खेल पुराना नई बिसातें — डॉ. मालविका की ग़ज़लें #shair #kavya


उधर चुपचाप लूटे जा रही सब कुछ सियासत

इधर हम खुल के नग्में इन्क़लाबी गा रहे हैं — मालविका 

खेल पुराना नई बिसातें — डॉ. मालविका की ग़ज़लें




डॉ. मालविका को लेखन विरासत में मिला है। उनके पिता सत्यपाल नागिया लेखक व कवि के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर पहचान रखते है। मालविका स्कूलिंग के दौरान ही कविता रचने लगी थी और यूनिवर्सिटी में मंचों पर काव्यपाठ शुरूकिया। साहित्य से उनका जुड़ाव को ऐसे देखिये कि जेएनयू से उन्होंने अपना एम. फिल मन्नू भंडारी के उपन्यास 'आपका बंटी' पर किया जो  'आपका बंटी एक अध्ययन' के रूप में प्रकाशित है।

उनकी ग़ज़लों में भरपूर नएपन का होना सबसे सुखद है, शे'रों के ज़रिये वह आज के दौर के रूमानी से लेकर राजनीति और पारस्परिक सबंधों की असलियत कह रही हैं...

जब भी काँटों पे धार आएगी

जब भी काँटों पे धार आएगी
हर चमन में बहार आएगी

चुप हैं तारीख़ के पन्ने बेशक
खण्डहरों से पुकार आएगी

इस तरफ़ क़ाफ़िले को लूटोगे
उस तरफ़ से क़तार आएगी

ख़्वाब आँखों के सच करो वरना
ये नमी बार बार आएगी

खिलाओ आफ़ताब बस्ती में
धूप कब तक उधार आएगी

बनाओ मंदिर-ओ-मस्जिद ऊँचे
नज़र तो कू-ए-यार आएगी

लाख सूरज को डुबोए दरिया
आग तैरेगी पार आएगी




तेरी मदहोश निगाहों का वो असर देखा 

तेरी मदहोश निगाहों का वो असर देखा 
दिल के सहरा में मचलता हुआ सागर देखा  

खिला नज़र में माहताब तेरी चाहत का 
हर गली-कूचा रोशनाई का मंज़र देखा 

कैसे मैं उनमें सनम इल्मे तसव्वुफ़ भर लूँ
जिन निगाहों ने तेरा ख्व़ाब हर पहर देखा 

तुझको पाकर भी तमन्ना है तुझे पाने की 
बारहा ऐसी तमन्ना को दर-बदर देखा

तेरी बातें ज्यों लरज़ती हुई ग़ज़ल गोया  
चंद लफ़्ज़ों में मुक़म्मल नया बहर देखा 

मैंने दरपेश मामला जो मुहब्बत का किया 
मेरे मुंसिफ़ ने मुसल्सल इधर-उधर देखा 

हमको मंज़िल की ताब रास कहाँ आती है  
हाथ थामा जो तेरा दूर तक सफ़र देखा 

ज़िंदाँ ज़िंदाँ तन्हा रातें 

ज़िंदाँ ज़िंदाँ तन्हा रातें
दीवारों से दिल की बातें

मक़तल मक़तल एक मदरसा
बस बातें बेबस तामातें 

दामन दामन ख़ार उगाओ
पढ़ बैठे हो कई जमातें

रेज़ा रेज़ा दिल की हालत
मेरे क़ातिल की सौगातें

गलियों गलियों वीरानी सी
किन रस्तों पर हैं बारातें

रेशम रेशम माएँ सारी
किसने बीनी ज़ातें पातें

काले काले हैं सब मोहरे
खेल पुराना नई बिसातें


बुरा ये दौर है सब असलहे इतरा रहे हैं 

बुरा ये दौर है सब असलहे इतरा रहे हैं 
के उनके डर से ज़िंदा आदमी घबरा रहे हैं

करें उम्मीद किससे तीरगी के ख़ात्मे की
उजाले ख़ुद ही रह-रहकर के ज़ुल्मत ढा रहे हैं

खज़ाना है सभी के पास रंगीं हसरतों का 
सुकूँ के चंद सिक्के फिर भी क्यूँ ललचा रहे हैं

सहारा झूठ का लेते हैं जो हर बात पर वो 
हमें सच बोलने के फ़ायदे गिनवा रहे हैं

उधर चुपचाप लूटे जा रही सब कुछ सियासत
इधर हम खुल के नग्में इन्क़लाबी गा रहे हैं

यूँ कब तक सिर्फ़ हंगामों से बहलाओगे यारों 
के अब बदलो भी सूरत आईने उकता रहे हैं

खड़ी हूँ क़त्ल होने को सरे मक़तल मैं कब से
नहीं अब ज़िन्दगी के फ़लसफ़े रास आ रहे हैं

जफ़ा का शौक अब फ़ैशन सरीखा हो गया है
सभी खुल कर नया अंदाज़ ये अपना रहे हैं

शरीके जुर्म थे सब पर कोई मुजरिम नहीं था
अदालत से ये कैसे फ़ैसले अब आ रहे है

सियासी गिरगिटों की ज़ात है मौक़ापरस्ती 
युगों से हर घड़ी ये रंग बदले जा रहे हैं

बड़ा नाज़ुक-सा था इसरार इक तस्वीर भेजो
वो दिन है आज तक हम ज़ुल्फ़ ही सुलझा रहे हैं


मैं दर्दे दिल की दवा क्या करूँ

मैं दर्दे दिल की दवा क्या करूँ
घाव अब तक है हरा क्या करूँ 

मेरी आँखों के अश्क़ रेत हुए 
यार दरिया न हुआ क्या करूँ

वो मेरे पास नहीं मुद्दत से
पास रहकर भी जुदा क्या करूँ  

ख़्वाब लड़ते रहे अँधेरों से 
दिन मयस्सर न हुआ क्या करूँ 

यार उलझा रहा सरापे में 
दिल को देखा न छुआ क्या करूँ 

प्यार में हार चुकी हूँ ख़ुद को 
खेलकर अब ये जुआ क्या करूँ 

वो जफ़ाओं से इश्क़ करता रहा
मेरे हिस्से में वफ़ा क्या करूँ 
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