जैसे-जैसे मृदुलाजी के इन संस्मरणों को पढ़ता जाता हूँ, उनके, हिन्दी साहित्य की स्त्रियों के प्रति सम्मान बढ़ता है। भारत की महिलाओं को 'स्त्री विमर्श' ने नहीं बल्कि स्त्रियों और पुरुषों दोनों के लिए स्त्री द्वारा 'किये गए कार्यों' ने अधिक शक्ति दी है, जिनमें से कुछ से आप प्रस्तुत संस्मरण में दो-चार होंगे। - सं०
नहीं! मैं सहमत नहीं हूँ।
मृदुला गर्ग द्वारा लिखे जा रहे संस्मरण 'वे नायाब औरतें' का अंश - 3
कुछ ज़बरदस्त लिखे को पढ़ने की तैयारी से शुरू कीजिए, मृदुला गर्ग के अद्भुत अविरल संस्मरण 'वे नायाब औरतें' को, यह याद रखते हुए कि बल्ब वाले सरदारजी — खुशवंत सिंह होने चाहियें। ~ सं०(अंश 1)
दीवार क्या ढही, पुस्तकालय हटा कर व्यवसायिक दफ़्तर का परिसर बना दिया गया। क़िताबों का क्या हुआ, ठीक से कोई नहीं जानता था। रद्दी में फ़ेंक दी गईं या जला दी गईं, ख़ुदा जाने या नालन्दा का भव्य पुस्तकालय जलाने वाले हमलावरों की भटकती रूहें। ख़ुदा जाने भटकती भी हैं या नहीं? क्या पता, जैसे इस दुनिया में क़िताबों की नाकद्री और अदीबों पर ज़ुल्म करने वाले, बेअक्ल सितमगर मौज करते हैं, उनकी रूहें जन्नतनशीं हो, मस्त रहती हों।
ख़ैर बर्लिन जाने से पहले, बल्ब वाले सरदारजी ने प्रचारित किया कि उनकी बुतशिकनी की वजह से, उनकी जान को ख़तरा है; ख़तरा किससे है, तफ़्सील से नहीं बतलाया। नतीजा यह हुआ कि बर्लिन में, जहाँ हमें शहर के बीच मोबिट इलाक़े के होटलों में ठहराया गया; आयोजक उन्हें एक पोशीदा जगह ले गये। मोबिट वह इलाक़ा था, जहाँ के लोगों ने अकेले दम हिटलर को वोट नहीं दिया था। इसलिए उसने उसे नेस्तनाबूद कर दिया था। अब दुबारा बसा था। पहले दो दिन, हमारे रचना पाठ आदि में वे नहीं दीखे तो किसी ने तवज्जह नहीं दी, क्योंकि वैसे भी वे सम्मेलन में तभी आते, जब ख़ुद बोलना हो, वरना कमरे में प्लेबॉय पत्रिका पढ़ते रहते। तीसरे दिन की शाम पार्टी थी, वहाँ मिले तो काफ़ी दुखी थे। बोले, "मुझे कहाँ वीराने में अकेले पटक दिया। बोर हो गया। आप लोग यहाँ मौज कर रहे हैं।” एक मुँहफट बंगलादेशी लेखक, जिन्हें जर्मनी में राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ था, बोले, "तो आपने जान को ख़तरा बतलाया क्यों? आपको कौन मारेगा? गुनाह बेलज़्ज़त!" सरदारजी का बल्ब ऐसा बुझा कि मुझे दया आ गई। मैंने कहा, "जहाँ आप ठहरे हैं, बहुत रोमान्टिक जगह है। दो मुहब्बत करने वालों ने वहीं के ताल में ख़ुदकुशी की थी। रात में उनके प्रेत आते रहते हैं। आप ज़बरदस्त कहानी लिख सकते हैं।” उन्होंने मुझे खा जाने वाली नज़रों से देखा और उसी रात, जगह बदल मोबिट आ गये। हिन्दुस्तानी होने के नाते, बर्लिन रेडियो स्टेशन ने उन्हें बोलने के लिए बुलाया तो वहाँ, अंग्रेज़ी में बोलने लगे। उन्होंने टोक दिया, कहा, आप को पहले ही बतला दिया गया था, हिन्दी में बोलना है। कहानी ख़ुद उन्होंने सुनाई, बेलिहाज़ हँसे और बोले, "मुझे हिन्दी कहाँ आती है; मैंने गुरु ग्रंथ साहिब से पद सुना दिये।” बंगलादेशी फिर नहीं चूके, बोले, "तो आपने पहले क्यों न कह दिया कि आपकी जगह मृदुला दी को बुला लें।”
