मित्र ! आपके इस लेख पर आने और इसे पढ़ना शुरू करने के कुछ कारण जो मुझे लगते हैं वो... कि आप को - १) हिंदी साहित्य से लगाव है , २) कृष्ण बिहारी जी को जानते हैं, ३) लेखन से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं, ४) कृष्ण बिहारी जी से जलते हैं, या फिर कि ५) देखें "शब्दांकन" पर क्या चल रहा है ? ... यदि आपके आने का सरोकार ४ या ५ से है तो आप मेरा लिखा इसके आगे ना पढ़ कर सीधे कृष्ण बिहारी के लेख "लिखने से मुझे वह मिलता है जो आपको कभी नहीं मिला" पर जा सकते हैं . अब बात आप से जो कारण १,२,३ या अन्य (४,५ छोड़ के) के चलते इसे पढ़ रहे हैं...
मित्र यदि आप ने "निकट" पढ़ी है तो मुझे उसकी अच्छाई बताने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि अच्छा लगेगा यदि आप खुद लेख के अंत में अपनी टिप्पणी में बता सकते हों. लेकिन जिन्होंने नहीं पढ़ी है उनके लिए ये लिंक है इससे "निकट" के पिछले अंक में प्रकाशित रचना/रचनाकारों की जानकारी मिल जाएगी.
अब, यदि आपकी आर्थिक परिस्तिथि ऐसी है कि... अच्छा पहले लेख पढ़ लें बाकी बाद में लिखता हूँ
लोग मुझसे पूछते हैं…
आपको लिखने से क्या मिलता है ?
कितना पैसा लेखन से कमाया है ?
पत्रिका बिकती है ?
हिन्दी कोई पढ़ता भी है ?
आप “निकट” कैसे और क्यों निकाल रहे हैं?
लेखन से आप किसी को क्या देते हैं ?
इस तरह के अनेक सवाल और भी है जो आए दिन कोई न कोई पूछता है। बिना सोचे ऐसे सवाल पूछे जाते हैं क्योंकि यदि सोचकर पूछे जाते तो इन सवालों के सरोकारों से ये लोग ज़रूर जुड़ते। जिन सवालों से आपका कोई सरोकार न हो उन्हें नहीं पूछना चाहिए। जैसे, किसी से उसका वेतन नहीं पूछा जाता। किसी महिला से उसकी उम्र नहीं पूछी जाती। ऐसे सवाल शालीन नहीं माने जाते। क्योंकि वेतन पूछकर कम होने पर आप उसे बढ़ा नहीं सकते और अधिक जानकर उसमें से कुछ पा नहीं सकते। फिर भी, मैंने सोचा कि इन प्रश्नों के उत्तर एक बार तो दे ही दूं...
तो तथाकथित मित्रो,
लेखन से मैंने अबतक पैसा नहीं कमाया है। यह मेरे जीविकोपार्जन से नहीं जुड़ा है। मैं अपनी इच्छा से अध्यापक हूं। हर काम को लाभ-हानि की दृष्टि से देखने वाला व्यक्ति मैं नहीं हूं। लेकिन यदि लेखन से पैसा मिलता है तो बुरा क्या है? मुझे कभी कुछ पैसा मिलता है, कभी नहीं मिलता। हां, पैसा देकर मैं नहीं छपता। आजतक ऐसा कभी नहीं हुआ कि पैसा देकर मैं कहीं छपा हूं। कुछ पत्रिकाएं पैसा देती हैं, कुछ नहीं देतीं। रही बात हिन्दी से कमाने-खाने की, तो मैं इसी भाषा का अध्यापक हूं। पिछले 31-32 साल से मैं इसी भाषा की ताक़त से अपना घर चला रहा हूं। यह अलग बात है कि कभी घनी- घना, कभी मुट्ठी चना, कभी वह भी मना की तर्ज, पर ज़िन्दगी के दिन काटे। हिन्दुस्तान