दुष्यंत की कहानी: तीसरे कमरे की छत, पांचवीं सीढ़ी और बारहवां सपना


दुष्यंत की कहानी: तीसरे कमरे की छत, पांचवीं सीढ़ी और बारहवां सपना

मानव पीड़ाएँ अगर प्राकृतिक हो सकती हैं और अपने ऊपर कहानियाँ लिखवा सकती हैं तो प्रकृति की पीड़ाओं का कारण मानव हो सकता है, रही बात उनपर कहानियाँ लिखे जाने की, तो, कवियों को यह वाली पीड़ा दिखती सताती रही है और कविताएं कहलवाती रही है, लेकिन, कहानीकारों के विमर्शों से ठसाठस भरे दिल और दिमाग में अपने लिए जगह नहीं बना पा रही. दुष्यंत की 'नया ज्ञानोदय' के कहानी विशेषांक (अगस्त, 2019) में छपी कहानी ‘तीसरे कमरे की छत, पांचवीं सीढ़ी और बारहवां सपना’ उस पीड़ा को सुनने वाली कहानी है. कहानीकार को शुक्रिया और बधाई देना वाजिब है. शुक्रिया आपका भी कि आप इसे पढ़ने जा रहे हैं...पीड़ायें बाँटने से घटती हैं, याद है?

आपका 
भरत एस तिवारी
संपादक शब्दांकन






कहानी

तीसरे कमरे की छत, पांचवीं सीढ़ी और बारहवां सपना

— दुष्यंत

दुष्यंत

भारत-पाक बॉर्डर पर स्थित कस्बे केसरीसिंहपुर में उत्तरआपातकाल युग में जन्मे कवि, कथाकार हैं, इतिहास में पीएच. डी. हैं, वह शोधग्रंथ ‘स्त्रियां: पर्दे से प्रजातंत्र तक’ नाम से राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। अब तक चोटी के प्रकाशकों से कुल 7 किताबें प्रकाशित। उनका पहला कविता संग्रह मातृभाषा राजस्‍थानी में आया, जिसे राजस्‍थानी साहित्‍य अकादमी ने पुरस्‍कृत किया। दूसरा कविता संग्रह हिंदी में ‘प्रेम का अन्‍य’ नाम से प्रकाशित हुआ जिसे रामकुमार ओझा पुरस्‍कार दिया गया। कविता के लिए प्रथम कविताकोश सम्‍मान भी दिया गया। एक किताब रूसी कवि येवेगनी येव्‍तुशेंको की कविताओं के राजस्‍थानी अनुवाद की प्रकाशित। दर्जन भर यूरोपियन, लेटिन अमेरिकन कवियों की कविताओं का हिंदी अनुवाद किया है। उनका एक मौलिक कहानी संग्रह ‘जुलाई की एक रात’ नाम से पेंगुइन से प्रकाशित और लोकप्रिय लिस्‍ट में शामिल। प‍हला उपन्‍यास ‘वाया गुड़गांव’ जग्‍गरनॉट से आया है।

इतिहास के अध्‍यापन के बाद पत्रकारिता की, इन दिनों मुम्‍बई में फिल्‍मों से जुड़े हैं।

