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मृदुला गर्ग — अजब-गज़ब मर्द थे खुशवंत सिंह — संस्मरण अंश 2 | Mridula Garg — Memoire: Khushwant Singh — Part 2


मृदुला गर्ग जी का आज (25/10/21) जन्मदिन है। उन्हें ढेरों शुभकामनाएं। आनंद लीजिए उनके संस्मरण 'बल्ब वाले सरदारजी' के इस अंश का, जिसमें वह लिखती हैं —

अजब-गज़ब मर्द थे खुशवंत सिंह! अगर मुझे क्लीशे बोलने का शौक़ होता तो कहती उनमें चंचल चित्त या ढुलमुल औरत के सब निशां मौजूद थे। कहते हैं न, औरतें अस्थिर होती है। पल-पल, अपना मत बदलती रहती हैं। मैं नहीं मानती तो क्या, मुहावरा जस का तस रहेगा न? मुहावरों की मानें तो शर्तिया बल्ब में क़ैद सरदारजी, औरत थे। 


विदेश की निराली सहेलियाँ और बल्ब वाले सरदारजी

मृदुला गर्ग द्वारा लिखे जा रहे संस्मरण 'वे नायाब औरतें' का अंश - 2 

कुछ ज़बरदस्त लिखे को पढ़ने की तैयारी से शुरू कीजिए, मृदुला गर्ग के अद्भुत अविरल संस्मरण  'वे नायाब औरतें' को, यह याद रखते हुए कि बल्ब वाले सरदारजी — खुशवंत सिंह होने चाहियें। ~ सं०  

असल में हिन्दुस्तान से हमीं दो थे और एक ही होटल में ठहरे थे।उन्होंने मुझे सीख दी कि पहली रात उसी होटल में खा लेना चाहिए; अगले दिन से दूसरे ठौर दूँढ़ने चाहिए। मुझे बात जँच गई और हम खाने के कमरे में पहुँच गये। उन्होंने पूछा, क्या पिऊँगी तो मैंने उनकी तरह बियर के लिए हामी भर दी। खाने की बारी आई तो उन्होंने अपने लिए बीफ़ मँगवाया। मैंने कहा मैं शाकाहारी थी और कॉटेज चीज़ स्टेक मँगवाये। वे ख़ूब हँसे और वही क्लीशे दुहराया, घास-फ़ूस खाती हो, जो सुन-सुन कर कान पक चुके थे। मैंने कहा, जानवर नहीं खाती, मर्द के भक्षण में एतराज़ नहीं है। उन्होंने पूछा, तुम्हारे चित्तकोबरा में कितना सेक्स है? मैंने कहा, जितना आप ज़िन्दगी भर नहीं कर पाएंगे। यहाँ तक उनका साथ, चलताऊ नोक-झोंक के बावजूद, नाक़ाबिले बर्दाश्त नहीं था। पर जब बैरा बिल ले कर आया और उन्होंने मुझसे कहा, "यू कैन पे (तुम पैसे दो) तो बर्दाश्त से बाहर हो गया। मर्द औरत को डिनर पर बुलाये, भले लिख कर न्यौता न दे और उससे बिल अदा करवाये, ऐसी भदेस कंजूसी का मेरा पहला तजर्बा था। अमरीकन औरतें कमअज़कम अपना बिल तो ख़ुद अदा कर देती थीं। 



