तमंचे पर डिस्को - प्रेम भारद्वाज | Prem Bhardwaj

तमंचे पर डिस्को
- प्रेम भारद्वाज

एक फिल्म है ‘बुलेट राजा’। उसके एक गीत की पंक्ति है, ‘तमंचे पर डिस्को।’ गाना लोकप्रिय और बाजारू है, लेकिन यह मुझे जमाने के फसाने की टैग लाइन मालूम होता है। आप सोच रहे होंगे, एक साहित्यिक पत्रिका का स्तर क्या इतना नीचे आ सकता है कि वह ‘तमंचे पर डिस्को’ टाइप के भौंड़े गीत के बहाने अपनी बात कहे। लेकिन क्या करूं यह पंक्ति मेरे भीतर कुलबुला रही है, तमंचे में भरी गोली की तरह छूटने को आतुर। और सामने वाले के सीने में धंसने, किसी का भेजा उड़ाने को व्यग्र।

आइए मेरे साथ, देखते हैं ‘तमंचे पर डिस्को’ में जमाने भर का रंग सिमटा हुआ है, मगर कैसे... जैसे नरेंद्र्र मोदी ने मुसलमानों का रहनुमा बनने का भरोसा मांगा है, जैसे जिद्दी अरविंद केजरीवाल ने अपनी सरकार कुर्बान की है, जैसे राहुल गांधी कलावती के बाद कुलियों के कष्ट से बावस्ता हो रहे हैं... जैसे मेधा पाटेकर ने चुनाव लड़ने का कठिन निर्णय लिया है, जैसे कवि-पत्रकार ने नेता की टोपी पहन ली है... जैसे तेलंगाना को देश का नया आंगन बना दिया गया है, जैसे पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को रिहा करने की जिद की गई है...।

राजधानी दिल्ली में एक ‘नाटक’ ‘उर्फ चाॅकलेट फ्रेंड्स’ में इसके युवा निर्देशक दिलीप गुप्ता और युवा कहानीकार शिवेंद्र चीखते हैं, ‘लौटने से बढ़कर कोई जादू नहीं होता।’ इन सबके बीच कहीं दूर एक शादीशुदा स्त्री परिवार की तमाम बंदिशों के बीच चांद पर जाने का सुनहरा ख्वाब पालती है। अंजाम-ए-मोहब्बत से बेपरवाह ‘प्रेम’ को जीना चाहती है।

यह सब कुछ ‘तमंचे पर डिस्को’ की तर्ज पर हो रहा है। आप नहीं मानते। मानना कठिन हो सकता है। लेकिन थोड़ा समझने की कोशिश करें। तमंचा मतलब क्या-- भय, सत्ता, शक्ति, मजबूरी, महत्वाकांक्षा, लोभ, मजा, सुरक्षा, उड़ान, पलायन, विस्थापन, विद्रोह। कभी खुशी तो कभी बेखुदी। तरह-तरह के तमंचे तने हुए हैं-- हर किसी की ओर। तने हुए तमंचे की तरह नाच भी किसिम-किसिम के हैं, पैसों के लिए नाच, जीने के लिए नाच, नाचने के लिए नाच, गम भूलने, शोहरत पाने,  मरने के लिए नाच...। नाच है मगर ‘नाच’ जैसा है, नाच नहीं। इजाडोरा डंकन, बिरजू महाराज, सोनल मानसिंह, सितारा देवी, माइकल जैक्सन का नाच नहीं है... जहां नाच एक जीवन है... जीवन से भी बढ़कर लार्जर दैन लाइफ। वहां नाच एक तपस्या है। एक संघर्ष, एक साधना... कुछ-कुछ रुहानी अंदाज में। पता नही किसी ने गौर किया या नहीं मगर नाच हमारे जीवन का जरूरी हिस्सा रहा है। वह बदलते जमाने के साथ बदला भी है। मिथकों की माने तो नाच देवलोक में रहा। इंद्र का हथियार रहा। मेनका के नृत्य से विश्वामित्र की तपस्या भंग हुई। शिव का तांडव नृत्य भी प्रसिद्ध है। नाच लोक में है। संगीत और परंपरा में है। नाच खेल है और खेल नाच है। हबीब तनवीर का ‘नाच’ नाटक है। उत्सवों में नाच है। नाच स्वर्ग और नर्क है, और इन दोनों के बीच है। उसका सबसे अश्लील रूप होटलों और डिस्कोथेक में है। वहां मजा है, मस्ती है, खुद को गर्क करने का नशीला अंदाज है? नाच देवलोक, और कोठे से फिसलकर डीजे, लेडीज संगीत, डिस्कोथेक तक पहुंच गया है, और जाहिर है न्यूड पार्टी और स्ट्रिप पार्टियों तक भी, जो इस देश में महज दो प्रतिशत लोगों का सच है, सच से ज्यादा सनसनी है, उत्तेजना है। उमराव जान अदा, पुतलीबाई और हीराबाई से लेकर बार डांसर्स तक। सबसे ज्यादा नाच जीवन में है। जिंदगी को जीने में। उसमें संतुलन कायम करने में है। अज्ञेय अपनी कविता में नाच को जीवन के तनाव से जोड़ते हैं :