ईमेल - dr.dushyant@gmail.com
गांव सुलतानसिंहवाला अब वैसा गांव नहीं रहा था, हर घर में टीवी तो पिछली पीढ़ी के बचपन के दिनों में ही आ गया था, अब हर तीसरे घर में वाशिंग मशीन आ गई थी। पहली वाशिंग मशीन जिस बहू के साथ मुंह दिखाई में दी आई थी, उसका नाम बस्क्रो था, अपने पिता की पांचवी बेटी, नाम बस्क्रो इसलिए कि बस करो भगवान, अब तो अगला बेटा हो। यह भारतीय इतिहास के स्वातंत्र्योत्तर काल का वह समय था, जब गांव के बच्चे शहर पढ़ने या नौकरी करने तो जाते थे, बसने के लिए नहीं। तब तक गांव में कोई मंदिर या धार्मिक स्थान भी नहीं था, बस गांव के आदि पुरूष सुल्तानसिंह का थान या चौकी थी, वहां कोई मूर्ति भी नहीं थी, जहां आते -जाते लोग सिर झुकाकर गुजर जाते, किसी का मन होता तो शाम को एक दिया जलाकर रख जाता। कोई दस पीढ़ी गुजरने के बाद भी सुल्तानसिंह का थान दादाजी का ही थान था, यानी उनका प्रमोशन नहीं हुआ, ना ही उन्हें लोकदेवता की तरह पूजा जाने लगा। ग्लोबलाइजेशन के आने तक, सुल्तान दादा के थान के पास खड़े होकर, झूठ बोलने की हिम्मत पूरे गांव में कोई नहीं करता था।

बस्क्रो की शादी से ठीक पहले जो बहू आई थी, वह दहेज में वॉशिंग मशीन लाई थी, गांव की पहली वाशिंग मशीन। उस बहू ने छ: महीने बीतने से पहले ही तलाक दे दिया और वॉशिंग मशीन साथ ले गई थी। इस तलाक के बाद गांव के लोग दहेज में वॉशिंग मशीन नहीं लेते। वॉशिंग मशीन ससुराल की ओर से मुंह दिखाई में बहू को दी जाती है, पर इससे गांव में उसके बाद तलाक ना हुए हों, ऐसा नहीं हुआ। यह कहानी मुंह दिखाई में मिली उस पहली वॉशिंग मशीन की नहीं है।

बस्क्रो के पति यानी उर्मिला के पिता सुरेंद्र का सुर तो बारहमासी गड़बड़ाया हुआ ही है, यानी गला बैठा हुआ है, और इंद्र ऐसे कि पुश्तैनी जमीन बिरानी है, यानी इंद्र बरसे तो खेती हो। और सुरेंद्र का गांव सौ साल पहले यह कुल जमा पचासेक घरों की बस्ती थी, गांव की रिहायश में पीपल के तीन पेड़ इतने प्राचीन हैं कि फिलहाल जीवित सभी गांव वालों ने तब से उन्हें देखा है, जब से होश संभाला है। गांव की सरकारी डिस्पेंसरी पचास साल में भी अपग्रेड नहीं हुई है, यानी पचास साल से कंपाउंडर ही डॉक्टर के रूप में संबोधित और प्रतिष्ठित है। गांव में एक प्राइमरी स्कूल साठ के दशक में बन गया था, उसे मिडिल स्कूल बनने में तीस साल लग गए। तब तक गांव में दो बार प्राइवेट स्कूल खुलकर बंद हो चुके थे, मासूम इत्तेफाक यह कि दोनों को शुरू करने वाले माननीय शिक्षाविद दसवीं फेल थे।
A Woman in a Rajasthan Village (c) Bharat S Tiwari 

बस्क्रो जब गांव में आई तो पहली बारहवीं पास बहू भी थी, आते ही प्राइवेट स्कूल में मास्टरनी बना दी गई थी, जो स्वामी विवेकानंद के नाम पर खोला गया था। बस्क्रो ने यह खबर जब अपने अनपढ किसान पिता को दी थी, पिता बहुत खुश हुए थे। चार महीने बाद जैसे ही उर्मिला उसके पेट में आई, स्कूल को ताला लग गया, स्कूल का मालिक किसी पिछले गैरकानूनी बिजनेस के कारण जेल भेज दिया गया, विवेकानंद जी की आत्मा को अपार कष्ट हुआ या कष्ट से मुक्ति मिली होगी, शोध का विषय हो सकता है। इतिहास, राजनीति विज्ञान और गृहविज्ञान विषयों से गुड सेकिंड डिविजन में बारहवीं उतीर्ण बस्क्रो को इस गांव और गांव के स्कूल के नामकरण के बीच कोई सीधा संबंध स्थापित कर पाने में सफलता नहीं मिली थी, शायद मिल भी जाती, इससे पहले वह संबंध ही वीरगति को प्राप्त हुआ। यह ठीक वही समय था जब स्टेट रोड़वेज के रजिस्टर में गांव के प्रार्थना बस स्टैंड को वास्तविक बस स्टैंड का दर्जा हासिल हुआ था।

