहां आते रवि उनके पास जाकर बैठते। फारुखी साब का रुतबा इंग्लिश और उर्दू में बराबर का था। कविता, आलोचना और उपन्यास पर उनकी गहरी पकड़ थी। काव्यशास्त्र के सिद्धांत से लगाकर उन्होंने आधुनिक उर्दू आलोचना को नई आवाज दी। उन्होंने मीर की शायरी पर महत्वपूर्ण काम किया। वे अभी भी लेखनरत हैं। उनका बहुत बड़ा उपन्यास ‘कई चांद के सरेआसमां’ पहले उर्दू में छपा। निहायत खूबसूरत, स्मार्ट, फारुखी साब अपने घुंघराले बालों के साथ जब धीमे से हंसते हैं, उनके आसपास का सारा माहौल रौशन हो जाता है। वे एक बुद्धिजीवी की दिनचर्या जीते हैं, अपनी विशाल लायब्रेरी में कई घंटे बिताते हैं; हेस्टिंग्ज रोड के अपने बंगले के खूबसूरत लॉन पर बेंत की आरामकुर्सी पर बैठे वे साहित्य की जीती जागती मिसाल हैं।

अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा और पत्नी वंदना Photo Pradeep Gaur Mint

दरअसल इलाहाबाद के माहौल में हिंदी, उर्दू, अवधी और अंग्रेजी का मिला जुला नूर है। सैयद अकील रिजवी, अली अहमद फातमी, एहतराम इस्लाम, असरार, गांधी हिंदी गोष्ठियों में भी शिरकत करते हैं और हिंदी के लेखक उर्दू साहित्य की बैठकों में शामिल होते हैं। जो अंग्रेजी में लिखते हैं जैसे अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा, स्मिता बहुगुणा अग्रवाल, नीलम सरन गौड़। वे भी हिंदी बोलने से परहेज नहीं करते, बल्कि उनकी दोस्तियां हिंदीवालों से हैं। इस शहर में संगम केवल नदियों के मिलन में नहीं वरन् भाषाओं की मझधार में भी है। इसी से यहां की गंगाजमुनी संस्कृति बनी है।



मैहदौरी कालोनी में हमारे घर के नजदीक बहुत से कलाकार, बुद्धिजीवी और साहित्यकार रहते थे। अक्सर सबका एक दूसरे से मिलना होता रहता और सबका मन लगा रहता। कवि यश मालवीय सुबह सोकर उठते ही, साइकिल पर अखबार वाले राजेश शुक्ला के स्टॉल पर चल देते। बहुत लोकप्रिय और रचनाधर्मी यश की एक साथ कई अखबारों में कविता छपी होती। डाक में आई पत्रिकाओं की भी उन्हें अग्रिम जानकारी होती। उन्होंने गीतों की सामाजिक पहुंच और भूमिका को बहुत पहले से पहचान लिया था जब लिखा—
  कहो सदाशिव कैसे हो
  झुर्री झुर्री गाल हो गए
  जैसे बीता साल हो गए
  भरी तिजोरी सरपंचों की
  तुम कैसे कंगाल हो गए।




नवगीत विधा में यथार्थबोध व्यक्त करने वाले यश अकेले नहीं हैं। एहतराम इस्लाम, सुधांशु उपाध्याय ने भी उतने ही सशक्त गीत लिखे हैं। एहतराम जी की ‘अग्निवर्षा है तो है और बर्फबारी है तो है’ तथा सुधांशु उपाध्याय का गीत—
  किसी नर्स की आंखें देखो
  कोने में थोड़ा जल होगा
  और जरा सा केरल होगा।

हर कवि गोष्ठी की जान हुआ करता। गीत ही नहीं, नव्यतम तकनीक में कविता लिखने वाले कवि विवेक निराला, अंशुल त्रिपाठी, रविकांत, अंशु मालवीय अपनी मौलिकता और सामर्थ्य पर टिके हुए हैं। बोधिसत्व और कमललोचन पांडे इलाहाबाद से अपनी प्रतिभा बटोरकर मुंबई में कामयाबी ढूंढ़ने निकल गए। वाजदा खान चित्र और रचना समेट दिल्ली चली आईं।

