कहानी: मैं राम की बहुरिया - राजेन्द्र राव | Rajendra Rao HindiKahani "Mai Ram Ki Bahuriya"


मैं राम की बहुरिया

राजेन्द्र राव

कहानी:  मैं राम की बहुरिया  - राजेन्द्र राव | Rajendra Rao HindiKahani



सुखदेव प्रसाद अपनी मारुति-८०० में पहुंचे। पार्किंग में खड़ी करने लगे तो कुछ अकिंचन होने का एहसास हुआ। वहां एक से बढ़ कर एक छम्मकछल्लो कारों की नुमायश सी लगी थी। कुछ लाल-नीली बत्तियों वाली हूटर लगी गाड़ियां भी आड़ी टेढ़ी खड़ी थीं याने प्रशासनिक अमला वहां दमखम से मौजूद था। उनकी पत्नी कुछ देर से उतरीं, उन्होंने गौर से देखा, बिल्कुल सातवें दशक की साउथ इण्डियन हीरोइन जैसी सजधज में थीं। खाली मारुति-800 को ही दोष देने से क्या फायदा, पूरा गेटअप ही क्लासिकल ठहरा। वो तो देव ने सपत्नीक आने का जबर्दस्त आग्रह किया था, इसलिए मजबूरी थी। वह बंड आदमी था, कोई भरोसा नहीं अकेले पहुंचने पर सबके सामने गरियाने ही लगता। खैर, वहां काफी भीड़ थी और लोगों का आना जाना लगा हुआ था। हेरिटेज क्लब दुल्हन की तरह सजा हुआ था, किसी राष्ट्रीय पर्व की पूर्व संध्या पर सरकारी इमारतों पर लगाई जाने वाली बिजली की बेशुमार झालरों से जगमग। फूलों से बने कलात्मक प्रवेशद्वार पर शहनाई वादन अलग ही समां बांधे था। अंदर जाते हुए लगा कि सचमुच कहीं पहुंच रहे हैं। वैसे भी वहां ज्यादातर पहुंचे हुए लोग ही अंदर बाहर थे। उस माहौल में सुखदेव प्रसाद को एक बालसुलभ सी फीलिंग ने घेर लिया कि अभी हमें और आगे जाना है, मीलों का सफर तय करना है (सौजन्य जवाहर लाल नेहरू) । एक लगभग मूर्खतापूर्ण आत्मविश्वास जाग उठा कि –वी(आइ) कैन डू इट (सौजन्य-श्री बराक ओबामा)। अगर देव कर सकता है तो कोई भी(मैं) भी कर सकता है(हूं)। उत्साहित हो आगे बढ़े तो देखा प्रवेशद्वार पर एक बड़ा सा बैनर लगा था- “धीरज पोरवाल एवं देव मित्रमंडल आपका हार्दिक स्वागत करते हैं !” यह धीरज पोरवाल राजधानी के गिने चुने धन्नासेठों में से एक था। उसी की छत्रछाया में देव ने कारोबार शुरू किया था और फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। पोरवाल की सत्ता के गलियारों में गहरी पैठ थी जिसका भरपूर फायदा उठा कर देव भी बड़े बिल्डरों और पार्टी को मोटा चंदा देने वालों की विशिष्ट जमात में पहुंच गया था। 

