ऐ लड़की: एक बुजुर्ग पर आधुनिकतम स्त्री की कहानी — कविता


कृष्णा सोबती जी को जन्मदिन की बधाई, उनकी लम्बी उम्र की कामना के साथ युवा कहानीकार कविता ने उनकी चर्चित कहानी 'ऐ लड़की' पर एक बड़ी टिप्पणी की है ... आइये जानें इस कालजयी कहानी पर आजकी युवा कहानीकार क्या सोचती हैं — भरत तिवारी 18 फरवरी  
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एक बुजुर्ग पर आधुनिकतम स्त्री की कहानी :ऐ लड़की

— कविता




(औरत अकेली भली है या परिवार के साथ, वह स्वतंत्र अच्छी है या घर कि चहारदीवारियों में बंधी हुई, इस बहस को ये कहानी मानीखेज करती है, कृष्णा जी कि नब्बेवें वर्षगाँठ पर उनकी अभी भी एक बहुत प्रासंगिक कहानी की चर्चा )

कोई भी बेहतर रचना न सिर्फ देखे, सुने और समझने के आधार पर रची जाती सकती है, और न वह पूरा का पूरा आत्मवृत्त या आत्मकथा होती है। रचना और रचनाकार जब अपनी स्वतंत्र सत्ता का अतिक्रमण कर एकमेक होते हैं, रचना जब अपनी जिदों और शर्तों में लेखक को बांधती है और लेखक उसे अपने संयम और अनुशासन के दायरे में कसता है, अच्छी रचना तभी बन पाती है।

संवादों में रची गई इस लम्बी कहानी का शिल्प निसंदेह उसके प्रकाशन के समय में नया और अनूठा ही रहा होगा... पर कोई भी रचना न सिर्फ शिल्प होती है, न होनी चाहिए। मूल्यों कि शिनाख्त, जीवन कि सच्चाइयों की तलाश और उनका किसी रचना के द्वारा दुबारा से रचे जाना ही साहित्य है; कहें तो 'ऐ लड़की’ ऊपर से तो तीन स्त्रियों के बीच के वार्तालाप सा दिख पड़ता है, पर असल में यह दो स्त्रियों का संलाप और उससे भी ज्यादा एक बूढी स्त्री का एकालाप। असल में वह जो बातें कहती है, वह खुद से ही की गई बातचीत जैसी होती है। पर बाबजूद इसके और न जाने कितनी बातें गुंथी हुई है, इस कथा में। किसी गझिन बुनी हुई चटाई की सी, मुलायम रेशों से बुनी हुई बातों कि न जाने कितनी परतों से बनी हुई। जिसका न एक भी धागा निरर्थक है, न एक भी फंदा इधर-उधर। चाहे वह बूढी स्त्री के ब्याह के समय कि स्मृतियाँ हों , या फिर पहली बार माँ बनने की। जवानी की, घर संसार की। बच्चों और बच्चों के बच्चों कि यादें। अपनी अकेली रहने वाली बेटी की चिंता। सारे अनुभव और यादें घुल-मिलकर एकमेक और एकसार होती हुई।

जिन्दगी के सारे रंग, सारे गंध इस कहानी में जैसे गूंध दिए गए हों एक एक करके। इसीलिए तो मृत्यु के कहीं घात लगाए निकट बैठे होने के बाबजूद यह कहानी मौत से डरने की नहीं उससे जूझने –जीतने और उसके निषेध कि कहानी बन पाती है-‘बीमारी को अपने भीतर धंसने नहीं दिया, अभी तक तो सबकुछ चाट जाती’ जिन्दगी को ‘मुक्ति’ और ‘निष्काम’ कि संकल्पना पर तरजीह देती हुई यह औरत बार-बार कहती है-‘जीना और जीवन छलना नहीं है। इस दुनिया से चले जाना छलना है। यह दुनिया बहुत सुहानी है। हवाएं, धूप, घटा , बारिश उजाला-अँधेरा। इस लोक कि तो लीला ही अद्भुत है। ... देह तो एक वसन है, पहना तो इस और चले आयें, उतार दिया तो परलोक, अपना नहीं दूसरों का लोक। ’ इसीलिए यह औरत जीवन कि स्मृतियों, उसके स्वाद और सुविधाओं को भी छककर पीती-जीती है । वक़्त और इंतज़ार जबकि ये दो ही शब्द हिस्से हों... तीसरा जो है वह ‘दर्द’, जिसे वह अपने मनोबाल से खारिज करती रहती है। अकिये और अजीये का अहसास है जो सालता रहता है रह-रहकर, चुभता है घावों के बीच एक नया घाव बनकर-‘चाहती थी पहाड़ कि चोटियाँ चढूं। शिखरों पर पहुंचूं । पर यह बात घर कि दिनचर्या में कहीं नहीं जुडती थी... तुम्हारे पिता जी को न कुछ भी देर से चाहिए था, न जल्दी । सो आप ही घडी बनी रही ... इस परिवार को मैंने घडी मुताबिक़ चलाया, पर अपना निज का कोई काम न संवारा, इस बात का बहुत कष्ट है मुझे। यह दर्द उस बूढी औरत का ही नहीं, न जाने कितनी सारी स्त्रियों का दर्द है, जिसने अपने हिस्से का जीवन जीया ही नहीं। तब से लेकर यह किसा अब तक बहुत हद तक वही है।