ख़ैर, यह टाइम पास नुमा बातें छोड़ कुछ काम की बात करें। बर्लिन में हम सभी भागीदारों के साथ एक कॉलेज का विद्यार्थी गाईड के रूप में किया गया था/थी। उनकी कुछ कमाई हो जाती और हम विशेषज्ञ की सलाह से या साथ, अपना मनपसन्द काम कर लेते। मेरे साथ एक कमसिन लड़की थी, पारिवारिक रूप से दुखी और अभावग्रस्त। मालूम नहीं मेरी नियति है या उनकी; पर मेरी हर मददगार या साथिन ऐसी ही होती है। जद्दोज़हद करके अंग्रेज़ी में डिप्लोमा कर रही थी, जिससे आगे चल कर दुभाषिये का काम कर सके। जिस दिन मैने उससे ओपेरा जाने की ख्वाहिश ज़ाहिर की, उसी दिन उसका अंग्रेज़ी का इम्तिहान था। सब सांस्कृतिक मंच, नुमाइश-घर वगैरह, पूर्वी बर्लिन में थे, ओपेरा हाउस भी। उसने इल्तिजा की कि मैं रेल से पूर्वी बर्लिन पहुँच सकूँ तो वह अपना इम्तिहान दे कर मुझे वहीं स्टेशन पर मिल जाएगी। मुझे क्या एतराज़ होता, बस इतना पूछा कि साड़ी-बिन्दी चलेगी या नहीं। "दौड़ेगी," उसने कहा, "उन्हें खुन्नस तुर्कियों से है, हिन्दुस्तानियों की वे इज़्ज़त करते हैं।” पश्चिमी बर्लिन के बाशिन्दे बराबर आगाह करते रहते थे, भूल कर भी पूर्वी बर्लिन मत जाइएगा, वहाँ सब चोर होते हैं। वैसे ही, जैसे दिल्ली की पॉश कोलोनी वासी कहते थे, भूल कर भी गोविन्दपुरी या मदनगीर मत जाइएगा, वहाँ सब बदमाश रहते हैं; भले उनके घरों में काम करने वाले/वाली रोज़ वहीं से तशरीफ़ लाते हों। फ़र्क़ वही अमीर-ग़रीब का था। जब अपना मन पसन्द सब पूर्वी बर्लिन में हो तो बन्दा, पश्चिमी बर्लिन में प्लेबॉय पढ़े या मॉल में वक़्त बर्बाद करे!
तो ओपेरा देखा, कई उम्दा इज़ीप्शियन अजायबघर देखें, जो अंग्रेज़ों की तरह जर्मन भी लूट कर लाये थे। क्या करें, तीसरी दुनिया के होने पर अपना लूटा माल युरोप की उम्दा कलावीथियों या महारानी के मुकुट में मिलता ही रहता है। सिर्फ़ इतनी सी बात से कि, मैंने उस कमसिन लड़की को, बख़ुशी, ज़रूरी इम्तिहान देने दिया था, वह मेरी इतनी मुरीद हुई कि यह भी बतला दिया कि जिन लेखक मर्दों के सैलानी रुख़ का उसे साथ देना पड़ रहा था, उनमें सबसे शाईस्ता अफ़्रीकन मर्द थे और सबसे लीचड़, एशियन मर्द, खास तौर पर हिन्दुस्तानी। अपनी पोती की उम्र की उस लड़की से खुशवन्त सिंह ने माँग की थी कि उन्हें पोर्नोग्राफ़िक फ़िल्म दिखलाने ले चले। वह ले गई थी; वहाँ सेक्स के अनेक वीभत्स पहलू देख कर फ़रमाया था, "गनीमत जानों मेरी उम्र पाँच साल कम नहीं है, वरना हम दोनों यही कर रहे होते!" जाने दीजिए, उसने मुझसे कहा था, "यह तो सिर्फ़ ज़बानी गुस्ताख़ी थी, ये (नाम ले कर) जवान लेखक तो मुझे छूने, चूमने, आलिंगन करने की कोशिश करते रहे हैं।” मैंने तुरंत कहा, "मुझे पहले बतलाना चाहिए था, मैं एक पल में उन्हें ठीक कर देती!" "मेरी नौकरी चली जाती। मुझे पैसों की बहुत ज़रूरत है। अब तो बस एक दिन बचा है।”