अंदर मखमली लान पर लाल कालीन बिछा था जो ‘सागर मंथन’ सभागार के मुहाने तक पहुंचाने के निमित्त था। लान के दाहिनी ओर प्रीतिभोज का भव्य सरंजाम था। चारों ओर रेशमी (चाइनीज-एल ई डी) विद्युत लड़ियों की जगमग जगमग थी। प्रवेश पथ के दोनों ओर कृत्रिम फव्वारे खासी ऊंचाई तक सुगंधित जल की फुहारें छोड़ रहे थे। द्वार पर स्वागत के लिए श्री और श्रीमती देव अपने दोनों पुत्रों के साथ खड़े थे। चारों लकदक राजसी लिबास में ऎसे जम रहे थे जैसे कोई राजघराना हो। बाप बेटों के बंद गले के कामदार प्रिंस कोट और गृहणी की जरी के सच्चे काम वाली बनारसी सिल्क और जन्मजात गोरे रंग ने उन्हें एक दुर्लभ किस्म का विशिष्ट सामंती लुक प्रदान कर दिया था। कुल मिला कर वह भारी उपस्थिति वाला राजसी परिवार प्रतीत हो रहा था। उन्हें देखते ही देव ने जोर से नारा लगाया - “अरे सुखदेव, आओ मेरे मिट्टी के शेर ! तनी देखो तो अपने यार का जलवा। अरे भाभीजी! प्रणाम, हमारे धन भाग कि आपके दर्शन हो गए । इसने तो छुपा के रखा हुआ है आपको। आप को लाने के लिए बड़े निहोरे किये, हाथ जोड़ कर विनती की, थोड़ा धमकाया, समझ रही हैं ना, तब जाकर आपका दीदार हो पाया है। “वह कुछ और भी कहता मगर श्रीमती देव ने बड़े स्नेह से श्रीमती सुखदेव का हाथ पकड़ कर उन्हें अपनी ओर खींच लिया। हक्के बक्के से सुखदेव प्रसाद ने बधाई दी तो देव ने चहक कर कहा, ”गुरू, अपना तो यह उसूल है कि भैय्या या तो किसी पचड़े में पड़ो मत और पड़ ही गए तो फिर उसे ऎसे अंजाम तक पहुंचाओ कि देखने वालों की ब्राड़ हो जाए, ससुरे आंखें मलते रह जाएं। मैंने भी झोंक दिया अपने आप को, बहुत पसीना बहाया अब पैसा बहा रहा हूं। जरूरत पड़ी तो खून भी बहाया जा सकता है। खैर इसे छोड़ो और खुशखबरी सुनो, आज बतौर मुख्य अतिथि भाऊ साब खुद आ रहे हैं। उन्होंने तो बहुत टालने की कोशिश की, कहते रहे कि भँवर (मुख्यमंत्री) को ले जाओ, न हो बबुआ (उप मुख्यमंत्री) को ले जाओ, लेकिन मैं अड़ गया, बोले मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है इसलिए कहीं आता जाता नहीं हूं। मैंने कह दिया तो फिर मैं आपकी तबीयत ठीक होने तक प्रतीक्षा कर लूंगा, भले ही आप छै महीने बाद की तारीख दो मगर आशीर्वाद आपको ही देना होगा। सुन कर हंसने लगे, और सुनो फिर गाली देकर बोले देव, तुम परम हरामी हो, मानोगे नहीं, चलो आता हूं। जाओ सुथन्ना बाबू (निजी सचिव) से तारीख ले लो। तो भैय्या उन्हीं की अगवानी को खड़ा हूं। उनके नाम का जलवा देखो, आधा हाल तो बिना बुलाए मेहमानों से ही भर गया है। फौज-फांटा अलग से हाजिर है। डी. एम. और आइ. जी. सुबह से यहीं टहल रहे हैं। पार्टी के कुछ बड़े नेता और उनके लकुए-भकुए आकर आगे सीटों पर डट गए हैं, अब उन्हें कौन हटाए ! लेकिन पूरा भौकाल कायम है। “अभी यह प्रवचन कुछ देर और चलता मगर तभी वातावरण में कारों के सायरन गूंजने लगे। शायद भाऊ साब का काफिला आ पहुंचा था। देव के छोटे बेटे ने सुखदेव दंपत्ति को ले जाकर वी आइ पी एन्क्लोजर में बैठा दिया। सुखदेव ने देखा कि ‘सागर मंथन सभागार’ (जैसा बड़ा हाल भी) लगभग भर चुका था जबकि ऎसे समारोहों में सौ-दो सौ मेहमान जुटाना भी कठिन माना जाता है। हां, जाने पहचाने चेहरे बहुत कम नजर आ रहे थे। आगे की ज्यादातर सीटें राजनीतिक तबके के लोगों से भरी थीं जिनमें से कुछ को सुखदेव प्रसाद अखबार में अक्सर छपने वाली उनकी तस्वीरों के कारण पहचान गए। उन्हें लगा मामला गंभीर है - अभी तक तो वे इसे देव की खप्त मान कर हल्के में ले रहे थे। फिर उन्हें लगा कि जो हो रहा है उसे तमाशा समझ कर देख लेने में ही कुछ सार्थकता हो सकती है। फूलों और वंदनवार से सुसज्जित रोशनी में नहाए मंच पर दाहिनी ओर वीणावादिनी की लगभग मानवाकार प्रतिमा थी और एक सुंदर दीपस्तंभ था। पार्श्व में संभवत: कार्यक्रम का बैनर(फ्लैक्सीबोर्ड) था जिस पर चुन्नटदार सुनहरा परदा पड़ा था। बांई ओर सनमाइका वाला पोडियम था जिस पर कोष्ठक चिन्ह की तरह दो जुड़वां माइक वक्ताओं की बाट जोह रहे थे। जब तक वे कुछ और देख पाते पीछे प्रवेशद्वार की ओर से शोर सुनाई दिया और विंग्स से एक चुस्त दुरुस्त उद्घोषिका ने यकायक प्रगट होकर माइक संभाल लिया - “देवियों और सज्जनों, आज के समारोह के मुख्य अथिति, हम सब के परमपूज्य प्रात:स्मरणीय, आदरणीय भाऊ साब सभागार में पधार रहे हैं। कृपया खड़े होकर जोरदार करतलध्वनि से उनका स्वागत और अभिनंदन करें। “ और मंच पर यवनिकापात हो गया। उधर मुख्य अतिथि की शोभायात्रा मंच के ठीक सामने वाली अतिविशिष्ट सोफा-कतार की ओर धीरे दीरे बढ़ रही थी और हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था। उस जुलूस में कम से कम बीस महानुभाव तो थे ही। देव भाऊ साहब के साथ चल रहा था। मंच के पास पहुंच कर कुछ देर के लिये यह कारवां रुका। हाल की आधी से ज्यादा सीटों पर जमे पार्टी कार्यकर्ताओं ने “भाऊ साब, जिंदाबाद, जिंदाबाद !!.. हमारा नेता कैसा हो, भाऊ साब जैसा हो!” का समवेत गायन शुरू कर दिया और तब तक करते रहे जब तक कि शोर से झुंझला कर स्वयं भाऊ साब ने हाथ उठा कर उन्हें चुप नहीं करवा दिया। 