शाम के समय डा. बालकृष्ण मालवीय मेहदौरी कालोनी की सड़क जल्दी जल्दी नापते, बाजार की तरफ बढ़ते दिखाई देते। उन्हें कोई टोकता तो वे कहते— ‘‘बाद में बात करूंगा। बड़ी जोर की तलब लगी है, जरा दारू की दुकान तक जाना है।’’ उनकी बातों में इतना नाट्य होता कि हमें लगता जैसे हम थियेटर में बैठे हैं। वे अचानक घासीराम कोतवाल के संवाद सुनाने लगते या कुमार गंधर्व का ‘निर्गुण’। एकदम सधी हुई आवाज थी उनकी, जिस पर दारू की एक बूंद भी नहीं चढ़ती। थियेटर के क्षेत्र में और भी अनेक प्रतिमाएं हैं जिनकी वजह से यहां रंगकर्म हमेशा सप्राण रहता है। अनिल रंजन भौमिक, प्रवीण सिंह, सुषमा शर्मा, अजामिल एक से बढ़कर एक प्रतिभा हैं जो पूर्णकालिक नौकरी के साथ साथ नाटक को जीवित रखे हुए है। यूनिवर्सिटी में ही रवि के दोस्त सचिन तिवारी भी थियेटर से जुड़े हुए थे पर वह पेचीदा शख्स थे। दारू उनके दिमाग में चढ़ जाती और वे नशे में अटककर लड़ाई मोल लिया करते— पत्नी स्मिता से, दोस्तों से, टैक्सी ड्राइवरों से। वे प्रतिभासम्पन्न थे, थोड़े लेखक, थोड़े अभिनेता और काफी हद तक निर्देशक। वे और स्मिता अंग्रेजी विभाग में प्राध्यापन करते थे। उनके पिता डॉ. डी.डी. तिवारी कानपुर विश्वविद्यालय के कुलपति थे और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सामने उनका बड़ा सा बंगला था। सचिन को कोई भौतिक कष्ट न था लेकिन वे विस्की के दूसरे पैग के बाद अपने गुस्से को संभाल न पाते। अक्सर स्मिता उनकी पहली शिकार होती। घर की सेवक मंडली भी चपेट में आ जाती। धीरे धीरे पति पत्नी में अलगाव बढ़ता गया। पिता के दिवंगत हो जाने के बाद उन दोनों ने बंगले को आधा आधा बांट लिया। एक हिस्से में सचिन रहते, दूसरे में स्मिता। अनबोले की इंतहा ऐसी हो गई कि विभाग के बाहर यदि सचिन की कार बीच रास्ते में खड़ी मिलती, स्मिता किसी तीसरे से कहती— ‘‘प्लीज जाकर सचिन तिवारी से कहो वे अपनी कार हटा लें।’’ पता नहीं उनके इकलौते बच्चे गौरव ने माता पिता का यह शीतयुद्ध कैसे झेला। रंग जगत के अलबेले लोगों से इलाहाबाद का तानाबाना बुना गया है। उभरते हुए अभिनेता और रंगनिर्देशक अभिषेक पांडे अक्सर उस वक्त घर आते जब हम दिन तमाम कर चुके होते। एक बार वे कलाकार पूजा ठाकुर को लेकर आए। रवि ने जिज्ञासा की— ‘‘आजकल कौन से नाटक में लगे हुए हो?’’ अभिषेक ऊंची उड़ान में था। उसने पूजा से कहा वह आगा हश्र कश्मीरी लिखित नाटक ‘खूबसूरत बला’ आदि से अंत तक अभिनय करके हमें दिखाये। पूजा दिन भर के रिहर्सल से थकी हुई थी। उसे सुबह आफिस भी जाना था पर निर्देशक की अवहेलना कैसे करे। मैंने लाख कहा—
‘‘अभिषेक इस वक्त देर हो गई है, रहने दो।’’

