कहानी: तमाशा - सुश्री कविता



कविता राकेश kavita rakesh lekhika writer लेखिका 15 अगस्त को बिहार के मुजफ्फरपुर में जन्मीं कविता की लेखन विधाओं में कहानी, उपन्यास, कविता, समीक्षा आदि शामिल हैं। युवा लेखिका कविता के अब तक तीन कहानी संग्रह - मेरी नाप के कपड़े (अमृतलाल नागर कहानी प्रतियोगिता पुरस्कार प्राप्त), उलटबाँसी, नदी जो अब भी बहती है; एक उपन्यास - मेरा पता कोई और है; इसके अलावा उनके संपादन में - मैं हंस नहीं पढ़ता, वह सुबह कभी तो आएगी (दोनों पुस्तवाला कें राजेंद्र यादव के लेखों का संकलन), अब वे वहाँ नहीं रहते ( राजेंद्र यादव, कमलेश्वर और मोहन राकेश के एक दूसरे को लिखे गए पत्रों का संकलन), जवाब दो विक्रमादित्य (राजेंद्र यादव के साक्षात्कारों का संकलन) प्रकाशित हो चुके हैं। 

  आजकल वो आधार प्रकाशन से प्रकाशित होने वाले अपने नए उपन्यास "चेहरे को अंतिम रूप दे रही है।

संपर्क एन. एच. 3/ सी-76, एन. टी. पी. सी. विंद्याचल, पोस्ट - विंद्यनगर, सिंगरौली, म. प्र.- 486885 | फोन 07509977020 | ई-मेल kavitarakesh@yahoo.co.uk
कविता के लेखन के बारे में सुना था लेकिन पढ़ा नहीं था। संयोग ये कि पढ़ाने का अवसर एक संपादक के तौर पर मिला। सबसे पहले तो प्रकाशन में हुई देर के लिए माफ़ी, कुछ व्यस्तता और कुछ वर्तनी आदि के सुधार में लगा वक़्त कारण बने इस देरी का।
     पिता-पुत्री के सम्बन्ध की मधुरता को बहुत अच्छे से कहती कहानी तमाशा ... लम्बी होने के बावजूद भटकी नहीं है... कहानी में अलग-अलग काल और परिवेशों के दृश्यों को इतने खूबसूरत तरीके से जोड़ कर प्रस्तुत करने के लिए कथाकार को मेरी बधाई
     कहानी पढ़ कर आप भी अपनी राय ज़रूर दीजियेगा... पहले भी यह कह चुका हूँ आज फ़िर, कि प्रतिक्रिया ही लेखक /संपादक का पारिश्रमिक होता है ... उन्हें उससे वंचित न रखें।

तमाशा    

कविता    


पहले तीन दिनों की तरह उस दिन भी तमाशा के शो के शुरु होने के पूर्व ही उसके सारे टिकट बिक चुके थे। पर आगे जो कुछ भी हुआ था वह पहले दिनों की तरह नहीं था.घेराबन्दी तीन तरफ से थी। आवाजें चहु दिश से घेरती, वार करती सी। वह कान बन्द कर लेना चाहती, नहीं सुनना चाहती कुछ भी। क्या इसी की खातिर उसने ज़िन्दगी के इतने बरस होम किये। अपना घर... अपने सुख...? यायावरों की तरह भटकती रही इत-उत। ब्च्ची मां के होते हुए भी टुअरों की तरह दिखती कभी-कभी।
     
     वह जब शो से लौटती सहेजने लगती सब कुछ, एक सिरे से, गृहस्थी, घर बच्चा। जैसे भरपाई करना चह रही हो अपने स्वप्नों - महत्वाकांक्षाओं की। वह भूल जाना चाहती एक सिरे से पिछला सबकुछ। तेज रोशनी, आवाज़ें, दर्शक, दर्शक-दीर्घा और अपना अभिनेत्री रूप। इससे थकान और-और गहराता, टूटन भी पर अदभुत विश्रांति भी वह इसी में पाती। वह अलग सी हो लेती। अपनी बच्ची की प्यारी मां, अपने घर के लिये बस एक अदद गृहिणी। गन्दे कपड़ों से जूझती, उन्हें साफ करती, तहाती, रखती। गर्मी-सर्दी के कपड़े छांट कर अलग करती। अच्छे और बेकार कपड़े अलग-अलग। रसोई चाक-चौबंद हो जाती.लेकिन फिर-फिर ऊबने लगती वह इन सब से; जैसे अभी तक वह एक सुघड़ गृहिणी का अभिनय कर रही थी। एक ही पात्र कब तक? और कितनी देर? उसे अलग-अलग चरित्र खींचने-बुलाने लगते अपनी तरफ हाथ हिला-हिला के। इतने आवेग से कि रुकना उसके लिये मुश्किल हो जाता।
     
     वह इस मुगालते में नहीं रहती थी कि नाटक करके वह समाज बदल रही है.वह खुद को बदलने के लिये, अपने मन्फेर के लिये नाटक करती थी और इतना तो जानती ही थी वह कि हमारे देखे-पढ़े-सुने में से कुछ-न-कुछ छूटा रह ही जाता है स्फुलिंग की तरह। कुछ बिल्कुल अनबीता सा। उसे पता तो था ही यह..।
     
     'तमाशा' उसके जीवन का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य, उसकी एक महत चहना-योजना। जिसके पीछे भागते हुये उसने अपने जीवन के कई स्वर्णिम वर्ष गंवा दिये थे। कई-कई खूबसूरत बरस; सपनों -रंगों से भरे बरस। पर उसे सपनों-रंगों के पीछे भगना भाया ही कब था। वह तो पीछा करती हुई भागती रही थी, उस सच का जो छली था, बहुरूपिया था सोने के मृग जैसा। वह फिर भी भागती रही उसके पीछे लगातार...
     
     पिता नाटक करते थे और मां मौका मिलते ही अपनी संगीत साधना में लीन हो लेती। लीन होते ही वह कुछ दूसरी-दूसरी सी दिखने लगती; उसकी हमेशा की प्यारी भोली-भाली, वात्सल्यमयी मां तो बिल्कुल भी नहीं। उस समय उनके चेहरे पर एक उजास होता। वह उजास की चौंध से घबड़ा जाती। फिर भी वह लपक उसे बांधती भी। वह मां को सुनती, बस सुनती रहती बगैर कुछ समझे-जाने। पिता के लिये यह सुविधा नहीं थी उसके पास। पिता अभिनय और घर को बिल्कुल अलग-अलग रखते और नीला को तो उससे कोसों दूर रखना चाहते। क्यों, नीला को यह पूछने का हक नही था और न पिता को कोई बताने की जरूरत।
     