मौका तड़कर अनेक वीर बालक वहां पहुंच गए। अपना अपना चेहरा दिखाने के लिए धक्का-मुक्की होने लगी। कुछ देर तक खड़े होकर भाऊ कदमबोसी और फर्शी सलाम कुबूल करते रहे फिर मानो तंग आकर देव से कहा - “चलो प्रोग्राम शुरू करवाओ !” और मध्य सोफे पर धंस गए। शोभायात्रा में शामिल लोग आगे की सोफा-पंक्ति पर पहले से बैठे लोगों को धकियाकर काबिज हो गए। देव ने इशारे से अपनी पत्नी और पुत्रों को बुला कर भाऊ के सन्मुख प्रस्तुत किया। सुखदेव वहां चल रहे संवाद तो नहीं सुन पाए परंतु देव परिवार को कुछ देर तक हाथ जोड़े मुख्य अथिति के वचनामृत का पान करते देखते रहे। तभी सुरीले स्वर में उदघोषणा हुई कि देश की प्रख्यात नृत्यांगना मीनल पटेल सरस्वती वंदन और देव-आवाहन नृत्य प्रस्तुत करेंगी। धीरे धीरे परदा उठा और अंधेरे मंच पर वीणापाणि की सुदर्शना मूर्ति प्रकाशित हो उठी। एक घूमती हुई स्पाट लाइट नृत्यांगना पर पड़ी जो आराधना की मुद्रा में नतमस्तक खड़ी थी और हाल वंदना के मधुर और समवेत स्वर से झंकृत हो उठा। मंच जैसे जैसे प्रकाशित होता गया वाद्यवृंद वादक प्रगट होते गए। वंदना शेष होते ही एक क्षण को अंधेरा हुआ और उजाला होते ही मंच पर घुंघरुओं की झंकार के साथ आधा दर्जन सह नर्तकों के चपल चरण थिरक उठे। वह बहुत ही शिप्र और प्राणवान प्रस्तुति थी जिसमें मीनल बादलों के बीच बिजली की तरह मचल रही थी। सुखदेव प्रसाद और उनकी पत्नी जैसे मंत्रमुग्ध होकर देखते रहे और जब परदा गिरा तो मानो ठगे से रह गए। हाल देर तक तालियों से गूंजता रहा। सुखदेव प्रसाद ने अनुभव किया कि देव डींग नहीं मार रहा था, सचमुच उसने एक भव्य और बेहद कलात्मक शो क्रियेट कर दिया था। अभी तक आंख से ओझल रही उसकी सांस्कृतिक चेतना के इस इस विराट दर्शन ने उन्हें जोरदार झटका दिया । उन्होंने मंच को मुग्धभाव से एकटक निहार रही पत्नी की तरफ देख कर कहा-‘कमाल है!’ देव याने देवप्रिय मिश्र उनका बाल्यसखा था। स्कूल के दिनों से उसकी गिनती ऊर्जावान मगर अव्वल दर्जे के शैतान बच्चों में होती थी। सुखदेव प्रसाद की तरह न तो वह पढ़ाकू था न बात बात पर टसुए बहाने वाला कविहृदय और भावुक बल्कि स्कूल के दबंग और नंबर वन खिलाड़ियों में से एक था। स्वभाव और प्रकृति के एक दूसरे के विपरीत होते हुए भी जाने कैसे दोनों में दांतकाटी रोटी वाली दोस्ती थी। शायद इसलिए कि वे पढ़ाई में, खास कर इम्तिहान के दिनों में उसकी सटीक मदद करते थे। संयोग कुछ ऎसा रहा कि दोनों स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक सहपाठी बने रहे। बाद में देव पारिवारिक व्यवसाव में चला गया और सुखदेव इंटर कालेज में पढ़ाने लगे। देव का पैतृक व्यवसाय गिरह-गांठ का था मगर उसने धीरज पोरवाल की मदद से प्रापर्टी डीलर का काम शुरू किया और प्रकारांतर से एक सफल बिल्डर के रूप में स्थापित हो गया। सुखदेव अपनी मामूली नौकरी में कुछ ज्यादा ही संतुष्ट थे क्योंकि यहां उन्हें लिखने पढ़ने के लिये अनुकूल परिवेश और समय खूब मिलता था। अपनी प्रतिभा और लगन से उन्होंने साहित्य जगत में एक लोकप्रिय कथाकार के रूप में सम्मानजनक स्थान बना लिया। प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में उनकी कहानियां छपती रहती थीं। कुछ कथा संकलन और दो उपन्यास भी प्रकाशित और चर्चित हो चुके थे। गहरी आर्थिक खाई के बावजूद देव अपने बचपन के मित्र को भूला नहीं, गाहे-बगाहे उनसे मिलने खुद चल कर आता रहा। यूं तो हंसी मजाक की उसकी शुरू से आदत थी मगर मौके-बेमौके वह उनकी खिंचाई करता, मास्टरी और पुस्तक प्रेम की खिल्ली उड़ाता - “भाई मेरे! क्या कर लिया तुमने इतने कागज काले कर के? एक ढंग का फ्लैट तक नहीं खरीद पाए, टुटहे स्कूटर पर घूमा करते हो। छोड़ो इस मास्टरी को आओ मेरे साथ बिजनेस में, कसम से पांच साल में करोड़पति न बनवा दूं तो कहना। मेरे पास भरोसे के आदमी की कमी है इसलिये कहता हूं मगर तुम्हारे कान पर जूं नहीं रेंगती। और ये तुम्हारी किताबें जिनमें तुमने अपनी जिंदगी और आंखें झोंक दीं, मुठ्ठीभर ठलुए इन्हें पढ़ते होंगे, कुछ तारीफ कर देते होंगे लेकिन इनसे क्या हासिल हुआ? बहुत हुआ तो दस हजार-बीस हजार। ऎसे कहीं कोई बना है। देखना सुखदेव एक दिन तुम्हें इन्हीं किताबों से नफरत हो जाएगी। तब शायद बहुत देर हो चुकी होगी… मुंह न बनाओ, मैं तो तुम्हारे भले के लिए कहता हूं। सच्ची, भाभी और बच्चों पर तरस आता है। ….यह भी सच था कि वह हितोपदेश के तहत ही कहता था। उसने जोर-जबर्दस्ती, धमका-फुसला कर अपने एक प्रोजेक्ट में एक टू.बी.एच.के. सुखदेव प्रसाद को आसान किस्तों पर दिलवा दिया था। लेकिन उसका रंग सुखदेव प्रसाद पर नहीं चढ़ा तो नहीं ही चढ़ा। जल्दी ही वे उसके हितोपदेश एक कान से सुन कर दूसरे से निकालने के अभ्यस्त गए। 