बस्क्रो अपनी बेटी उर्मिला को गांव की पहली डॉक्टर बनाना चाहती है। वो मां के साथ नजदीकी कस्बे में रहती है, गर्ल्स सीनियर स्कूल में पढती है, उस कस्बे से मां का वह स्कूल नजदीक है जहां बारहवीं पास बस्क्रो ने बीएसटीसी करके थर्ड ग्रेड टीचर की सरकारी नौकरी कर ली है। उनके घर में एक तोता है, जिसका नामकरण बस्क्रो ने किया- हीरामन। हीरामन अकेला नहीं रह पाता, इसलिए मां-बेटी गांव साथ में बहुत कम आती हैं, बारी-बारी से आती हैं। जब उर्मिला गांव आती है, गांव के बस स्टैंड से लेकर उसके घर तक रास्ते में पड़ने वाले हर नुक्कड़ पर चर्चा होती है कि उसके चेहरे में मां कितनी है, और पिता कितना। दिलचस्प बात यह है कि यह कहानी उस बेटी की भी नहीं है।





बस्क्रो जिस घर में बहू बन के आई थी, वह उसके दादा ससुर ने दूसरे विश्वयुद्ध से लौटकर बनाया था। वे महाराजा गंगासिंह की गंगा रिसाला यानी ऊंट बटालियन में थे। वे आसपास के पचास गांवों के अकेले आदमी थे जो विदेश गए थे। पेंशन के साथ उन्हें महाराजा की ओर से इक्यावन बीघा बारानी जमीन इनाम में मिली थी, उसमें से कुछ बीघे बेचकर बनाया गया यह मकान पांच कमरों का खुला, बड़ा सारा मकान था जिनमें से दो जमीन पर बने थे, दो पहली मंजिल पर और एक तीसरी मंजिल पर। फौजी साहब अंग्रेजी जुबान के मुरीद थे, उन्होंने कमरों के नाम फौजी बैरकों की तरह रखे थे, रूम नम्बर वन, टू, थ्री, फोर, फाइव। उन्होने घर की रसोई को भी मैस का नाम दिया था। तीसरी मंजिल के कमरे यानी रूम नम्बर फाइव को गेस्ट रूम का दर्जा हासिल था, सेकिंड वर्ल्ड वॉर के फौजी साहब की कुछ किताबें वहां रहती थीं, इसलिए उसे लाइब्रेरी भी कहा जाता था, जब तक फौजी साहब जिंदा थे, हर इतवार को लाइब्रेरी से किताब लेते थे। पहली मंजिल का पहला कमरा बस्क्रो को मिला था। यानी रूम नम्बर थ्री, मतलब तीसरा कमरा, उसकी छत बस्क्रो की पूरे घर में सबसे प्रिय जगह थी, जहां से वह पूरा गांव देख लेती थी, गांव से जाने वाली सड़क भी और उसे इस तरह से देखते हुए कोई देख नहीं पाता था। इस कोई में एक आदमी शामिल नहीं था- सुरेंद्र। उसे पता था कि घर का यह कोना बस्क्रो को निहायत निजी कोना लगता है, बस्क्रो के इस कोने के अधिकार के लिए सुरेंद्र ने घर की बाकी महिलाओं यानी बस्क्रो की सास और ननदों से सत्याग्रह की लड़ाई लड़ी थी, दरअसल लड़ाई तो बस्क्रो ने ही लड़ी थी, सुरेंद्र ने तो बस बस्क्रो को अपनी लड़ाई प्रेम और आदर के साथ लड़ने के लिए ताकत दी थी, यह ऐसा आंदोलन था जो दुनिया के किसी फेमिनिस्ट इतिहासकार ने दर्ज नहीं किया, इसलिए ऐसे सारे इतिहास अधूरे हैं। सुरेंद्र की मां यानी बस्क्रो की सास इस आंदोलन के कुछ ही दिन बाद दुनिया से चली गई थी।