     मां पिता के नाटक को तमाशा कहती और पूरे जोर दे कर कहती - " यह तमाशा नहीं तो और क्या है?" पिता हँस कर ग़ालिब का वह शेर दुहरा देते – “दुनिया मेरे आगे, होता है शबो रोज तमाशा मेरे आगे। तुम कुछ अलग क्या कह गई लक्ष्मी? यह दुनिया ही अपने आप में एक तमाशा है." और पिता के लिये मां का रियाज रिरियाना। मां आलाप लेतीं पिता स्टडी भीतर से बन्द कर लेते। उसे हैरत होती, दोनों कलाकार थे, पूरे तन-मन से कलाकार। कला के रस-रंग मे डूबे हुये। पर एक दूसरे की कला के लिये उनके मन में सहजता नहीं थी। सहजता नहीं थी तो सुहृदयता कैसे होती? उसे हैरत होती। वे दोनों साथ-साथ थे तो आखिर कैसे? हां अपने दुनियावी रिश्ते में वे पूरी तरह सहज थे; परिवार और अपनी जिम्मेवारियों के लिये तो और ज्यादा।
     
     वर्जना खींचती है अपनी तरफ, बांधती है लगाव की एक अलग डोर से। मां सहज प्राप्य थी, उसकी कला भी। नीला चाहते हुये भी नहीं बंध सकी उसके मोह से। पिता का आभामंडल उसे बेतरह खींचता। वह उम्र के उस सत्रहवें बरस में थी जब जिद सांस की तरह बसी होती है हम सबके भीतर। पिता को नाटक में उसी के उम्र की एक लड़की की तलाश थी। नाटक में काम करने वाली लड़की बीमार हो गई थी अचानक। कोई मिलती भी तो पिता के खांचे में फिट नहीं आती। बस दो दिन बचे थे। निर्देशक के लिये जीवन-मरण का प्रश्न। नीला जा खड़ी हुई थी उनके आगे। पिता फिर भी नहीं माने थे। नीला ने सत्याग्रह कर दिया था। वह कुछ खाई ही नहीं थी, उस पूरे दिन। मां ने कहा था मान लीजिये उसकी बात। उसे हैरत हुई थी। पिता फिर भी नहीं माने थे। धीरे-धीरे पिता को उसकी हठ के आगे झुकना पड़ा था। उसने बचे एक दिन में पूरा संवाद कंठस्थ कर लिया था; बचे वक्त में पिता जो-जो कहते, जिस-जिस तरह करते वह ठीक उनके अनुकरण में वैसा ही करके दिखाती; उसी आवेग, उसी त्वरा के साथ। पिता के हाथों की जैसे कठपुतली हो वह। पिता चकित थे, मां नहीं। वह कहती - मछली के बच्चे को तैरना सिखाने की जरूरत नहीं होती कृष्ण।
     
     पिता माने थे सिर्फ उस एक नाटक के लिये; आगे के लिये एक बड़ा सा पूर्णविराम। नीला जानती थी यहां इस विन्दु पर पूर्णविराम तो बिल्कुल नहीं। पूर्णविराम उसकी ज़िंदगी में कभी आयेगा ही नहीं उसे उस वक्त पता था या नहीं उसे ठीक-ठीक याद नहीं। पर एक लम्बी यात्रा पर चल चुकी थी वह उसी दिन, उसी पल।
     
     मन उसका चंचल था, बहुत चंचल। आवेग भी उतने ही सारे। किसी एक निर्णय पर, एक पड़ाव पर ठहरना, ठहर जाना बहुत ही मुश्किल.जैसे किसी लम्बी यात्रा पर निकली हो वह। भागती रही वह कभी पगडंडियों के सहारे। कभी चौड़ी चमकीली राहों पर। पर चौड़ी राहें भी शायद मृग्तृष्णा ही थीं। दो कदम चलो कि फिर वही टूटम-टाट। वही रोड़े-रुखड़े..।
     
     पिता का मन रखते हुये उसने विज्ञान संकाय में दाखिला ले लिया, पिता चाहते थे वह इंजीनियर बने। पर थोड़े दिन बाद ही उसका मन इन कक्षाओं से ऊबने लगा। सब के सब नीरस, घिसे -पिटे, बेकार... वह कला में दाखिला लेना चाहती थी। समाज विज्ञान, मनोविज्ञान, साहित्य सब के सब विषय उसे मन से जुडे लगते। मन के बहुत करीब। और सब से अच्छी बात तो यह है कि इन सबको पढ़ते हुये वह नाटक के लिये समय निकाल सकती थी; ये सारे विषय नाटक करने में सहायक ही सिद्ध होते वह जानती थी.पर यह बात वह पिता से कहती भी तो कैसे। पिता उससे एक नाटक में अभिनय करवाने के अपने निर्णय पर पछताये तो? वह तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं चाहती थी।
     
     उसने एक रास्ता निकाला था। वह जा कर अपने कालेज के प्रिंसीपल से मिली। उनसे अपनी सारी परेशानी बता कर यह अनुरोध किया था कि उसका विषय विज्ञान से बदल कर कला कर दिया जाय। यह पिता के साथ ज्यादती थी, वह जानती थी कि यह वह गलत कर रही है। पर कोई दूसरा विकल्प भी नहीं था उसके पास। प्रिंसीपल को इस में कोई परेशानी नहीं थी। उन्होंने इससे जुड़ी सारी प्रक्रिया को तुरत फुरत निबटा दिया। फिर उसके हाथ एक फार्म थमाया जिस पर पिता के हस्ताक्षर की आवश्यकता थी। वह परेशान हो उठी, बात तो फिर वहीं आ अटकी। वह फार्म उसके पर्स में घूम रहा था लगातार, ठीक हर पल उसके मन में चलते हुये उहापोह की तरह। उसने कला कक्षाओं में बैठना शुरु कर दिया था पर पिता से क्या कहे वह ? उस दिन वह सुबह की कक्षा से लौटी थी, पिता घर में ही थे। उन्होंने पूछा था - तुम इस वक्त? वे जानते थे विज्ञान की कक्षायें देर तक चलती हैं, उसने धीमे से कहा था - मैंने कला में एड्मिशन ले लिया है। " तो फार्म मुझे ला कर देना मैं हस्ताक्षर कर दूंगा." नीला इस जवाब से क्षण भर को चौंकी थी। पर उसने तुरंत ही कहा - "फार्म मेरे पर्स में ही है."
     "तो दो मुझे."
     