अभिषेक पर धुन सवार हो गई— ‘‘नहीं, अभी खेला जाएगा ‘खूबसूरत बला’। यह मेरा आदेश है।’’

कमाल पूजा का था कि उसने पूरा नाटक अभिनय कर दिखाया।

कुछ समय बाद अभिषेक बरास्ते दिल्ली मुंबई पहुंच गए। आज भी मुंबई के नाट्य और फिल्मजगत में दर्जनों ऐसे हस्ताक्षर होंगे जिनकी जड़ों में इलाहाबाद की मिट्टी का असर होगा। कलकत्ते की नाट्य निर्देशक और ‘रंगकर्मी’ संस्था की सर्वेसर्वा उषा गांगुली की परवरिश और शिक्षा इलाहाबाद में हुई।

इस शहर की फिजा में अदब का हर रंग शामिल है, गीत, कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचना। यहां विभूति नारायण राय जैसे भी रचनाकार रहे जिन्होंने कभी कहानी लिखी ही नहीं, सीधे उपन्यास की रचना कर डाली। यह अलग बात है कि उनका दूसरा उपन्यास ‘शहर में कर्फ्यू’ बस कहानी जितना लंबा था। सन् 1980 में जब वे पुलिस सुपरिन्टेंडेंट थे, हमारा इलाका रानीमंडी दंगों की चपेट में था। राय के दिमाग में कोई धार्मिक पूर्वाग्रह नहीं था बल्कि वे अल्पसंख्यकों के प्रति हमदर्दी रखते थे। वे आजमगढ़ के थे लेकिन उनकी उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हुई। हर चार साल पर हुए दंगों पर उन्होंने नियंत्रण रखा और कई अल्पसंख्यकों का पुनर्वास किया। उनकी पुस्तक ‘हाशिमपुरा’ फर्जी मुठभेड़ की त्रासदी बयां करती है। उसका इंग्लिश और तमिल में अनुवाद हो चुका है।