तीसरे कमरे की इस छत से बस्क्रो को आसमान का जो टुकड़ा दिखता था, वह उसे पूरा का पूरा अपना लगता था, उसके हिस्से का आसमान। अपने हिस्से के आसमान के इस टुकड़े के सारे रंगों को वह जानती थी, कितनी तरह का नीला, कितनी तरह का सफेद, सब वो अलग अलग जानती थी, अपने इस आसमान को वह घंटो ताक सकती थी। दिन के अलग अलग वक्तों का आसमान, ढलती शाम का आसमान, आधी रात का आसमान, पौ फटने से पहले का आसमान। फागण का आसमान, चैत का आसमान, आसोज का आसमान, भादुवे का आसमान, हर मौसम के आसमान, हर वक्त के आसमान का उसका अपना देखना और उसका बयान बहुत विस्तार वाले होते थे। सुरेंद्र अक्सर कहता कि कोई पागल ही ऐसे आसमान देखता और महसूस करता होगा। तो बस्क्रो कहती कि आपके पल्ले एक पागल ही पड़ी है तो मैं क्या करूं। तो कभी कहती कि पागल को छोड़ दो, स्याणी ले आओ कोई।

पागल होने का मतलब सुरेंद्र और बस्क्रो दोनों जानते हैं, सुरेंद्र की तीसरे नम्बर की बहन सरोज नीमपागल थी। उस दिन, चढ़ते आषाढ़ की एक दोपहर थी, बस्क्रो अपनी तीसरे कमरे की छत से आसमान देख रही थी, आसमान आज गहरा नीला था, कुछ बादल के टुकड़े आ जा रहे थे, बारिश की संभावना में बस्क्रो को लगा कि कहीं कोई सामान तो बाहर नहीं पड़ा जो भीग जाएगा, गाय भैसों में से तो कोई बाहर नहीं है, भूरी भैंस तो अभी ब्याई है, कहीं मां बेटी बीमार ही ना पड़ जाए! वह नीचे उतरते हुए जब ऊपर से ठीक पांचवीं सीढ़ी पर थी, स्काई ब्लू नेलपॉलिश और मोती सुनार की पाजेब से सजा दायां पांव छठी सीढ़ी पर जाने ही वाला था, रूम नम्बर एक की दीवार पर टंगी फौजी साहब की बंदूक से सरोज ने खुद को गोली मार ली थी। सुरेंद्र पानी की बारी लगाने खेत गया हुआ था। उस दिन के बाद से सुरेंद्र के पिताजी ने घर में बंदूक रखनी छोड़ दी। यह वही बंदूक थी, जिससे आठ साल पहले नंदराम ने पड़ोसी और अपने मुंहबोले भाई रामेश्वर की हत्या कर दी थी, रामेश्वर ने सरोज का बचपना खराब कर दिया था, बचपन में हुए इस जबर मर्दाना सुलूक ने सरोज को दिमागी तौर पर इस हालत में पहुंचा दिया था। नंदराम इस कत्ल के लिए जेल भी होकर आए, फिर जमानत मिल गई, कोर्ट में तारीखें अब भी पड़ती हैं। पर उन्हें उस कत्ल का कोई मलाल नहीं है। जिस कत्ल से पहले इस बंदूक का उपयोग गांव की शादियों में हवा में फायर करने में ही होता था, लोग मांग के ले जाते थे, गांव से कभी बंदूक का किराया नहीं लिया गया और न ही कारतूस के पैसे। पर बंदूक ने वसूली की, गांव की दो जानें ले लीं, एक गुनाहगार और एक बेकुसूर। बंदूक ना कसूर देखती है, ना अपना- पराया। फौजीसाहब ने नंदराम को सलाह दी थी कि बंदूक को दीवार पर ही रहने देना, ताकत का भय ताकत से बड़ा होता है, जब भय नहीं होता तो ताकत कितनी भी बड़ी हो, बेअसर होती है।