के सरकारी विद्यालयों में अब वेतन बहुत अच्छा हो गया है लेकिन प्राइवेट स्कूलों में आज भी वही स्थिति है जिसे दयनीय और शोषण का शिकार कहा जाता है। मैं सन् 1979 में सरकारी स्कूल की अध्यापकी छोड़कर प्राइवेट स्कूल की नौकरी में हिन्दुस्तान में ही चला गया था। तब सरकारी स्कूलों में वेतन कम था। जहां मैं गया वहां अच्छा था। लेकिन वह सिक्किम प्रदेश का सबसे अच्छा विद्यालय था। उसका स्टेटस अलग था। लेकिन वहां भी एक समय ऐसा आया कि मेरे लिए काम कर पाना कठिन हो गया तब वह नौकरी भी छोड़ दी। यहां यह भी बता दूं कि भारत से बाहर यानी कि विदेश में भी भारतीय विद्यालयों में अध्यापक का वेतन अच्छा तो क्या, सन्तोषजनक भी नहीं है। टू मीट बोथ द एण्ड्स वाली स्थिति को हैण्ड टू माउथ ही जानें तो बेहतर है। प्राइवेट विद्यालय के मालिकों, ट्रस्टियों या बोर्ड ऑफ गवर्नर्स को इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि उनके शिक्षकों को एक स्तरीय जीवन जीने का पैसा मिले। क्यों ? इसलिए कि बेकारी बहुत है और काम पाने के इच्छुकों की संख्या अगणित है। तो, सच यह कि जिस नीयत से यह सवाल पूछा जाता है कि लेखन से मैंने कितना कमाया है, उसका उत्तर है कि जितना कमाया है वह आर्थिक मानदण्ड पर न के बराबर है और सामाजिकता के मानदण्ड पर आपकी सारी कमाई भी उसकी बराबरी नहीं कर सकती...
“निकट” को अबतक बेंचा नहीं है। अंक – 5 पहली बार लखनऊ, कानपुर और दिल्ली के अलावा भोपाल के कुछ बुक स्टाल्स पर रखा गया है। कानपुर रेलवे स्टेशन के एक बुक स्टाल पर भी “निकट” की कुछ प्रतियां रखवाई हैं। फिलहाल, योजना बनानी है कि पत्रिका बिके। लेकिन यहीं एक सवाल यह भी कि जिन लोगों तक “निकट” के पिछले चार अंक मैंने डाक खर्च या कोरियर का ख़र्चा उठाकर भेजा या भिजवाया है, उनमें से कुछ को छोड़कर सबने “निकट” ख़रीदने की इच्छा क्यों नहीं व्यक्त की? अगर 1000 पाठक भी “निकट” के आजीवन सदस्य बन जाएं तो मैं साल में चार अंक इतने अच्छे निकाल सकता हूं जो हिन्दी जगत् में उदाहरण बन सकते हैं। लेकिन क्या दुनिया में हिन्दी के 1000 समर्थ पाठक भी हैं ? मैंने समर्थ नहीं बल्कि समर्थ पाठक लिखा है। 121 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में जिसकी राजभाषा हिन्दी है और जिसके कई प्रदेशों में हिन्दी बोली जाती है, उसकी दयनीयता यह है कि उसमें 1000 समर्थ पाठक भी नहीं हैं। होते हुए भी नहीं हैं। क्यों नहीं हैं ? उत्तर स्पष्ट है- हिन्दी में पढ़ने की प्रवृत्ति मर रही है। खरीदकर पढ़ने की तो और भी। पत्रिका मैं एक जुनून के तहत निकाल रहा हूं। इससे पेट जिलाना मेरा मक़सद नहीं है। लेकिन घर फूंककर तमाशा देखने की इच्छा इतनी भी बलवती नहीं कि अपना आशियाना ही लुटा दूं। जिनको