     वह हँसी थी इस तनावपूर्ण स्थिति में भी। विगत हमेशा उसके लिये वर्तमान को सहने के लायक बनाने वाला रहा है। खास कर पिता और पिता से जुड़ी स्मृतियां। अब सोचो तो अपने ही जीवन के ये पल किसी नाटक के दृश्य की तरह लगते हैं। वह तनावपूर्ण से तनावपूर्ण स्थितियों में भी पिता से सब कुछ कह जाती थी। और पिता से कह देने भर से जैसे सब कुछ सहज हो जाता, संभल जाता।
     
     पर आज पिता नहीं थे। दरवाजे के सामने भीड़ खड़ी थी हो-हल्ला, हंगामे और जुमलेबाजियों से भरी-भरी। पैसे वापसी के लिये पब्लिक की चिल्ल-पों थी। हाल का घबड़ाया हुआ मैनेजर बीच बीच में आकर उसे पुलिस के आने और उसके सुरक्षित निकल जाने का आश्वासन दे जा रहा था।
     
     उसने पिता से ही पूछना चाहा था कि आखिर गलती कहां हो गई थी उससे। पर से जवाब कहाँ मिलता। पिता जो नहीं थे उसके पास। सेक्यूरिटी गार्ड उसे पीछे के रास्ते से निकाल ले गये थे। बहुत आगे निगलने के बाद भी भीड़ की आवाजें उसका पीछा नहीं छोड़ रही थी। "तमाशा नर्तकियों का गुणगान छोड़ दो... भ्रष्टता का महिमा मंडन नहीं चलेगा... नीला देवी बाहर आओ, बाहर आओ-बाहर आओ। हमारे सवलों का जवाब दो, जवाब दो-जवाब दो..।
     
     वह रास्ते भर सोचती रही थी वे औरतें जो अपने परिवार की जिम्मेवारियों की खातिर इस पेशे में आई भ्रष्ट कैसे हो सकती हैं। और फिर इन लोगों को किसने यह अधिकार दे दिया कि ये तय करें कि कौन भ्रष्ट है और कौन पवित्र। नहीं उसने कुछ भी गलत नहीं किया। वो ऐसे लोगों की हरकतों को मन से कैसे लगा सकती है। वह किसी के आगे झुकेगी-डरेगी नहीं, उसे सुषमा याद आई, जिसके पिता और मां ने ही उसे तमाशा नर्तकी बनने को मजबूर किया था। कान्ता भी, जिसने अपनी बहन की शादी और भाई की पढ़ाई की खतिर इस काम को चुना था। जिसकी बीमारी के वक्त भी उसके परिवार का कोई उससे मिलने तक नहीं गया था। और जब ठीक हो कर वह अपनी मां से मिलने गई थी और यह कहा था कि उन लोगों के सुखों की खातिर ही उसने अपनी ज़िंदगी होम कर दी तो उसकी मां ने कठोरता से कह था - " हमने तो तुम्हें कभी ऐसा करने को नहीं कहा."
     
     विभा बाई जो बच्चा जनने के तुरन्त बाद प्रस्तुति के लिये उठ खड़ी हुई थी क्यों कि वह कांट्रैक्ट से बंधी हुई थी .। और वह सपना जिसका बच्चा स्टेज की अफरा-तफरी में किसे दूसरी नर्तकी के पैरों तले कुचल गया था... ऐसी औरतें... ये सब औरतें कुत्सित कैसे हो सकती हैं? क्या सिर्फ इसलिये कि विवाह न करने के नियम से बंधी हैं और फिर भी उनके जीवन में पुरुषों के होने की रोक नहीं है? वह सोच रही थी लगातार..।
     
     उसने अपने जीवन के पूरे सात वर्ष झोंक दिये थे, इस एक प्रस्तुति की स्क्रिप्ट लिखने और इसकी तैयारी में। शुरुआत में तमाशा थियेटरों के मालिक ही उसे भीतर जाने और बात करने देने से कतराते थे। लेकिन धीरे-धीरे वह उन्हें विश्वास दिला सकी कि वह उनका कोई इंटरव्यू नहीं करने जा रही। वह तो तमाशा पर सोध कर रही है कि उस्के खास शैली ढोलकी फड़ और संगीत बारी के बीच का अंतर जानने आई है। वह फिल्मों से प्रेरित और भ्रष्ट नृत्य नहीं बल्कि मूल 'लावणी' देखना चहते है। वह जानना चाहती है कि यह कैसे होता है।
     
     पूरे नौ महीने वह उन औरतों से सिर्फ लावणी पर ही बात करती रही थी, वे भी कभी भूले से भी अपने जीवन के बारे में कुछ नहीं कहतीं। हँसती-खेलती, बोलती-बतियाती रहती आपस में। उन्हें लगने लगा था नीला जैसे उनमें से ही एक हो। थियेटर मालिकों को भी अब उनसे कोई दिक्कत नहीं रह गई थी, उनका अंकुश भी कम होता गया था धीरे-धीरे। वह उनके साथ हर जगह जाने लगी थी। पूर्वभ्यास में हर जगह उनके साथ होती, उनका पकाया तीखा मसालेदार मांस शौक से खाती। उन्हें जरूरी सुझाव भी देती। धीरे-धीरे वे सहेलियों सी हो चली थी। सहेली जैसा उनका अनतरंग भी एक हो चला था धीरे-धीरे, अपने आप और बहुत गुप्चुप तरीके से.।
     
     कभी-कभी कहते वे - साथी पति तो नहीं होता न। पति आखिर कैसा होता होगा, बहुत अधिकार जताता होगा स्त्री पर। पर उसे आराम से रखता होगा घर में, रानी बनाकर। कितना सुख होता होगा इस में। ऐसा ही होता है क्या, वे नीला से पूछती। नीला चुप रह जाती। यह अधिकार जताना, यह घर की रानी बनाकर रखना सोचने में जितना सुंदर और सुहावना लगता हो, नीला जानती थी उस कैद की हकीकत। अभी-अभी तो अलग हुये थे सिद्धार्थ और वह। पर वह कहती कुछ भी नहीं। उनके पति नामक फैंटेसी को नहीं तोड़ना चहती थी वह ... या कि यह एक झूठा बहाना भर था यह? वे जब खुल गई थीं उससे फिर वह क्यों नहीं खुल पाती। उसका आभिजात्य, उसके संस्कार क्यों-क्यों बन्द कर देते हैं उसका मुंह। जबकि वह भी खुल कर कहना चहती है किसी से अपनी तकलीफ; किसी के कन्धे पर सिर रख के रो लेना चाहती है जी भर, और वह तो अभिनेत्री है स्वभाव से ही सबसे घुल-मिल, रच-बस जाने वाली...?
     
     घर सामने आ खड़ा हुआ था चुपचाप। गाड़ी भी इतनी बेआवाज़ रुकी थी कि चौंक उठी थी। अन्तरंग से बाहर आना, वह भी इतना अचानक..।
     
     उसने खाया नहीं था, पिता की डायरी निकाल ली थी चुपचाप। विश्वास के कितनी बार कहने के बावजूद, पिता के नहीं रहने के बाद से वह इन्हीं में ढूंढ़ती है पिता को... और अपने सवालों के जवाब... जैसे कि दादी ढूंढ़ती फिरती थी रामचरित मानस के रामशलाका में अपने हर प्रश्न का हल।
     
     वह क्रमवार पन्ने पलट रही थी - " यदि आप अपने अन्तःकरण की गहराई में डूब सकते हैं और तब अपने भीतर को बाहर आने दें, तभी एक राह बनती है जिस पर चलकर आप लोगों के अर्धचेतन से संपर्क कर उसके मन के भीतर उतर सकते हैं... और तब आप जो भी कह या समझ रहे हैं, लोग उस तक बेरोक-टोक, बेझिझक पहुंचेंगे।
     
