समीक्षा सरदार उधम
फ़िल्म कला का नायाब नमूना 'सरदार उधम'
— फुरक़ान खान
आतंकवादी और क्रांतिकारी में बड़ा फ़र्क़ होता है। क्रांतिकारी होने की भी शर्तें हैं — जातिवादी, साम्प्रदायिक, और छोटे-बड़े का भेद करने वाला इंसान कभी क्रांतिकारी नहीं हो सकता। आतंकवादी डर फैलाने के लिए हिंसा करते हैं क्रांतिकारी मात्र प्रतीकात्मक हिंसा कर लोगों में विश्वास का संदेश देते हैं। वो किसी से नफरत नहीं करते
— "सरदार उधम" फ़िल्म में भगत सिंह ये बात उधम सिंह को समझाते नज़र आते हैं।
#SardarUdhamSingh the Revolutionary!#SardarUdham pic.twitter.com/cgpfT7482y
— Bharat Tiwari (@BharatTiwari) October 17, 2021
ऐक्टर:विक्की कौशल,बनिता संधु,अमोल पराशर,स्टीफन होगन,सैम रेडफोर्ड
डायरेक्टर : शूजित सरकार
श्रेणी:Hindi, Crime, History, Drama
अवधि:2 Hrs 42 Min
शूजीत सरकार निर्देशित "सरदार उधम" [उधम सिंह (Sardar Udham Movie Review] फ़िल्म कला (Film craft) का नायाब नमूना है। 2 घण्टे 42 मिनट में फैली जलियांवाला बाग़ से शुरू हुई दास्तां पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डायर की हत्या और उधमसिंह की फांसी के इर्दगिर्द सिमटी हुई है।
यह फ़िल्म सभी को इसलिये भी देखनी चाहिये कि उधम सिंह के शब्दों में —
जवानी भगवान का बहुत खूबसूरत तोहफा है उसे हम या तो किसी काम में लाते हैं या बेकार कर देते हैं, मुझे भी ऊपर वाले से मिलकर अब यही पूछना है कि मैंने जवानी बेकार की या कुछ काम किया?
फेसबुक और कम्प्यूटर गेम्स या सोशल मीडिया पर जो उँगलीवीर अपनी जवानी ख़राब कर रहे हैं, उन्हें ये फ़िल्म देख कर ये सवाल खुद से ही करना चाहिये।
#SardarUdhamSingh देखने से बचने की सलाह
— Vinod Kapri (@vinodkapri) October 19, 2021
तमाम फ़र्ज़ी राष्ट्रवादियों को सदमा लग सकता है
दिल का दौरा भी पड़ सकता है
पक्षाघात की भी आशंका है
क्योंकि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक भी फ़र्ज़ी राष्ट्रवादी का ना कोई योगदान, ना ज़िक्र।कम्युनिस्ट/कॉंग्रेसी ही लड़ते-मरते रहे।
ऐतिहासिक फ़िल्म
ज़ाहिर सी बात है कि ये एक ऐतिहासिक फ़िल्म है और सामान्य फिल्मों की तरह इसमें गाने, ढिशुम-ढिशुम, प्रेमकथा या आइटम नंबर तलाश करेंगे तो निराशा ही हाथ लगेगी। फ़िल्म की प्रमाणिकता बनाये रखने के लिए इन तयशुदा फार्मूलों का त्याग करना ही होता है, और ये बड़ी हिम्मत की बात भी है। शूजीत सरकार फ़िल्म को प्रामाणिक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। आपने उनकी फिल्म मद्रास कैफ़े में उस प्रमाणिकता के दर्शन किये थे और सरदार उधम में तो उनकी प्रमाणिकता अपने शिखर पर है।
कला निर्देशन
1930 के आसपास का लंदन, पुरानी कारें, बसें, ट्राम, लोगों की पोशाकें, पुराने हथियार, मोर्स कोड को प्रयोग करते संदेशों का आदान-प्रदान सब कुछ इतना सामयिक लगता है कि आप स्वयं को समय के उस छोर पर पाते हो। छोटी-छोटी बातों का भी बहुत गम्भीरता से ध्यान रखा गया है। मसलन रूसी महिला द्वारा जब खाना खिलाया जाता है तो उस समय के लकड़ी के चम्मच और प्याले दिखाए गये और लंदन और अमृतसर में साइन बोर्ड हाथ से लिखे हुए दिखाए गए (आजकल कम्प्यूटर से प्रिंट होते हैं)। जलियांवाला बाग़ के आसपास के इलाके की दीवारों पर पोस्टर चिपके दिखाए गये जिनके कागज़ और प्रिंट उस समय के ही थे। लंदन में अस्पताल ले जाने वाला स्ट्रेचर हो या अमृतसर के अस्पताल में डॉक्टर के हाथ में पुराने फ्लास्क — सब उस समय का दर्शन करवाते हैं। फ़िल्म में कला निर्देशन प्रदीप जाधव का बताया गया है।