मैं केवल उस खंभे से इस खंभे तक दौड़ता हूं
कि इस या उस खंभे से रस्सी खोल दूं
कि तनाव चुके और ढील में मुझे छुट्टी हो जाए
पर तनाव ढीलता नहीं
मैं इस खंभे से उस खंभे तक दौड़ता हूं 
पर तनाव वैसा ही बना रहता है
सब कुछ वैसा ही बना रहता है
और वही मेरा नाच है जिसे सब देखते हैं 
मुझे नहीं
रस्सी को नहीं
खंभे नहीं
रोशनी नहीं
तनाव भी नहीं
देखते हैं-- नाच

तनाव बरकरार है। तनाव ही नाच है। जो असल में नाच नहीं है। मगर हम सभी नाच रहे हैं। कोई न कोई तमंचा हमारी ओर तना हुआ है। वह तनाव पैदा करता है। हम नाचते हैं। लहूलुहान होकर गिरते-पड़ते हैं, मगर नाच रहे हैं। क्योंकि नाच ही हमारे जिंदा रहने की पहली अनिवार्य शर्त है। याद कीजिए ‘शोले’ में गब्बर का संवाद ‘अरे ओ सांभा लगा तो इस कुत्ते पर निशाना। देखो, छमिया जब तक तुम्हारे पांव चलेंगे तब तक यह तुम्हारा यार जिंदा है, पांव रुके, नाच बंद तो तुम्हारे यार की खोपड़िया उड़ जाएगी।’ और भय में बसंती नाचती है, नाचती जाती है। हम सभी भय में नाच रहे हैं।

दुनिया में सबसे बड़ा तमंचा अमेरिका का है। बाजार का है। पूंजी का है। अमेरिकी तमंचे पर पाकिस्तान नाचता है, इराक मिट जाता है, अफगानिस्तान फना हो जाता है। दुनिया में तकरीबन सवा सौ देश हैं जो अमेरिका के तमंचे पर डिस्को करने को मजबूर हैं। अमेरिकी मंशा है पूरी दुनिया उसके तमंचे पर डिस्को करे। उसका यह तमंचा हिटलर और मुसोलिनी से भी ज्यादा खतरनाक है। इस नए तमंचे के भय से मरते ज्यादा लोग हैं, लाशें कम बिछती हैं। इसकी खासियत यह है कि यह बिन चले भी इंसानों को मुर्दे में तब्दील कर देता है। इस तरह कई देश मुर्दापरस्त हो चुके हैं।

नए तमंचे के रूप और उसके मिजाज को कुछ नए विचारकों ने अपने तरीके से समझा है। तमंचा मायने ताकत। मिशेल फूको मानते हैं, ‘हर चीज का वजूद ताकत के संबंधों से जुड़ा हुआ है। सारा सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन शक्ति-संबंधों की एक जटिल संरचना से बना हुआ है।  शक्ति-तंत्र अपने खेल में हमें किसी जोर-जबरदस्ती से शामिल नहीं करता, हम खुशी-खुशी और निराश स्वचालित ढंग से उसकी इस व्यूह रचना का एक हिस्सा बने रहते हैं। शक्ति का यह तंत्र हमारे भीतर घुसकर अपना काम करता है।’

फेड्रिक जेमसन भी मानते हैं, ‘बाजार का फलसफा हमारे समय की सबसे निर्णायक लड़ाई का युद्धस्थल बन गया है। आज की सारी राजनीति ‘माइक्रो पाॅलिटिक्स’ बन गई है। शक्ति-संबंधों का खेल अलग-अलग समूह के विशेष हितों के बीच है। उपभोग की संस्कृति और टेक्नोलाॅजी की विरासत आज हमारे भीतर एक नए प्रकार के उदात्त भाव जगा रही है। बाजार में वस्तुओं के अतिरिक्त उपभोग के उन्माद और पागलपन में लिपटी हुई खुशहाली को यदि हम इस नए युग की उदात्तता कहते हैं तो इसके क्या मायने हैं। हमारे समय के समाज में पदार्थीकरण की प्रक्रिया ने शहरी जीवन की दिनचर्या में एक भयावह अलगाव को जन्म दिया है। मनुष्य इससे मुक्त होने के लिए छटपटाता है। उसकी यह छटपटाहट बाजार में एक खास तरह के व्यामोह में लिपटे उसके हर्षोन्माद में व्यक्त हो रही है। चारों तरपफ जैसे एक ‘हिस्टीरिया है।’ यही नाच है। तमंचे पर डिस्को है। मुक्ति की छटपटाहट नाच में तब्दील हो गई है। 

