कसाईखाना
अमित बृज
सीन-1
“भैया मुसलमानी है।”
“पकड़ पकड़। इधर ला साली को। अन्दर ले चल इसे।“
(थोड़ी देर बाद) “अब एक काम कर, तू जा। मेरे बाद आना। ठीक है।”
“ठीक है भैया।”
(पास के कसाईखाने में एक बकरी मिमिया रही थी। कसाई उसके गर्दन पर धारदार छुरी फिरा रहा था अचानक एक तेज की आवाज़...धड़ाक...वो निढाल हो जमीन पर गिर गई)
सीन-2
“छोटू, आजा।”
“भैया एक बात पूछे, ई मियन के देख के तुम्हरी सुलग काहे जात है।”
“साला हमरी बहन लेकर भागा रहा उ अलाउद्दीन क लड़का।”
“कौन।”
“अरे वही वसीम सिद्दीकी। साला मादर…अब छोड़ ई सब बात, जा जल्दी कर।”
(कसाईखाने में एक और कसाई आ धमका था। बेजान जिस्म की चमड़ी उतारने के लिए)
सीन-3
“अरे छोटू, नाम का है उसका।”
“ससुरी मरी पड़ी रही भैया। पूछ ना पाये। लेकिन हाँ, पर्स तलाशे तो उसके आईडी पर एक नाम लिखा था…शायद अंजुम…हाँ भैया याद आ गया “अंजुम वसीम सिद्दीकी ”
(कसाईखाने में एक सर्द सन्नाटा पसरा था। कसाईयों के चेहरे का रंग काफूर था। उन्होंने गलती से अपनी ही बकरी हलाल कर दी थी।)
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