समीक्षा: माधव हाड़ा की किताब 'सौनें काट न लागै - मीरां पद संचयन' — मोहम्मद हुसैन डायर | MEERAN PAD SANCHAYAN

माधव हाड़ा की महत्वपूर्ण किताब 'सौनें काट न लागै - मीरां पद संचयन' की ज़रूरी समीक्षा की है रा. उ. मा. वि. आलमास, भीलवाड़ा, राजस्थान के प्राध्यापक मोहम्मद हुसैन डायर ने । ~ सं० 



Sone Kat Na Lage — Meeran Pad Sanchayan

समीक्षा लेख 

~ मोहम्मद हुसैन डायर

लगभग 50 से अधिक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में भागीदारी, अब तक कुल 35 शोध आलेख, 16 साक्षात्कार, 5 पुस्तकों की समीक्षाएं देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, अपनी माटी ई पत्रिका पर 'अध्यापकी के अनुभव' नामक स्तंभ पर नियमित लेखन। एक वर्ष से अपनी माटी ई पत्रिका के सह संपादक के रूप में भूमिका।


मीरां के लोक का सशक्त दस्तावेज़

समाज में फैले ज्ञान से व्यक्ति का परिचय उसको अपने लोक से प्राप्त होता है, फिर शिक्षा के रास्ते से होते हुए वह शोध तक आते-आते एक व्यवस्थित रूप ग्रहण करता हुआ दिखता है। कई विद्वानों के अनुसार यह इस स्तर पर परिपक्व होने के साथ-साथ मान्य भी होता है। मीरां के संदर्भ में भी कुछ ऐसी ही धारणा विद्वानों की है। ऐसी धारणाओं को माधव हाड़ा संपादित पुस्तक ‘सौनें काट न लागैं’ नए आयाम देती है। सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक कुल 158 पृष्ठ की है। पुस्तक में मीरां के कुल 360 पदों को शामिल किया गया है। इस संग्रह में उदयपुर के धोली बावड़ी स्थित रामद्वारा के 18वीं सदी के गुटके से अधिकांश पद लिए गए हैं। ठीक इसी तरह से महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश, गुजरात विद्या सभा जैसे स्थानों पर उपलब्ध लिखित स्रोतों से भी कई पद लिए गए हैं।

साहित्य में मीरां के पदों की खोज के लिए अपनाए जाने वाले पैमानों पर पुस्तक की भूमिका साहित्य में इस संदर्भ में शोध के कई नए रास्तों की ओर संकेत करते हुए चलते हैं। मीरां का जीवन, उनके साहित्य की प्रामाणिकता, पदों के संग्रह और उनका आधार, पदों के रूपांतरण के संबंध में उत्पन्न हुए पूर्वाग्रह से मुक्ति, मीरां की परंपरागत छवि बनाम आधुनिकता के बिंदु, मीरां के साहित्य की भाषा और उसके साहित्य की विविधता जैसे विषयों पर इसकी भूमिका बिंदुवार चर्चा करते हुए सभी विषयों को खोलने का कार्य करती है।

मीरां के जन्म और उसके विवाह के संबंध में प्राचीन मान्यताएँ और भी पुष्ट हुईं। भगवान रणछोड़ की मूर्ति में समाने जैसी धारणाओं पर चर्चा करते हुए इससे भिन्न जनसामान्य में जो मान्यताएँ है, उस पर भी नए शोध के बिंदु यह पुस्तक छोड़ती है। कुछ इसी तरह मीरां और रैदास के संबंधों पर भी संकेत देखने को मिलता है। यह पुस्तक बड़ी मुखरता से इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करती है कि मीरां दीन-हीन दशा में एक बैरागी के रूप में जीवन यापन नहीं कर रही थी जैसा कि कई किताबों में देखने को मिलता है, बल्कि उसके पास सम्मानपूर्वक जीवन यापन के लिए पर्याप्त संसाधन मौजूद थे।

