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मृदुला गर्ग — वे नायाब औरतें — विदेश की निराली सहेलियाँ और बल्ब वाले सरदारजी — संस्मरण अंश 1 | Mridula Garg — Memoire: Khushwant Singh — Part 1

हमने हर तरह की बातें की पर रचना का ज़िक्र छिड़ने पर पंडिताई पर नहीं उतरे; ख़ुशदिल रचनाकार बने रहे। सफ़र में ऐसे लोगों का साथ सुकूनदेह होता है, अपने कहे हर वाक्य को तर्क से सही सबित करने की होड़ नहीं होती। तंज़ का, बतौर तंज़ आनन्द ले सकते हैं, यह साबित करने के चक्कर में पड़े बिना कि, मोहतरमा आप ने कहा, कोविड पर कविता न लिखें तो इसका मतलब हुआ, युद्ध पर भी न लिखें, कैन्सर पर भी न लिखें, एड्स पर भी न लिखें। मज़े में आकर आप कह दें, ओह तपेदिक, डेन्गू और न्यूमोनिया तो छूट ही गया तो वह गाज गिरे आपके सिर पर कि माईग्रेन होते होते बचे। केरन के साथ ऐसी कोई समस्या नहीं थी। 


विदेश की निराली सहेलियाँ और बल्ब वाले सरदारजी

मृदुला गर्ग द्वारा लिखे जा रहे संस्मरण 'वे नायाब औरतें' का अंश - १ 

कुछ ज़बरदस्त लिखे को पढ़ने की तैयारी से शुरू कीजिए, मृदुला गर्ग के अद्भुत अविरल संस्मरण  'वे नायाब औरतें' को, यह याद रखते हुए कि बल्ब वाले सरदारजी — खुशवंत सिंह होने चाहियें। ~ सं०

Mridula Garg — Memoire: Khushwant Singh — Part 1


1988 में बहैसियत लेखक, मैं पहली बार विदेश गई थी; भूतपूर्व युगोस्लाविया के अभूतपूर्व नगर डुब्रोवनिक में एक नारीवादी सम्मेलन में हिस्सा लेने, बतौर तीसरी दुनिया की सदस्या। मज़े की बात यह थी कि सम्मेलन तीसरी दुनिया पर एकाग्र था पर उन दिनों तीसरी दुनिया कहलाये जाने वाले मुल्कों से, मैं अकेली भागीदार थी।चीन, अफ़्रीका, पाकिस्तान, श्रीलंका वगैरह पर जो उद्बोधन हो रहे थे, सब अमरिका में बसी औरतें दे रही थीं। चाहे उनके दादा-दादी और कभी-कभार माँ-बाप, कहीं से भी अमरीका पलायन किये हों। युगोस्लाविया तब तीसरी दुनिया में नहीं था; प्रतिव्यक्ति आय, रोज़गार उपलब्धि, चिकित्सा सुविधा, साक्षरता दर, किसी मानक पर नहीं। नाटो मुल्कों की कोशिश शुरु हो चुकी थी; बाँटों और ग़रीब बनाओ, नीति अपना कर, उसे तीसरी दुनिया का मुल्क बनाएं। मैं बस एक वर्ष पहले वहाँ पहुँच गई थी, वरना अपनी आँखों से काफ़ी कुछ देख पाती। तब तो बस ज़बरदस्त मुद्रा स्फ़ीति महसूस होती थी। आशंका के साथ मज़ाक का भी सबब थी। मुझे याद है हम चार-पाँच औरतें बस से डुब्रोवनिक से पास के शहर कोरकुला गये तो जाने का टिकट कम था, वापस आने का ज़्यादा। हमने पूछा ऐसा क्यों तो हँस कर एक यात्री बोला, चार पाँच घण्टों में दीनार का दाम गिर जाएगा न! 