"अब जहाँ भी उनके साथ जाओ, मुझे साथ ले लेना। कहना मैं क्या करूँ, उन्होंने मुझसे बिना पूछे साथ आना तय कर लिया। ज़रूर आपकी प्रशन्सक होंगी। इतनी सीनियर लेखिका से मैं क्या कहती!" यह बात मैंने मोनिका से भी नहीं कही। वह मेरा नहीं किसी और का राज़ था। एक दिन में, उन ज़लीलों को मैं इतना ज़रूर समझा पाई कि तजर्बे और पैनी नज़र से मुझे उनके "हरामीपन" का अहसास हो गया था और मेरे वक़ील ने सलाह दी थी कि, मैं उन पर यौनिक पीड़न का मुक़दमा कर दूँ। वहाँ की अदालत शर्तिया उन्हें जेल की हवा खिलाएगी। डेढ़ दिन के लिए, मैं कमज़ोर को सताने वाले उन डरपोकों को, उस लड़की से दूर रख पाई पर उनकी फ़ितरत नहीं बदल पाई। ज़्यादातर हिन्दुस्तानी लेखक, काम से पास आई हर ज़रूरतमन्द लड़की और बच्ची को गिज़ा का लुक्मा समझता है, जिसे चखने का उसे पूरा हक़ है। चूंकि वे आदतन डरपोक होते हैं, इसलिए उन्हें डराना आसान है, बशर्ते आप उनकी भलमनसाहत के झाँसे में न आयें।
रफ़्ता रफ़्ता मैं आख़िरी दिन पर आ रही हूँ।
उसके तीन अहम किरदार थे; दौलताबादी, बल्ब में क़ैद सरदारजी और मेरी कमसिन साथिन।
उससे पहले दो मोनिकाओं की बात कहनी ज़रूरी है। मैं इस पर कहानी भी लिख सकती हूँ। पर कुछ बातें बिना क़िस्सा बनाये, साफ़ कह देनी चाहिएं। याद करें, महादेवी वर्मा के रेखाचित्र! समझ गए न? जर्मनी में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, होलोकॉस्ट के लिए प्रायश्चित की प्रक्रिया में, सैलानियों को भूतपूर्व कोन्सन्ट्रेशन कैम्प का दौरा करवाना भी रहा है। "सैर" करवाना नहीं कहना चाह रही पर अन्दाज़ वही था। मोबिट में भी एक इमारत के तहखाने में कैम्प हुआ करता था, जहाँ पहली मंज़िल पर आला रसोईघर था और दूसरी पर नात्सियों की शानदार पार्टियाँ चला करती थीं। तो जैसी रिवायत थी, हमें वहाँ ले जाया गया। उसके बाद आइसक्रीम का कार्यक्रम था। कैम्प का दौरा करने के बाद, आइसक्रीम छोड़, मेरा मन कुछ खाने का न था। दिमाग़ में बज रहा था कि सैलानियों को वहाँ ले जाने की तुक क्या थी, कि मोनिका ने उसे शब्द दे दिये। वहाँ काफ़ी अमरीकन मौजूद थे, कुछ हमारे साथ, ज़्यादा अन्य गुटों में। अमरीकनों से ज़्यादा आत्मतुष्ट या ढ़ोंगी क़ौम मिलनी मुश्किल है; हम हिन्दुस्तानी ही उनसे बाज़ी मार सकते हैं। तपाक से कई अमरीकन कण्ठों से निकला, "आस्क द ज्यूज़ (ज्यूज़ से पूछो!)" मैं ज्यू हूँ!" मोनिका ने भर्राई पर कड़क आवाज़ में कहा तो सनाका खिंच गया। मुझे भी पहली बार मालूम हुआ। वह बाहर निकल गई। मैं भी।
