देखिए कि क्या दिखता है ? - क़मर वहीद नक़वी / Qamar Waheed Naqvi on ISIS

राग देश

यह भारत के मुसलमानों का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि उनका नेतृत्व हमेशा कठमुल्ला उलेमाओं के हाथ में रहा है, जो ख़ुद अपनी आदिम गुफ़ाओं में क़ैद हैं, जिन्हें न आधुनिक दुनिया की कोई समझ है, न समाज और राजनीति में आ रहे परिवर्तनों की कोई आहट! उनके पास सदियों पुराना एक चश्मा है. वह सब चीज़ उसी से देखते हैं. 

देखिए कि क्या दिखता है  ?

- क़मर वहीद नक़वी



दिल्ली से बग़दाद कितनी दूर है? ठीक-ठीक 3159 किलोमीटर. बीच में ईरान, अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान. किसने सोचा था कि आग वहाँ लगेगी तो आँच तीन देशों को पार करते हुए अपने यहाँ तक आ जायेगी. वैसे तो इराक़ पिछले दस-बारह सालों से युद्ध से झुलस रहा है, लेकिन पहले कभी आज जैसी तपिश महसूस नहीं की गयी. तपिश नहीं, साज़िश. गहरी और भयानक साज़िश! अबू बकर अल बग़दादी ने 'इसलामी ख़िलाफ़त' की स्थापना कर अपने को इसलाम का स्वयंभू ख़लीफ़ा घोषित कर सबकी नींद उड़ा दी है. बड़ी मुसलिम आबादी वाले दुनिया के तमाम देश पुनरोत्थानवादी कट्टरपंथी इसलाम के बीज फैलने के ख़तरों से चौकन्ना हैं. लेकिन भारत के लिए स्थिति कहीं ज़्यादा नाज़ुक हो सकती है. और कहीं ज़्यादा जटिल भी. क्योंकि यहाँ समस्या के कई और पहलू हैं, जो और कहीं नहीं हैं!

पुनरोत्थानवादी कट्टरपंथी इसलाम के कुछ डरावने, ज़हरीले, शर्मनाक नमूने हम पिछले कुछ बरसों में पड़ोसी अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में देख चुके हैं! बामियान बुद्ध की ऐतिहासिक धरोहर को तहस-नहस करने से ले कर एक मासूम बच्ची मलाला यूसुफ़ज़ई पर क़ातिलाना हमले तक मनुष्य विरोधी, लोकतंत्र विरोधी, समानता विरोधी और प्रगति विरोधी इस सोच ने इन देशों में आतंक और ख़ौफ़ का साम्राज्य स्थापित कर रखा है. यह सब तालिबान और अल-क़ायदा के नापाक गँठजोड़ की देन है. लेकिन फिर भी यह हमारे लिए बहुत डरने की बात नहीं थी, क्योंकि भारत न अल-क़ायदा के नक़्शे पर था और न तालिबान के! लेकिन आइएसआइएस और अबू बकर अल बग़दादी अपने अभियान को सिर्फ़ इराक़ और सीरिया को मिला कर एक इसलामी राज्य बनाने तक ही सीमित नहीं रखना चाहते हैं. वह पूरी दुनिया में कट्टरपंथी 'इसलामी ख़िलाफ़त' का साम्राज्य स्थापित करना चाहते हैं! इसलिए तालिबान और अल-क़ायदा अब उसके आगे बिलकुल बौने हैं!