सुरेंद्र के पिता नंदराम फौजी नहीं बन पाए तो उन्होंने सुरेंद्र के दादा जी के जीवनसूत्र को अपनाकर किसान बनना ही धारण किया, क्योंकि सेकिंड वर्ल्ड वॉर वाले फौजी साहब कहते थे कि किसान नौकरी करे तो बस फौजी की, बाकी सब तो चाकरी है। फौजी न बन पाने का उन्हें इतना मलाल नहीं है, जितना संगीत ना सीख पाने का है, गवैया न बन पाने का है। सेकिंड वर्ल्ड वॉर वाले फौजी साहब कहते थे कि ये संगीत वंगीत तो औरतों का काम है, मरासियों के घर नहीं जन्में हो, फौजी के बेटे हो, फौजी बनो, युद्ध लड़ो, जीतो, जश्न मनाओ, संगीत सुनो, नाच- गान देखो। उनका मानना था कि समझदार आदमी सारे खेलों का मजा लेता है, सारे खेलों का हिस्सा नहीं बनता।





सुरेंद्र तो जन्म लेते ही रोया ही सुर में था तो पिता बहुत खुश हुए थे, इसलिए नाम रखा था- सुरेंद्र, पर एक हादसे में उसका गला सदा के लिए बैठ गया। यानी सुर उसका बैठ गया और पेशे के तौर पर खेती ही अपना ली, यानी इंद्र के भरोसे हो गया सुरेंद्र, उस खेत में किसी भीगे खाळे की आड में अकेले बैठकर नंदराम आज भी कभी कभी पसंद का कोई गीत गाते हैं, पहले इधर-उधर देखते हैं कि कोई देख सुन तो नहीं रहा। हालांकि सुरेंद्र चुपके चुपके उनको कई बार सुन चुका है, उसने कभी जताया नहीं कि वह उन्हें सुन लेता है। दोनों बाप-बेटे संगीत पर बात तो करते ही हैं, पिता की पसंद मॉडर्न वेस्टर्न है– मोत्जार्ट, बीटल्स, बीथोवन से लेकर बॉब डिलन तक, यह पसंद उन्हें सेकिंड वर्ल्ड वॉर वाले फौजी साहब से मिली है, तो बेटे की पसंद हिंदुस्तान सूफी यानी बुल्लेशाह, फरीद, पठाने खान, वडाली बंधुओं से बाऊल तक। पिता से सुरेंद्र कहता है कि गले की वजह से तानसेन तो नहीं हो पाया, कानसेन तो हूं ही। तो नंदराम जवाब देते हैं- ‘मैं तानसेन नहीं हो पाया, तू कानसेन तो बन गया, पर चॉइस तो वर्ल्ड क्लास तुम्हारे बाप की ही है, तुम तो लोकल ही सोचते हो।’ सुरेंद्र पिता के इस ताने को प्यार से ही लेता है– ‘मैं तो लोकल ही भला, वर्ल्ड वॉर वाले दादा और वर्ल्ड क्लास चॉइस वाले बाप के बाद कुछ तो जमीन की भी इज्जत करनी ही चाहिए आपके खानदान के इस अगले चिराग को।’ हालांकि तथ्यात्मक रूप से कहना लाजमी है कि गुनगुनता सुरेंद्र भी है, और वह भी अकेले में। बचपन में तो उसके स्कूल, गली के दोस्त मजे लेने के लिए उसे गाने को कहते, और जब वह बैठे गले से ऊंचे सुर में गाने की कोशिश करता, एक दूसरे का चेहरा ताकते और बाद में सुरेंद्र का भरपूर मजाक उड़ाते। सुरेंद्र के पिता नंदराम केवल दसवीं पास हैं, क्योंकि लाहौर से मैट्रिक सेकिंड वर्ल्ड वॉर वाले फौजी साहब कहते थे कि गांव का दसवीं पास शहर के पीएचडी से ज्यादा समझदार होता है। जैसे नंदराम जी की कही एक बात सुरेंद्र ने अपने दोस्तों को सुनाकर कई दिन हंसाया कि पहले जोडि़यां स्वर्ग में बनती थी, अब उधर वर्कलोड ज्यादा हो गया तो कुछ काम नरक में शिफ्ट हो गया है, इसीलिए तलाक ज्यादा होने लगे हें।