हमारे शहर की बौद्धिक संपदा लेखकों, अध्यापकों और विद्यार्थियों के हाथ थी तो आर्थिक संपदा वकीलों, कानूनविदों और हाईकोर्ट के हाथ। हमारे लिए यह कल्पना करना कठिन है कि शहर में हाईकोर्ट न होता तो शहर का क्या होता। उच्च न्यायालय की वजह से शहर में रौनक रहती, होटल ठसाठस भरे रहते, रेस्तरां में बैठने की जगह न मिलती और हमारे कानूनी मित्र सारा दिन मुवक्किलों से घिरे रहते। विशुद्ध तर्क और बुद्धि के बल पर चलने वाला यह अध्यवसाय, अन्य रोजगारों से ऊंचा दर्जा रखता है। यहाँ एक से एक अधिवक्ता हुए तो एक से बढ़कर एक न्यायमूर्ति। सन् 1975 में इसी उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा के फैसले से बौखलाकर इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की। अनेक ऐतिहासिक फैसले इस संस्थान में लिये गए। सन् 1869 में स्थापित यह उच्च न्यायालय अगले साल अपने जीवन के डेढ़ सौ वर्ष पूरे करेगा। लेकिन हमें तो केवल उन मित्रों से सरोकार था जो हाईकोर्ट के होते हुए हमारे inner court के थे जैसे वहां के रजिस्ट्रार गिरीश वर्मा और उत्तर प्रदेश के स्थायी अधिवक्ता उमेश नारायण शर्मा। ये मित्र मुझे रवि के माध्यम से मिले लेकिन अपने बनते चले गए। आज भी इलाहाबाद जाने का मतलब होता है उमेश जी के घर जा पहुंचना और भरपेट सुस्वादु भोजन करना। दिन भर वे काम में व्यस्त रहते लेकिन अपनी शाम, दोस्तों के लिए रख छोड़ते। उनके घर जाने के लिए सभी दोस्त एक दूसरे को आमंत्रित कर लेते। पता नहीं उमेश जी की पत्नी जया, एक साथ इतने लोगों का भोजन कैसे बनवा लेतीं। इलाहाबाद के खानदानी घरों की तरह उनकी भी परंपरा थी कि कोई अभ्यागत उनके घर से खाली पेट नहीं जाएगा। अभी हाल तक राज्यसभा के सदस्य रहे देवी प्रसाद त्रिपाठी नवे दशक में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राध्यापक थे। जेएनयू से पढ़े डीपीटी विलक्षण वाक् कौशल के धनी थे। जब वह व्याख्यान देते, उनकी कक्षा में अन्य विभागों के विद्यार्थी भी चले आते। कक्षा खचाखच भर जाती। लड़के लड़कियां डेस्क पर, बेंच पर, यहां तक कि खिड़कियों पर खड़े होकर उन्हें सुनते। उनकी प्रतिभा का ऐसा स्वागत और कहीं नहीं हो सकता था। जब वे कक्षा से निकलते, उनके पीछे बीस पच्चीस शिष्यों का जुलूस चलता। विभिन्न दलों के राजनेताओं से भी उनका घनिष्ठ परिचय था जिसकी परिणति यही होनी थी कि वे सक्रिय राजनीति से जुड़ जाएं। कई दोस्तियां ऐसी होती हैं जो घटित स्तर पर हमें परेशान करती हैं किंतु फ्लैशबैक में समृद्ध। डीपीटी से इसी तरह की दोस्ती रही। डीपीटी प्रथमतः रवि के दोस्त थे। उनकी बातों की कायल मैं भी थी। लेकिन जब वे दोनों कश पर कश और जाम पर जाम वाले मुकाबले में कूद जाते, मेरी उलझन बढ़ जाती। कुछ और दोस्त आ जाते। सब मिलकर इतना शोर करते, धुआं फैलाते कि बच्चों को पढ़ाई के लिए जगह न बचती। अन्नू का वह आईसीएससी का आखिरी साल था। वह किताब कापी लेकर मेरे पास रसोई में भन्नाता— ‘‘मां मैं कहां बैठकर पढ़ूं। हर कमरे में ठहाकों का शोर आ रहा है।’’

मैं रसोई में उसके लिए एक कुर्सी रख देती और वह देर रात तक ऐसे ही पढ़ता। सुबह रवि को उठने की कोई जल्दी न होती जबकि मेरी और बच्चों की भागदौड़ सात बजे से शुरू हो जाती।

ऐसा लगता है अन्नू ने भी जल्दी अपने जीवन और कैरियर की प्राथमिकताएं तय कर लीं। चौक में एक और गली थी जिसका नाम था खोयामंडी। चिपचिप मकानों से बसी इस गली में साल के बारह महीने खोया बिकता। वहां अन्नू का एक दोस्त, अपूर्व मेहरोत्रा रहता था। वह अन्नू से सीनियर था। उसने कैट परीक्षा पासकर एमबीए में प्रवेश ले लिया था। अन्नू कहता— ‘‘अगर खोयामंडी का लड़का एमबीए कर सकता है तो रानीमंडी का लड़का क्यों नहीं कर सकता।’’ अन्नू का मन था कि रानीमंडी में रहते हुए ही वह एमबीए की पात्रता अर्जित करे। ऐसा उसने कर भी दिखाया। हमारे घर के लिए यह बड़ी बात थी क्योंकि हमने कभी बच्चों के सिर पर अपने सपने नहीं थोपे, तुम्हें यह बनना है तुम्हें वह बनना है। अन्नू अपने आप पढ़ाकू दोस्तों की संगत में पढ़ाकू बन गया और मन्नू लड़ाकू दोस्तों की संगत में लड़ाकू। छोटा होने की वजह से उसे हमेशा ऐसा लगा कि अपनी बात पंचम सुर पर बोलकर ही वह इंसाफ हासिल कर सकता है।

