इन्दुमति सरकार
रेडि़यों के युववाणी चैनल में कविता-पाठ, पांचजन्य, आजकल, साहित्य अमृत, संस्कारम, महिला अधिकार अभियान, कादमिबनी तथा अन्य पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, कविताएं, लेख प्रकाशित।
मानव उत्सवप्रिय है... इसके द्वारा वह जीवन में आई जड़ता को तोड़ने का प्रयास करता है। होली, दीवाली हो या कोई भी अन्य त्यौहार हो वह बाजार की ओर रूख करता है। वहां से वह अपने घर को सजाने के लिए मिट्टी के लैम्पशेड, झूमर, मूर्तियां, गमले आदि खरीदता है, लेकिन दो मिनट रूककर क्या किसी ने उन जादूगरों के बारे में सोचा है, जो साधारण सी दिखने वाली मिट्टी को तराश कर इतना कलात्मक बना देते है, जैसे कि वह अभी बोल उठेगी। उनके बनाए जगमग जगमग करते दीए, हमारे घरों से अंधेरा दूर कर उजाले से भर देती है। किसी कवि की तरह ये कल्पना को उड़ान देते है और मिट्टी को आकार व जीवन देकर किसी नई नवेली माता की तरह गर्वित होते है। नई दिल्ली में ऐसे ही जादूगरों की कालोनी है। जिसे प्रजापति कालोनी या कुम्हार कालोनी कहा जाता है। इस कालोनी का इतिहास बहुत पुराना है। भारत-पाक विभाजन के समय से यह कालोनी बननी शुरू हुई थी। उस समय राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली के महावीर नगर, पांडव नगर, झंड़ेवालान से इक्के-दुक्के परिवार यहां आकर रहने लगे। धीरे-धीरे इनके नाते रिश्तेदार भी यहां आकर बस गए।
चीनी मिट्टी से बने बर्तनों की खोज में हम श्री हरिकिशन जी तक पहुंचे। इस कुम्हार कालोनी में ये ऐसे एकमात्र कुम्हार हैं जो सेरेमिक का काम जानते है। इनसे बात करने पर हमें पता चलता है कि ये इस कालोनी के मुखिया भी है। “दिल्ली ब्लू पोटरी” (जो अब स्टूडियो हो गया है) के सरदार गुरूचरण सिंह जापान से इस आर्ट को सीख कर आए थे। इस क्षेत्र में अपना उत्कृश्ट योगदान देने के लिए इन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। हरिकिशन जी ने इन्हीं से सेरेमिक के गुर सीखे। इसमें स्टोन पाउडर, फायर क्ले, क्वाटज, रेड पाउडर, बेरीयम कार्बोनेट धातुओं आदि का प्रयोग किया जाता है। चीन में मिलने वाली मिट्टी के विकल्प में भारत के पहाड़ी इलाकों जैसे महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, अहमदाबाद की सफेद मिटटी ली जाती है। इस मिटटी को साधारण भाषा में खडि़या मिट्टी कहते है। इन बर्तनों को साधारण बर्तनों की अपेक्षा अधिक तापमान (गैस की भटटी) में पकाया जाता है। जिससे इनका बहुत ही अलग रंग प्रस्फूटित होता है। गहरा पकाने से इसकी क्वालिटी व दाम में भी खासा फर्क आता है। इन बर्तनों को टैराकोटा में ग्लेज का नाम दिया गया है। पुरानी भाषा में इसे ग्लास चढ़ाना या कांच चढ़ाना भी कह सकते है। वे बताते हैं कि दसवीं के बाद बेहतर रोजगार की चाह इन्हें हरियाणा से दिल्ली खींच लाई थी। बर्तन बनाने की कला इन्हें अपने पिताजी से विरासत में मिली थी। दिल्ली में आकर इन को इस कालोनी का साथ मिला। जहां सभी कुम्हार मिलकर काम-धंधा करते हुए साथ रहते है। इससे रॉ-मेटेरियल मिलने में सुविधा हो जाती है।