उसके बाद मैंने भरी दूकान में उनकी कंजूसी के साथ काफ़ी मस्ती की। घरवालों के कहने पर कि वहाँ मई में बारिश नहीं होती, मैं बरसाती ले कर नहीं गई थी। अगली सुबह जो जम कर बरसा तो सोचा, वहीं से ख़्ररीद लूँ। तो फलों के बाज़ार के रास्ते में हम एक दूकान पर रुके। सभी को छोटा-मोटा सामान ख़रीदना था। मैंने सेल्सगर्ल से कहा, "यह भारत के मशहूर लेखक खुशवंत सिंह हैं, मुझे बरसाती दिलवाने लाये हैं। कोई मँहगी बरसाती दिखलाइए, आप समझ रही हैं न, इतनी मशहूर हस्ती, सस्ती चीज़ के बारे में सोच भी नहीं सकती, क्यों मोनिका? मोनिका को मैं रात का क़िस्सा सुना चुकी थी। उसने ज़ोरदार हामी भरी और सेल्सगर्ल, खुशवंत सिंह को आँखे फाड़ कर देखने के बाद, एक-से-एक उम्दा, मँहगी बरसाती दिखलाने लगी। खुशवंत सिंह का बुरा हाल! शॉक के मारे बोल नहीं फूटा। अ ब न करके रह गये। जब काफ़ी बरसातियाँ देख ली गईं और खुशवंत सिंह एपोप्लेक्सी के क़रीब पहुँच गए तो मोनिका ने मेरे कान में कहा, बस करो उनका हार्ट फ़ेल न हो जाए। मैंने सेल्सगर्ल से कहा, "सॉरी आपसे इतनी मेहनत करवाई। सोच रही हूँ एक ओल्ड मैन से इतना मँहगा तोहफ़ा नहीं लेना चाहिए। आप प्लीज़ कोई रोज़मर्रा के इस्तेमाल की सस्ती बरसाती दिखला दीजिए।" अब खुशवंत सिंह का बोल फूटा, "मैं पैसे नहीं दूँगा, " करुण स्वर में उन्होंने कहा। "बिल्कुल नहीं, " मैंने फुसफुसा कर कहा, "मैं मज़ाक कर रही थी। पर हैं यह मशहूर लेखक, इसमें शुबहा नहीं है और जो बरसाती पहने हैं, साठ साल पहले जर्मनी से ही ख़रीदी थी। क्यों खुशवंत सिंह जी, सच है न? " पैंसठ साल पहले, "उन्होंने घुटे स्वर में कहा; कहीं मैं दुबारा शुरु न हो जाऊँ, " तभी मैंने ग्रेजुएशन किया था।" अब सेल्सगर्ल भी हँसी न रोक पाई। एक मामूली बरसाती निकाल लाई। मैंने ख़रीद ली, अब तक मेरे पास है, पहनने का ख़ास मौक़ा आया नहीं। विदेश की बारिश में लंडन फ़ॉग चलता था, देश में हद से हद छतरी ले लेती थी। 



अब वे फल के बज़ार के कोने में ख़ाली हाथ बैठे दीखे तो करुणा की मारी औरतें, उन्हें कुछ न कुछ फल दे आईं। स्टॉबेरी, चेरी, ब्लूबेरी, अलूचा, आड़ू, वगैरह। सेब तो थे ही पर वे सुबह के नाश्ते में भी ढेरों रहते थे। खुशवंत सिंह मुझसे बोले, "फलाँ औरत मुझे पसन्द करती है, फल दे कर गई है।" हद हो गई यार! "दया भाव से यंग मैन, प्रेम भाव से नहीं, " मैंने कहा तो उनकी नाराज़गी में इज़ाफ़ा हो गया। अपने स्तम्भ में मेरे शाकाहारी होने का ख़ूब मज़ाक उड़ाया था। उसमें मज़ाक था क्या, मेरी समझ में नहीं आया पर ठीक है, अपना अपना सेन्स ऑफ़ ह्यूमर है। जब मैंने मोनिका को बतलाया कि उसके फल देने का मतलब उन्होंने यह लगाया है कि वह उनसे सेक्सुअली आकर्षित है, तो उसका मुँह खुला का ख़ुला रह गया। तब पहली बार उसने अपना वह जुमला बोला, "उनका क़सूर नहीं है। बस उनका जन्म इतनी कम बार हुआ है कि परिष्कृत नहीं हो पाये, माफ़ कर देना चाहिए।" उसके बाद तो कई मौक़े आये। 

एरलांगन शहर के बीचोंबीच एक तुर्की रेस्त्रा था। हर पार्टी वहीं होती। उसके बाहर एक पट्ट टँगा था, जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था, यहाँ हैम, पोर्क, सोसेज जैसी चीज़ें नहीं परोसी जातीं। मैं देखती आई थी कि जिस तरह विदेश में हिन्दु, बीफ़ न खाने को धर्म से जोड़ कर देखने में, शर्म महसूस करते हैं, मुसलमान या यहूदी पोर्क के साथ नहीं करते।