सम्मेलन में दो प्रमुख गुट थे; अमरीकन नारीवादी और फ़्रान्सीसी नारीवादी। अमरीकन गुट की अधिकतर औरतें, आक्रामक, अहंकारी, मुखर, अमीर और कंजूस थीं। जो दूसरे देशों से जा कर वहाँ बसी थीं, वे काफ़ी फ़र्क़ थीं। फ़्रान्सीसी गुट की ज़्यादातर महिलाएं साहित्य प्रेमी, आज़ाद ख़याल, समानता की पक्षधर और नपे-तुले शब्दों में बोलने वाली थीं। 

चूंकि मुझे फ़्रान्सीसी भाषा नहीं आती थी इसलिए मजबूरन, अमरीकन गुट में शामिल होना पड़ा। अमरीका के पैसे से चल रहे आयोजन के संयोजकों के, जो अधिकतर अमरीकन थे, कुछ ठोस पूर्वग्रह थे। सो अपनी समझ में व्यवहार कुशल तरीके से, उन्होंने प्रचारित कर रखा था कि तीसरी दुनिया से आई औरतें, संकोची और लजालु होंगी; अपनी बात कहने से कतराएंगी। पहली दुनिया के बाशिन्दों को उनसे हमदर्दी से पेश आना होगा। जैसा पहले अर्ज़ किया था, तीसरी दुनिया से सिर्फ़ मैं थी। आप अंदाज़ लगा सकते हैं कि सम्मेलन के दूसरे दिन, जब मैं बोली तो उनके पूर्वग्रह के कैसे परखच्चे उड़े। मेरा पर्चा सर्वोत्तम कतई नहीं था पर अलहदा ज़रूर था, क्योंकि मैं कॉलेज में पढ़ाने वाली पंडित नहीं, ख़ुद सोच-विचार करने वाली रचनाकार थी। मैंने भारतीय साहित्य में स्त्रीत्व के रूपक पर बात रखी। एक तरफ़, तीसरी दुनिया से बदतर पहली दुनिया की औरतों की मानसिकता की बात की। दूसरी तरफ़, तीसरी दुनिया में राजनीति, चिकित्सा और विज्ञान के क्षेत्रों में, ऊँची पदवियों पर आसीन विद्वान महिलाओं की। हमारी औरतों के लिए देश और पर्यावरण रक्षा की आज़ादी उतनी ही मानीखेज़ थी, जितनी औरतों की आज़ादी। हम अपने साथ, मर्दों को भी आज़ादी देने के क़ायल थे। उस सिलसिले में मैंने चिपको आंदोलन का ज़िक्र किया।अमरिकन रचनाकारों को मेरा अभिभाषण पसन्द आया, नारीवादी विशेषज्ञों को नहीं पर तीसरी दुनिया की औरतों की सकुचायी, लजालु शख़्सियत का कोई पैरोकार नहीं बचा। एक-दो दिन, हम रचनाकारों ने अपनी रचनाएं भी पढ़ी थीं। मेरी कहानियाँ उन्हें काफ़ी ग़ैर तीसरी दुनिया मार्का लगी थीं जैसे डैफ़ोडिल जल रहे हैं का अंग्रेज़ी अनुवाद। 

मैं अपने बारे में बतलाने के लिए यह बयान नहीं कर रही; उन औरतों से आपको मिलवाने के लिए कर रही हूँ, जो उस दिन के बाद मेरी दोस्त बन गईं। कईयों ने अगले सालों में मुझे अमरीकन विश्वविद्यालयों में बोलने के लिए न्यौता भेजा। सबसे अहम था बीज वक्ता की तरह आइयोवा में यू.एन के स्त्री कोलोक्यम में रात्री भोज पर बोलना। उसी की वजह से मैं अमरीका पहुँची और बाद में वहाँ के अनेक विश्वविद्यालयों में रचना पाठ किया। डुब्रोवनिक में सम्मिलित स्त्रियों की वजह से वह सब मुमकिन हुआ।

बहुत सी बेमिसाल औरतों से वहाँ मुलाक़ात हुई। सबसे नायाब औरत नादिया तेसिच के बारे में अलग से सबसे बाद में कहूँगी। नाटक में विरेचन यूँ ही होता है।

तो औरों की सुनिए।

एक बेमिसाल औरत थीं, वहाँ आई फ़्रान्सीसी प्रोफ़ेसर। उन्होंने अपने भाषण में अंग्रेज़ी में लिखने वाली औसत भारतीय लेखिका, कमला मार्कन्डे से उद्धरण दे कर कहा कि, भारतीय साहित्य में औरतें, मातृत्व पर लिखने से आगे नहीं बढ़ पाई हैं। मैं यह कहने से ख़ुद को रोक नहीं पाई कि भारत में, युरोप की तरह संस्कृत के अलावा, चौदह से ज़्यादा प्रमुख भाषाएं हैं, और हरेक का साहित्य, विश्व की किसी भाषा में लिखे साहित्य से बृहत् और वैविध्यपूर्ण है। ज़ाहिर है, आपको उनके बारे में मालूम नहीं हो सकता। बेहतर होगा कि आप भारतीय साहित्य पर न बोलें। जब ढ़ाई हज़ार वर्ष से, हम न पढ़े जा कर सकुशल हैं तो अगले ढ़ाई हज़ार साल भी रह लेंगे। 