वैसे तो इराक़ की कोई भी लड़ाई हमेशा ही भारतीय मुसलमानों के लिए संवेदनशील मसला बन जाती है. वहाँ शिया मुसलमानों के पवित्र स्थल हैं और आबादी सुन्नी बहुल है. इसलिए इराक़ में इन दोनों समुदायों के बीच सत्ता के समीकरण बदलने, किसी तनाव के पसरने और किसी गृहयुद्ध जैसी स्थिति होते ही भारत में शिया-सुन्नियों के बीच भावनाओं का पारा चढ़ने लगता है. इस बार भी यही हो रहा है. पहले तो शिया नौजवानों ने मुहिम छेड़ी कि वे शिया धर्मस्थलों को बचाने और आइएसआइएस के ख़िलाफ़ जंग के लिए इराक़ जाना चाहते हैं! और फिर ख़बर आयी कि मुम्बई के कुछ लड़के इराक़ में आइएसआइएस की तरफ़ से 'जिहाद' लड़ने जा पहुँचे हैं! ख़ुफ़िया एजेन्सियों के लिए यह डरावनी ख़बर है. क्या सच में आइएसआइएस ने अपने ख़ूनी पंजे भारत तक फैला लिए हैं? अगर हाँ, तो कहाँ-कहाँ? किन-किन राज्यों में? इसके दूरगामी नतीजे क्या होंगे? अभी तक तो लश्कर- ए-तैयबा और पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेन्सी आइएसआइ ही भारत के मुसलिम युवाओं को अपनी घिनौनी साज़िशों का निशाना बना रही थी. लेकिन उनका मक़सद और पहुँच फिर भी मामूली थी. यानी भारत में लगातार आतंकवाद की कुछ छोटी-बड़ी वारदातें करते-कराते रहना. लेकिन अबू बकर अल बग़दादी के इरादे तो कहीं भयानक हैं. भारत को उसने दुश्मन घोषित किया है. 'इसलामी ख़िलाफ़त' का विस्तार वह यहाँ तक करना चाहता है!

दुनिया भर में भी और भारत में भी कई प्रमुख मुसलिम उलेमाओं ने बग़दादी की 'इसलामी ख़िलाफ़त' की स्थापना को वाहियात और बकवास कह कर ख़ारिज कर दिया है. लेकिन दुर्भाग्य से अपने देश में कुछ कठमुल्लों की बन्द अक़्ल के ताले नहीं खुल सके हैं. प्रमुख सुन्नी उलेमा मौलाना सलमान नदवी ने बग़दादी को ख़त लिख कर 'ख़लीफ़ा' मान लिया है. उधर, दूसरी तरफ़ प्रमुख शिया मौलाना आग़ा रूही बड़े गर्व से एक न्यूज़ चैनल पर बता रहे थे कि उनका बेटा इराक़ में आइएसआइएस के विरुद्ध युद्ध कर रहा है. नासमझी की हद है. जंग इराक़ में हो रही है. आप देश में शिया-सुन्नियों को बरगलाने में लगे हैं! माना कि शिया मुसलमानों की भावनाएँ इराक़ से गहरे जुड़ी हैं, लेकिन ऐसे नाज़ुक क्षणों में उनको सबको संयम की सीख देनी चाहिए थी, अपने बेटे को भी. लेकिन इसके बजाय वह बेटे की गाथा गा कर लोगों को  'क़ुरबानी' देने के लिए उकसा रहे हैं! और उधर, नदवी साहब को यह एहसास ही नहीं कि बग़दादी के ख़ौफ़नाक खेल के कितने भयानक नतीजे हो सकते हैं. मौलाना के बयान के बाद जो मुसलिम नौजवान बग़दादी के झाँसे में फँसेंगे, उनकी और उनके परिवारों की ज़िन्दगियाँ बरबाद होने का ज़िम्मेदार कौन होगा?

यह भारत के मुसलमानों का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि उनका नेतृत्व हमेशा कठमुल्ला उलेमाओं के हाथ में रहा है, जो ख़ुद अपनी आदिम गुफ़ाओं में क़ैद हैं, जिन्हें न आधुनिक दुनिया की कोई समझ है, न समाज और राजनीति में आ रहे परिवर्तनों की कोई आहट! उनके पास सदियों पुराना एक चश्मा है. वह सब चीज़ उसी से देखते हैं. वह मुसलमानों को कभी धार्मिक पिंजड़े के बाहर नहीं देखना चाहते. अगर आम मुसलमान आज़ाद हो गया, तो उन्हें कौन पूछेगा? किसी को उनकी क्या ज़रूरत रह जायेगी? इसीलिए मुसलमानों को हर मामले में हमेशा धार्मिक घुट्टी पिलायी जाती है. जबकि आज समय का तक़ाज़ा है कि मुसलिम उलेमाओं को अगर 'जिहाद' ही छेड़ना है तो वह हर तरह के धार्मिक कट्टरपंथ, पुनरोत्थानवाद और आतंकवाद के ख़िलाफ़ जिहाद छेड़ें, और मुसलिम समाज में प्रगतिशीलता की रोशनी आने दें.