पर कहानी का असल आयाम कुछ और था। मैंने बतलाया था न कि हम सब लेखकों के साथ एक साथिन थी; मोनिका की साथिन का नाम भी मोनिका था। वे दोनों काफ़ी अन्तरंग दोस्त बन गई थीं, पता नहीं आपस में क्या बतियाती रहती थीं। मैं ख़ुद को कई बार सरहद से बाहर मंडराते पाती तो रश्क भी होता। आख़िर मोनिका मेरी दोस्त पहले थी। वैसे दोनों के साथ फ़्ली मार्केट (अपना चोर बाज़ार) वगैरह में घूमते या साथ कॉफ़ी पीते, मुझे ख़ूब आनन्द आता पर...कुछ था, जो मेरी पहुँच से बाहर था। आख़िरी दिन, जर्मन मोनिका और मेरी साथिन विदा ले कर चली गईं। हम भागीदार लेखक ही रह गए।
जर्मन रिवायत के मुताबिक, आखिरी शाम, समापन से पहले, सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित करना होता था। याद कीजिए, ये वे दिन थे, जब "सैटेनिक वर्सस" लिखने को मुद्दा बना, इरान के ख़ुमैनी ने सलमान रुश्दी के ख़िलाफ़ फ़तवा ज़ारी किया हुआ था, जिसमें हर सच्चे मुसलमान को उन्हें मौत के घाट उतारने का फ़रमान था। पूरी दुनिया डर-डर कर थू-थू कर रही थी। सलमान रुश्दी तो सख्त निगरानी में, गोपनीय जगह रह रहे थे पर उनके अनुवादकों या प्रकाशकों को वैसी पहरेदारी मुहैया नहीं थी। तो कुछ दिन पहले जर्मनी से बाहर, एक अनुवादक की हत्या हो गई थी। समापन सत्र में पहुँचे तो सर्व सम्मति से पारित होने के लिए, प्रस्ताव पेश किया गया। उसमें, सलमान रुश्दी और उनके सभी प्रकाशकों और अनुवादकों से हमदर्दी जतलाते हुए, इरान के ख़ुमैनी की निंदा की गई थी। और उन्हें चेतावनी दी गई थी कि, अगर उन्होंने अपना फ़तवा वापस नहीं लिया तो अंजाम बहुत बुरा होगा। सुन कर मेरे होश फ़ाख़्ता हो गये। क्या कोई अक्ल या इंसानियत का इतना दुश्मन हो सकता था कि यह न जाने कि इरान से आये अदीब महमूद दौलताबादी के वहाँ मौजूद होने का मतलब था, सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव को उनका समर्थन! एक दिन पहले ही जर्मन में अनुदित उनकी रचनाओं पर सत्र हुआ था। आज आयोजक ही नहीं, भागीदार अदीब और शायर भी इंसानियत और अक्ल के दुश्मन नज़र आ रहे थे, क्योंकि सब गर्दन हिला कर खुश हो रहे थे। जब प्रस्ताव पढ़ा जा रहा था, तभी मैं सभागार में लगे माइक के पास पहुँच ली थी।
प्रस्ताव पढ़ कर जैसे ही सभापति ने ऐलान किया, "सबकी सहमति है न? हाथ उठायें या हाँ कहें।”
मैं खड़ी हो गई और ज़ोर से चिल्ला कर माइक पर कहा, "नहीं! मैं सहमत नहीं हूँ।”
ऐसी घनघोर चुप्पी पहले कभी सुनी न थी।
"क्यों, समझा कर बतलाइए।” उन्होंने कड़ुवे तंज़ के साथ कहा।
गुस्से के मारे मेरी नसें तिड़क रही थीं पर मैंने संयत पर कठोर स्वर में कहा, "आप अच्छी तरह जानते हैं कि इरान के अदीब, महमूद दौलताबादी, यहाँ मौजूद हैं। सर्व सम्मति से पारित होने का मतलब होगा कि उस प्रस्ताव को उनका समर्थन है। तब इरान वापस जाने पर उनका क्या हश्र होगा, आप नहीं जानते क्या? उसमें समझाने को क्या है?"
"आप अकेले इसका विरोध नहीं कर सकतीं?"