परदा उठा और मंच पर सुशोभित पांच कुर्सियां नजर आईं। बीचवाली कुर्सी बिल्कुल राजसिंहासननुमा थी। मुख्य अतिथि भाऊसाहब उस पर विराजमान हुए, उनके अगल बगल कार्यक्रम के अध्यक्ष संस्कृति मंत्री देवारी लाल और भाषा सदन के अध्यक्ष विद्यानिधि, शेष दो के सामने देव और धीरज पोरवाल की नामपट्टिकाएं मेज पर रखी थीं मगर बैठने के बजाए दोनों सावधान की मुद्रा में कुर्सियों के पीछे खड़े हो गए। पार्श्व में लगा रंगीन बैनर अब निरावृत हो चुका था और देव की प्रतिभा के नए आयाम की सूचना दे रहा था। । भाऊसाहब के मिजाज को देखते हुए कार्यक्रम का संचालन बेहद फुर्ती से होने लगा। वीणावादिनी को पुष्पांजली और दीप प्रज्वलन के बाद अतिथियों का औपचारिक स्वागत श्रीमती देव ने बुके भेंट करके किया । आयोजकों की ओर से स्मृतिचिन्ह के रूप में एक ठोस चांदी का फलक भाऊसाहब को अर्पित किया गया जिसमें युद्धभूमि में रथारूढ़ अर्जुन को कृष्ण भगवान गीता का उपदेश देते हुए उकेरे गये थे। उसके तुरंत बाद सुधीर पोरवाल माइक के सामने आ गए। उन्होंने मंच पर और नीचे हाल में उपस्थित अति विशिष्ट और विशिष्ट जन द्वारा मुख्य अतिथि का सूचीबद्ध माल्यार्पण कराने में खासा समय लिया और फिर हाथ में पकड़े कागज को जेब के हवाले करते हुए माथे का पसीना पोंछ कर आयोजन के उद्देश्य पर कुछ इस तरह से प्रकाश डाला- “देवियों और सज्जनों! आज का दिन हम सब देवप्रियजी के मित्रों के लिए बहुत खुशी और फख्र का दिन है जब हम उनको एक नए रूप में देख रहे हैं। सच तो यह है कि हममें से किसी ने यह सोचा भी नहीं था कि हमारा प्यारा दोस्त जिसे हम प्यार से ‘गुंडा’ कहा करते हैं एक दिन ऎसी अदाकारी दिखाएगा…..देखिये हंसने की बात नहीं है, आज मैं यह दोस्तों के बीच का राज खोल देता हूं कि वह मुझे बड़े प्यार से ‘बड़ा गुंडा’ और मैं उसे उतने ही दुलार से ‘छोटा गुंडा’ कहता हूं। मजाक अपनी जगह पर लेकिन हमारी लाइन के लोग जानते हैं कि देव ऎसी हस्ती है जिसके तेवर से अच्छे अच्छों के कसबल ढीले पड़ जाते हैं। आज वह एक बहुत कवि के रूप में ऎसी खूबसूरत किताब लेकर सामने आया है जो लिटरेचर की दुनिया में तहलका मचा देगी। दोस्तों आपने देखा होगा कि अक्सर कवि हुए, लेखक हुए, कलाकार हुए, ये बड़े नाजुक किस्म के लोग होते हैं जो जमाने की सर्दी-गर्मी को नहीं झेल पाते। लेकिन देव जैसे जिगरे का आदमी हाथ में कलम लेकर खड़ा हुआ है तो समझिये कि साहित्य की दुनिया में बहुत बड़ा बदलाव आने वाला है। इस जलसे का आयोजन इसी संभावना को सेलिब्रेट करने के लिए किया गया है। इस मुबारक मौके पर तहेदिल से आप सब का स्वागत करता है। “