1991 में अपने भांजे के पास, बॉस्टन, अमरीका गई तो एक दिन उसके दोस्तों समेत किसी के घर खाने पर गई। सब हिन्दुस्तानी लड़के आई.आई.टी की पैदावार थे, यानी हमारी समझ में समाज की मलाई; बस एक लड़का, हसन, पाकिस्तान से था। उसी सुबह ग़लती से मुझे वेज के बजाय बीफ़ बर्गर परोसने पर, एक रेस्त्रा मालिक ने शर्मिन्दगी के साथ माफ़ी माँगी थी। कोई माफ़ी माँगे तो शाइस्तगी का तक़ाज़ा है कि माफ़ कर दिया जाए। तब मेरे साथ यही लड़के थे। मेरी क़तई समझ नहीं आया कि उससे माफ़ी माँग, वे उसे यह क्यों समझाते रहे कि बीफ़ खाने से हम लोगों को कोई "धार्मिक" एतराज़ नहीं था, जैसे बीफ़ कोई ख़ुदाई देन हो; यह मेरे निजी स्वाद का मसला था। ऐसा था भी, तो उनके हीन भाव प्रदर्शन की वजह समझ नहीं आई। 

ख़ैर, अब इन मेज़बान के यहाँ मज़ेदार बात यह हुई कि उन्होंने हैम सॉसेज परोसे तो हसन ने यह कह कर खाने से इन्कार कर दिया कि, उसका मज़हब हैम खाने की इजाज़त नहीं देता। तब वे हिन्दुस्तानी मेज़बान, जो आई.आई.टी की पुरानी पैदावार थे, बोले, "आप खा सकते हैं, हिन्दुस्तान की तरह यहाँ के सुअर गन्दे नहीं होते।" अव्वल, हसन का हिन्दुस्तान से लेना-देना था नहीं; उसकी इनायतेनज़र थी कि वह आँख में उंगली डाल जतलाता नहीं था। दूसरे, उनका जुमला बदतमीज़ी की वह इन्तिहा थी कि मैं शर्म से ज़मीन में गड़ गई। पर तमगा जीता हसन के जवाब ने। उसने निहायत अदब और संजीदगी से कहा, "मेरा मज़हब साफ़ सुअर खाने की इजाज़त नहीं देता।" 

पर एरलांगन के तुर्की रेस्त्रा को तो सुअर कहना तक गवारा न था। 

बैठक खत्म हुई तो विदाई भोज उसी रेस्त्रा में हुआ। खुशवंत सिंह खुश थे कि चलो, सुअर न सही, बीफ़ तो खाने को मिलेगा। उससे पहले जब हम दोनों अपने जर्मन मध्यस्थ के साथ रचना पाठ के लिए एक कॉलेज जा रहे थे तो खुशवंत सिंह के इसरार पर, रात का खाना ऐसे रेस्त्रा में खाने रुके, जहाँ मशहूर जर्मन सोसेज मिलते थे और सुअर के माँस के अन्य ख़ास व्यंजन भी। जब मैंने उसे खाने से इन्कार किया तो दोनों खूब हँसे। भूखे पेट हँसी बर्दाश्त करना ज़रा मुश्किल होता है पर आख़ीर में, साहब, हँसी मैं, वे नहीं, जब ख़ुद रेस्त्रा मेनेजर, बियर के साथ, मशरूम और चीज़ से बना, लज़ीज़ क़ीश ले कर आया और बोला, "हमारे यहाँ से कोई भूखा जाए, हमारी और मेहमान, दोनों की तौहीन है।" 

वार ख़ाली जाने से चिढ़ कर, खुशवंत सिंह ने पाठ के दौरान, ऐसी बेशऊरी का इज़हार किया कि मैं तो मैं, तमाम नौजवान जर्मन श्रोता दंग रह गये। मैंने लोगों के इसरार पर अपने उपन्यास "चित्तकोबरा" के अंश हिन्दी में पढ़े। उसका जर्मन अनुवाद हो चुका था; हिन्दी-जर्मन विद्वान इन्दु प्रकाश पान्डे और उनकी जर्मन पत्नी, हाईडी पान्डे ने मिल कर किया था। एक छात्र ने मेरे पढ़ने से पहले, जर्मन में उसका तार्रुफ़ करवा दिया। खुशवंत सिंह ने अंग्रेज़ी में अपनी कहानी पढ़ी, जो अच्छी ही रही होगी, बस मुझे और कुछ श्रोताओं को रद्दी लगी। मेरे पाठ के निस्बतन, तालियाँ कम बजीं। वैसे भी उसमें अंग्रेज़ी बोलने की महिमा बयान की गई थी, जिससे हिन्दुस्तानी भले बाग़-बाग़ हो जाएं, जर्मन क्योंकर होते? आग-बबूला हो कर खुशवंत सिंह बोले, "हिन्दी एकदम दरिद्र भाषा है, उसमें पढ़ने का क्या सबब है?"