     " नाट्यशास्त्र कहता है, अभिनेता एक पात्र है, पात्र का अर्थ बर्तन भी होता है। पात्र खाली होता है तब ही बाहरी चीजें उसमें समा सकें। अभिनेता को भी खाली होना होता है, रिक्त करना होता है अपने मैं को। इसके लिये मुक्ति ठीक-ठीक शब्द है या नहीं मैं तय नहीं कर पा रहा। खाली होने के बाद पुनः स्वयं को भरना और भरे जाने के बाद उलीच देना...." वह परेशान थी। यहां पिता थे, उनकी बातें भी थी पर वह नहीं था, जिसकी तलाश थी उसे इस वक्त। वह पन्ने पलट रही थी जहां-तहां से। फिर भी उसे कुछ ऐसा नहीं मिल रहा था, जिसमें तलाश ले वह अपने प्रश्नों के उत्तर। ऐसा पहली बार हुआ था।
     
     सबको पता था उदास है वह आज। सब जान रहे थे, आज क्या हुआ है उसके साथ। फिर भी किसी ने न उससे कुछ पूछा, न उसने कुछ बताया। उसे जबरन खाने की मेज पर ला बैठाया गया था। वे कह-सुन रहे थे कोई दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवीं बातें। विश्वास के उसकी ज़िंदगी मे आने के पूर्व उसे हमेशा यह लगता था कि घर और काम दोनों दो ध्रुव होते हैं, बल्कि उससे भी ज्यादा दो समानान्तर रेखायें जिनका मिलना असंभव है कहीं भी। वह दुखी होती इस बावत तो पिता से कहती भी। पिता हमेशा समझाते - पुरुष और स्त्री के लालन-पालन में फर्क होता है, उनके विकासक्रम में भी। पुरुष एक समय मे एक ही काम पर ध्यान लगा सकता है बल्कि स्त्रियां बचपन से ही एक ही समय में कई बातें सोचती और कई काम करती हैं। उनके पास काम ज्यादा होता है इसलिये वक्त की कमी होती है। अतः उनके लिये यह तरीका जायज भी है। तुम मुझे और अपनी मां को ही देख लो। वह घर भी चलाती है, स्कूल में पढ़ाती भी है और अपनी गायकी को भी नहीं छोड़ा। इसी बीच तुम्हें भी पाल-पोस कर बड़ा किया और वह भी बड़े मनोयोग से। जबकि मैं सिर्फ अपने अभिनय में जुटा रहा। हो सकता है एक ही काम को हम मर्द जिस परफेक्शन से कर पाते हैं तुम नहीं कर पाओ, कुछ त्रुटियां रह ही जाये कहीं न कहीं। पर वो इतनी बड़ी कमियां भी नहीं होती जिससे कोई अनर्थ हो जाये या जिसे सुधारा नहीं जा सके। घर और काम दो समानान्तर रेखायें होती होंगी पर चाहने से क्या नहीं हो सकता। प्रयास करो नीला ये रेखायें भी आपस मे कहीं मिलेंगी जरूर। पिता कहते रहे और मैं प्रयास करती रही। प्रयास की नाकामियां मेरे चेहरे पर जरूर निराशा बनकर उभरती होंगी। पिता भांप रहे थे सब कुछ।
     
     उन्होंने उसे पास बैठाया था एक दिन - " तुमने विज्ञान पढ़ना क्यों छोड़ा था अचानक ...?"
     " मुझे लगा मैंने अपने दवाब में यह निर्णय लिया था और वह मुझे रास नहीं आ रहा."
     "फिर पत्रकारिता..?"
     " उस वक्त मुझे लगा था कि मैं अपने भीतर की बेचैनी और खोज को इस तरह अभिव्यक्ति दे पाउंगी और मुझे शांति भी मिलती थी उसे करने से। स्त्री जीवन के कितने मसले, सुधारगृहों में उनकी हालत, नव वधुओं को जलाया जाना, विधवाओं की हालत पर मेरे लेख सराहे भी गये थे..."
     "फिर...?"
     "मैं उस दिन नव वधुओं को जलाये जाने वाले लेख के सिलसिले में 'बर्न वार्ड' गई थी। वहं पति और सास द्वारा जलाई गई एक लड़की, जो 90% जली हुई थी मिली थी। वह उस हाल में भी उन लोगों के खिलाफ मुंह खोलने को तैयार नहीं थी क्योंकि उसके दो बच्चे थे जिन्हें उसी परिवार में रहना था क्योंकि उसके मायके मे सिवाय भाई-भाभी के और कोई नहीं और उन्हें उनके बच्चों में कोई दिल्चस्पी नहीं थी..." नीला चुप हो गई थी कुछ देर को और पिता ने भी नहीं कुछ कहा था इस बीच... " एक और औरत थी वहां जो गर्भ से थी डाक्टर ने उसके परिवारवालों से कहा था वह तो नहीं बच सकती हां यदि वे चाहें तो बच्चे को बचाने की कोशिइश कर सकते हैं वे। वह औरत बार-बार अपने पति से रो-रो कर बच्चे को बचाने के गुहार करती रही उसने यह भी कहा कि चाहो तो मेरे बाद दूसरी शादी कर लेना लिकिन उस आद्मी ने अकेले मे डाक्टर से... मैं बिल्कुल अवाक थी, मेरे रोंगटे खड़े हो गये थे.। एक मासूम के लिये मन में इतनी दुर्भावना... बहुत दिनों तक मैं वार्ड, जले हुये मांस, दवाओं और सड़न को मह्सूस करती रही। उसपर लेख लिखा कालेज में कुछ स्लाइड शो भी किये.। प्रशंसा और अवार्ड मिले लेकिन वह गन्ध, वे आवाजें मेरे चारों तरफ भटकती रहीं, मुझे हर पल लगता रहा कि मैं उनके भीतर की पीड़ा को उनके दर्द को ठीक-ठीक अभियक्त नहीं कर पा रही। मैने केवल प्रशंसा और सराहना भर नहीं चाही थी.। मैण कुछ और चाहती थी..."
     "फिर..?"
     "फिर लगा सब बेकार है और मैं नाटकों तक लौट आई। मुझे लगा अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम यही है मेरे लिये... लेकिन लगता है सब कुछ बेकार चला गया... सारी मेहनत जाया हो गई.."
     पिता मित्र हो चले थे - " इस तरह कुछ भी बेकार नहीं होता नीला.। तुम्हारे अभिनय मे तुम्हारी पूरी यात्रा बोलती है... कभी मैं तुम्हारे अभिनय में आने के निर्णय के खिलाफ था लेकिन आज एक तुम पर गर्व है मुझे.। और अगर कुछ गलत हो जाये, बिगड़ जाये तो उसे सुधारना समझ्दारी है न? तुमने तो हमेशा अप्ने निर्णयों पर सोचा है, तौला है उन्हें..."
     नीला चुप थी, चुप ही रही..।
     सिद्धार्थ के साथ अप्नी ज़िन्दगि केबारे में क्या सोचा है तुमने?
     मुश्किल है पापा, बहुत मुश्किल पर जीना तो होगा न? यह फैसला तो मैंने ही लिया था ना... शायद नाटक छोड़ना पड़े..।
     सिर्फ़ तुमने खुद फैसला लिया था इसलिये? तू नाटक छोड़ कर जी पायेगी? खुद को और कितना सजा दोगी नीला?
     पर चारा भी क्या है?
     उपाय है नीला, तू खुद सोच... फिर निर्णय ले...शान्त मन से... मन जो कहे... हमेशा की तरह।
     