जब बस्क्रो पिता पुत्र को ऐसे संगीत पर बात करते हुए सुनती तो लगता कि ये कहीं और के हैं और वह किसी और ही दुनिया की है, उसे हैरानी होती और वो आसमान देखने चली जाती, तीसरे कमरे की छत हमेशा उसका इंतजार कर रही होती। आज और अब का आसमान पिछले वक्तों के उसके देखे आसमानों से कितना भी बदला हुआ होता, उसे अपना ही लगता, उसका अपना जिसे वो हाथ बढ़ाकर छू लेती थी, उससे बात कर सकती थी, अपनी खुशी बांट सकती थी, अपना दुख दिखा सकती थी, अपना सपना सुना सकती थी। कई बार किसी को सुनना उसकी सबसे बड़ी मदद होती है। अब वह अपने सपने आसमान को ही सुनाती है। पहले वो अपने सारे सपने नानी को सुनाती थी– ‘सात फोटो नसवार वाली नानी’। उसकी नानी बचपन से ही उसे सपनों के मतलब बताया करती थी। बस्क्रो की शादी के कुछ महीने पहले ही नानी की मौत हो गई थी। नानी पंजाब के गांव में पली-बढ़ी थी, उसे गुरमुखी लिपि ही आती थी, शादी होकर इधर आई तो अनपढ जैसी ही हो गई, क्योंकि उसकी लिपि जानने वाला इधर कोई नहीं था, ना किताब, ना रिसाले। नानी सपनों को पढ़ना जानती थी। ये हुनर नानी ने पता नहीं किससे सीखा था, कई बार पूछने पर भी नहीं बताया नानी ने। बस्क्रो जब भी पूछती तो नानी कहती- ‘सोच ले, जिस दिन यह बताऊंगी, उसके बाद तुम्हारे सपनों के मायने बताना छोड़़ दूंगी, बोलो है मंजूर?’ तो यह बिलकुल विक्रम बेताल वाला रिश्ता था। और उसके बाद बस्क्रो दुगुने उत्साह से अपने सपनों का मतलब पूछने लगती- चांद और चिडि़या एक साथ सपने में क्यों आए? सुनहरी नदी में आग क्यों लगी? नीले कबूतर ने मेरे होंठ पर चोंच क्यों मारी? हरे शॉल वाली बुढिया मुझसे अंगारों पर सिकी हुई मक्की क्यों मांग रही थी, उसके तो दांत ही नहीं हैं? काले पहाड़ पर बांसुरी कौन बजा रहा था? उस निर्जन द्वीप पर मुझे लाल सींगों वाली गाय क्यों मिली?