दरअसल कसूर उनका नहीं, अंग्रेज़ी से आक्रांत हमारे विद्वानों का था, जो हरदम भारत के अंग्रेज़ी लेखकों का नाम गिनाया करते थे। खामख्वाह मैं कटु हो गई थी। बाद में जो हुआ, उसने मुझे उनकी नायाब शख्सियत से रूबरू करवाया। वह आख़िरी दिन था। अगली सुबह मैं निकल रही थी। शाम को वह मेरे कमरे में आईं, कहा क्या रात वे मेरे साथ गुज़ार सकती हैं? मैं समझ पाती, उससे पहले उन्होंने सफ़ाई दे दी। कि वे शर्मिंदा हैं कि बिना जाने टिप्पणी की और अब मुझसे लम्बी बात करना चाहती हैं। सुबह हम दोनों निकल जाएंगे, फिर मिलना हो न हो, इसलिए जितना सम्भव हो, कम से कम हिन्दी साहित्य के बारे में जानना चाहती हैं। मैंने अपने पर्चे को हिन्दी साहित्य पर ही एकाग्र किया था। अपने कटाक्ष के लिए माफ़ी माँग कर हाँ के सिवा मैं क्या कह सकती थी? पूरी रात हम बातें करते रहे। मेरे पास जो दो-चार, हिन्दी से अंग्रेज़ी में अनुदित क़िताबें थीं, उन्हें दे दीं। हिन्दी लेखिकाओं की सूची भी। वह एक अविस्मरणीय रात थी। उनकी उदारता, विनम्रता, सच के लिए ललक ने मुझे अभिभूत कर लिया। उनके सामने मैं शर्मसार हो गई। बातों-बातों में उन्होंने यह भी बतलाया कि उनकी माँ एक घर में हाउसमेड थीं और वे उन अमरीकनों से जुड़ाव महसूस नहीं कर पातीं, जिन्होंने बिना संघर्ष किये, उच्च शिक्षा पाई और अब दूसरों को नीचा दिखलाने में व्यस्त हैं। उन्होंने मुझे अनाय निन का काव्यमय उपन्यास "सिटीज़ ऑफ़ द इन्टीरियर" भेंट किया। उसे मैंने अनेक बार पढ़ा। फिर 2004 में मकान बदला तो अनेक क़िताबें इधर-उधर हो गईं। उनमें वह भी रही होगी क्योंकि बहुत ढ़ूँढ़ने पर भी नहीं मिली। वरना उस पर उनका नाम लिखा था और वह मुझे मिल जाता। पर उस अनाम, एक रात की दोस्त के सामने, मैं नतमस्तक हूँ। वे मेरे भीतर जी रही हैं। जब भी मैं किसी सम्मेलन में बोलती हूँ, वे मेरे बराबर आ कर खड़ी हो जाती हैं। 

अमरीका से आई रॉक्ज़ान प्राज़नायक एक और विदुषी थीं जिनसे मेरा काफ़ी अलहदा क़िस्म का रिश्ता बना। 

वह शायद आख़िरी दिन रहा होगा। हमारी बातचीत होती रही थी। साहित्य पर, जीवन पर, स्त्री पुरुष सम्बन्ध पर, विवाह पर, जीवन दृष्टि पर … उस दिन उन्होंने अपने पति के बारे में कुछ बातें बतलाईं और मुझसे कहा, "आप प्राचीन संस्कृति से हैं। मुझे बतलाइए मैं इस निजी मसले में क्या फ़ैसला लूँ?" बिना एक पल झिझके, मैंने कहा, "तलाक दे दो।"

वे हतप्रभ तक न हुईं। बस धन्यवाद कहा। उसके बाद मैं दो बार अमरीका गई। 1990 और 1991 में। 1991 में गई तो बेटे की सर्जरी के लिए थी पर उसके स्वस्थ होने पर, अमरीका घूमो का सस्ता टिकट बनवा कर, बहुत जगह घूमी। 1990 में रॉक़्ज़ान से मिलना तो नहीं हुआ। हम अमरीका के दो छोरों पर थे, पर उनका फ़ोन ज़रूर आया। उनकी हिस्ट्रेक्टॉमी होने वाली थी। मेरी एक साल पहले हुई थी तो मान सकते हैं, कुछ अनुभव था। कुछ बातें उन्होंने पूछीं, मैंने भरसक जवाब दिये। पर सर्जरी के बाद एक दिन, काफ़ी अटपटा सवाल पूछा। कहा कि उनका दूध पीने को मन करता है पर डाक्टर कहता है ज़रूरत नहीं है। "भाड़ में गया डाक्टर," मेरे मुँह से निकला, "अपनी देह को तुमसे बेहतर कोई नहीं जानता। मन करता है तो समझो देह की माँग है। ज़रूर पियो और ख़ुशी से पियो।" 