तमंचा कभी धर्म था। राजा था। समाज था। अब बाजार है। परिवार है। भूख है। प्यास है। महत्वाकांक्षा है। लोभ और भय के धातु से बना है यह तमंचा। लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो तमंचे पर डिस्को नहीं करते। वियतनाम ने नहीं किया। चे ग्वेरा, फिदेल कास्त्रो, यासिर अराफात और यहां तक कि सद्दाम हुसैन ने भी तमंचे को अंगूठा दिखा दिया। हमें बताया जा रहा है दुनिया तमंचों से चलती है। तुलसीदास का हवाला दिया जाता है, ‘भय बिन होई न प्रीति।’ बड़े तमंचे पर ता-ताथैया करने वालों ने भी अपनी औकात के हिसाब से खुद की कमर में एक छोटा-सा तमंचा लगा लिया है। अपने से कमतर लोगों पर तानने, उसे नचाने के वास्ते। दफ्तर में बाॅस के तमंचे पर दिन भर नाचने वाला ‘बाबू’ घर आकर बीवी और बच्चों पर तमंचा तान लेता है। इसे विरोधाभास या विडंबना में नहीं देखा जाना चाहिए। 

यह हमारे वर्तमान समय का सच है, हम एक ही साथ तमंचे पर नाचने वाले और खुद तमंचे हैं, दूसरों को नचाने वाले। हमें मान लेना चाहिए कि ढंग से जीना है तो बेढंग से ही सही मगर नाचना तो आना ही चाहिए। कामयाबी का एक ही फाॅमूला है, नाच। बढ़िया नाचो और आगे बढ़ो। टी.वी. पर युवाओं के साथ बच्चे नाच रहे हैं। अधेड़ माताएं नाच रही हैं। ‘नच बलिये नच’। लेकिन उन्हें नचाने वाला कोरियोग्राफर या चैनल हेड नहीं है। वह तो मोहरा भर है। नचाने वाला नटखट तो कोई और है जो अमूर्त है। दरअसल, बाजार और हमारी महत्वाकांक्षा हमें नचा रहे हैं और हम खुशी-खुशी नाच रहे हैं। किसी ने चांद पर बिस्तर बिछा लिया। किसी की बिस्तर की सलवटों में चांद पाने की मुड़ी-तुड़ी हांफती हसरत। यहां चांद काॅमन है, मगर हालात जुदा। बेखौफ प्रेमपूर्ण जीवन चांद पर होना है, जहां कोई तमंचा नहीं। वहां सिर्फ और सिर्फ खुशी का नाच है। बिस्तर का चांद रोज-ब-रोज घटता हुआ बहुत जल्द अपना वजूद खो देता है। नकली प्रेम, दुनियावी सुविधाएं और दिलकश फरेब से लबरेज सुरक्षा उत्तेजना के बिस्तर पर चांद की हत्या कर देती है। चांद पाने की चाहत देह के जंगल और बिस्तर की सलवटों से होकर नहीं गुजरती। चांद पर पहुंचने के बाद देह की दिव्यता रूह में प्यार का आलोक भरती है। लेकिन धरती पर चांद पाने की थकी चाहतें और धरती से चांद की ओर लगाई जाने वाली छलांग में आत्मा लहूलुहान होती है। चमड़े के ढीले पड़ने के साथ चांद की चाहत भी धुंधली पड़ जाती है। फिर एक दिन ऐसा आता है कि हम भूल जाते हैं, कभी कोई चांद था, कहीं कोई चाहत थी। चेहरे की झुर्रियों में फिर पछतावे का दर्द भटकता है। इस सृष्टि का सबसे खतरनाक तमंचा बिस्तर पर ही तनता है जिसे समझती तो पूरी दुनिया है, मगर तमंचे के तनाव को भुगतते सिर्फ दो ही लोग हैं। उसमें भी एक जो स्त्री है, बिस्तर की चादर है, चांद है, जहां पुरुष नील आर्मस्ट्रांग की तरह अपनी मिल्कियत का झंडा गाड़ना चाहता है। चांद पर कब्जा जमाने का भाव ही चांद को खत्म करना है। उड़ान भरने को आतुर कई बेचैन स्त्रियां फलैटों, घरों (कोठे) का नाच बंद कर चांद पर जाने की इच्छा से भरी हुई हैं। बस एक सच्चे साथी की तलाश है, बिना इस बात से आशंकित हुए कि नए साथी के पास ‘प्रेम’ का नरम-मुलायम तमंचा नहीं होगा? तमंचा तो तमंचा है, क्या नरम, क्या फौलादी? 