पत्रिकाएं मुफ़्त में भी देता हूं वे भी नहीं पढ़ते। यदि पढ़ते और अपनी प्रतिक्रिया देते तो पत्रिका में लगभग आठ दस पृष्ठ पत्रों पर ही आधारित होते। मैं एक लेखक की बात आपको बता रहा हूं जो शायद आज बहुसंख्य हिन्दी लेखकों की मानसिकता का प्रतिनिधित्व करती है। मैंने एक पत्रिका का नाम लेकर पूछा कि उसका नया अंक देखा? उत्तर था कि नए अंक में कुछ भी नहीं है। कवर टू कवर 100 पेज़ की हिन्दी की उस प्रतिष्ठित पत्रिका जिसमें छपना हर लेखक का छपने के बाद दुबारा छपना भी एक सपना है, उसके बारे में एक प्रतिष्ठित लेखक का ऐसा बयान! इसका कारण भी बता दूं। कारण यह कि पत्रिका के उस अंक में तथाकथित प्रतिष्ठित लेखक की लघुकथा नहीं है। बात साफ हो गई कि जिस पत्रिका में लेखक की रचना हो उसी में उसके लिए और हिन्दी साहित्य के लिए कुछ है अन्यथा उसमें कुछ नहीं है। दूसरी बात हिन्दी के अधिकांश लेखक पत्रिका में छपी अपनी रचना का ढोल पीटने के अलावा उसमें छपी अन्य रचनाओं को न तो पढ़ते हैं और न उनके बारे में जानते हैं। यह भी नहीं कि कम से कम वही अंक पूरा पढ़ लें जिनमें उनकी रचना है। ऐसा करके कम से कम वे अपने पर यह उपकार तो कर ही सकते हैं कि अद्यतन साहित्य से परिचय रखें। इस बदतर हाल के बावजूद कुछ पत्रिकाएं बिकती हैं। उन्हें खरीदकर पढ़नेवाले हैं। लेकिन खरीदकर पढ़नेवालों के बल पर पत्रिका निकालना कठिन ही नहीं, असम्भव भी है।
पत्रिका, कुछ सच्चे मित्रों और विज्ञापन की मदद से निकलती है। सच्चे मित्र भी कबतक मदद करेंगे ? और आप उनसे कबतक मदद मांगेगे? यदि ग्लासी पेपर पर अफवाहों और नंगी तसवीरों और नंगी ख़बरों वाली पत्रिका “निकट” होती तो उसकी बिक्री भी धडल्ले से होती। चूंकि, मेरा उद्देश्य हिन्दी साहित्य में पठनीयता को गायब होने से बचाना है इसलिए मैं “निकट” को सिद्धान्तविहीन नहीं बना सकता। वक़्त लगेगा मगर यक़ीन है कि “निकट” को अपनी ज़मीन मिलेगी... मेरी अपनी मेहनत की कीमत क्या है, यह मैंने कभी सोचा ही नहीं... सोचा होता तो क्या साहित्य से रिश्ता जोड़ता... ...?
लेखन से कोई किसी को क्या देता है ? एक रचनाकार किसी को, या समय को क्या दे सकता है? मैं अपने जीवन-दर्शन, अपने अनुभवों से जो कुछ देता हूं वह कोई ज़रूरी नहीं कि सबका जीवन-दर्शन हो। मैं या कोई भी रचनाकार समाज को उसकी गन्दी नालियों में नाक तक डूबकर एक विचार भर दे सकता है... इससे अधिक मैं भी कुछ नहीं दे सकता...
कृष्ण बिहारी
... तो मैं ऊपर कह रहा था यदि आपकी आर्थिक परिस्तिथि ऐसी है कि आप 600/- रु दे सकते हों तो "निकट" के आजीवन सदस्य बने - साथ दिए गए लिंक से फ़ार्म डाउनलोड करें मित्रों तक भी पहुचाएं (१,२,३ वाले) और हिंदी साहित्य को बढावा देने में अपना योगदान कर डालें....