अपनी देह को हमसे बेहतर कोई नहीं जानता, बाद के वर्षों में यह नारीवाद का नारा बन गया। पर मैंने अन्तःप्रज्ञा से कहा था।

1991 में रॉक्ज़ान ने मुझे विर्जिनिया के हैंम्पडन सिडनी कॉलेज बुलाया, जो शायद इकलौता कॉलेज था, जो केवल पुरुषों के लिए था। मैंने अपनी कहानी "नकार" का अंग्रेज़ी तर्जुमा पढ़ा और "रिकेन्टेशन" का पाठ किया, जो सीधे अंग्रेज़ी में लिखी थी और जिसका हिन्दी तर्जुमा नहीं किया था। मज़े की बात यह हुई कि उसका अन्त छात्रों की समझ में तो ख़ूब आया, प्रोफ़ेसरों की नहीं। छात्रों ने मुझसे पुष्ठि करवाई और जोश से चिल्लाये, "वी शुड बी द डॉन्स ( सरगना हमें होना चाहिए)!” 

विर्जिनिया का वह कॉलेज इतना ब्रितानी था कि हिन्दुस्तान के कलकत्ते के प्रेज़िडेन्सी कॉलेज की याद दिलाता था। हम ब्रिटिश से ज़्यादा ब्रिटिश ठहरे। फ़ोर पोस्टर बेड मैंने वहीं देखा, वह भी अपने कमरे में, जिस पर चढ़ने के लिए छोटी निसानी का इस्तेमाल करना पड़ता था। वहाँ से कोई कभी हिन्दुस्तान नहीं गया था। एक बन्दे को गेरुए कपड़ों में देखा तो सोचा वह गया होगा पर नहीं, वह वहीं रहते, बस बुद्ध से प्रभावित था।

2007 में जब विश्व हिन्दी सम्मेलन में गई तो नादिया तेसिच के साथ रॉक्ज़ान से भी सम्पर्क किया। वे अमरीका से बाहर थीं। ताउम्र उन्होंने गहरी निष्ठा से युरेशियन सहित्य पर काम किया था और अन्ततः 2014 में उनकी पुस्तक छप गई थी। उन्हें 2014 फिर एक बार मेल लिखा क्योंकि तब मैं एक क्रोशियन पत्रिका के लिए डुब्रोवनिक की 1988 की यादों पर लिख रही थी। मेरी तरह उन्हें भी भागीदारों के नाम नहीं मिले। तब उन्होंने मुझे यह मेल लिखी। "प्रियवर मृदुला, अन्ततः डुब्रोवनिक सम्मेलन इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि आपसे मिलना हुआ। आपने मुझ पर गहरा असर छोड़ा। मैं कितनी बार लोगों को बतला चुकी हूँ कि आपने कहा था, आप कैमरा नहीं रखतीं; तस्वीरें न ख़ींचने की वजह से चीज़ों के ज़्यादा पहलू याद रख पाती हैं। मेरी अवांछित सर्जरी के दौरान जो सलाह आपने दी थी, वह भी याद है मुझे।" 

मुझ पर भी रॉक्ज़ान ने गहरा असर छोड़ा था और उन जैसी चन्द औरतों की वजह से ही, डुब्रोवनिक सम्मेलन मुझे याद रह गया है। 


पहली विदेश यात्रा होने की वजह से मेरे लिए कुछ नई और रोचक बातें भी हुईं। मैं अपने साथ, दार्जीलिंग की चाय बगान से आई, उम्दा चाय ले गई थी। होटल में केतली तो थी नहीं पर दो दूधदान मुझे दे दिये गए; एक ख़ाली, दूसरा खौलते पानी से भरा। सुबह नाश्ते पर मैंने एक दूधदान में चाय पत्ती डाली, दूसरे का ख़ौलता पानी उसमें उडेला और सॉसर से ढक दिया। ऊपर अपना ऊनी स्टोल ओढ़ा दिया। कुछ देर में चाय तैयार थी। तब तक मेरे चारों तरफ़ काफ़ी औरतें जमा हो गई थीं। पटोला साड़ी में लैस में अकेली हिन्दुस्तानी, न जाने क्या जादू- टोना कर रही थी! अन्ततः एक औरत ने पूछा, "आप क्या कर रही हैं?"