एक ही शहर और घर में पलकर भी दो भाइयों की प्रकृत अलग हो सकती है यह हर परिवार में साबित होता रहा है। मेरी बड़ी बहन प्रतिभा और मैं चरम और परम जैसे दो ध्रुव पर रहे तो रवि और उनके बड़े भाई परस्पर विलोम। प्रेम भाईसाब कनाडा के कोल्डलेक, सबसे ठंडे इलाके में रहते हैं। उन्होंने डॉक्टर के कहने पर भी कभी मांस मदिरा की तरफ नहीं देखा। रवि को कालेज के दौरान ही गुरु से ज्ञानगंगा के साथ साथ सोमरस की सरसरि भी प्राप्त हो गई।

हमारे एक दिलदार मित्र थे डॉ. खोपर जी। आज सोचकर हैरानी होती है कि डाक्टरों ने कितनी दोस्ती निभाई। हमसे उन्हें कोई प्राप्ति नहीं थी, फीस तक की नहीं। लेकिन वे आधी रात में चले आते राहत दिलाने। एक बार मेरे सिर में बड़ी जोर से दर्द था। पेन बाम, इस्प्रिन, बादामरोगन किसी से आराम नहीं आया। उस दिन रवि से मिलने कई दोस्त आए हुए थे। ऊपर उनके कमरे में महफिल सजी थी। मैंने घबराकर रवि को आवाज दी। रवि सुनते ही नीचे आए और मुझे खुली हवा में बैठने जैसा सामान्य सुझाव देकर ऊपरी मंजिल पर पुनः चले गए। मैंने डॉ. अभिलाषा और डॉ. खोपर जी को फोन करवाया। पति पत्नी अपना सब काम छोड़, आनन फानन में हमारे घर पहुंच गए। रवि ने ‘स्कोडा’ गाड़ी घर पर रुकते देखी तो समझ गए अब मामला गंभीर है। उन्होंने ‘सॉरी’ और नमस्ते के बीच बाकी दोस्तों से विदा ली और चुपचाप नीचे आकर बैठ गए। डॉक्टर अभिलाषा ने कोई दवा दी, प्यार दिया और बड़ी देर तक दुलार से मेरे सिर पर हाथ फेरती रहीं। उनकी नर्म और नम हथेलियों से सुकून के सोते फूट रहे थे।

हमारे ये डाक्टर खोपर जी अद्भुत प्रतिभा के धनी हैं। निस्संतानता का डॉपलर तकनीक से उपचार करते हैं, साथ ही ध्वनि संयोजन, बढ़ईगिरी, लुहारगिरी से भी कोई परहेज नहीं है।

एक बार की बात है रवि और मैं जब शाम को घूमने निकले। घर की चाबियां अंदर मेज पर रखी रह गईं। मुख्य द्वारा पर स्वचालित ताला था गोदरेज का। वापस लौटने पर गलती का पता चला। रवि ने डॉक्टर खोपर जी को फोन मिलाया और समस्या बताई।
‘‘मुझे ताले तोड़ने का अच्छा तजुर्बा है।’’ डॉक्टर साब ने कहा और वे अपने टूल बॉक्स के साथ आ गए। उनके बच्चे अभिनय और तनया भी साथ थे। डॉक्टर साब ने पहले सब तरफ से टटोला, कहां से घर में प्रवेश पाया जाये।

मैंने कहा— ‘‘टैरेस पर जो दो ताले लगे हैं वे काफी पुराने हैं। किसी मामूली कम्पनी के बने हैं। शायद वे जल्दी टूट जाये।’’

डाक्टर साब, बैटमैन की तरह छलांग लगाकर टैरेस पर चढ़ गए। अंधेरा हो गया था। शटर के ताले पर उन्होंने दसियों हथौड़े मारे, ताले नहीं टूटे।

पड़ोसी अपने अपने सुझाव देने बाहर निकल आए।

अपनी विलक्षण विमूढ़ता में मुझे उस वक्त सिर्फ एक फिक्र हो रही थी कि मैं गैस के ऊपर दूध का पतीला छोड़ आई हूं। अगर रात भर ताला न खुला तो दूध खराब हो जाएगा।