मित्र यदि आप ने "निकट" पढ़ी है तो मुझे उसकी अच्छाई बताने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि अच्छा लगेगा यदि आप खुद लेख के अंत में अपनी टिप्पणी में बता सकते हों. लेकिन जिन्होंने नहीं पढ़ी है उनके लिए ये लिंक है इससे "निकट" के पिछले अंक में प्रकाशित रचना/रचनाकारों की जानकारी मिल जाएगी.
आने वाला अंक के बारे में कृष्ण बिहारी जी ने बताया " निकट का अगला अंक "सतीश जमाली अंक" होगा. मुझे आपको सूचित करते हुये खुशी है कि इस अंक के सम्पादन का दायित्व लब्ध प्रतिष्ठित कथाकार और उपन्यासकार शिवमूर्ति ने बाखुशी स्वीकारा है".
अब, यदि आपकी आर्थिक परिस्तिथि ऐसी है कि... अच्छा पहले लेख पढ़ लें बाकी बाद में लिखता हूँ

लिखने से मुझे वह मिलता है जो आपको कभी नहीं मिला – कृष्ण बिहारी
लोग मुझसे पूछते हैं…
आपको लिखने से क्या मिलता है ?
कितना पैसा लेखन से कमाया है ?
पत्रिका बिकती है ?
हिन्दी कोई पढ़ता भी है ?
आप “निकट” कैसे और क्यों निकाल रहे हैं?
लेखन से आप किसी को क्या देते हैं ?
इस तरह के अनेक सवाल और भी है जो आए दिन कोई न कोई पूछता है। बिना सोचे ऐसे सवाल पूछे जाते हैं क्योंकि यदि सोचकर पूछे जाते तो इन सवालों के सरोकारों से ये लोग ज़रूर जुड़ते। जिन सवालों से आपका कोई सरोकार न हो उन्हें नहीं पूछना चाहिए। जैसे, किसी से उसका वेतन नहीं पूछा जाता। किसी महिला से उसकी उम्र नहीं पूछी जाती। ऐसे सवाल शालीन नहीं माने जाते। क्योंकि वेतन पूछकर कम होने पर आप उसे बढ़ा नहीं सकते और अधिक जानकर उसमें से कुछ पा नहीं सकते। फिर भी, मैंने सोचा कि इन प्रश्नों के उत्तर एक बार तो दे ही दूं...
तो तथाकथित मित्रो,
लिखने से मुझे वह मिलता है जो आपको कभी नहीं मिला। मुझे एक यातना मिलती है। उससे गुज़रना होता है और उस यातना में जो दुख-सुख है उससे आपका साबका कभी पड़ा नहीं। लिखने से मुझे असंतोष मिलता है और उस असंतोष को साधन मानकर मैं अपने लेखन की यात्रा को और आगे ले जाता हूं जहां अलग किस्म के असंतोष से फिर सामना होता है। यह एक तरह की मुठभेड़ है जो मैं करता चलता हूं। इस तरह मेरे जीवन में एक अनवरत निरन्तरता बनी रहती है। जीने का एक मकसद मिलता रहता है जो आपके पास नहीं है। मैं आप जैसे ख़तरनाक लोगों की सूची से बाहर हूं जो सुबह चुपचाप घर से बाहर निकलते हैं और उसी तरह शाम को चुपचाप अपने घर में घुस जाते हैं अगले दिन वही करने के लिए जिससे दुनिया को कुछ भी नहीं मिलता...
