Rajendra Yadav Jayanti 2016
ये संस्मरण नहीं है! — चण्डीदत्त शुक्ल
अच्छा तो लिखते हो! पढ़ते भी हो क्या? पढ़ा करो...
वे दिल्ली के दिन थे। अच्छी लगती थी दिल्ली, लाजिम था, क्योंकि उन्हीं दिनों प्यार हो गया था, बतर्ज — `मुझे प्यार हुआ, प्यार हुआ प्यार हुआ अल्ला मियां।' भले ही भरी बरसात में न हुआ तो क्या हुआ, प्यार तो प्यार ही है। सब कुछ अच्छा लगने लगता है।
ऐसे ही पढ़ना-लिखना हरदम से लुभाता था, रहा है और है, पर तब की बात ये कि हम ज्यादा ही अदबी हो रहे थे। क्योंकि माशूका (जिन्हें हम समझते रहे) भी पढ़ने-लिखने वाली हैं। खैर, उन्हीं दिनों एक शाम राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पास, न जाने वो कौन-सी जगह थी — एक नुक्कड़ पे, आदरणीय प्रयाग शुक्ल, नेमिचंद्र जैन और राजेंद्र यादव जी इकट्ठा हुए थे। यकीन से याद है कि वो किसी गोष्ठी की शुरुआत से पहले की गप-मीटिंग थी। मैं तब अजित राय (जो देश-दुनिया के बड़े कल्चरल रिपोर्टर के रूप में प्रतिष्ठित हैं) के साथ नत्थी था। अजित ने राजेंद्र जी से मिलवाया। वे किसी ध्यान में डूबे थे। अजित बोले — `सर, ये आपका बहुत बड़ा फ़ैन है। पत्रकार है। लिखने-पढ़ने का शौकीन है।' राजेंद्र जी का ध्यान थोड़ा सा दरका। बोले — `अच्छा तो लिखते हो! पढ़ते भी हो क्या? पढ़ा करो...’और आंखें मूंद लीं। वो शाम थी और फिर बाद में भी, उनसे फिर नहीं मिला। जिस्मानी तौर पर। हां, खूब पढ़ा। उन्हें भी और औरों को भी, इसीलिए नहीं लगता कि राजेंद्र जी कभी दुनिया छोड़कर गए भी हैं। मैं उनसे महज 6 मिनट के लिए रूबरू हो सका था। शब्द तो उनकी परछाईं हैं और वहीं से मेरे जेहन की रौशन दुनिया खुलती है। तबसे ही लिखता कम हूं, पढ़ता ही ज्यादा हूं।
चण्डीदत्त शुक्ल
ख़बरनवीसी है पेशा, इश्क है फ़ितरत, फ़िलहाल-FEATURE EDITOR एंटरटेनमेंट सेक्शन, दैनिक भास्कर समूह, मुंबई और संपादक, चौराहा.कॉम. www.chaurahaa.com...यार मस्त हूं। बहुत रोता हूं, उतना ही मस्त होकर हंस पड़ता हूं, लेकिन ये दुख और सुख देने वाले पर निर्भर है. मुंहफट हूं, कभी-कभार बॉस को तेल लगाने की कोशिश भी करता हूं, लेकिन फ़ेल हो जाता हूं। पता नहीं, शायद नौकरी बचाने के लिए ये सब करता हूं. लोग दबी ज़ुबान से क्रिएटिव कहते हैं पर खूब निंदक हैं. कुछ दोस्त हैं, वो एकदम गहरे हैं। महबूबाएं हैं पर बस यादों में... कुल मिलाकर इमोशनल फ़ूल शायद... तिकड़मों और झूठों के बावज़ूद।
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