अनीता लाल (गुडअर्थ की संचालिका) ने इस दिशा में एक क्रांतिकारी कदम उठाया और इस कुम्हार कालोनी में आकर कुछ कुम्हारों का एक समूह बनाया। लीक से हटकर कुछ करने की चाह में इन्होंने नए डिजाइन, आकार के बर्तन बनाए और त्रिवेणी आर्ट गैलरी में इसकी प्रदर्शनी लगाई। इसकी खूब सराहना भी की गई। टैराकोटा के विकास में दिल्ली क्राफ्ट काउन्सिल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कमला देवी चटोपाध्याय ने भी इस कला को दुलर्भ स्थानों से सरकार तक पहुंचाया है। उनके मरणोपरांत इंडिया क्राफ्ट काउन्सिल बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए कमला देवी चटोपाध्याय स्कोलरशिप देती है।
उत्तर भारत में टैराकोटा को बहुत प्रसार मिला है। इस कला को अधिक विस्तार देने के लिए टैराकोटा प्रशिक्षण केन्द्र भी बने है। इस कुम्हार कालोनी में इस समय नेशनल पुरस्कार, एन एम सी, स्टेट अवार्ड प्राप्त कर चुके लोग रहते हैं। इसके अलावा अनेक कुम्हार पुरस्कार लेने की कतार में है। राजस्थान के गिरीराज प्रसाद को नेशनल पुरस्कार व शिल्पगुरू पुरस्कार मिला है। स्वयं हरिकिशन जी भी नेशनल पुरस्कार विजेता है। उनके अनुसार इस कला को सरकार से जितना सपोर्ट मिलना चाहिए वह अभी भी नहीं मिला है। सिविल कोर्ट ने भट्टी से निकलने वाले धुएं के कारण बड़ी भट्टी लगाने की मनाही की है। इनकी मांग है कि जिस तरह गैस सिलेंडर की जगह पाइप लाइन की व्यवस्था की गई है, वैसी ही व्यवस्था इनके लिए भी की जाए।
चाक इन लोगों के लिए पूजनीय है। कुछ कुम्हारों की मान्यता है कि उनकी औरतों को चाक नहीं छूना चाहिए वे इसे अपशगुन मानते हैं। दीवाली के ग्यारह दिन बाद से ही विवाह आरम्भ हो जाते है। इसे देवउठनी ग्यारस कहते है। इस दिन ये कुम्हार हलवा-पूडी व अन्य मिष्ठान बनाकर शाम को चाक पूजन व भोग लगाते है। सच है कुम्हार का चाक चलता है तभी तो इस कालोनी के घरों में चूल्हा जलता है।
यहां के एक अन्य शिल्पकार श्री नरेन्द्र कुमार, जो कि राजस्थान (अल्वर) से है, बताते हैं कि बर्तन बनाने कि परंपरा उनके परिवार में आदिकाल से चली आ रही है। उनके दादा राजा मानसिंह के लिए मिट्टी के बड़े बड़े घड़े व बर्तन बनाते थे। वे भारत के बंटवारे से पहले यहां आए थे। पहले वह दो-दो महीने यहां आकर अपनी जीविका अर्जन करते थे फिर बाद में यही बस गए। नरेन्द्र कुमार जी अपना दुख व्यक्त करते हुए कहते हैं कि हम अपने दादाजी की परंपरा को आगे नहीं बढ़ा पा रहे है इसके कई कारण है। जैसे अच्छी मिट्टी का न मिल पाना। पहले उत्तम नगर के नाले के पास से अच्छी मिट्टी मिल जाया करती थी, लेकिन अब रिहाइश होने के कारण ऐसा नहीं हो पाता। पहले पत्थर का चाक हुआ करता था फिर मिट्टी का चाक आया। मेहनत ज्यादा व पैसा कम मिलता है, इसलिए हम बाहर से मिट्टी की बनी वस्तुएं खरीदकर इन्हें भी बेचते है। उनका कहना है कि लोग यहां से इन्हें गाडि़यों में भरकर ले जाते है। हर साल दुबई में एग्जीबिशन लगाने के लिए भी यहां से डिजायनर बर्तन व मूर्तियां ली जाती है, जिन्हें रंग भरकर प्रस्तुत किया जाता है। पहले बड़ी बड़ी कम्पनियां विदेश ले जाती थी। इससे मुनाफा कम होता था अब कई लोग सीधे अप्रोच कर रहे है।