"चाय बना रही हूँ। पिएंगी?" 

"हम तो चाय सिर्फ़ बीमारी में पीते हैं।"

"श…श... नागवार बात न कहिए, चाय का स्वाद बिगड़ जाएगा!" मैंने बेहद संजीदा आवाज़ में कहा।

अचानक मेरे सामने एक प्याला लहराया; हँसी से खनकती आवाज़ ने कहा, "मुझे दीजिए।" मैंने चाय प्याले में डाल दी। उन्होंने चुस्की लेने को ओंठों की तरफ़ बढ़ाया तो मैंने कहा, "ध्यान से, बहुत गर्म है।" उन्होंने चुस्की ली, हँस कर कहा, "वाक़ई! मैं अमरीका से केरन ब्लोमेन। इतनी बढ़िया चाय पहले नहीं पी।" 

केरन कवि थीं, मशहूर नहीं पर बेहद ख़ुशमिज़ाज और पहली दुनिया की होने के ग़ुरूर से खारिज। तब तक कई औरतें प्याले कर आ गई थीं। चाय उडेल दी। सवालों की झड़ी लग गई। आप हिन्दुस्तान से चाय ले कर आई हैं? जी, मैं रद्दी चाय नहीं पी सकती। तो कॉफ़ी… जी, चाय का पर्याय नहीं है। कॉफ़ी यहाँ बढ़िया मिलती है …जी, जब धीरज से बनाई जाए, युरोप में मिलती है पर गर्म नहीं होती, अमरीका में बढ़िया बहुत कम मिलती है। सिर्फ़ गर्म होती है। केरन मेरी बगल की कुर्सी पर बैठ चुकी थी, प्याला दुबारा भर कर महक भीतर उतारती हुई बोली, "हेवेन (बहिश्त)! ऐसी चाय पियो तो बीमार पड़ो क्यों।" बाक़ी औरतों ने कहा, "बेस्ट हॉट ड्रिन्क आई हेड (मेरा पिया सबसे बढ़िया गरम पेय) धत तेरे की!

केरन फिर हँस दी। ऊँट जैसी गर्दन ताने सम्मेलन की विदुषियों के सामने वह सकुचाई रहती थी, मासूम कवि ठहरी! पर साथ घूमने-फिरने के लिए एकदम आला साथी थी। यारबाश; न हेकड़ी, न पूर्वग्रह; एक के सिवा, अकड़ू मादा पंडितों से भगवान बचाये। हम साथ घूमे, कॉफ़ी पी, खाना खाया, मेरे समुद्री जन्तु न खाने पर, जो उनके लिए भोजन भर थे, अचरज नहीं दिखलाया, मीनू में दूसरे व्यंजन ढ़ूँढने में मदद की। हमने हर तरह की बातें की पर रचना का ज़िक्र छिड़ने पर पंडिताई पर नहीं उतरे; ख़ुशदिल रचनाकार बने रहे। सफ़र में ऐसे लोगों का साथ सुकूनदेह होता है, अपने कहे हर वाक्य को तर्क से सही सबित करने की होड़ नहीं होती। तंज़ का, बतौर तंज़ आनन्द ले सकते हैं, यह साबित करने के चक्कर में पड़े बिना कि, मोहतरमा आप ने कहा, कोविड पर कविता न लिखें तो इसका मतलब हुआ, युद्ध पर भी न लिखें, कैन्सर पर भी न लिखें, एड्स पर भी न लिखें। मज़े में आकर आप कह दें, ओह तपेदिक, डेन्गू और न्यूमोनिया तो छूट ही गया तो वह गाज गिरे आपके सिर पर कि माईग्रेन होते होते बचे। केरन के साथ ऐसी कोई समस्या नहीं थी। 