ख़ुदा की मार, उस दिन मैंने तमाम काले कपड़े पहने हुए थे। उन लहीम-शहीम गोरे जर्मनों को, मैं एक नाटी, काली, आतंकवादी लग रही हूँगी।
"बिल्कुल कर सकती हूँ। कर रही हूँ। आप हम पर ज़बरन सर्वसम्मति नहीं थोप सकते। जो मैं कह रही हूँ, रिकॉर्ड हो रहा है, अनेक भाषाओं में। आप मुझे जान से मार भी दें तब भी मेरी असहमति बहुत से लोगों तक पहुँच गई होगी।” मैं जानबूझकर अतिनाटकीय हो गई।
तभी बगल से आवाज़ आई, "मैं, मोनिका मंसूर, मृदुला गर्ग की असहमति का अनुमोदन करती हूँ।” मैं सोच रही थी, अब तक वह चुप क्यों थी? बाद में उसने कहा, "मैंने सोचा तुम्हें अपने एकल विरोध का आनन्द लेने दूँ। मैं यह भी जानती थी कि बिना सर्वसम्मति, जर्मन प्रस्ताव पास नहीं करते।”
कुछ आवाज़ें आईं, "इनके डिसेन्ट के साथ भी प्रस्ताव पास किया जा सकता है।”
"नहीं!" सभापति ने डपट कर कहा, "हमारे प्रस्ताव हमेशा सर्वसम्मति से पास किये जाते हैं।” फिर मुझसे मुख़ातिब हुए,” प्लीज़ अपनी असहमति वापस ले लीजिए।”
"नही, "अब सिंगापुर और अफ़्रीका से आये दो-तीन लेखकों ने भी आपत्ति दर्ज की।” मृदुला गर्ग ठीक कह रही हैं। हम महमूद दौलताबादी को ख़तरे में नहीं डाल सकते।”
मंच पर आसीन आयोजक आपस में गुफ़्तगू करने लगे। देर तक की। फिर पूछा, "आप का यह अंतिम निर्णय है?"
"जी। मेरी असहमति है और रहेगी," मैंने कहा।
"तब हम इस सम्मेलन के बाद कोई प्रस्ताव पारित नहीं कर सकते," हतोत्साहित आवाज़ में सभापति साहब ने कहा।
"कोई और प्रस्ताव ड्राफ़्ट कर लीजिए," किसी ने तंज़ के साथ कहा, "यह कि हम फ़ैसला करते हैं कि यहाँ बुला कर लेखकों का अपमान नहीं करेंगे। मुझे यक़ीन है, सर्वसम्मति से पारित हो जाएगा," मोनिका के सिवा कौन हो सकता था।
"मैं घोषणा करता हूँ कि इस बार हम कोई प्रस्ताव पारित नहीं कर रहे। सभा ख़ारिज!"
सभापति साहब उठ कर खड़े हो गये। हम सब भी। सम्मेलन समाप्त हो गया।
थकान से चूर मैं कुर्सी पर ढह गई। कई लम्बी-चौड़ी जर्मन औरतें मेरे पास आईं और बोलीं, "बधाई। आप बहुत साहसी हैं!"
"साहसी? इसमें साहस की क्या बात है? आपके खयाल से वे मुझे मार सकते थे?"
"नहीं–नहीं। पर इतने मर्दों के खिलाफ़ एक औरत अकेली बोले...कभी नहीं हुआ।”
"मर्द! कौन मर्द? मुझे तो यहाँ महमूद दौलताबादी के सिवा कोई मर्द दीखा नहीं।”
"चलो, किसी कैफ़े में चल कर कॉफ़ी पियें," मोनिका ने कहा और हम चल दिये। उसी रात मोनिका को फ़्लाइट ले कर वापस जाना था और मुझे बल्ब में क़ैद सरदारजी के साथ भारतीय कोन्सुलेट में डिनर के लिए। ज़्यादातर भारतीय दूतावास या कोन्सुलेट, भारत से आये बन्दों की मेहमाननवाज़ी करते नहीं, जबकि पाकिस्तानी दूतावास अपने शहरियों के साथ, हिन्दुस्तानियों की मेज़बानी भी कर लेता है। कालिफ़ोर्निया, अमरीका और मालदीव में मेरा यही तजर्बा रहा था। पर बर्लिन में कोन्सुलर भी सरदार थे; हो सकता है खुशवन्त सिंह के बहाने मुझे भी बुला लिया हो। बेहद ख़ुशमिज़ाज भी थे। पर वह बेहद वाक़ई कितना बे-हद था, वहाँ पहुँच कर ही मालूम हुआ। समापन में अपने सरदारजी नहीं थे; प्लेबॉय पढ़ रहे होंगे या कहीं दारू पी रहे होंगे।
पर अभी तो मैं और मोनिका अपने पसन्दीदा कैफ़े में पसरे कॉफ़ी पी रहे थे। मुझे बिना हैंडल के चौड़े मुँह वाले पैमाने में कॉफ़ी परोसने का तरीका बहुत पसन्द था। दोनों हाथों के बीच पकड़ने से सर्दी में मुँह के साथ, हाथ भी गरमा जाते थे और अपना ददिहाल याद आ जाता था, जहाँ गिलास को दोनों हाथों से थाम कर, चाय सुड़की आती थी।
तभी दौलताबादी वहाँ आये। आते रहते थे। हमसे वाजिब दूरी बना कर एक मेज़ पर बैठते थे। पर आज उधर जाने के बजाय, वे हमारी मेज़ पर आ गये। शर्मीली मुस्कराहट के साथ अंग्रेज़ी में पूछा, "यहाँ बैठ सकता हूँ?"