लेखन से मैंने अबतक पैसा नहीं कमाया है। यह मेरे जीविकोपार्जन से नहीं जुड़ा है। मैं अपनी इच्छा से अध्यापक हूं। हर काम को लाभ-हानि की दृष्टि से देखने वाला व्यक्ति मैं नहीं हूं। लेकिन यदि लेखन से पैसा मिलता है तो बुरा क्या है? मुझे कभी कुछ पैसा मिलता है, कभी नहीं मिलता। हां, पैसा देकर मैं नहीं छपता। आजतक ऐसा कभी नहीं हुआ कि पैसा देकर मैं कहीं छपा हूं। कुछ पत्रिकाएं पैसा देती हैं, कुछ नहीं देतीं। रही बात हिन्दी से कमाने-खाने की, तो मैं इसी भाषा का अध्यापक हूं। पिछले 31-32 साल से मैं इसी भाषा की ताक़त से अपना घर चला रहा हूं। यह अलग बात है कि कभी घनी- घना, कभी मुट्ठी चना, कभी वह भी मना की तर्ज, पर ज़िन्दगी के दिन काटे। हिन्दुस्तान के सरकारी विद्यालयों में अब वेतन बहुत अच्छा हो गया है लेकिन प्राइवेट स्कूलों में आज भी वही स्थिति है जिसे दयनीय और शोषण का शिकार कहा जाता है। मैं सन् 1979 में सरकारी स्कूल की अध्यापकी छोड़कर प्राइवेट स्कूल की नौकरी में हिन्दुस्तान में ही चला गया था। तब सरकारी स्कूलों में वेतन कम था। जहां मैं गया वहां अच्छा था। लेकिन वह सिक्किम प्रदेश का सबसे अच्छा विद्यालय था। उसका स्टेटस अलग था। लेकिन वहां भी एक समय ऐसा आया कि मेरे लिए काम कर पाना कठिन हो गया तब वह नौकरी भी छोड़ दी। यहां यह भी बता दूं कि भारत से बाहर यानी कि विदेश में भी भारतीय विद्यालयों में अध्यापक का वेतन अच्छा तो क्या, सन्तोषजनक भी नहीं है। टू मीट बोथ द एण्ड्स वाली स्थिति को हैण्ड टू माउथ ही जानें तो बेहतर है। प्राइवेट विद्यालय के मालिकों, ट्रस्टियों या बोर्ड ऑफ गवर्नर्स को इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि उनके शिक्षकों को एक स्तरीय जीवन जीने का पैसा मिले। क्यों ? इसलिए कि बेकारी बहुत है और काम पाने के इच्छुकों की संख्या अगणित है। तो, सच यह कि जिस नीयत से यह सवाल पूछा जाता है कि लेखन से मैंने कितना कमाया है, उसका उत्तर है कि जितना कमाया है वह आर्थिक मानदण्ड पर न के बराबर है और सामाजिकता के मानदण्ड पर आपकी सारी कमाई भी उसकी बराबरी नहीं कर सकती...
“निकट” को अबतक बेंचा नहीं है। अंक – 5 पहली बार लखनऊ, कानपुर और दिल्ली के अलावा भोपाल के कुछ बुक स्टाल्स पर रखा गया है। कानपुर रेलवे स्टेशन के एक बुक स्टाल पर भी “निकट” की कुछ प्रतियां रखवाई हैं। फिलहाल, योजना बनानी है कि पत्रिका बिके। लेकिन यहीं एक सवाल यह भी कि जिन लोगों तक “निकट” के पिछले चार अंक मैंने डाक खर्च या कोरियर का ख़र्चा उठाकर भेजा या भिजवाया है, उनमें से कुछ को छोड़कर सबने “निकट” ख़रीदने की इच्छा क्यों नहीं व्यक्त की? अगर 1000 पाठक भी “निकट” के आजीवन सदस्य बन जाएं तो मैं साल में चार अंक इतने अच्छे निकाल सकता हूं जो हिन्दी जगत् में उदाहरण बन सकते हैं। लेकिन क्या दुनिया में हिन्दी के 1000 समर्थ पाठक भी हैं ? मैंने समर्थ नहीं बल्कि समर्थ पाठक लिखा है। 