पूंजीवादी निजाम व्यक्ति को खंड-खंड कर और अपने इशारे पर ताथैया कराने पर आमादा है। हम सब एक शानदार जिंदगी की चाहतों से लबरेज और कुत्ते की मौत के बीच चांप दिए गए लोग हैं। काफ्का ने बहुत पहले लिख दिया था, ‘इंसान पर बहुत नियंत्राण है, उसकी सोच आजाद नहीं है। इंसान को यातना दी जा रही है।’ दिलचस्प बात है कि जिन्हें हम तमंचा मानते हैं, वे भी किसी अदृश्य तमंचे के निशाने पर हैं। तनाव में हैं। बेबसी में मुस्कुराए जा रहे हैं, हद तो यह है कि गाए जा रहे हैं, मसलन मीडिया। उसे इस समय का सबसे बड़ा तमंचा माना जाता है। मगर वह भी पूंजी, मुनाफे के गणित और टीआरपी के तमंचे पर कुछ का कुछ दिखाता और छापता है। तमंचे के तनाव के बीच कुछेक पत्रकार अगर सरोकार- संवेदना की बात को कह पा रहे हैं तो यह उनके कौशल से ज्यादा उनकी हिम्मत और हमारी किस्मत है। वर्ना संवेदना-सरोकार के सारे स्रोत सूख चुके हैं जबकि सूखे का कोई सरकारी एलान भी नहीं हुआ। इसके एवज में किसी मुआवजे की घोषणा की उम्मीद भी नहीं।

एक देश है भारत। अरबों लोगों का देश। उसका एक प्रधानमंत्री है जिसमें इतनी शराफत आई कि अश्लील हो गया। वह पिछले दशक भर से ‘लेडीज तमंचे’ पर नाच रहा है, जो ‘नाच’ भी नहीं है। कभी-कभी लगता है यह देश सिर्फ मानचित्र भर है जो लोकतंत्र की कील पर टंगा हुआ है और जो अमेरिकी आंधी में हिलता-डुलता है, जिसे इस देश की जनता नहीं बाजार और पूंजी हांकते हैं। देश के भीतर कई देश हैं। दल हैं, जो कबीले की तरह हैं। उनका एक सरदार है, हर सरदार एक तमंचा है और उसके सिर पर भी एक तमंचा है। तमंचों के आपसी रिश्तों और उनके ताने-बाने से ही यह देश चल रहा है। लोग नाच रहे हैं और नाच को जीवन मान रहे हैं। खुशी और जीवन का अभीष्ट समझ रहे हैं। 

समय और समाज में कुछ ऐसे भी हैं जो तमंचे के वजूद को ही सिरे से खारिज करते हैं। वे भय को नकारते हैं, खुद नाच हो जाते हैं और नाचते नहीं। ‘तमंचा’ ऐसे लोगों के भेजे को उड़ा देता है, कभी गोली चलाकर, कभी बिना गोली बर्बाद किए भी। हर पल जान हथेली पर लिए जाने वाले जज्बों से बड़ा दुनिया में कोई ताकतवर नहीं है। मौजूदा दौर में ऐसे तमंचे लुप्त होते जा रहे हैं, जरूरत है इन्हें बचाने की। हालांकि मैं इस खौलती हकीकत से वाकिफ हूं कि हर चीज, हर बात से बच निकलने के इस दौर में किसी से ‘बचाने’ की उम्मीद करना खुद को मिटाने की दिशा में पहला कदम है। हम जिंदगी के उस छोर पर धकेल दिए गए हैं जहां कराहती प्रार्थनाएं भी भीड़ में दम तोड़ रही हैं और चमत्कार हमारे जीवन का अंतिम सहारा बच गया है। मैं प्रार्थनाओं- चमत्कारों के इंद्रजाल से निकलकर सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि यह दुनिया ‘तमंचे पर डिस्को’ नहीं है। तमंचे और नाच के बीच की दूरी वह फासला है जहां सार्थकता और सुकून पाने के लिए इंसान का संघर्ष लगातार जारी है।

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2 टिप्पणियाँ

  1. KHOOB KHUL KAR LIKHA HAI PREM JI NE .PADH KAR ` TAMANCHE ` KEE
    SACHCHAAEE SE PARICHAY HUAA HAI .

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  2. बहुत ही समर्थ तरीके से आपने अपनी बात कही , सुन्दर , यथार्थ परक एवं करारा लेखन . बहुत बहुत बधाई ..
    www.kavineeraj.blogspot.in

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