मीरां के पद कहाँ कहाँ पर हैं और कौन-कौन से प्रामाणिक हैं, इस संबंध से जुड़ी पूरी पड़ताल इसकी भूमिका करती है। ललिताप्रसाद सुकुल, नरोतम स्वामी, हरिनारायण पुरोहित, कल्याणसिंह शेखावत और स्वामी आनंदस्वरूप जैसे साहित्य व्यसनी व्यक्तियों की खोज, उनके दृष्टिकोण और उनके संकलन को भारतीय लोक की मान्यताओं के अनुकूल बनी कसौटी पर माधव हाड़ा परखते हैं। यह दृष्टिकोण अनायास आया हो ऐसा भी नहीं है। मीरां का लोक के प्रति जुड़ाव किसी से छुपा हुआ नहीं है। इस जुड़ाव के प्रति वह कहती भी है कि “कोई नींदों कोई बिंदों मैं तो चलूंगी चाल अपुठी।” यह पंक्ति उसके स्वच्छंद प्रवृत्ति को पुष्ट करती है, जो कि लोक की भी महत्त्वपूर्ण विशेषता है। 

लोक में अपने भजन गाने वाले साधु-संतों के जिस समाज में कागज, कलम और दवात जैसी चीजें बहुत मुश्किल से मिलती थी। अपनी घुमक्कड़ प्रवृत्ति के कारण लंबे समय तक उनके लिए इनको सहेज कर रख पाना भी आसान नहीं था।  कुछ ऐसा ही मीरां साहित्य के साथ हुआ। यह मौखिक ज़्यादा है और लिखित बहुत कम है। जहाँ अन्य साधु-संतों और भक्तों का साहित्य उनके शिष्य परंपरा के कारण सुरक्षित रह पाया, वहाँ मीरां के साहित्य के साथ ऐसा नहीं हो पाया। एक तो स्त्री होने के कारण पढ़ने-लिखने के सामान उसके पास पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं रहे होंगे, दूसरा उसकी कोई शिष्य परंपरा नहीं थी। स्त्रियों द्वारा ऐसी शिष्य परंपरा विकसित करने की आजादी की कल्पना उसके दौर में भी संभव भी नहीं थी। इसके अलावा यह भी ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि भारतीय समाज में ज्ञान का संचार श्रुत माध्यमों से हुआ है। यहाँ पर चीज़ों को लिखकर रखने की परंपरा नहीं रही है। परिणामस्वरूप मीरां के लोक में प्रचलित मीरां के पदों में लोगों ने अपनी संवेदना का मिश्रण भी किया। इस सच्चाई को स्वीकारते हुए यह पुस्तक इस ओर भी इशारा करती है कि इससे मीरां के पदों के मूल भाव में कोई विशेष अंतर नहीं हुआ। औपनिवेशिक कालीन और संस्कारवादी आलोचना के द्वारा निर्धारित केवल लिखित प्रामाणों की ही माँग की अनिवार्यता को यहाँ अस्वीकार करने के साथ-साथ मौखिक परंपरा के प्रति झुकाव देखने को मिला है।

भारतीय समाज में भाषाएँ यूरोपीय देशों की तरह विभाजित नहीं है, बल्कि यहाँ की एक भाषा दूसरी भाषा में विलीन होती है। मीरां के साहित्य को उसकी भाषायी वैविधय के आधार पर अप्रामाणिक मानने वाले विद्वानों को यह पंक्ति अच्छा जवाब देती है। मीरां के पदों में ब्रज, पंजाबी, ढूंढाड़ी, मेवाड़ी, मारवाड़ी गुजराती, मालवी जैसी भाषाओं के शब्दों से भरे पड़े हैं। ऐसा अनायास भी नहीं है, क्योंकि मीरां पूरे जीवन देशाटन करती रही है। भाषा को लेकर के जो बँटवारा आज हमें देखने को मिलता है, वह भी उस दौर में नहीं था। भारतीय भाषाओं का विभाजन तो उन्नीसवीं और बीसवीं सदी की देन है। जिस समय ये पद रचे गए, उस समय ये सभी भाषाएँ अलग अलग नहीं थीं, बल्कि कुछ शब्दों के हेरफेर के साथ एक जैसी ही थी। इस महत्त्वपूर्ण बिंदु पर यह पुस्तक बहुत ही सही तरीके से रोशनी डालती है।

