रघुवंश मणि की कहानी 'अधजले पटाखे बटोरने वाली पीढ़ी' | Raghuvansh Mani Ki Kahani

अधजले पटाखे बटोरने वाली पीढ़ी

~ रघुवंश मणि 




वर्ष: १९७४, दीपावली।
स्थान : फैजाबाद, चौक और उसके आसपास।
समस्त पात्र काल्पनिक हैं।

बिलकुल सुबह लगभग ५ बजे सुरेश की नींद खुलती है। वह सात साल का बच्चा है। अभी काफी सुबह है। अँधेरा ठीक से छंटा नहीं है। वह अपनी सूती चादर फेंकता है और चोरों की तरह दबे पांव अपनी बहन किरन की तरफ बढ़ता है जो ज़मीन पर एक ओर घुटनों में मुंह डाले सो रही है। वह भी उसी की उम्र के आसपास है।

निन्दियाई आँखों से वह अपनी बहन की ओर देखता है और उसका कन्धा झिन्झोरता है। वह कुनमुनाती है और अपनी करवट बदल लेती है। वह उसे दूसरी बार झिन्झोरता है। इस बार वह आँख खोल देती है। सुरेश दबी आवाज़ में पूछता है।

“चलना नहीं है क्या?” 

“कहाँ?”

सवाल करने के बाद वह फिर नींद में खोने लगती है। सुरेश फिर उसे झिन्झोरता है।

“भूल गयी। चल उठ।”

“क्या?”

“कल छोटी दिवाली थी न? उजाला होने वाला है। हमको सबसे पहले पहुँचाना है। जल्दी कर।”

किरन को मानों ढेर सारी बातें याद आ जाती हैं। वह तन्द्रा तोड़ कर कथरी पर बैठ जाती है। मंजन-दातुन का विकल्प है आँख मींजना। दोनों चुपके से घर के बाहर निकलते हैं। दोनों अपने स्लीपिंग ड्रेस में हैं। सुरेश ने पटरे की जांघिया और बंडी पहन रखी है, किरन ने एक गन्दी-सस्ती फ्रॉक। गली के मोड़ पर उन्हें गंगू मिलता है जो उन्हें देखकर खिसिया जाता है। 

“कहाँ रे गंगू?”

“कहूं नहीं।”

सुरेश समझ जाता है की वह भी उन्हीं के साथ चलेगा। तीनों साथ चल देते हैं। एक क्षण में ही तीनों सड़क पर पहुँच जाते हैं। आधे उजाले में वे फुटपाथ ताकते हुए चलते हैं जहाँ रात में दगाये गए घायल पटाखे पड़े हुए हैं। कुछ दगे, कुछ फिसियाये हुए से। वे पटाखे उठा-उठा कर देखते हैं। कुछ पटाखे बिलकुल नहीं दग पाये हैं। उन्हें देखकर उन तीनो की आँखें चमक उठती है। सुरेश पटाखे उठाकर उनका निरीक्षण करता है और जो पटाखे दगे हुए नहीं हैं, उन्हें वह किरण को सौंप देता है। किरण अपनी फ्रॉक में अधदगे और अनदगे पटाखे एकत्र करती है। गंगू भी अपने कुरते की जेब में पटाखे चेक करके रखता है।

सुरेश बड़ा होने के कारण अपना पटखा ज्ञान बघारने से नहीं चूकता। वह बताता है कि कुछ अमीर लोग पटाखों की पूरी चटाई ही जला देते हैं। पटाखे दगते हैं, तड़-तडा-तड़-तड़। मजा आ जाता है। मगर चटाई के पूरे पटाखे नहीं जलते। हर चटाई में कम से कम दस पटाखे तो नहीं ही जलते। रात के अँधेरे में किसको पता चल पाता है कि कितने पटाखे नहीं दगे। ये पटाखे दूर-दूर तक बिखर जाते हैं। दिन में उन्हें आसानी से पाया जा सकता है।