     और विश्वास को पा कर लगा पिता सही थे... और उनका निर्णय भी... यह विश्वास के साथ ही जाना कि घर और काम जिसे वह अब तक दो समानान्तर रेखायें समझती थी, कहीं मिल भी सकती हैं, कि ठीक ही कहते थे पिता उस दिन। वह रसोई बनाते-बनाते दिमाग में नाटक को चलने देती। बाहर आती रसोई से तो रसोई के ही कुछ उपकरण साथ लेती आती और अभ्यास-कक्ष के फर्श पर उन्हें यहां-वहां छोड़ देती। वे ही छोटे-छोटे उपकरण सह्योगी से हो जाते उसके, रूप-भाव बदल-बदल कर।
     
     वह मां बनने को आई...अब नाटक नहीं कर सकती थी। विश्वास फिर भी उसे रिहर्सल में ले जाते, कई बार सेट पर भी। कभी वह संवाद को बेहतर करती तो कभी सेट का डिजाईन तय करती। वे बातें करते लगातार नाटकों की, रात को देर-देर तक जाग कर। विश्वास ने उसे लगने ही नहीं दिया कि उसका वास्ता नाटकों से अभी नहीं है। ऊजाला भी बहुत सब्र वाली बच्ची निकली। बिल्कुल भी शैतान नहीं। घंटों सोती वह। जगी भी हो तो काम करते, रिहर्सल करते उसे टुकुर-टुकुर देखती रहती। उसे लगता मां को वह ऐसे ही देखती होगी छोटे मे।
     
     नाटक जब सिर चढ़ कर बोलने लगते वह उजाला को दिन में सोने नहीं देती, खेलती रहती उससे भर दुपहरिया, कि दिन भर की थकी वह शाम को जल्दी सो जाये। होता भी ठीक वैसा ही, फिर वह शाम कि रिहर्सल में लग जाती, जहां सिवा विश्वास के किसी और को इजाजत नहीं थी। एकान्त में ही नीला पूर्णतः सजग हो पाती, डूब पाती अपने काम में। एक पत्रकार, नाटककार, अभिनेत्री और निर्देशक के तौर पर अपने काम को अलग-अलग दृष्टि से देखती, जज कर पाती वह। वह दर्शकों से संवाद स्थापित कर रही होती कि अचानक उसके भीतर के पत्रकार को लगता कि यहां तो नाटक के सौंदर्यबोध की बलि चढ़ गई। लेखक को कोई दृश्य जंच जाता लेकिन निर्देशक को वही अंश संरचना की दृष्टि से सबसे कमजोर लगता फलतः ... इसीलिये वह नहीं चाहते थी कि इस पूरी प्रक्रिया में कोई और उसके सामने या साथ हो, विश्वास उससे अलग नहीं थे।
     
     उसकी रचना प्रक्रिया के इस अजब-गजब ढंग को देख कर विश्वास कभी-कभी उसे खिजाने के लिये कहते वह जो कर रही है वह क्या है? समाज-विज्ञानी, पत्रकार या फिर निर्देशक या अभिनेत्री का काम? वह गर्व से पर कुछ मजाक का पुट लिये हुये कहती - थियेटर पत्रकारिता।
     
     विश्वास ने उसकी तरफ चादर बढ़ाया था, पानी का गिलास भी। सोते वक्त उसे पानी पीने की आदत थी... वह मुस्कुराई थी... सुबह नाश्ते के टेबल से अखबार गायब थी। उसने ढूंढ़ा चारों तरफ पर वह न मिलने वाला था, न मिला। जरूर विश्वास ने ही हटाया होगा। वे नहीं चाहते होंगे कल रात की घटना पर छपी अजीबो-गरीब खबरें उसे परेशान या उद्वेलित करें।
     
     विश्वास चले गये थे, उनका बिछावन ठीक करते वक्त, चादर के ठीक नीचे उसे अखबार मिल गया। अखबारों में छपा उसकी सोच से बहुत-बहुत ज्यादा था। वह तो सिर्फ... पर यहां तो राष्ट्रिय महिला आयोग और मानवाधिकार आयोग के अधिकारियों के भी वक्तव्य थे। हद तक चौंकाऊ और विस्फोटक... महिला आयोग की अध्यक्ष का वक्तव्य था - " अभिनय एक सशक्त माध्यम है, समाज को सही-गलत की पहचान करवाने के लिये। नीला पंडित बतायेंगी कि वो तमाशा की सताई हुई और दुखियारी महिलाओं के दुःखों का महिमामंडन करके महिलाओं और समाज के सामने कौन सा दृष्टांत पेश कर रही हैं? मानवाधिकार वालों ने कहा था कि ऐसी अमानवीय घटनाओं का चित्रांकन या अभिनय भी उसी हद तक अमानवीय कहा जायेगा। सच्चाई के नाम पर किसी घटना या दृष्य का वैसा ही चित्रण उस पूरी कौम, समुदाय और व्यक्ति-विशेष के अधिकारों का उल्लंघन है। क्या नीला पंडित के पास तमाशा थियेटर के मालिक या फिर उन महिलाओं के द्वारा दिये गये अनुमति पत्र है? क्षण भर के लिये नीला का विश्वास अपने आप से डगमगाने लगा था। अपने उद्देश्य, कृति और रचनाकर्म से भी। वह उन लोगों का विरोध कर सकती थी पर इनका... तीनों एक ही नाटक के सम्बन्ध में तीन बातें कहते हैं, तीनों एक साथ सही कैसे हो सकती हैं? नीला की बेचैनी और ज्यादा बढ़ गई थी और विश्वास भी ऐसे में उसे छोड़ कर अकेले चले गये थे। उसे इस तरह अकेली छोड़ कर कैसे जा सकते हैं वह? खुद से ही पूछ रही थी वह..।
     
     फोन की घंटी बजी थी, उधर विश्वास ही थे - नीला घबड़ाना बिल्कुल नहीं, मैं शो तक आ जाऊंगा। किसी जरूरी काम से निकलना पड़ा अचानक मुझे। डी। आई.जी। मनोहर राजन ने भी कहा है - नीला जी निश्चिंत रहें.। फोन की घंटी फिर-फिर बजी थी... उधर हाल का मैनेजर था, सुरक्षा इंतजाम पुख्ता हैं, महौल जल्दी ही ठीक हो जायेगा, वे चिंतित न हों।
     