वह अपनी लड़की के ऐसे(दूसरों से भिन्न और अकेली ) होने को अपने ही किसी चाह, किसी अदेखे रूप का विस्तार पाती है। और उस जमाने कि वह स्त्री उसके इस अकेलेपन को स्वीकारती भी है, - ‘ तुम जब होनेवाली थी, मैं दिल और मन से अकेली हो गई थी । सर पर जैसे एकांत छा गया हो। दिल में यही उठे कि जैसे पगडंडियों पर अकेली घूमती फिरूं। लगे चीड़ का कोई ऊँचा पेड़ ही जैसे अन्दर उग आया हो। ’ हालांकि थोड़े भय और हलकी चिंता के साथ। वह जानती है कि किसी के धकेले कोई धावक नहीं होता, खुद अपनी दौड़ दौड़नी होती है सबको। अपने बहाव के विरुद्ध मत चलना। किसी के अधीन नहीं होना ताकत है, सामर्थ्य है, शक्ति भी है , अपने अनुभवों से जान और समझ चुकी है वो। पर भय है कि पीछा ही नहीं छोड़ते , भय आशंकाएं तो हमेशा पीछे दौड़ते आने वाली पिछलग्गुओं के जैसी होती है न, तरह तरह के भय –‘तुम अपनी एकहरी यात्रा में क्या प्रमाणित करोगी? संग-संग जीने में, रहने में कुछ रह जाता है, कुछ बह जाता है;अकेले रहने में न कुछ रहता है, न बहता है।

माँ बनकर स्त्री तीनो काल जी लेती है...

बेटी के होते ही माँ सदाजीवा हो उठती है... मरती नहीं कभी। ’

पर इस लड़ाई में भी वह नए के पक्ष में खड़ी होती है । लड़ती है अपने ही प्रश्नों से खुद । । एक भरोसा तो है मन में कि यह न किसी को सताएगी, न सताई जाएगी किसी से , पर प्रश्न है कि रक्तबीज कि तरह फिर नए होकर जी उठते हैं-‘अपने से भी आजादी चाहिए होती है, देती हो वह कभी अपने को?

जरुरत पड़ने पर आवाज किसे दोगी? लड़की(बेटी) कहती है-‘मैं किसी को नहीं पुकारूंगी। जो मुझे आवाज देगा, मैं उसे जबाब दूँगी। ’अम्मू अब तो तसल्ली हुई?

सारी कहानी का सार, और कहानी कि बुनावट जैसे इन्हीं प्रश्नों के उत्तर पर टिकी हुई थी । माँ कि जान कहीं अटकी हुई थी तो अपनी इसी अजब-गजब, बेलीक चलती हुई बेटी में। जैसे की बच्चों की कहानियों में राक्षस कि जान अटकी होती है किसी तोते में, -‘मेरे बाद इसका क्या?’मेरे बाद किसे कहेगी?सहेगी कैसे?

जबाब मिलता है और रूह आजाद हो लेती है, सारे लगावों से, मोह से, चिंता से। ।

‘ऐ लड़की’ से गुजरना जिंदगी के भीतर से गुजरना है। मोह, मृत्यु और जीवन की परिभाषाओं को तलाशना । स्त्री-पुरुष सम्बन्ध, रिश्ते, स्त्री कीस्थिति, परिवार में उसकी जगह , पैत्रिक संपदा पर हक, आजादी और बंधन जैसे तमाम स्त्री के जीवन से जुड़े मुद्दों से संवाद और उससे भी कहीं ज्यादा मुठभेड़ करते हैं हम इसे पढ़ते हुए ।

यह दो पीढ़ियों के मानसिक संघर्ष के साथ-साथ मिलकर सोचने, बतियाने , मनवाने, और एक दूसरे को मानने से भी कहीं ज्यादा ‘जानने’ कि कहानी है। क्योंकि मानना एक बात है, जानना दूसरी। मानने के लिए किसी को, (या किसी कि) खुद को खोना पड़ता है, जानने के लिए उसे जगाये और सजग रखना।

यह भूमिकाओं के पलटने कि कहानी है। एक के दूसरे में बदल जाने की कहानी, क्योंकि एक दौर में जो सीढियां चढ़ी जाती हैं, दूसरे में उन्हें उतरना भी होता हैं।

इस कहानी की भाषा आज तक ताज़ी, हलकी और उर्जावान सी दिखती है। पेचीदा से पेचीदा मसले को आसानी से कहती और सुलझाती हुई , जीवंत और संजीदा। यह कहानी सिर्फ खुद के लिए सचेत नहीं, सामजिक जागरूकता औइर विकास भी इसमें कहीं सम्मिलित है।

जो बीत चुका है , गुजर चुका है, वह उस पुराने कि पुनरावृति भर होता है । जब वह दुबारा ज़िंदा होता है तो इतिहास बन चुका होता है। ’ऐ लड़की’ कृष्णा जी और उनकी माँ कि कहानी का पुनारोपाख्यान है, इसमें स्मृतियों को इतिहास तो नहीं एक भरपूर कहानी बनाने कि पूरी जिद है।

औरत अकेली भली है या परिवार के साथ, वह स्वतंत्र अच्छी है या घर कि चहारदीवारियों में बंधी हुई इस बहस को ये कहानी मानीखेज करती है... इतने वक़्त बाद भी अगर आज यह समकालीन कहानी सी दिख पड़ती है, वर्तमान माँ-बेटी के संबंधों से सम्बन्ध और चिंताएं अगर इसमें हैं, तो यह उस कहानी के समय से आगे की कहानी होने के ही कारण। शायद इसलिए कि इसमें आनेवाली पीढ़ी को अपनी थाती देकर जाने की इच्छा तो हैं ही, कहीं उन्हीं में खुद के और ज़िंदा और बचे रहने कि चाह भी।


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