वे पटाखों की अस्थायी दुकानों के तख्तों के नीचे और चबूतरों के आसपास पटाखे खोजते हैं। सलामत पटाखे मिल जाने पर खुश होते हैं। गंगू को तो एक लहसुन भी मिला है। शायद किसी ने लापरवाही से पटका होगा रात में। यह दागने के बजाय चुपचाप सड़क के कोने में जा बैठा। 

“गंगुआ को लहसुन मिल गया” किरन ने ईर्ष्या भरी दृष्टि से उसे देखा और फिर पटाखे ढूढने में तन्मय हो गयी।

“सच! दिखा तो गंगुआ।”

गंगू मुठ्ठी खोलकर सुरेश को लहसुन दिखता है और फिर तेज़ी से जेब में डाल लेता है। खुली हंसी हंसता है अपनी सफलता पर। उसके दांत चमक उठते हैं। अब किस्मत की बात है, सुरेश सोचता है। वह फिर अपने काम में जुट जाता है। क्या पता उसे भी कोई लहसुन मिल जाये।

फुसफुसाए और अधदगे पटाखों का मसाला भी काम आता है। मसाला निकाल कर उसमे आग छूवा देने पर भी अच्छा तमाशा होता है। सुरेश यह जानता है। इसलिए वह उन अधदगे पटाखों को भी बटोरता चलता है। 

शहर के केंद्र में पहुँचते-पहुँचते बच्चों की संख्या बढ़ जाती है। वे अलग-अलग उम्र के हैं, मगर एक ही स्तर के कपडे पहने हैं। सबका उद्देश्य एक ही है। सुरेश और किरन काफी पटाखे बटोर चुके हैं। गंगू की भी जेबें भर गयी हैं। इसलिए वे ख़ुशी-ख़ुशी घर वापस आते हैं। सूरज आकाश पर चढ़ आया है।

दिन में पटाखों को छांटा जाता है। अधदगे पटाखों के मसाले निकालकर फुसफुसे पटाखे तैयार किये जाते हैं। दीपावली की रात जब दुल्हन की तरह सज जाती है तो सुरेश, किरन और गंगू गली के मोड़ पर पटाखे दगाते हैं। कुछ दगते हैं तो कुछ नहीं। किरन उत्सुकता के साथ देखती है। जैसे ही कोई पटाखा दगता है, वह ख़ुशी से नाच उठती है। कुछ पटाखे फुसफुसा जाते हैं। सारे पटाखे ख़त्म हो जाते हैं तो गंगू शान से अपना लहसुन निकालता है। सुरेश और किरन सांस रोके खड़े हैं। लहसुन दगेगा या नहीं? गंगू लहसुन पटकता है। बड़े जोर का धमाका होता है। तीनो तालियाँ बजाकर नाचने लगते हैं। पटाखा ख़तम, तमाशा ख़तम। 

अब ये बच्चे छोटी दीपावली के बाद अधजले पटाखे खोजने नहीं निकलते। वे ज़िन्दगी के तमाम गंभीर मसलों में उलझ गए हैं। गंगू अपने बाप की तरह रिक्शा चलाने लगा है। सुरेश की तरक्की यह है कि उसने अपने पिता की तरह मोची की दूकान के साथ-साथ साईकिल की मरम्मत का भी सामान रख लिया है। लोग उसे मिस्त्री भी कहने लगे हैं। और किरन उसकी शादी हो गयी है। लोग बताते हैं कि उसका पति उसे शराब पीकर मारता है। वह कभी-कभार ही दिखाई देती है। 

मैं भी ज़िन्दगी के संगीन मसलों का शिकार हो गया हूँ। मुझे पटाखे बीनने जैसे छोटे कार्यों में कोई दिलचस्पी नहीं। जीवन से प्राप्त कुछ सुविधाओं ने मुझे आलसी बना दिया है। सुबह बहुत देर से उठता हूँ और स्वयं को “लेट राइज़र’ कह कर गौरवान्वित महसूस करता हूँ। मगर आज भी दीपावली के मौकों पर घरों के सामने रखे दिये चोरी हो जाते हैं। शायद आज भी कोई ऐसी पीढ़ी हो जो छोटी दिवाली के बाद की सुबह अधदगे पटाखे खोजने निकलती हो।


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