आपदा भी अवसर है - सुशील सिद्धार्थ

सुशील केर चकल्लस – १

सच बात तो यह है कि इसी विशेषता के कारण अपना देश पूरी दुनिया में विशेष है। हम अवसर की तलाश में रहते हैं। मिलते ही काम पर लग जाते हैं और अवसर मिल गया। थी तो आपदा... मगर अवसर बन गयी। उत्तराखंड की भीषण आपदा में जब जाने कितने प्राण अटकते थे, तब बहुत सारे ज्ञानी अपनी चादर बिछा कर बैठ गए। उनमे  दारुण दक्षिणपंथी थे... विकट वामपंथी थे। व्याकुल बहसकार थे... सलाम और नमस्कार थे। सबने बना लिया आपदा को अवसर ! उन सबको पढ़ते सुनते हुए एक दोहा याद आता रहा –
ज्ञानी से ज्ञानी मिलै होय ज्ञान कै बात ।
गदहा से गदहा मिलै चलै भड़ाभड़ लात ।।

     सब को लगा कि बस मौका है। खोल लो सिध्दांतों के पुराने ग्रन्थ। निकाल लो तर्कों के बोसीदा हथियार। वामपंथ से जुड़े एक मित्र तो धर्म और समाज पर जुट गए। यह ज़रूरी है, मगर भाई समय देखो। कहीं आग लगी है और आप बुझाने के स्थान पर आग के पर्यायवाची रत रहे हैं। उनका मानना था कि गंगा को माँ कहा, अब भुगतो ! नदी कहते तो तबाही नहीं होती। मित्र ने इसमें मोदी निंदा का भी क्षेपक जोड़ दिया। मित्र सार्वजनिक रूप से ऐसे विश्वाश नहीं करते। वरना कह सकते थे कि मोदी को भाजपा ने आगे बढ़ाया तो परिणाम सामने हैं। इन मित्र का सूत्र कुछ दूसरों ने पकड़ा। बोले, पहले ये गिनो इनमे से कितने मंडलेश्वर, महंत, संत मरे। फिर उन्होंने कई किश्तों में उफनती नदी के किनारे धर्मनिरपेक्षता के शिविर लगाये।
अब दक्षिणपंथी दक्षिणा वसूल करने में कहाँ पीछे रहें। वे लोग गए चमत्कार की थ्योरी पर। बचा हुआ केदारनाथ जैसे ये प्रमाण बन गया कि भोले बाबा धरती पर हैं। किसी ने अमुक देवी का नाम लिया कि उनकी मूर्ति हटी तो दुर्घटना घटी।
कबीर होते तो कहते, अरे इन दोउन राह न पाई।

     राह पाई चैनलों ने। एकाध को छोड़ दें तो कई इस उत्साह में थे कि सबसे पहले की प्रतियोगिता जीत लें। यानी सबसे पहले उसी चैनल पर तबाही के दृश्य... सबसे पहले केदारनाथ का विलाप... सबसे पहले... ! तबाही के बाद सबसे पहले केदार मंदिर में हम। भाई “सबसे पहले” की सम्मान सहित ऐसी तैसी। आपदा में मर रहे लोग सबसे पहले हैं। उसके बाद बहस करने के शौकीन चैनलों को अवसर हाथ लगा। निरर्थकता का सौन्दर्य रचती बहसे। बहस करने वाला तथस्थ। बस अभिनव के प्रतिमान रचता। ब्रेक लेता और वाक्य पर वाक्य पटकता। अपना स्वार्थ सिद्ध हो रहा है –
आपनि घानी निकरी जाय ।
चाहे तेली का बैल मरि जाय ।।
     और उन पर बहसते राजनीतिक पार्टियों के आइन्दे नुमाइन्दे। कितना बढ़िया लगता जब ये लड़ते और एकता का प्रदर्शन करते। मोदी का लैंड न कर पाना और राहुल का लैंड कर जाना ही रास्ट्रीय प्रश्न बन गया। नुमाइन्दों को देख कर लगा ही नहीं कि ये उसी देश के बाशिंदे हैं। वाकई कुछ तोकेवल बाशिंदे हैं उनको नुमाइन्दे मान क्यों रहे हैं आप।