माधव हाड़ा का इस पुस्तक में कई जगह आग्रह रहा है कि जो मीरां के संबंध प्रचारित मान्यताएँ  संदिग्ध लगती है, उन्हें तथ्य के आधार पर चुनौती दी जाने की आवश्यकता है, चाहे वह किसी प्रसिद्ध विद्वान की ही क्यों न हो। भक्तिकाल के अधिकांश साहित्यकारों की छवियाँ पूर्वाग्रह के चलते गढ़ दी गई है। आस्था, लोक मान्यता, औपनिवेशिक संदर्भ और आलोचकों की दृष्टि ने मीरां को भक्त या संत बनाने में कोई कमी नहीं छोड़ी। यह छवि आज भी बहुत मजबूती से बनी हुई है। यह पुस्तक स्पष्ट करती है कि मीरां का व्यक्तित्व और उसका साहित्य न केवल राजसत्ता के प्रतिकार का साहित्य है, बल्कि तथाकथित सामाजिक मर्यादाओं से मुक्ति पाने का भी है। 

मीरां का सत्ता के प्रति जो बेख़ौफ रूप “राणो म्हारो कांइ करिबै, मीरां छोड़ दी कुल लाज” पंक्ति के प्रारंभ में दिखता है, वहीं उतरार्ध में मर्यादाओं को ताक में रखने का स्वर भी बहुत मुखर है। कुल की मर्यादाओं के प्रति मीरां को कोई मोह नहीं है। उन्हें वह बड़ी निर्ममता से कुचलती भी है। “अब नहीं मानांला म्हे थारी” कहकर अपनी स्पष्ट असहमति जताने से भी नहीं चूकती है। जिस दौर में राजसी स्त्री को कई तरह की मर्यादा रूपी बंधनों में क़ैद किया हुआ था, उस दौर में अगर कोई स्त्री ऐसे स्वर में अपनी पीड़ा व्यक्त कर रही थी तो यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि उसके भीतर सामाजिक मर्यादाओं को लेकर कितना असंतोष रहा होगा। इन पदों के पुनःपाठ  के दौरान पाठक अपने आप को 16वीं और 21वीं सदी के विमर्श के बीच झूलता हुआ पा ता है। माधव हाड़ा औपनिवेशिक विचारधारा वाले आलोचकों द्वारा बनाई गई मीरां की छवि को अस्वीकार कर अपने ऐसे तर्क और तथ्यों के आधार पर मीरां के लौकिक और सत्ता के प्रतिकारी रूप को ज़्यादा सामने रखते हैं। मीरां को केवल किसी एक मत और विचार तक सीमित करने का विरोध भी इस पुस्तक में देखने को मिलता है। इसके पीछे का मुख्य कारण मीरां के साहित्य में मौजूद वैविध्य है। मीरां किसी एक पंथ या एक दर्शन से बँधी हुई नहीं है। वह सगुण, निर्गुण, ज्ञानमार्गी प्रेम मार्गी, पारलौकिक, इलौकिक आदि सब है। उसकी पीड़ा उसके काव्य के माध्यम से सामने आती है। माधुर्य भाव की तक सीमित करना मीरां के साहित्य के साथ अन्याय होगा। माधव हाड़ा इस विषय पर प्रकाश डालने के साथ-साथ मीरां के बहुआयामी साहित्य से भी परिचित करवाते हैं। यह पुस्तक साहित्य के भारतीय के तौर-तरीकों से अनुसंधान और मूल्यांकन के आग्रह के साथ मीरां के साहित्य के संबंध में आलोचकों और शोधार्थियों के लिए व्यापक बहस की गुंजाइश छोड़ती है।


संपर्क:  डॉ मोहम्मद हुसैन डायर, 236/65 हीरा फैक्ट्री के पास, हैंड पंप चौराया, सुभाष नगर, भीलवाड़ा, राजस्थान 311001,  मेल: dayerkgn@gmail.com, मो.न.-9887843273। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

सौनें काट न लागै - मीरां पद संचयन, 
सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2021, 
पुस्तकालय संस्करण
रु. 400
पेपरबेक रु. 180
पृ. सं. 158

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