लेकिन इराक़ को लेकर भारत में सिर्फ़ मुसलमानों की भावनाएँ भड़कने का ही ख़तरा नहीं है. यहाँ हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच तनाव फैलाने वाले संघ परिवार के तोपचियों की कला के कई नमूने हम पिछले चुनाव में देख चुके हैं. अब अभी आग में ताज़ा-ताज़ा घी छिड़का है विश्व हिन्दू परिषद के अशोक सिंहल ने! उनका बयान आया है कि चुनाव में बीजेपी की भारी जीत मुसलिम राजनीति के लिए बहुत बड़ा झटका है. उनका कहना है कि नरेन्द्र मोदी 'आदर्श स्वयंसेवक' हैं और वह 'हिन्दुत्व के एजेंडे' को पूरा करके दिखायेंगे. उनका कहना है कि अब बाज़ी पलट चुकी है. मुसलमान अब आम नागरिक की तरह देखे जायेंगे. न ज़्यादा, न कम! और उन्हें हिन्दुओं की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए. उन्हें अयोध्या, काशी और मथुरा हिन्दुओं को सौंप देना चाहिए और समान नागरिक संहिता को स्वीकार करना चाहिए!

वैसे तो सिंहल साहब ऐसे बयान देते रहते हैं, लेकिन मौजूदा माहौल में ऐसे बयान देकर वह क्या हासिल करना चाहते हैं. इराक़ और फ़लस्तीन की घटनाओं से आम भारतीय मुसलमान जब व्यथित हो तो संयम और मरहम के बजाय ऐसे भड़काऊ बयान दे कर वह क्या सन्देश देना चाहते हैं. यह सही है कि अयोध्या, काशी और मथुरा से हिन्दुओं की भावनाएँ जुड़ी हैं, लेकिन ये सभी विवाद क़ानून के रास्ते से हल हो ही सकते हैं. हाँ, समय लग सकता है, लगेगा भी. तो कुछ साल और इन्तज़ार कर लेने में क्या हर्ज है. अगले कुछ बरसों में कोई न कोई फ़ैसला आ ही जायेगा. और जहाँ तक समान नागरिक संहिता की बात है, तो मैं भी और सारे प्रगतिशील लोग पूरी तरह इसके पक्षधर हैं, लेकिन सवाल है कि क्या इसके लिए कभी सही माहौल बनाने की कोशिश की गयी, ताकि इस पर कोई सही समझ बन सके. ऐसे नाज़ुक मसले कभी भड़काऊ नारों और धमकियों से नहीं हल होते!

अभी हाल में एक और चिन्ताजनक रिपोर्ट आयी है. तीन पुलिस महानिदेशकों की एक कमेटी ने कुछ दिनों पहले दी गयी अपनी एक अध्य्यन रिपोर्ट में कहा था कि मुसलमानों और पुलिस के बीच 'विश्वास का संकट' है. कई राज्यों में साम्प्रदायिक दंगों के दौरान कुछ पुलिस अफ़सरों के रवैये से मुसलमानों में पुलिस के प्रति शक और अविश्वास बढ़ा है. ज़ाहिर है कि अपने आप में यह रिपोर्ट एक गम्भीर स्थिति की तरफ़ इशारा करती है.

इराक़ की घटनाएँ, कुछ मुसलिम उलेमाओं के ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैये, संघ परिवार के कुछ तत्वों का अतिरेक, देश के पुलिस तंत्र और मुसलमानों के बीच अविश्वास की खाई--- इन सबको एक साथ मिला कर तसवीर बनाइए और देखिए कि क्या दिखता है?

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