     चैनल के बाहर भी राजनीतिक पार्टियाँ आपदा का अवसर भुनाने में लगी रहीं। खूब भाड़ झोंका। फेंकू, पप्पू, बकवादी, लफ्फाज सब एक से बढ़ कर एक। उनकी रूचि कि पप्पू ने जान पर खेल कर केदार के तम्बू में समय बिताया। उनकी रूचि कि हम होते तो चौबीस घंटे में ठीक कर देते। कितना सुहावना लगा यह कौआरोर। पार्टियों ने मेरे विश्वाश की रक्षा की !

     सब आगे तो भांति भांति के कवि पीछे क्यों रहें ! फेसबुक पर एक संक्षिप्त बाढ़ सी आ गयी। कोई दोहा में बह रहा है कोई मुक्त छंद में उतरा रहा है। भाई अशोक कुमार पाण्डेय (ग्वालियर वाले) ने इस प्रवृत्ति पर आपत्ति की तो पड़ गए लोग पीछे। यह देश कितना महान है। सेना की ज़रूरत ही नहीं। खुदा न ख्वास्ता कभी युद्ध छिड़ जाये तो महाकाव्यों, गीतों व दोहाओं के साथ बेशुमार कवियों कवयित्रीयों को सरहद पर भेज देना चाहिए। दुश्मन सेना काव्यपाठ सुनकर मर जायेगी। तो आपदा को ललक कर अपनाया ऐसे रचना करों ने। दिनकर ने ऐसों के लिए ही कहा था –
समय असमय का तनिक न ध्यान, मोहिनी यह कैसा आहवान

     सर्वोपरि भुनाया अवसर वितरागियों ने जिन्होंने लाशों से भी गहने बटोरे। वितरागियों को जीवन मृत्यु से क्या मतलब। वैसे भी ऐसे कई वितरागी हैं जो व्यक्तियों को धार्मिक शव में बदलने में निपुण हैं। फिर उनसे धन वसूलते रहते हैं। अभी अभी मुझे एक सपना आया कि दलदल बाबा का दरबार लगा है। एक आदमी पूछ रहा है कि बाबा मेरे रिश्तेदार केदार की प्रलय में गुम हैं। क्या करें ! दलदल बाबा मुस्कुरा कर कह रहे हैं कि भई, ये बार बार समोसा क्यों सामने आ रहा है। आदमी हैरान हो कर कहता है गुमशुदा रिश्तेदार को समोसा पसंद है। बाबा मुस्कुराते हैं – “एक समोसा हरी चटनी से खा लो, एक लाल से। सब ठीक हो जायेगा।” आदमी भागा जा रहा है। मैं प्रसन्न हूँ। देश प्रगति पर है। आपदा ने बिहार में टूटे गठबंधन की ख़बरों का मलाल मिडियाकर्मियों को दिया। अवसर पा कर पेट्रोल के दाम बढ़ गए। लोग उत्तराखंड में व्यस्त थे और सरकार अपने आपदा प्रबंधन में। आपत्ति को सम्पत्ति की तरह लूटना राजनेताओं और नौकरशाहों से सीखना चाहिए।


२ जुलाई 1958, भीरा (सीतापुर) उत्तर प्रदेश में जन्मे डॉ० सुशील सिद्धार्थ ने अपनी पीएचडी (हिंदी साहित्य) लखनऊ विश्वविद्यालय से करी। सिद्धार्थ हिंदी साहित्य में एक जाने माने व्यंगकार, आलोचक और संपादक हैं।
संपर्क : मो० 098 6807 6182  ईमेल: sushilsiddharth@gmail.com   

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1 टिप्पणियाँ

  1. अपनी घानी निकली जायें,
    चाहें तैली को बैल मरी जायें.....
    हर जगह, हर मौकों पर सुशीलजी यहीं हो रहा हैं..
    हैरान हूँ कि इन अतिमतिअंधात्मवादियों का यहीं सुभाषितानी तो नहीं हैं, या इनके फैलनें का मूल मंत्र ...बहरहाल, साधुवाद.....!!!!

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