डॉक्टर साब ने कहा— ‘‘पुराने तालों में बड़ा दम होता है।’’ तभी हममें एक किरण कौंधी आशा की। पीछे के आंगन से बाथरूम के रास्ते सिर्फ एक दरवाजा तोड़कर घर में घुसा जा सकता है। हमारे ड्राइवर प्रकाश ने एक पेड़ पर चढ़, पिछवाड़े के आंगन में छलांग लगाई और पेचकस से दरवाले के कब्जे अलग किये।

असलियत यही है कि वहां हमारे दोस्त और खैरख्वाह हर मरहले पर साथ खड़े होते। सरोकार बने रहते। एक की तकलीफ दूसरे की भी होती। जब कभी हमारा छोटा बेटा मन्नू बगावत पर उतर आता, डॉक्टर दंपति ही उसे पटरी पर लाते।

अब ऐसे दोस्त कहां मिलते हैं, कहां ऐसा याराना। हम पिछले कई बरस दक्षिणी दिल्ली के इलाके लाजपत नगर में रहे जहां कभी किसी से दोस्ती तो छोड़िये परिचय तक न हुआ। वहां पार्किंग को लेकर भाई भाई में झगड़े और हत्या तक देखी। एक परिवार ने दूसरे परिवार की कार को आग लगाकर स्वाहा कर दिया क्योंकि वह कार गलती से उसके गेट के सामने खड़ी थी। कोई किसी के पचड़े में नहीं पड़ता। आस पड़ोस के लोग न आपके पक्ष में बोलते हैं न विपक्ष के। किसी भी वारदात पर पुलिस को चश्मदीद गवाह नहीं मिल पाते। पीड़ित परिवार को हमदर्द भी नहीं मिल पाते। हर साल दिल्ली में अपराधों के आंकड़े बढ़ जाते हैं, उसकी जड़ में यही सरोकारहीनता है।

रवीन्द्र कालिया और ममता कालिया के साथ शब्दांकन संपादक उनके लाजपत नगर, दिल्ली के घर में.

एक जमाने में मित्र प्रकाशन की शहर में बड़ी प्रतिष्ठा थी। प्रकाशन के अध्यक्ष आलोक मित्र विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। थोड़े बहुत लेखक भी थे। ये सभी गुण उन्हें विरासत में मिले थे। उनके पिता क्षितींद्र मोहन मित्र ने इलाहाबाद में मित्र प्रकाशन स्थापित किया था जहां से माया, मनोरमा, मनोहर कहानियां जैसी लोकप्रिय पत्रिकाएं प्रकाशित होती थीं। क्षितींद्र बाबू ने अपने चार बेटों के बीच प्रकाशन का समस्त प्रबंधकीय दायित्व बांट दिया था। गल्प लिखवाने और बेचने की कला में वे सभी माहिर थे। आलोक बाबू ने बड़े से बड़े साहित्यकार को अपने प्रतिष्ठान में नौकरी दी। उनका फॅार्मूला था— ‘‘हम गरीबी दूर नहीं कर सकते मगर उसे बेच सकते है।’’ साल में एक बार वे माया का साहित्य विशेषांक प्रकाशित करते। मार्कण्डेय जी ने ‘माया’ के कई विशेषांक संपादित किये।

मित्र प्रकाशन के दूसरे नंबर के भाई अशोक मित्र एक स्थानीय साप्ताहिक पत्र ‘गंगा जमुना’ निकालने की योजना बनाई, अंग्रेजी में जिसे tabloid कहते हैं, वही। उन्होंने रवि को इसका प्रधान संपादक नियुक्त किया। रवि के रहते यह साप्ताहिक ‘गंगा यमुना’ स्थानीय कैसे रहता, सन् 1993 से सन् 1999 की अवधि में वह राष्ट्रीय पत्र बन गया। सन् 1999 में भाइयों की आंतरिक कलह के कारण यह साप्ताहिक बंद हो गया। मित्र प्रकाशन और माया प्रेस के अवसान के साथ इलाहाबाद में बहुत से पत्रकार और रचनाकार बेरोजगार हो गए। चालीस साल तक वैभव के चरम पर रहा यह संस्थान ताशमहल की तरह ढह गया। आज भी मुट्ठीगंज में माया प्रेस और मित्र प्रकाशन के परिसर में ताले पड़े हैं।