"ज़रूर,” सतर हो कर बैठते हुए मैंने कहा। वे बैठ गये। हमने एक और कॉफ़ी का ऑर्डर दे दिया। कॉफ़ी आने से पहले उन्होंने पूछा, "आप दोनों के साथ एक तस्वीर खिंचवा सकता हूँ?"
"ज़रूर," हम दोनों ने काफ़ी अचरज के साथ कहा, उन्होंने अपने साथ आये युवक को इशारा किया और उसने चित्र उतार लिया। कॉफ़ी आ गई। प्याला होंठ से लगा, उन्होंने धीमे से कहा, "शुक्रिया।” सिर्फ़ हमने सुना। पर तस्वीर खिंचते सबने देखा था। वह तस्वीर अब भी मेरे पास है। हाल में मुझ पर केन्द्र्ति पुनश्च पत्रिका का अंक निकला तो उसमें वह थी।
तब मैं नहीं जानती थी, अब जानती हूँ कि, दौलताबादी इरान के अदीबों में सबसे ऊँचे पायदान पर हैं। लोग सवाल करते हैं तो यह कि, उन्हें अब तक नोबेल पुरस्कार क्यों नहीं मिला? फिर भी उनका एक उपन्यास, "द कर्नल,” दुनिया की कई ज़बानों में अनुदित हो कर छपने के बावजूद, उनकी अपनी ज़बान फ़ारसी में नहीं छपा। जब लिखा था तो इरान में ज़िक्र तक नहीं किया गया था। उतना निर्मम सच सत्ता बर्दाश्त नहीं करती और न शायद लोग। पर आज, जब उनकी इतनी इज़्ज़त है, तब भी मज़हब के कठमुल्लापन के तहत क्या- क्या दरिंदगी हुई थी; उसका बयान, इरान छाप नहीं पाया है।
कैफ़े में उनसे मिलना, बातचीत करना, साथ तस्वीर खिंचवाना, ज़िन्दगी के कुछ अहम लम्हे थे। मैंने उनसे यह पूछने की गुस्ताख़ी भी कर ली थी कि अगर वह प्रस्ताव पारित हो जाता तो इरान लौटने पर उनके साथ क्या होता। उनका निहायत संजीदा जवाब था, "मुझे मार दिया जाता।” "फिर आपने एतराज़ क्यों नहीं किया?" मोनिका और मैं लगभग चिल्ला उठे। वे मुस्कराये; कहा, "कभी-कभी, चुप्पी सबसे बड़ा हथियार होती है।” हम सिर झुका कर बैठ गये। वे तनिक और मुस्कराये और बोले, "मुझे ज़रूरत नहीं पड़ी; आपने विरोध कर दिया न!" क्या आलीशान अदीब था! तभी न बिला जुर्म किये दो साल जेल में गुज़ार आया था और बिला उज्र, वह वक़्त लिखने में लगाया था।
हम उनके काम आ पाए थे, उसका हमें फ़ख्र था। हम बेहद भावुक महसूस कर रहे थे।
अंश - 4 (जल्द ही)
(कॉपीराइट्स रीज़र्व्ड)
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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1 टिप्पणियाँ
बहुत ही खूबसूरत
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