     तीन दिन बीत चुके थे, आश्वासनों और ऊहापोह के बीच कुछ संभल नहीं सका था। हां! संभलने और सुलझने की आशा जरूर जताई जा रही थी। नीला करे भी तो क्या उसकी समझ में बिल्कुल नहीं आ रहा था। रिहर्सल में मन अब बिल्कुल नहीं लगता और ऐसे में नया कुछ करने का दिमाग में आ ही कैसे सकता था। वह बैठी-बैठी बस पुराने दिनों को याद करती रहती। अभी उसे याद आ रह था पिता के साथ किये गये नाटक के बाद का पहला नाटक। पिता को उसने इसकी भनक तक नहीं लगने दी थी। नाटक दहेज-प्रथा से संबंधित था। कालेज भले ही सह-शिक्षावाला हो पर लड़कियां इनी-गिनी ही थी उसकी कक्षा में। नाटक में काम करने वाली भी अमूमन लड़कियां ही थी। लड़कों को जैसे इस विषय से ही अरुचि थी। वे ठाने बैठे थे नाटक को नहीं होने देना है। इधर नाटक शुरु हुआ उधर शोर-गुल। उसकी आवाज उनके प्रायोजित शोर-गुल में जैसे गुम होती जा रही थी। उन्होंने जोर-जोर से बोलना शुरु किया वे और जोर-जोर से हूट करने लगे थे। उसने उधर ध्यान देना बन्द कर अपनी आवाज़ कि बुलन्दी बनाये रखी। उनकी आवाज़ उसकी आवाज़ दबाने के प्रयास में तेज, तेज और तेजतर होती जा रही थी। वे सिर्फ़ उसे हूट ही नहीं भयभीत भी करना चाह रहे थे उनकी आवाज़ें बेहूदी और गन्दी होती जा रही थी.। उसको लग रहा था, चीख-चीख कर अभिनय का बंटाधार किये दे रही होंगी। नाटक लगभग आधे पर आ पहुंचा था जब उनके बीच से ही कोई आवाज़ उठी थी - "बहुत हुआ, अब चुप करो... कुछ सुनने भी दो यार." फिर इस आवाज़ के सहयोग और प्रभाव में कुछ आवाज़ें और साथ आ मिली। उनकी आवाज़ें दबती-दबते कम हो चली थी। उसको लगा उसकी जीत हुई थी। .। चाहे तो कोई इसे उसकी सोच का बचकानापन कह सकता है।
     उस दिन नाटक खत्म होते ही पिता बैक स्टेज तक आये थे और उसे गले लगा लिया था। हां वह देख नहीं सकती थी, पिता हाल में कहीं पीछे के कतार में बैठे थे, उन्होंने लोगों ने इस नाटक के विषय मे सूचित कर दिया था।
     
     उसका भय जाता रहा था। उसने पिता से रास्ते में पूछा था - " पहले आप मेरे नाटकों मे आने का विरोध इस तरह क्यों करते रहे थे? मां अक्सर कहती मुझसे “तुम्हारे पिता भी अन्य फिल्म और नाटक वालों की तरह इस ग्रंथि से पीड़ित हैं कि यह क्षेत्र औरतों के लिये सुरक्षित नहीं है और इसीलिये वे अपने परिवार की किसी स्त्री को इस क्षेत्र में आने नहीं देना चाहते.” पिता हँस दिये थे - हमेशा की तरह एक संक्षिप्त पर प्यारी हँसी। उस हँसी से उसका दुस्साहस और बढ़ा था... और मेरी तो हिम्मत ही टूट जाती थी। आप मना कर रहे हैं, मतलब जरूर कोई गहरी बात है... आप जो स्वयं नाटकों के दीवाने हैं ... उन्होने हँस कर कहा था - " मैं विरोध नहीं कर रहा था, मैं तो तुम्हारी हिम्मत और ताकत परखना चाह रहा था। मैं चाहता था, तुम्हारे भीतर इसके लिये ललक हो, पैशन हो और अगर तुम इसे अपनाओ तो अपनी इच्छा से अपनाओ, बस..."
     
     क्षण भर को उनका स्वर मजाकिया हो उठा था। तुम्हारी मम्मी नहीं समझ सकेंगी मेरे मन की बात.। उनके पास मेरा जितना दिमाग जो नहीं। मैं इतने जोर से प्रतिरोध करता था कि तुम मेरी तरफ खिंचो... अपनी मां के तरह रिरियाने में अपना मन न रमा दो... उसने दुलार में पिता के कन्धे को पकड़ कर झुलाया था, यह गलत बात है पापा, मैं मां को बता दूँगी यह सब। .। मां के लिये ऐसी बात करना अच्छी बात नहीं। क्षण भर के मजाक के बाद पिता पुनः गंभीर हो गये थे.। मैं तुम्हरी इच्छाशक्ति और जीवटता से प्रभावित हूं। आज तुमने जम कर हिम्मत दिखाई। बहुत कुछ युद्ध जैसी। ... नुक्कड़ नाटकों मे भी ऐसा ही होता है, आप उनकी इच्छा से नहीं होते, टिकट खरीद कर नहीं देख रहे होते। आप परिहार्य हैं इतने से ही बहुत फर्क पड़ जाता है। आपको अपने अभिनय से बांधना होता है उन्हें, खींचना होता है अपनी तरफ, मुझे देखो - मैं आश्वासन देता हूं, वह आपको रुचिकर लगेगा, निराश नहीं होंगे आप...पहले से दूसरे नाटक के बीच पुनः डेढ़ साल का अन्तर था। यह चुप्पी नहीं थी। अगला स्क्रिप्ट उसने बलात्कार पर लिखा। पर केन्द्र में बलात्कार न होकर उसका कानून था। उसने वो सारे तरीके इकट्ठे किये जिसमें बलात्कार दिखाये बगैर भी बलात्कार का इम्पैक्ट पैदा हो। इस बार मुकाबला कालेजों के बीच था। कल के विरोध करनेवाले साथी आज उसका मनोबल बढ़ा रहे थे। यह एक छोटी पर लम्बी यात्रा थी। प्रदर्शन के वक्त घनी चुप्पी थी, तनाव और शांति से भरी चुप्पी। पिता ने इस बार उससे कहा था “अब तुम हमारे साथ काम करने लायक हो चुकी हो। मैं इस दिन का कब से इंतजार कर रहा था। आज वह दिन आखिर आ ही गया। मेरे पास एक स्क्रिप्ट है, क्या तुम मेरे साथ काम करना पसन्द करोगी?”
     