121 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में जिसकी राजभाषा हिन्दी है और जिसके कई प्रदेशों में हिन्दी बोली जाती है, उसकी दयनीयता यह है कि उसमें 1000 समर्थ पाठक भी नहीं हैं। होते हुए भी नहीं हैं। क्यों नहीं हैं ? उत्तर स्पष्ट है- हिन्दी में पढ़ने की प्रवृत्ति मर रही है। खरीदकर पढ़ने की तो और भी। पत्रिका मैं एक जुनून के तहत निकाल रहा हूं। इससे पेट जिलाना मेरा मक़सद नहीं है। लेकिन घर फूंककर तमाशा देखने की इच्छा इतनी भी बलवती नहीं कि अपना आशियाना ही लुटा दूं। जिनको पत्रिकाएं मुफ़्त में भी देता हूं वे भी नहीं पढ़ते। यदि पढ़ते और अपनी प्रतिक्रिया देते तो पत्रिका में लगभग आठ दस पृष्ठ पत्रों पर ही आधारित होते। मैं एक लेखक की बात आपको बता रहा हूं जो शायद आज बहुसंख्य हिन्दी लेखकों की मानसिकता का प्रतिनिधित्व करती है। मैंने एक पत्रिका का नाम लेकर पूछा कि उसका नया अंक देखा? उत्तर था कि नए अंक में कुछ भी नहीं है। कवर टू कवर 100 पेज़ की हिन्दी की उस प्रतिष्ठित पत्रिका जिसमें छपना हर लेखक का छपने के बाद दुबारा छपना भी एक सपना है, उसके बारे में एक प्रतिष्ठित लेखक का ऐसा बयान! इसका कारण भी बता दूं। कारण यह कि पत्रिका के उस अंक में तथाकथित प्रतिष्ठित लेखक की लघुकथा नहीं है। बात साफ हो गई कि जिस पत्रिका में लेखक की रचना हो उसी में उसके लिए और हिन्दी साहित्य के लिए कुछ है अन्यथा उसमें कुछ नहीं है। दूसरी बात हिन्दी के अधिकांश लेखक पत्रिका में छपी अपनी रचना का ढोल पीटने के अलावा उसमें छपी अन्य रचनाओं को न तो पढ़ते हैं और न उनके बारे में जानते हैं। यह भी नहीं कि कम से कम वही अंक पूरा पढ़ लें जिनमें उनकी रचना है। ऐसा करके कम से कम वे अपने पर यह उपकार तो कर ही सकते हैं कि अद्यतन साहित्य से परिचय रखें। इस बदतर हाल के बावजूद कुछ पत्रिकाएं बिकती हैं। उन्हें खरीदकर पढ़नेवाले हैं। लेकिन खरीदकर पढ़नेवालों के बल पर पत्रिका निकालना कठिन ही नहीं, असम्भव भी है।
पत्रिका, कुछ सच्चे मित्रों और विज्ञापन की मदद से निकलती है। सच्चे मित्र भी कबतक मदद करेंगे ? और आप उनसे कबतक मदद मांगेगे? यदि ग्लासी पेपर पर अफवाहों और नंगी तसवीरों और नंगी ख़बरों वाली पत्रिका “निकट” होती तो उसकी बिक्री भी धडल्ले से होती। चूंकि, मेरा उद्देश्य हिन्दी साहित्य में पठनीयता को गायब होने से बचाना है इसलिए मैं “निकट” को सिद्धान्तविहीन नहीं बना सकता। वक़्त लगेगा मगर यक़ीन है कि “निकट” को अपनी ज़मीन मिलेगी... मेरी अपनी मेहनत की कीमत क्या है, यह मैंने कभी सोचा ही नहीं... सोचा होता तो क्या साहित्य से रिश्ता जोड़ता... ...?
लेखन से कोई किसी को क्या देता है ? एक रचनाकार किसी को, या समय को क्या दे सकता है? मैं अपने जीवन-दर्शन, अपने अनुभवों से जो कुछ देता हूं वह कोई ज़रूरी नहीं कि सबका जीवन-दर्शन हो। मैं या कोई भी रचनाकार समाज को उसकी गन्दी नालियों में नाक तक डूबकर एक विचार भर दे सकता है... इससे अधिक मैं भी कुछ नहीं दे सकता...
कृष्ण बिहारी


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