"दरिद्र मानी?" एक लड़के ने पूछा।

"उसमें रैट और माउस, दोनों के लिए एक ही लफ़्ज़ है, चूहा! हा हा हा।" 

मैं कुछ कहती, उससे पहले एक जर्मन लड़का, जो हिन्दी जानता था, बोला, "मेरा खयाल था हिन्दुस्तान में रैट नहीं होते।" 

"सिवाय एक के," किसी ने फुसफुसा कर जोड़ा पर इतने साफ़ तलफ़्फ़ुज़ में कि सुनाई दे गया।

"भाषा अमीर-ग़रीब नहीं होती; बोलने वाले होते हैं। वैसे ही जैसे एक की माँ दूसरे की माँ से कम-ज़्यादा अपनी नहीं होती, चाहे जैसी भी हो। संस्कृति के हिसाब से भाषा में कम ज़्यादा शब्द होते हैं। ऐस्किमो भाषा में बर्फ़ के लिए सौ शब्द हैं, अंग्रेज़ी में ….."

बीच जुमले खुशवंत सिंह तमक कर उठ खड़े हुए, बोले, "मुझे जाना है!"

"ज़रूर," आयोजकों ने कहा, "गाड़ी मँगवा देते हैं।" 

"चलो। देर हो गई।" उन्होंने रुखाई से मुझसे कहा।

"उनके लिए अलग गाड़ी है," आयोजक बोले, "आप रुक सकें तो हम आभारी होंगे। हमारे छात्र आपसे कई सवाल पूछना चाहते हैं।" 

खुशवंत सिंह धमधम करते निकल गये। मेरा सेशन देर तक चला। उनकी दिलचस्पी मेरी हिन्दी क़िताब और जर्मन के उसके तर्जुमे में थी; हिन्दुस्तानियों के मुँह से बरसोंबरस अंग्रेज़ी का गुणगान सुन, वे आज़िज़ आ चुके थे। 

आप जानते ही होंगे खुशवंत सिंह के कॉलम के ऊपर बल्ब में क़ैद सरदार जी बने रहते थे। लगता है, अब उन्हें बल्ब में क़ैद सरदारजी पुकारना ज़्यादा वाजिब होगा। तो उस दिन की चकल्लस का, उन्होंने अपने कॉलम में इस्तेमाल किया। साथ यह भी कहा कि मैं पाठ उम्दा करती थी पर मुझे अपनी आवाज़ से मुहब्बत थी, इसलिए लम्बा पढ़ती थी। अजब-गज़ब मर्द थे खुशवंत सिंह! अगर मुझे क्लीशे बोलने का शौक़ होता तो कहती उनमें चंचल चित्त या ढुलमुल औरत के सब निशां मौजूद थे। कहते हैं न, औरतें अस्थिर होती है। पल-पल, अपना मत बदलती रहती हैं। मैं नहीं मानती तो क्या, मुहावरा जस का तस रहेगा न? मुहावरों की मानें तो शर्तिया बल्ब में क़ैद सरदारजी, औरत थे। अपनी तमाम नाराज़गी और उसके इज़हार के बावजूद, उन्होंने मेरी कहानियों का अंग्रेज़ी अनुवाद पढ़ा और तारीफ़ करते हुए, मुझे ख़त लिखा। यही नहीं, चित्तकोबरा में उनकी पसन्द से कम सेक्स होने के बावजूद, पैंग्विन को उसका अंग्रेज़ी अनुवाद छापने की राय दी। उन दिनों वे उनके सलाहाकार थे; यह दीगर है कि डेविड डेविडार ने उनकी राय को तवज्जह नहीं दी। सोचिए, अगर पैंग्विन पहले "चित्तकोबरा" छाप देता तो डेविड डेविडार का काफ़ी अर्से बाद आया उपन्यास, उसका बच्चा लगता, नहीं? 