आयोजक के वक्तव्य के बाद उद्घोषिका ने मुख्य अतिथि और अन्य मंचासीन महानुभाव से अनुरोध किया कि वे श्री देवप्रिय मिश्र के प्रथम काव्यसंकलन ‘तुम्हीं देवता हो’ का विधिवत लोकार्पण करने की कृपा करें। दो नृत्यांगनाएं हाथों में ट्रे लिये हुए आईं जिनमें सुनहरे वर्क में लिपटी पुस्तक की प्रतियां थीं। अतिथियोंके साथ आवृत पुस्तक लिये देव, पोरवाल और अचानक प्रगट हुईं श्रीमती देव एक कतार में खड़े हुए तो हाल में शहनाई का मधुर स्वर गूंज उठा। भाऊसाहब ने पुस्तक को सुनहरे पिंजड़े से आजाद किया तो दर्जनों कैमरों की चमकती फ्लैशलाइटों और तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मंच पर पुष्पवृष्टि होने लगी। एक बार तो सभी फूलों की नाजुक पंखुरियों से आच्छादित हो उठे। – नीचे प्रेस फोटोग्राफरों का हजूम दनादन फ्लैश चमकाए जा रहा था। यह क्रम कुछ ज्यादा ही देर तक चलता रहा जैसे दीवाली में एक साथ आतिशबाजी छोड़ी जा रही हो। दुर्बल और निस्तेज नजर आने वाली हिंदी साहित्य की दुनिया में यह एक दुर्लभ और ज्योतिर्मय क्षण था जो समय की शिला पर, कम-अज-कम पचास प्रेस कैमरों के माध्यम से, गहरे अंकित हो गया। 

उद्घोषिका ने आसन्न वक्ताओं को आगाह किया कि भाऊसाहब को अगले कार्यक्रम के लिए प्रस्थान करना है अत: यथासंभव संक्षिप्त वक्तव्य देने की कृपा करें। सबको यथायोग्य करने के बाद संस्कृति मंत्री महोदय ने कहा - “भाइयों और बहनों, आप जानते हैं कि अक्सर कवि और लेखक गरीब और फटेहाल होते हैं। बीमार पड़ जाते हैं तो इलाज के लिए भी अनुदान का मुंह देखते हैं। जब तक सरकारी लिखापढ़ी पूरी हो वे इस दुनिया को ही छोड़ जाते हैं। हम लाख कोशिश करें कि साहित्यकारों की हालत सुधरे, उन्हें पेंशन, वजीफे, ग्रांट भी मुहैय्या कराते हैं लेकिन उनकी दशा में कोई खास सुधार नहीं हो पा रहा है। तब क्या उपाय है? मेरी समझ से तो इस क्षेत्र में उन्हीं लोगों को आगे आना चाहिये जो आर्थिक रूप से संपन्न हों ताकि मुसीबत के वक्त उन्हें समाज के आगे, सरकार के आगे झोली न फैलानी पड़े। अब जैसे हमारे देवप्रियजी हैं। आज देश के जाने माने बिल्डर्स में आपका नाम है। अपनी हैसियत बना कर अब साहित्य की दुनियां में उतर रहे हैं। सभी तरह की आर्थिक चिंताओं से मुक्त हैं सो इन्हें जो लिखना है डंके की चोट लिखेंगे। न किसी प्रकाशक के पीछे-पीछे घूमना पड़ेगा न किसी आलोचक की खुशामद करनी होगी। इनके पास इतने साधन हैं कि प्रकाशक और आलोचक इनको घेरे रहेंगे। रही बात पाठकों की तो यह समझ लीजिये कि इनके बसाए हजारों फ्लैटों के मालिक एक-एक प्रति भी खरीदेंगे तो इनकी किताब रातोंरात बिक जाएगी। जहां तक इनकी साहित्यसेवा के सम्मान का प्रश्न है तो उसके बारे में पूज्य भाऊसाहब कहेंगे तो हम सबको अच्छा लगेगा। मैं इस क्षेत्र में इनकी सफलता की कामना करता हूं। धन्यवाद। “

भाषा सदन के अध्यक्ष मुश्किल से दो मिनट बोले। वे कविसम्मेलनी धुरंधर और ख्यात वाग्वीर थे मगर भाऊसाहब की उपस्थिति से बहुत आक्रांत थे क्योंकि उनका कार्यकाल समाप्त होने को था और एक और कार्यकाल के लिए प्रयासरत थे। उन्होंने देव के व्यक्तित्व और कृतित्व पर कुछ अतिरंजित कसीदे पढ़े और अपने निजी मूल्यांकन के अनुसार लोकार्पित कृति ‘तुम्हीं देवता हो’ को संसार के बड़े से बड़े पुरस्कार के लायक पुस्तक घोषित किया। यह संकेत भी दिया कि संस्थान प्रदेश भर में इस पुस्तक के प्रसार और उपलब्धता के लिए आवश्यक कदम उठाने में नहीं हिचकेगा। और फिर भाऊसाहब का आशीर्वाद जिसे मिला हो उसे शिखर तक पहुंचने से भला कौन रोक सकता है। 

मुख्य अतिथि से बोलने का अनुरोध किया गया तो हाल में हलचल मच गई। तालियां बजने लगीं और बाकायदा नारे लगने लगे। –“देश का नेता कैसा हो? ...भाऊसाहब जैसा हो। भाऊसाहब !... जिंदाबाद, जिंदाबाद !!” यह सिलसिला देर तक चला क्योंकि मंच पर बैठे भाऊसाहब के सामने माइक लगाया जा रहा था और वे खड़े होकर बोलना चाहते थे तो लंबा वाला लाया गया मगर तब तक वे पोडियम तक जा पहुंचे और खड़े होकर माइकद्वै को अपने हिसाब से एडजस्ट करने लगे तो उनका ध्यान नारेबाजी पर गया। मुस्कुराते हुए उन्होंने हाथ ऊपर किया और हाल में यकायक पिनड्राप शांति छा गई। देव और उसकी पत्नी उनके पीछे, दायें-बायें खड़े हो गए। अब सारी निगाहें भाऊसाहब पर टिकी थीं कि देखें देव पर कैसी नजरे-इनायत होती है क्योंकि इस मामले में वे दिल के बादशाह माने जाते थे। 