इनके रहन सहन, खान पान में इनकी परंपराओं, संस्कृति की अनूठी छाप है। सर्दी में बाजरे की खिचड़ी, दाल चूरमा, हरा साग व गरमी में रावड़ी बनाते है, जिसे आटे और लस्सी को मिलाकर बनाया जाता है। ये कुछ कुछ हमारे घरों में बनने वाली कड़ी की तरह होता है। इसके अंदर घाट (भूनकर पीसा हुआ जौ) डाल कर पकाया जाता है। इन कुम्हारों के घर साधारण से होते है, जिनमें बहुत सारे लोग एक छोटी सी जगह में रहते भी है और बर्तन भी बनाते है। दूसरों के घरों के लिए साजो-सामान बनाने वाले इन शिल्पकारों के घरों में मिट्टी के सूखते बर्तनों के अलावा टेलीविजन सभी के घरों में होता है। इस कुम्हार कालोनी में देश विदेश से लोग मिट्टी के बने बर्तन खरीदने आते है। मशीनीकरण के इस युग में जहां हर दिशा में मशीनों ने इंसानों को पीछे छोड़ दिया है। वहीं ये कुम्हार अपने हुनर से इस अवधारणा को तोड़ते है। लोग मशीनमेड बर्तनों की अपेक्षा हस्तकला को पसंद करते है, क्योंकि उनमें सादगी व कलात्मकता है और सबसे बड़ी बात कि ये हमें हमारी संस्कृति से जुड़े होने का आभास देता है। इस कला को अधिक विस्तार देने के लिए टैराकोटा प्रषिक्षण केन्द्र भी बने है। टैराकोटा इसका प्राचीन नाम है जिसका उल्लेख किताबों में किया गया है।
राजस्थान से आए उमेद जी बताते है कि काली मिट्टी व पीली मिट्टी की अपेक्षा लाल मिट्टी में गर्मी सहन करने की क्षमता अधिक होती है। लेकिन साथ ही साथ ये चिकनी भी होती है इस चिकनाहट को रोकने के लिए पीली मिट्टी को मिलाया जाता है। ये बर्तनों को फटने से रोकता है। यह किसी स्वादिष्ट व्यंजन को बनाने की तरह है। इसमें काली मिट्टी, पीली मिट्टी, लाल मिट्टी को अनुपात में मथा जाता है। चाक पर मिट्टी को रखकर उसे आकार देकर सख्त किया जाता है। सफाई करने के बाद डिजायनींग व रीलिफ वर्क, इसके बाद की प्रक्रिया है। दही जमाने की हांडी, कुल्हड, परात, तवे, मूर्तियां, टेबिल आदि बनाया जाता है। हमारे घरों में तो रोटियां भी इन्हीं तवों पर सेंकी जाती है। इनकी छह वर्षीय बालिका मीना से ग्रामीण संस्कृति की बात करने पर वह कहती है, मुझे वहां की लहंगा चोली बहुत भाती है, कहते हुए वह ‘घूमर बन नाचूं’ गाते हुए नाच उठती है। नाचते हुए वह उस कठपुतली की तरह लग रही थी, जिसकी थोड़ी देर पहले उमेद जी ने हमसे बात करते हुए बनाया था।
दिल्ली जल बोर्ड, केन्द्रिय लोक निर्माण विभाग , लोक निर्माण विभाग जैसी सरकारी संस्थाएं भी सस्ते दामों में इनसे गमले, घड़े आदि खरीदते है। दिल्ली हाट, दस्तकारी हाट समीति, सूरजकुंड, गांधी शिल्प बाजार ने कला की मूलभावना को जीवंत रखते हुए बाजार दिया है। आज काम की आपाधापी में चाहे ये कुम्हार अपने गांव न जा पाते हो लेकिन वहां से आने वाली मिट्टी के जरीये ये अपनी पृश्ठभूमि से जुड़े हुए है। कुल मिलाकर कह सकते है, अपनी अद्भुत हस्त-शिल्पकला के बूते इन कुम्हारों ने दिल्ली के दिल में अपनी कालोनी बसाई हुई है।
1 टिप्पणियाँ
मूर्तिकारोँ की जीवन गाथा को आपने बखूबी सामने रखा है. प्रशँशनीय
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