अन्य शहरों की तरह इलाहाबाद में भी आए दिन अखबार और पत्र पत्रिकाएं निकलते और बंद होते रहते हैं। पेंशन और प्रॉविडेंड फंड तो दूर की बात है, पत्रकारों, स्तंभकारों को पारिश्रमिक भी ठीक से नसीब नहीं होता। ‘भारत’, ‘स्वतंत्र भारत’, ‘अमृत प्रभात’ जैसे अखबार अनेक वर्ष निकलने के बावजूद अपना अस्तित्व नहीं बचा पाये। न जाने कितने पत्रकार विस्थापित हुए और कितने ही शहर छोड़ गए। विकल्प का अभाव जहां सृजनधर्मिता की आधार भूमि बना, वहीं न जाने कितने परिवारों को निराधार कर गया। जब जब इलाहाबाद से विस्थापन हुआ है उसकी जड़ में किसी न किसी अखबार का विध्वंस रहा है। हमारे मित्र बाबूलाल शर्मा, प्रभात ओझा, प्रदीप भटनागर, प्रदीप सौरभ और अन्य कई पत्रकारों ने मजबूरन शहर छोड़ा।

कुछ व्यक्तियों से बात करने पर हमेशा नई ऊर्जा प्राप्त होती। हमारे घर से एक मकान की दूरी पर डा. लाल बहादुर वर्मा और उनकी पत्नी रजनीगंधा वर्मा रहते थे। जब भी कभी हम वहां जाते डा. वर्मा हमेशा कुछ लिखते मिलते लेकिन वे तुरंत कागज एक तरफ समेट, हमारा स्वागत करते। जितना कुछ लिख चुके उसका कोई घमंड नहीं किंतु लेखक की गरिमा से भरपूर समृद्ध। उनका बात करने का सलीका, हमारे पूरे दिन की सुस्ती धो डालता। अक्सर उनके घर एक से एक विद्वान उपस्थित मिलते। हर बार उनके यहां से उठते समय हम तय करते कि हमें यहां और ज्यादा आना चाहिए। कुछ दिन दिल्ली रहकर वे शायद अब देहरादून चले गए हैं। हमारे लिए वे हमेशा इलाहाबाद की हस्ती रहेंगे।

हमारे शहर के बहुत से विद्यार्थियों ने खूब नाम कमाया। बद्री नारायण, मृत्युंजय, श्रीप्रकाश शुक्ल, मनोज कुमार पांडेय, जहां कहीं से आए, शिक्षा दीक्षा के चलते इलाहाबाद के ही माने गए। जब ये पढ़ते थे किसी को यह आभास नहीं था कि ये इतने महत्वपूर्ण साहित्यकार और बुद्धिजीवी माने जाएंगे। मनोज पांडेय और संजय कबीर तो हमारे देखते देखते लेखक बने हैं।

समूचा श्रेय शहर के नाम करने का मन नहीं होता। जरूर इसमें नब्बे प्रतिशत योगदान व्यक्तित्व की क्षमता का भी होगा। शहर की भूमिका यही है कि वह हमें स्पंदित रखता है, विचलन के इतने विकल्प प्रस्तुत नहीं करता कि हम बिखर जाएं। प्रतिभा के कद्रदां यहां हैं तो आलोचक भी यहीं। अपने शहर की खासियत यह है कि वह हमें मुश्किल से कबूल करता है, खराद पर चढ़ाता है, गढ़ता, छीलता, छांटता है और एक दिन, दुनिया की हवाओं में उछाल देता है, फुटबॉल की तरह।
 (क्रमशः)


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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