भाऊसाहब ने कहा - “आज मुझे बहुत खुशी है। वो इस बात की खुशी है कि देखो राजनीति में, शासन में, प्रशासन में तो जाने कितने लोगों को मैंने बनाया, खड़ा किया, आगे बढ़ाया लेकिन यह पहली बार है कि मैंने किसी को साहित्यकार बना दिया। कैसे? तो सुन लीजिये, ये देवप्रिय खड़े हैं आपके सामने इन्होंने पैसे तो खूब कमा लिये, हमारी पार्टी के बड़े शुभचिंतकों और दानदाताओं में हैं, मगर नाम नहीं कमा पाये। मेरे पास जाने कब से इनकी शिकायतें आ रही थीं। जब सुनते सुनते तंग आ गया तो इन्हें बुलाया, समझाया कि खाली पैसा पैदा करना पर्याप्त नहीं है, कुछ अच्छे काम भी करो, तभी समाज में इज्जत मिलेगी। धरम-करम में मन नहीं लगता तो कुछ लिखना-पढ़ना शुरू करो, अच्छे-अच्छे लेख लिखो, कविताएं लिखो, पत्र पत्रिकाओं में भेजो, एक आध किताब छपवा डालो। हो सकता है शुरुआत में सफलता न मिले लेकिन लगे रहो, धीरे-धीरे तुम्हारी छबि बदलेगी। लेखक या कवि बन गए तो तो सभी क्षेत्रों में लोग तुम्हारा नाम आदर से लेंगे। ये हमारे भाषा सदन के अध्यक्ष महोदय बैठे हैं, विद्यानिधिजी । रहे होंगे पहले कभी, इन दिनों तो ये कोई खास कवि-अवि गिने नहीं जाते। भगवान जाने कब से लिखना पढ़ना छोड़कर राजनीति कर रहे हैं मगर एक बार छबि बन गई सो कमा-खा रहे हैं। खैर किस्सा कोताह यह कि देव बाबू ने हमारी सलाह मानी और जुट गए साहित्य साधना में। मैंने अभी इनकी किताब पढ़ी तो नहीं मगर मेरे पास उसकी अच्छी रिपोर्ट आई है। “कहते-कहते वह रुक गए, जैसे अनायास कुछ याद आ गया हो। 

कुछ देर संजीदा होकर बोले, “दोस्तों ! एक जमाना था कि मैं भी कविताएं लिखा करता था। राजनीति में न कूद पड़ता तो आज शायद टाप का कवि होता, भले ही टूटी टपरिया में गुजारा कर रहा होता। यही वजह है कि मेरे दिल में हमेशा से साहित्यकारों के लिए बड़ी इज्जत रही है। मैं तो बार-बार भंवर जी को कहता हूं, ये क्या बीस हजार-तीस हजार के पुरस्कार बांटा करते हो, देना है तो कम से कम लाख रुपये तो दो किसी जरूरतमंद लेखक को, जो उसकी अंधेरी दुनिया में कुछ उजाला हो। उसके बीबी-बच्चे भी कहें कि सरकार ने कुछ दिया, हमारे पापा का भी कुछ सम्मान है समाज में मगर वे एक कान से सुनते हैं दूसरे से निकाल देते हैं। कहते हैं इसके लिए बजट कहां से दूं? पहले गर्दिश के मारे किसानों को देखूं, बेबस मजदूरों की दशा सुधारूं या इन अकादमियों और संस्थानों का बजट बढ़ाता रहूं। इस सिलसिले में अभी-अभी मंत्री महोदय ने बड़ी अच्छी बात कही कि साहित्य और कला के क्षेत्र में उन्हीं को आना चाहिये जो आर्थिक दृष्टि से मजबूत हों। हमेशा कटोरा लिये अकादमियों और अध्यक्षों की परिक्रमा न करते रहें। ये बहुत काबिल मंत्री हैं, इसीलिए पशुपालन विभाग से यहां लाए गए हैं। कहने का मतलब है कि जैसे ये देवप्रिय हैं, आ गये हैं अपनी किताब लेकर। अब इन्हें साहित्यकार, कवि या लेखक, जो चाहे कह लीजिये। इनका सम्मान करना हो तो लाख-दो लाख पुरस्कार में देने का कोई मतलब नहीं है। बल्कि ऎसे कई पुरस्कार ये अपनी तरफ से हर साल बांट सकते हैं। अब सवाल है कि इन्हें दिया क्या जाए? मैं तो यह सोचता हूं कि ऎसे समर्थ आदमी को भाषासदन या कला अकादमी का कर्ता-धर्ता बना दिया जाए तो बजट और संसाधन जुटाने का हमेशा चलने वाला रोना-धोना खत्म हो जाएगा। पांच करोड़ सरकार दे तो दस करोड़ देव बाबू जुटाएं। यकीन मानिये यह इनके लिए बाएं हाथ का खेल है। आपने पी.पी.पी. का नाम सुना होगा, वो क्या होती है? अरे यही पी.पी.पी. है। हल्दी लगे न फिटकरी और रंग खूब चोखा होय ! क्यों विद्यानिधिजी, है कि नहीं? ”बोलते हुए वे रुक गए तो लोग जैसे सोते से जागे। देव ने फुर्ती से आगे बढ़कर भाऊसाहब के पैर छुए तो हाल करतल ध्वनि से गूंज उठा। भाऊसाहब मुड़ कर देखने लगे तो विद्यानिधिजी को उनकी तजवीज के समर्थन में मूंड हिलाना ही पड़ा लेकिन उनके चेहरे पर छाई मायूसी छुपाए नहीं छुप रही थी। एक और कार्यकाल पाने के लिए वे महीनों से गणेश परिक्रमा में जुटे थे मगर नियति के इस क्रूर प्रहार ने सब उलट-पलट कर दिया। उन्हें जरा भी अनुमान होता कि ऎसे भरी सभा में पैदल किये जाएंगे तो आते ही नहीं। लेकिन यह तो भाऊसाहब की खास स्टाइल ठहरी जिससे प्रदेश ही नहीं पूरा देश परिचित था। 