  बस्क्रो के ससुराल और पीहर के बीच एक नदी लगभग सीमा की तरह थी, घग्घर। बरसाती नदी जब पहाड़ों से उतरकर आती थी, माएं उससे अपनी बेटियों के लिए सुंदरता का वरदान मांगती थीं। हर साल जब बारिश के दिनों में नदी आती थी, पहले पानी को त्वचा की बीमारियों के लिए अचूक माना जाता था, उस दिन माएं अपनी बेटियों को घग्घर के पानी से ही नहलाती थीं। सत्रह साल की होने तक किसी भी साल ऐसा नहीं हुआ कि बस्क्रो की मां ने घग्घर के पहले पानी से बस्क्रो को ना नहलाया हो, शायद इसीलिए बस्क्रो को घग्घर सपने में भी दिखती थी: एक लड़की बनकर- एक जादुई लड़की।

आषाढ और सावन के महीने का संधिकाल था, जब बस्क्रो उर्मिला को पेट में लिए नवें महीने में थी। घग्घर रोज उसके सपनों में आती थी। उसे अहसास हो रहा था कि अब उसके सपनों का मतलब बताने वाली नानी दुनिया में नहीं है। यह बारहवां दिन था, बस्क्रो उस दिन बारहवें सपने के इंतजार में थी। इससे पहले ग्यारह दिन में घग्घर ने अपने बचपन की कहानी सुनाई थी, कि वो राजकुमारी थी, राजा की तीसरी यानी सबसे छोटी रानी के गर्भ से पैदा हुई सुनहरे बालों वाली राजकुमारी। सबसे छोटी रानी पहाड़ी राजघराने के बेटी थी और राजा की सबसे लाडली। ग्यारहवें दिन नदी ने अपनी पहली माहवारी की कथा सुनाई थी। नदी ने बस्क्रो को गर्व से बताया था कि राजा ने अपनी बेटी की पहली माहवारी को दर्दरहित बनाने के लिए राज्य के सातों नगरों के वैद्य लगा दिए थे। बारहवें दिन नदी अपने पहले प्रेमी का गाया अंतिम गीत सुनाने वाली थी, ऐसा उसने वादा किया था। घग्घर नदी से कथा सुनते हुए सपने में बस्क्रो का शरीर बच्ची का था, जिसे नदी दुलारते हुए, सहलाते हुए अपनी कहानी सुना रही थी।

बारहवें दिन यानी बारहवीं रात बस्क्रो के सपने में नदी जब लड़की का रूप धारण करके आई, बस्क्रो ने देखा कि नदी की आंखें सूजी हुई हैं। उसे पता चल रहा था कि अपने प्रेमी की कहानी और गीत सुनाने से पहले नदी कितना रोकर आई थी। नदी का प्रेमी कोई राजकुमार नहीं था, रियासत के सबसे छोटे गांव के गरीब किसान का बेटा था। जन्म से ही उसे कुदरत ने संगीत देकर भेजा था, मां ने उसे कविता सिखा दी तो युवा होते होते वह किसान का बेटा राज्य का सबसे लोकप्रिय गायक हो गया था। राजा को जब अपनी बेटी के प्रेम के बारे में पता चला तो राजा ने अपनी बेटी का हाथ एक गरीब किसान के बेटे को देने से इनकार कर दिया। पहाड़ी रानी ने जिद की तो मंत्री की सलाह पर राजा ने शर्त रखी, अगर वो गायक पूनम की दूधिया रात से अमावस की काली रात तक बिना खाएपिए लगातार गाएगा तो बेटी की शादी उससे कर दूंगा। गायक ने चुनौती स्वीकार की, पर गायक अमावस की रात तक गा नहीं पाया, उसका गला बैठ गया, आवाज चिपक गई, बारिश शुरू हो गई, गायक के मौन आंसू बारिश में चुपचाप बहने लगे। और राजा ने गायक को मौत की सजा सुना दी। नदी ने अपने प्रेमी का गाया आखिरी गीत बस्क्रो को गाकर सुनाया-

मैं चांद और तुम नदी की हो लहर।
होता कहां है साथ फिर आठों पहर।

गीत समाप्त करके नदी ने कहा- ‘मेरा वह प्रेमी ही इस जन्म में तुम्हारा सुरेंद्र है।’ बारहवां सपना बस इतना ही सुन पाई बस्क्रो, झटके से उसकी नींद खुल गई। फिर पूरी रात नींद कहां आनी थी।