     पूरे तीन दिन नाटक का मंचन बाधित रहा और तीनों दिन वह पिता तक, उनकी स्मृतियों के सहारे लौटती रही ... सिर्फ इसलिये की उसके प्रश्नों का, ऊहापोहों का हल यहीं कहीं हो। यहां तक पहुंचते-पहुंचते उसे यह विश्वास होने लगा था, वह सही जगह आ पहुंची है, न जाने क्यों..।
     
     वह मंटो के 'खोल' दो कहानी का नाट्यांतर था। उसने पिता की दी पूरी स्क्रिप्ट पढ़ ली थी। पिता ने आखिर यही स्क्रिप्ट क्यों चुना उसके लिये? पढ़ कर जैसे भीतर तक हिली हुई थी वह। इस बीच पूरे तीन दिन बीत चुके थे। चौथे दिन पिता ने पूछा था - तुमने स्क्रिप्ट पढ़ ली? उसने चुपके से सिर हिलाया था - हां....कैसी लगी?... उसके पास जैसे शब्द नहीं थे... वह चुप ही रही... क्या समझा उससे?... वह खुद को बटोर कर बोलने के कोशिश कर रही थी... स्त्री की त्रासदी... उसका हर हाल मे रौंदा जाना... देश.। काल ...धर्म के नाम पर .। उसके जुबान से शब्द जैसे रुक-रुक कर निकल रहे थे, अटक-अटक कर। वह जैसे स्वयं को अभिव्यक्ति ही नहीं दे पा रही थी, 'वह' जो स्वयं को अभिनेत्री कहलाने का, होने का दंभ पलती है..।
     
     पिता मुलायम हुये थे - इतना ही नहीं बेटा, सिर्फ इतना ही नहीं। एक पिता को, उसके मन को। उसकी प्रतीक्षा की तीव्रता को, उसके खोज की गहनता को.। उसके न टूटनेवाले आस को... वह बेटी की खोज में। उसके प्रेम में ऐसे डूबा होता है कि वह उसे अपने हे शरीर में देखने लगता है। मूलतः वह उसी के रक्त मांस से तो बनी है वह। दुपट्टा जो बचा रह गया है, उसके जाने के बाद वह उसे ओढ़े फिरता है। चूडि़यां ... सचमुच उसी की कलाईयों में होती है...और उसके हाथ स्वयं वही हाथ जिसे वह उर्दू वर्णमाला के अक्षर सिखाता रहा था बचपन में।
     
     पिता स्क्रिप्ट पढ़ कर पुनः सुनाते हैं उसे- यह एक पिता की कहानी है, जिसने पागल उनमत्त भीड़ के बीच अपनी बेटी को खो दिया है। मां जो एक ओर उनमत्त भीड़ के द्वारा पेट फाड़ दिये जाने के कारण अंतिम सांस गिनती होती है कहती है आप लड़की को ले कर भाग जाओ। मै कहां बचूंगी, इसे किसी तरह से बचा लो। .। कुछ ऊहापोह के बाद पिता बेटी को लेकर चल देता है। सिराजुदीन और उसकी बेटी सकीना भागे जा रहे हैं कि तभी सकीना का दुपट्टा पीछे कहीं गिर जाता है। अब बाप तो बाप है। वह दुपट्टा उठा लाने के लिये पलट पड़ता है, बेटी के मना करने के बावजूद। पिता, पिता से सिराजुद्दीन हुये जा रहे हैं। वह अचानक बोल उठती है। पिता का हाथ जबरन थाम कर- रहने दो अब्बा। वह चौंक जाती है पर पिता चौंकते नहीं.। सकीना रहने कैसे दूं बेटा... वह तेरा दुपट्टा है.। पिता लौटते हैं, दुपट्टा लेकर तो बेटी लापता। वह ढूंढता रहता है उसे लगातार। इस क्रम में उसे आठ लोग मिलते हैं, जो उसे प्रकटतः सहानुभूति दिखाते हैं, कहते हैं सकीना एक-न-एक दिन उसे जरूर मिल जायेगी पर ये वही लोग हैं जिन्होंने उसे एक कोठरी में बन्द कर रखा है।
     
     सकीना एक दिन पिता को शरणार्थी कैंप में मिलती है, मरणासन्न अवस्था में। वे ही लोग उसे वहां छोड़ आये रहते हैं। अगला दृश्य शरणार्थी कैंप का है जहां डाक्टर मरीजों का परीक्षण कर रहे हैं। डाक्टर अच्छी तरह से मुआईना कर पाने के लिये पिता से कहते हैं कि वो खिड़की-दरवाज़े खोल दें। लड़की के निर्जीव हाथ 'खोल दो' शब्द सुन कर उस अचेतनता में भी अपने सलवार के नाड़े खोलने लगते हैं। कहानी यहीं खतम हो जाती है। डॉक्टर स्तब्ध है इस त्रासदी से। उसके हाथों से ठंडा पसीना आने लगता है। वह जान जाता है कि उसके साथ बलात्कार हुआ है, बार-बार..।
     
     कहते-कहते पिता चुप हो जाते हैं, अजीब निरीह नजरों से घूर रहे हैं उसे। क्या उनके भीतर का पितृत्व जागा है? अपनी बच्ची को आखिर क्या सुना रहे हैं वह..? पिता सहेज लेते हैं खुद को। वह खुद भी एक निर्देशक और कलाकार है, सामने भी एक कलाकार - आगे का दृश्य बहुत दुःखद है। बहुत मार्मिक पर आगे देखो - डाक्टर का शरीर ठंडे पसीने से तर-ब-तर है। पर, पिता... प्रसन्नता से नाच उठता है, रो उठता है। उसकी बेटी जिन्दा है। जिन्दा है अन्ततः उसने उसे तलाश लिया है। हासिल कर लिया है आखिर अपनी बच्ची को। एक जिन्दा शब्द से ही कितनी आशायें, कितने सपने जुड़े रहते हैं। उम्मीद है यह - एक नई ज़िंदगी की। पिता के मन में एक उम्मीद है सब कुछ के बावजूद वह अपनी बच्ची को फिर एक नई ज़िंदगी देगा। यह अन्त कहानी से अलग है। यथास्थिति से अलग एक स्वप्नजीवी, स्वप्नवादी-आशावादी अन्त। कभी भी किसी नाटक या कहानी को किसी एक कोण से नहीं पढ़ना देखना। एक दृष्टि से भी नहीं। अपनी सोच अपनी कल्पना को खुला रखोगी तो... रुक कर पिता कहते हैं - यह एक एकल प्रस्तुति होगी। कर पाओगी न? वह इस पूरे प्रकरण में पहली बार पिता की नजर से नजर मिला कर कहती है - हां।
     
     पिता ने उस दिन एक सूत्र थमाया था - बेटी को तलाशता पिता बेटी में तब्दील हो गया था, बेटी उसके रक्त मांस से ही तो बनी थी।
     
     फिर वह पिता को खुद से बाहर कहां तलाशती फिर रही है, फिर वह खुद से बाहर क्यों सवाल का जवाब ढूंढ़ रही है? पिता क्या करते ऐसे वक्त में। पिता को तो उसने कभी हिम्मत हारते नहीं देखा, कैसी भी परिस्थिति में। फिर उन्ही के रक्त मांस से बनी वह..।
     
     चौथे दिन नीला फिर नाटक के रिहर्सल में व्यस्त है। संगीतकार गायब है... वह खुद संगीत दे रही है। वो सुनती तो रही है, बचपन भर मां को उनके सामने बैठ कर। । कहते तो थे पिता कुछ भी ज़ाया नहीं जाता... कहती तो थी मां - मछली के बच्चे को तैरना सिखाने की जरूरत नहीं होती। वह अब खुद कहां रह गई है ! कभी पिता, कभी मां, कभी बेटी हुई जाती है। थोड़ी हैरत और थोड़ी खुशी के साथ विश्वास और उजाला भी उसके साथ हैं। वे इस कोशिश मे है कि तनाव उसके मन से हट जाये। लेकिन वो ये नहीं जानते कि उसके मन से तनाव तो कब का हट चुका है।
     