उधर विद्यानिधिजी का वध करके भाऊसाहब बैठे तो धन्यवाद ज्ञापन के लिए स्वयं देव ने माइक संभाला और बड़े नाटकीय ढ़ंग से, रुंधे हुए गले से मुख्य अतिथि के प्रति ‘ तुम सो को उदार जग माहीं ‘ मार्का भावोद्गारों का प्रगटीकरण किया और प्रतिज्ञापूर्वक घोषित किया कि उसे जो भी जिम्मेदारी सौंपी जाएगी उसका वह प्राणप्रण से निर्वाह करेगा। भाऊसाहब का आशीर्वाद बना रहे तो वह बगैर किसी सरकारी अनुदान के किसी भी संस्थान या अकादेमी को अकल्पनीय बुलंदियों तक पहुंचाने के लिए जी जान से काम करेगा। इसके बाद अपनी कृति के बारे में उसने सनसनीखेज रहस्योद्घाटन करते हुए बताया कि शीर्षक “तुम्हीं देवता हो” में कवि के आराध्य देव और कोई नहीं स्वयं भाऊसाहब हैं जिन्होंने अपने पावन स्पर्श से उसके जैसे दुनियावी मकड़जाल में फंसे कारोबारी को एक साधनारत, संवेदनशील कवि के रूप में परिवर्तित कर दिया। यह उसका पुनर्जन्म नहीं तो और क्या है? ... यह सुन कर हाल में बहुत देर से संयत बैठे पार्टी के कार्यकर्तागण ताली बजाने तक ही सीमित न रह सके और फिर एक बार जोर शोर से भाऊसाहब जिंदाबाद के नारे लगाने लगे। मुस्कुराते हुए मुख्य अतिथि ने खड़े होकर जनता जनार्दन के अभिनंदन को हाथ जोड़कर स्वीकार किया और चल पड़े। 

भाऊसाहब जल्दी निकलना चाहते थे मगर चरण स्पर्श के आतुर कार्यकर्ताओं की वजह से धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। देव उनके लिये रास्ता बनाते हुए आगे आगे चल रहा था। सुखदेव प्रसाद और उनकी पत्नी अन्य लोगों की तरह मुख्य अतिथि के सम्मान में खड़े थे। सहसा देव ने आवाज देकर उन्हें बुलाया। वह उनकी ओर हाथ हिला कर जल्दी आने का इशारा कर रहा था। सकुचाते हुए वे बीच की गैलरी की तरफ बढ़े तो आस पास के विस्मित समुदाय के बीच, काई फटने की तरह, सहजता से फांक बनती गई और वे भक्तों से घिरे भगवान के अरदब में पेश हो गए। देव ने ऊंचे स्वर में कहा, ”सर ! ये मेरे मित्र और प्रसिद्ध लेखक सुखदेव प्रसाद हैं। आप प्रदेश ही नहीं इस समय देश के सबसे चर्चित उपन्यासकार-कथाकार हैं। “एकाएक सुखदेव प्रसाद को एक रहस्यमय से भक्तिभाव ने धर दबोचा और उन्होंने हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर सूबे के बेताज के बादशाह के समक्ष नमन किया। उसी क्षण किसी कैमरे का फ्लैश चमका और यह घटना भी इतिहास के खाते में दर्ज हो गई। भाऊसाहब ने आगे बढ़ कर उनके कंधे पर हाथ रखा और कहा - “देखिये आपके दोस्त को हम बड़ी जिम्मेदारी देने जा रहे हैं। उसमें आप सब के सहयोग की जरूरत पड़ेगी। सब मिल कर काम करेंगे तो संस्था आगे बढ़ेगी, प्रदेश आगे बढ़ेगा। “ जब तक सुखदेव इसके निहितार्थ समझ पाते काफिला आगे बढ़ चुका था। 

बाहर पुलिस बैंड मधुर धुनें बिखेर रहा था। उत्सव का अगला चरण प्रारंभ होने को था। भोजस्थल से पहले एक स्टाल लगा था जहां सद्य: लोकार्पित कृति की प्रतियां उपलब्ध थीं। देव के लौट कर आते ही किताब खरीदने और कवि से हस्ताक्षर करवाने वालों की भीड़ उमड़ पड़ी। तब कुछ स्वयंसेवकों ने आकर व्यवस्था कायम की। लोग पंक्तिबद्ध होकर किताब लेने लगे। सुखदेव प्रसाद भी सौजन्यवश लाइन में लग गए। उन्होंने देखा कि स्टाल पर किताब की कीमत चुकाने वाले देव से हस्ताक्षर करवाने के बाद जबरन उसकी जेब में व्यवहार के लिफाफे ठूंस रहे थे। यह उसकी बिजनेस की दुनिया के लोग थे और उनमें उसे प्रोत्साहित करने की जैसे होड़ लगी थी। खैर किताब खरीद कर देव के पास गए तो उसने नारा लगाते हुए उन्हें गले से लगा लिया और बहुत देर तक उनकी पीठ थपथपाता रहा। 