सिनेमाटोग्राफी
फ़िल्म का एक बहुत ही प्रभावशाली पक्ष है इसकी सिनेमाटोग्राफी। कम रोशनी (Low light / Low key) की जो फोटोग्राफी इस फ़िल्म में अविक मुखोपाध्याय ने की है वो इतनी कमाल की है कि हर फ्रेम एक आर्ट पीस लगता है। अनेक स्थानों पर सिल्हूट (silhouette) फ्रेम लिये हैं, जिनके स्टिल भी निकालें तो ड्राइंग रूम में सजाने लायक़ होंगे।
फ़िल्म का एक बहुत ही प्रभावशाली पक्ष है इसकी सिनेमाटोग्राफी। कम रोशनी (Low light / Low key) की जो फोटोग्राफी इस फ़िल्म में अविक मुखोपाध्याय ने की है वो इतनी कमाल की है कि हर फ्रेम एक आर्ट पीस लगता है। अनेक स्थानों पर सिल्हूट (silhouette) फ्रेम लिये हैं, जिनके स्टिल भी निकालें तो ड्राइंग रूम में सजाने लायक़ होंगे।
निर्देशन का बड़ा कमाल
फ़िल्म शुरू से आखिर तक फ्लैशबैक और वर्तमान में दूरी तय करती रहती है। जो लोग इतिहास, भगतसिंह, उधमसिंह या जलियांवाला बाग़ में रुचि नहीं रखते उन्हें ये फ़िल्म शुरू में थोड़ी खिंचती नज़र आ सकती है लेकिन, निर्देशन का एक बड़ा कमाल है — जलियांवाला बाग़ की त्रासदी को नए एंगल से प्रस्तुत करना। गांधी फ़िल्म में जलियांवाला बाग़ में गोली चलने की घटना को बहुत प्रभावी ढंग से दिखाया गया है लेकिन, सरदार उधम में गोलीबारी के बाद के हालात का मार्मिक चित्रण है, जिसे देखकर दर्शकों को ये समझ आ जाता है कि उधमसिंह डायर को मारने के लिये इतना प्रतिबद्ध क्यों हुए थे। फ़िल्म के अंत का दृश्य बहुत कमाल का है, टॉप-एंगल से लिए गए शॉट में सैंकड़ों लाशें कपड़ों/कफ़न में लिपटी दिखाई गईं हैं।
माफ़ी गलती की मांगी जाती है! pic.twitter.com/fiSj8x1M3X
— Bharat Tiwari (@BharatTiwari) October 19, 2021
अभिनय में हर किरदार ने भी अपनी छाप छोड़ी है। अमृतसर में महिला जब ये कहती है कि ‘पानी काट दिया गया और अब इनके बचने की उम्मीद नहीं है’. तो उसके चेहरे पर विवशता और दर्द का जो भाव था वो नोटिस में लिये जाने लायक है। विक्की कौशल की तो बात ही क्या करें मुझे तो बॉलीवुड के बुढ़ाते सुपर स्टार्स का बहुत अच्छा विकल्प विक्की कौशल में नज़र आता है।
अंत में उधमसिंह की महानता का सुबूत — उधमसिंह ने कुछ समय डायर के घर पर नौकर के रूप में काम भी किया लेकिन तब उसने डायर को नहीं मारा। पूछने पर उसने कहा — “मैंने उस समय इसलिए नहीं मारा तब इसे एक नौकर द्वारा मालिक की हत्या ही समझा जाता जबकि मेरा उद्देश्य 'विरोध' प्रकट करके सन्देश देना था जो एक नौकर के रूप में मारने पर सम्भव नहीं था सारे नौकरों को इसकी वजह से परेशानी और हो जाती।“
सरदार उधम की पूरी टीम को हैट्स ऑफ। आपको भी देख ही लेनी चाहिये!
उधमसिंह, भगतसिंह आदि को नमन के साथ।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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