यानी गज़ब या अजब औरतों की फ़ैहरिस्त में सरदारजी का होना वाजिब है। 


ख़ैर विदाई की पूनम की रात का भी तो बयान करूँ। मैं एक डिश से अपनी प्लेट में परोसने लगी तो बैरा ने रोक दिया, "यह आपके लिए नहीं है। इसमें बीफ़ है।"

तो हुआ करे। मेरे लिए तय करने का हक़ आपको किसने दिया, सोच तो लिया पर कहने की बदतहज़ीबी नहीं कर पाई। वैसे भी मैं बैरों, सब्ज़ी-फल बेचने वालों, फेरीवालों और दूकानों के कामगरों, वगैरह से तमीज़ से पेश आती हूँ। मेरी तमाम बेअदबी बड़े लोगों के लिए महदूद है। अंग्रेज़ी में कहावत है न, "नेवेर बी हुम्बल विद द माइटी एन्ड माइटी विद द हम्बल (महान लोगों से विनीत न हो और मामूली लोगों को ग़ुरूर न दिखलाओ) कभी बचपन में सुनी होगी; तमाम आएं-बाएं-शाएं के साथ दिमाग़ पर यूँ क़ाबिज़ हुई कि भुलाये न भूली। 



एक राज़ की बात बतलाऊँ। मैं पूरी तरह शाकाहारी हूँ नहीं। शौक़ से मुर्गा खा लेती हूँ, बशर्ते खीँच-खीँच कर खाने वाला तन्दूरी न हो।चाइनीज़ खाने में प्रौन वगैरह भी पसन्द हैं। पर बीफ़ और हैम से यकसां परहेज़ था और है। विदेश में शाकाहारी बन जाती थी क्योंकि कचास लिये व्यंजन खा नहीं पाती थी और अधभरी प्लेट लौटाने से, तहज़ीबी परहेज़ रखती थी। तो बैरे से शुक्रिया कह, उसके निर्देश पर बेहद लज़ीज़ खाना खाया, जिसमें मुर्ग की तरी वाली उम्दा डिश शामिल थी। अब साहब, तुर्की खाना था, नान के साथ क्या खाती, अपना भेजा! तो चिकन खाना लाज़िमी और लज़ीज़ दोनों था। 


अब हुआ यह कि वहाँ एक सज्जन पूर्वी बर्लिन से भी आये हुए थे। बर्लिन की दीवार हाल फ़िलहाल गिरी थी; पर पूर्वी और पश्चिमी बर्लिन के बीच बहुत बड़ी खाई थी। वही जो अमीरों और ग़रीबों के बीच होती है। तो यह सज्जन भी उतना ही ठठा कर हँस रहे थे जैसे मोनिका, मैं और चन्द तीसरी दुनिया के बन्दे। दरअसल हम सभी ने राईन वाइन कुछ ज़्यादा पी ली थी। बियर गई भाड़ में, असल पीने लायक़ चीज़, राईन वाइन थी। पहले जब 1988 में युगोस्लाविया से जर्मनी गई थी, तो पान्डे जी के घर ठहरी थी और जम कर राईन वाईन पी थी। रात में वाईन में स्ट्राबेरी डाल कर रख देते थे और सुबह लबालब स्ट्राबेरी खाते थे। तमाम दिन सुरूर रहता पर हैंगओवर नहीं। और हाईडी जी का बनाया एपल केक, लाजवाब! अब वे चित्तकोबरा का जर्मन अनुवाद करें तो केक सा स्वाद आएगा न? 



रात के क़रीब बारह बजे जब हम अपने होटल जाने को रेस्त्रा से निकले तब भी बेतहाशा हँस रहे थे। एक खुर्राट जर्मन ने हमें टोका, कहा, "इतनी ज़ोर से हँसेंगे तो लोग पुलिस बुला लेंगे, इतनी रात को शोर करना मना है।" हमने कहा, "वे सज्जन भी तो हँस रहे हैं।" जवाब मिला, "वे तो पूर्व बर्लिन से हैं।" अब मारे हँसी के हमारा बुरा हाल! तभी हमने किन्हीं बन्दों को उँची आवाज़ में सियार की तरह हुआँ-हुआँ करते सुना। इतना होश था कि समझ गये वे असली सियार नहीं थे। "और वे जो सियार की तरह हुआँ-हुआँ कर रहे हैं?" "वे तो स्टूडेन्ट हैं, पूनम की रात करते हैं।" 