     उसने तमाशा के स्क्रिप्ट को मां-बेटी के संवाद के रूप में लिखा है। पत्रकार बेटी जिसकी तमाशा करने वाली मां ने उसे अपने से दूर बोर्डिंग में रख कर पढ़ाया है ताकि वह कुछ कर सके जीवन में। उसकी ज़िन्दगी न जीये। वह जो हास्टल के वार्डन के द्वारा बेटी से मिलने जाने के लिये मना कर देने के बावजूद भी उसे वही पढ़ाती है, बेटी के लौट आने की खुशी मना रही है। पर जो लौटती है वह एक बेटी नहीं, एक पत्रकार है। वह उससे गले नहीं मिलती। सवालों के कटघरों मे ला खड़ा करती है उसकी पूरी ज़िंदगी को। अपनी पूरी टीम और कैमरे के साथ। वही बार -बार दुहराये जानेवाले घिसे-पिटे सवाल... उसका मन था वह और उजाला कभी साथ-साथ इस नाटक को कर पाती। वही पिता वाली इच्छा। पर उजाला... उसकी तरह उजाला ने भी देखा है बचपन भर उसका पूर्वाभ्यास। शायद इसी से नहीं जुड़ पाई वह कभी नाटक से।
     
     भीड़ बहुत ज्यादा नहीं है। एक्की-दुक्की भी नहीं। अफवाह और खबरें चीजों को सनसनीखेज़ और बिकाऊ तो बना ही देते हैं... वह टटोल रही है पर्दे के पीछे से दर्शकों को - जेनुईन कौन-कौन... नाटक कब शुरु हुआ, कब खत्म उसे कुछ पता ही नहीं चला वह वह कहां रह गई थी..।
     
     ग्रीन रूम में वह रो रही है फूट-फूट कर। उजाला आ कर उसके गले लग जाती है। धीरे से कहती है - मां आप मुझे भी अपने नाटक में कोई छोटा-मोटा रोल देंगी, बेटी का न सही... मैं ठीक-ठीक करूंगी मां... बोलिये न मां। वह चुप है, उसके भीतर बैठे पिता कहते हैं, नहीं अभी नहीं, इतनी जल्दी तो बिल्कुल नहीं। वह चुप रहती है थोड़ी देर... फिर कहती है - हां ! वह अभी वह ही रहना चाहती है। पिता की तरह डिप्लोमैटिक नहीं... उसने आगे जोड़ा है... “तुम चाहो तो”।
     
     विश्वास आये हैं भीतर, बधाई दी है उसे और कहा है - कोई तुमसे मिलना चाहता है नीला - लावणीवाली। नौ गज की साड़ी पहने वह कोई तमाशे-वाली ही लग रही है पर पहचान की तो बिल्कुल नहीं। उसने उसके चेहरे को गौर से देखा है। वह भी आकर गले लग जाती है उसके, उजाला और विश्वास की तरह। वह टूटी-फूटी हिन्दी में कहती है - "जब भी मैं थके होऊंगी तुम्हारा नाटक देखने जरूर आऊंगी और अपने साथ के पुरुष को बताऊंगी - वह जो औरत देख रहे हो न तुम, उस ऊंचे मंच पर, वह मैं हूं।
     
     उसकी पीड़ा, उसका ऊहापोह, उसके दुःख सब बह चले हैं उसके आंसुओं में। उसे अब किसी की भी परवाह नहीं है, किसी के द्वारा अच्छे बुरे कहे जाने की... उसका मकसद तो...

     

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4 टिप्पणियाँ

  1. Samvedana ko chhoonevalee ek khoobasoorat kahani... Kavitaji aur Shabdankan donon ko badhai!

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  2. EK ACHCHHEE KAHANI PADHWAANE KE LIYE BHARAT JI BADHAAEE AUR
    SHUBH KAMNA KE POORE HAQDAAR HAIN . KAVITA JI KO VISHESH BADHAAEE AUR SHUBH KAMNAA

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  3. कविता जी,
    आपकी कहानी 'तमाशा' पढ़ी ...
    कहानी की अंतरंगता अपने साथ-साथ बहा ले गई !
    जीवटता भी कहानी का एक सबल पक्ष रहा । लीला का पात्र संयत पर
    बलिष्ठ ...एक मकसद भी कहानी को ओज दे जाए। जिसका अंत में
    अर्जन तसल्ली भी दे जाए। सारा हो-हल्ला हमारे वर्तमान ज़ाहिर जीवन
    की परिस्थितियों का, एक वास्तव सा ही कहानी में दर्ज हुआ है। कुछ-कुछ
    भयप्रद सा भी ...लीला का अविचल रूप और सहजता स्पर्शी ...

    बाप-बेटी का रिश्ता दोनों को ही पूरा जीवन बांधे रखे और अंतरंग
    भावनात्मकता कई-कई मायनों में, वास्तव में अर्थपूर्ण रहे ...जबकि बाप-बेटे
    का रिश्ता उतना गहरा व अर्थपूर्ण नहीं लगे। बाप-बेटी का यह रिश्ता भीतर से
    बांधे रखने वाला और जीने जैसा ...जो बेटी के सुखों के साथ सुख भी
    अपरिमित लाए और बेटी के दुखों के साथ दुःख भी अपरिमित दे जाए ...
    बाप-बेटी का रिश्ता अविभाज्य होता है या अविभाज्य ही आता है बेटी के जन्म
    के साथ ...

    आप की कहानी की ट्रीटमेंट कविता जी सघन होती है और आपकी
    सर्जनात्मकता में जीवन की और रिश्तों की व्यापकता है जो सुपरफ़िशिअल तो
    कतई न लगे...आपने जीवन को सिर्फ पढ़ा ही नहीं है अपने आंतरिक धरातल
    पर संघर्षरत होते हुए जिया है, उसे गुना है ...तभी तो आपकी कहानियों में एक
    'वज़न' होता है ...एक विश्वसनीयता होती है ...और जीवन की भरी-भरी सी
    रसात्मकता भी होती है।मंटो की 'खोल दो' कहानी जब पहली बार पढ़ी थी तब ही
    निश्चय किया था की दोबारा कभी नहीं पढूंगा इसे । क्यों की कहानी की त्रासदी और
    निरंतर उत्पीड़न को सोच कर ही मन मसोसने लगे ...पर आपने यहाँ पिता की
    वेदना का विश्लेषण इतना सहज किया की आपकी अभिव्यक्ति और करूणा सीधे
    मंटो के लगभग जा पहुंची।

    'तमाशा' में आपने जो कहना चाहा वह बखूबी कहा और कहा भी - very
    effectively, very impressively and also very communicatively...

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  4. wah,behad khoobsurti se likhi hui ........ bahut achchi lagi .

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