एक और बात मुझे नागवार गुज़रती थी। चार-पाँच औरतें कॉफ़ी पीने कैफ़े में जातीं तो अपने बिल का अलग-अलग भुगतान करतीं। तब तो ठीक लगता जब कोई बहुत ज़्यादा खाता, कोई निहायत कम, यानी किसी का बिल बहुत होता, किसी का कम। पर जब सिर्फ़ एक कप कॉफ़ी के लिए भी वही मशक्कत की जाती और लोगों के पास दीनार की माक़ूल रक़म न होने और केफ़े के रेज़गारी देने से इन्कार करने पर, देर तक मगज़ खपाई होती तो हँसी आती और खीज भी। कई बार मैं कह उठती, "इस बार मैं दे देती हूँ, अगली बार आप दे दीजिए।" पर उन्हें गवारा न होता। केरन के साथ यह पेंच न था। कभी वह पैसे दे देती, कभी मैं। दो चार दीनार, इधर-उधर हो जाते तो क्या मुसीबत आ जाती! वैसे भी मुद्रा स्फ़ीति काफ़ी दीनार हड़पने वाली थी। 

आख़िरी शाम, वह भी देर रात खाने के वक़्त, संयोजकों ने मुझसे कहा, उन्हें मुझे कुछ मेहनताना और देना था और काफ़ी दीनार पकड़ा दिये। मैंने कहा, चलो मैं सभी भागीदारों को वाईन पिला रही हूँ, अपने खर्चे पर। अब साहब, वहाँ यह कहने की बदतमीज़ी करनी पड़ती थी। मस्ती तो ख़ूब की हमने, पर वे इस हरकत पर ऐसे हैरान थे जैसे मैं कोई जागीर बाँट रही हूँ। बस केरन समझ रही थी कि वह एक विन्डफ़ॉल था, जिसे पा कर मैं शहनशाह महसूस कर रही थी। बाक़ी औरतों ने मुझे याद दिलाया कि मैं हवाई अड्डे पर खरीदारी कर सकती थी। मैंने भी सोचा हाँ, पर्फ़्यूम और चोकलेट ख़रीद लूँगी। पर अगली सुबह हवाई अड्डे के लिए रवाना होने के साथ जो मुसलाधार बारिश शुरु हुई कि बमुश्किल वहाँ पहुँची। टेक्सी से घुटनों तक पानी में उतरी तो सूटकेस उठाये न उठा। वहाँ से लंदन जा रही थी, सो सूटकेस बड़ा था। हिन्दुस्तान की तरह, एक नाजायज़ कुली नमूदार हो गया और उसे बख्शीश दे, सूटकेस समेत शाही अंदाज़ में काउंटर पर पहुँच गई। पर वक़्त इतना कम बचा था कि कुछ चॉकलेट ही ख़रीद पाई, बाक़ी दीनार साथ हिन्दुस्तान पहुँच गये। अच्छा ही हुआ क्योंकि इत्तिफ़ाक़ से अगले बरस, आईसेक की तरफ़ से, अपु पूर्वी युरोप गया तो उसे दे दिये, हालांकि मुद्रा स्फ़ीति ने उनका मोल काफ़ी गिरा दिया था। फिर भी हम अंदाज़ नहीं लगा पाये कि युगोस्लाविया में हालात कितना हौलनाक मोड़ लेने वाले थे। वह तो बाद में नादिया तेसिच ने बतलाया।

बाक़ी की जो विदेशी नायाब औरतें याद हैं, उनका ताल्लुक डुब्रोवनिक से नहीं था। उनमें से कुछ सखियाँ बनीं, कुछ बनते-बनते रह गईं। 

1993 में मैं इन्टर्लिट 3 नाम के साहित्योत्सव में शिरकत करने जर्मनी गई। पहले एरलांगन नाम के कस्बेनुमा शहर में बैठक हुई, फ़िर बर्लिन में। वहीं मेरी मेक्सिको की लेखिका मोनिका मंसूर से मुलाक़ात हुई। कमाल की औरत थीं। कोई सतही या बेहूदा बात करता तो कहतीं, "उसका क़सूर नहीं है। बस उसका जन्म इतनी कम बार हुआ है कि परिष्कृत नहीं हो पाया, माफ़ कर देना चाहिए।" फिर हम मिल कर ख़ूब हँसते। एरलांगन छोटा शहर था पर कमाल के फल मिलते थे वहाँ, मौसम भी वसंत का था। एक दिन लम्बी सैर के दौरान, बगानों के पास लगे फ़लों के बाज़ार में पहुँचे तो सभी ने ख़ूब फल ख़रीदे। सिवाय ख़ुशवंत सिंह के। उनकी कंजूसी का ज़ायका मैंने पहले दिन ही चख लिया था।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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