"उन्हें पुलिस नहीं पकड़ती तो हम तीसरी दुनिया के बाशिन्दों को क्या खा कर पकड़ेगी! हमारा तो काम ही 200 साल तक पुलिस से लड़ना रहा है...खुशवंत सिंह के अलावा; उनके बाप रायबहादुर थे!" अब हम हमारी हँसी की गूँज सुन, पूर्वी बर्लिनर, साथ देने आ पहुँचे। ख़ैर किसी ने पुलिस नहीं बुलाई, होटल पहुँचने तक खुर्राट जर्मन फिर नहीं दीखे।

 

बर्लिन की सैर से पहले, ईरान से आये नायाब अदीब और शायर दौलताबादी का ज़िक्र ज़रूरी है। आप जानें अदीब न मर्द होता है, न औरत, बस अदीब होता है। हालांकि दौलताबादी साहब, तब के ईरान के क़ायदें मान, औरतों से ख़ास बात करते नहीं थे। आख़िरी दिन वह रिवायत टूटी और क्या ख़ूब टूटी। पर वह क़िस्सा बर्लिन पहुँचने के बाद। एरलांगन में तो हम यह तक नहीं जानते थे कि उनकी कुछ रचनाओं का जर्मन तर्जुमा हो चुका है। यह ज़रूर जानते थे कि अपनी आज़ाद ख़याली की वजह से, जुर्म न करने के बावजूद, गिरफ़्तार क्रान्तिकारियों के पास, उनकी रचनाएं मिलने की वजह से, शाह की ख़ुफ़िया पुलिस ने उन्हें दो साल जेल में रखा था। ख़ैर, जर्मनी आने से पहले, हम सब के पास एक फ़ैक्स संदेश आया था कि हम अपने शहर पर कुछ लिख कर लायें और वहाँ पढ़ें। ईरान में फ़ैक्स उपलब्ध न होने की वजह से दौलताबादी को नहीं मिला था। पहले दिन के पहले सत्र में सबने अपना जैसा-तैसा वक्तव्य पढ़ दिया, जो पहले से वहाँ पहुँचा हुआ था और जर्मन में अनुदित था। पर दौलताबादी का तो मौजूद ही नहीं था। दौलताबादी ने बतलाया, उन्हें वैसा कोई संदेश नहीं मिला, इसलिए उन्होंने कुछ लिखा या भेजा नहीं। पर तय रास्ते पर चलने की आदत से मजबूर, कट्टरपंथी जर्मन आयोजक, इसरार करते रहे कि फ़ौरी तौर पर वे कुछ बोल दें। फ़ारसी से अंग्रेज़ी में फ़ौरी तर्जुमा करने के "क़ाबिल" एक मोहतरमा भी मंच पर उतार दी गईं। कभी-कभी इसरार, मार से ज़्यादा तक़लीफ़देह होता है, तो दौलताबादी ने शीरीं फ़ारसी में लय से बोलना शुरु किया। हमने ऐसे सुना जैसे संगीत सुन रहे हों, मतलब पल्ले कुछ नहीं पड़ा। अंग्रेज़ी में तर्जुमे का इन्तज़ार था। मोहतरमा की बारी आई तो उन्होंने फ़रमाया, "शायर ने कुछ बेहद शायराना कहा। उसका तर्जुमा मैं नहीं कर सकती।"


अब बर्लिन चलूँ और फ़िलहाल चुटकुलों के लिए खुशवंत सिंह पर बनी रहूँ। दौलताबादी का मानीखेज़ क़िस्सा बाद में। अपनी सबसे नाटकीय चाल खुशवंत सिंह ने बर्लिन के लिए बचा कर रखी। ड्रामा करना हो तो मंच बड़ा चाहिए न! 

एक बात बतलाती चलूँ।

दीवार के ढहने से पहले पूर्वी बर्लिन में एक आलिशान पुस्तकालय था। मेरी कहानी का पहला जर्मन अनुवाद पूर्वी बर्लिन में ही छपा था और "विश्व की प्रेम कहानियाँ संकलन" में शामिल किया गया था। क़िताब का नाम यशपाल की कहानी के शीर्षक पर था पर पहले पन्ने पर उद्धरण मेरी कहानी "अवकाश" से दिया गया था। अपना हिन्दी साहित्य जगत तो, साहब, बेतरह भन्ना गया। मर्द की निस्बतन, औरत की कहानी की अहमियत कैसे बर्दाश्त करते! पर जर्मन्स को क्या फ़र्क़ पड़ना था। भन्नाते रहो! 


(कॉपीराइट्स रीज़र्व्ड)
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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