अगली शाम जब हल्की हल्की बारिश हो रही थी, उसने गेंदे के फूल गूंथे, दीए में घी डाला, नदी किनारे जाकर गेंदे के फूलों पर दीया जलाकर पानी में बहाया और दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि आज से उसके सपनों में आना स्थगित कर दे। नदी ने उसकी बात मान ली या बस्क्रो की जिद के आगे सपनों की हार हो गई। उसे किसी भी तरह के सपने आना बंद हो गए। ठीक वक्त पर यानी नवें महीने की उम्मीद वाली तारीख को बस्क्रो ने बेटी को जन्म दिया। अपनी मां की तरह आज अगर वह पांचवी बेटी होती तो उसका नाम बस्क्रो नहीं होता, यह इक्कीसवीं सदी का समय है जब अल्ट्रासाउंड की मशीन अब इलाके में किसी पांचवीं बेटी को जन्म नहीं लेने देती। बेटी का बाप बनने की खुशी में पंजाबी ढोल पर नाचते हुए सुरेंद्र ने जब गाने की कोशिश की, ‘बारी बरसी खटण गया सी’ की हेक लगाई, उसका कंठ खुल गया, पूरे गांव ने देखा और सुना। सुरेंद्र के पिता तो खुशी में झूम उठे। 

और आज, बस्क्रो की उर्मिला स्कूल में बास्केटबॉल खेलती है। पिछले साल स्टेट खेला, इस बार पक्का नेशनल पहुंच जाएगी। पढ़ने में बहुत तेज है। उसकी मां बस्क्रो को यकीन है कि वह डॉक्टर बन जाएगी। उर्मिला सपनों को पढ़ने का हुनर सीखना चाहती है। मां बस्क्रो ने प्राइवेट पढ़कर इतिहास में एमए कर लिया है। अगर एमए में उसके अच्छे नम्बर आ जाते तो वह शोध करती कि घग्घर नदी क्या वाकई सरस्वती नदी है? उसे तो सच में लगता है कि घग्घर नदी पहाड़ी रानी की बेटी है, उसका प्रेमी किसान का बेटा है जो बैठे हुए गले से भी गीत गाने की कोशिश कर रहा है। हो सकता है कि वह घग्घर नदी के बारे में स्वतंत्र शोध करके किताब लिखे, इतिहासकारों को चौंका दे, तमाम स्थापित मान्यताओं को ध्वस्त कर दे।

यह कहानी दरअसल प्रेमी के इंतजार में सदियों से प्यासी घग्घर नदी की ही है। नदी की प्यास रेगिस्तान की प्यास से इसीलिए बड़ी होती है कि हम नदी की प्यास पर आसानी से यकीन नहीं करते। बताना जरूरी है कि खुशी में गला खुलने की रात सुरेंद्र नदी में नहाने गया था, फिर वापिस नहीं लौटा, नदी उसे अपने साथ ले गई। यह अमावस की रात थी। अगली सुबह नदी किनारे शीशम के पुराने पेड़ की ओट में एक सफेद कुर्ता-पाजामा, एक जोड़ी जूतियां, एचएमटी की घड़ी, और नीली धारियों वाला हल्के पीले रंग का साफा मिला था, कुर्ते की साइड जेब में माचिस की टायर छाप डिबिया थी, बीस बीड़ी का देसाई बंडल था, जिनमें से कुछ बीडि़यां फूंकी जा चुकी थीं। ऊपर पेड़ की डाल पर बैठा बारिश में भीगा हुआ तोता किसी अज्ञात भाषा में मद्धमस्वर में कोई संदेश दे रहा था, वह घग्घर किनारे की उस प्राचीन हड़प्पा सभ्यता की लिपि की तरह था जिसे आज तक कोई पढ़ नहीं पाया है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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