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एक वर्ष में ही भाषा सदन का कायाकल्प हो गया। देव ने अभिनव कार्यक्रमों की एक श्रंखला आयोजित की जिसमें देश विदेश की मानी हुई हस्तियों ने भाग लिया। उसके कार्यकाल के पहले पुरस्कार समारोह में नव सृजित देवाक्षर पुरस्कार सुखदेव प्रसाद को उनके उपन्यास “मृगतृष्णा” पर दिया गया। एक बड़ी कंपनी द्वारा प्रायोजित इस पुरस्कार में पंद्रह लाख रुपये और एक रजत प्रतिमा उन्हें प्रदान की गई। यही नहीं उन्हें संस्था की संचालन समिति का मानद सद्स्य भी बनाया गया। सुखदेव प्रसाद को यह पुरस्कार एक भव्य समारोह में स्वयं भाउसाहब ने अपने करकमलों से प्रदान किया। 

कुछ दिन बाद देव ने अपने मित्र के सम्मान में एक पांच सितारा होटल में दावत दी जिसमें अति विशिष्ट जन के अतिरिक्त कई जाने माने लेखक, कवि आलोचक, कलाकार और प्रकाशक आमंत्रित थे। ये लोग देर तक बार में जुटे रहे। बड़ी मुश्किल से इन्हें खाने के लिये मनाया गया। जब लोग विदा होने लगे तो देव सुखदेव प्रसाद को पकड़ कर एक कमरे में ले गया। वहां उनके खाने पीने का सरंजाम था। देव ने दो पैग बनाए और एक अपने मित्र को पकड़ा कर चीयर्स किया - “अब बोलो मेरे दोस्त, कैसी रही मेरी यह सृजन यात्रा। बुरा मत मानना अगर मैं यह कहूं कि तुम्हें अपने लेखक होने पर बहुत घमंड था। सच कहना, तुम मन ही मन मुझे धनपशु से अधिक कुछ नहीं समझते थे न? तुम्हें अपनी गरीबी पर बड़ा नाज था मगर मुझे यह देख कर बहुत दुख होता था कि तुम्हारी साहित्य साधना की कोई कद्र नहीं है। एक बार भी पुरस्कारों में तुम्हारा नाम नहीं आया जबकि थर्ड रेट और घटिया कलमघिस्सू बाजी मारते रहे। फिर जिंदगी में कुछ ऎसा मोड़ आया कि इस साहित्य के कीड़े ने मुझे भी काट लिया। मैंने मन में ठान लिया कि अब मैं लेखक बन कर दिखाता हूं। मैंने कविता पर हाथ आजमाया। लिखता गया, लिखता गया और एक पूरी किताब भर कविताएं लिख डालीं। मगर उसमें तुम्हारी तरह खयाली पुलाव नहीं पकाया। बल्कि ऎसे नायक को चित्रित किया जिसके इशारे पर प्रदेश की राजनीति छम-छम नाचती है, उसकी मर्जी के बगैर यहां पत्ता भी नहीं हिलता, उनकी निगाहे करम हो जाए तो एक गधा भी महाकवि के रूप में अलंकृत हो सकता है। भाऊसाहब ने उस दिन मंच से जो कहा वह हंड्रेड परसेंट सच है। लोकपाल और जाने कौन कौन सी जांचें बिठाने की तैयारी थी क्योंकि मेरी बहुत शिकायतें पहुंची हुईं थीं। यह बिजनेस ही ऎसा है कि बिना हेरफेर किये कुछ होता हवाता नहीं है। ये तो भाऊसाहब ने मुझे मुसीबत में फंसने से बचा लिया। उनके कहे का मैंने अक्षरश: पालन किया और सारे काम छोड़कर लिखने-पढ़ने में जुट गया। कुछ लोगों से मदद भी ली, अच्छे-अच्छे कवि मेरे लिखे को सुधारने के लिए आगे आए। महाकवि दिवाकर जी से बाकयदा गंडा बंधवाया मैंने। उन्होंने कहा किसी एक महान कवि को अपना रोलमाडल बनाओ और फिर लिखना प्रारंभ करो। मैंने कहा, ”गुरुदेव मेरा रोलमाडल तो कबीर हैं जिन्होंने भक्तिमार्ग को नये ढंग से परिभाषित किया - ‘राम मोर पीउ, मैं राम की बहुरिया!’ मुझे भी काव्य में यही लाईन पकड़नी है और मैंने खूब पकड़ी। मैं भी अपने राम की बहुरिया बन गया हूं। समझे... अब इस लाइन में आने के बाद जैसे देव का पुनर्जन्म हो गया। अब कोई भी हाथ डालने पहले सौ बार सोचेगा। साहित्य के प्रति समर्पण का तो ये आलम है कि आजकल धंधा लगभग ठप पड़ा है लेकिन इस एक साल में मेरी तीसरी किताब आ चुकी है। भाषा सदन को मैंने कहां से कहां पहुंचा दिया यह तुम देख ही रहे हो। “

यूं तो वैसे ही देवाक्षर पुरस्कार की खुमारी उतरने का नाम ही नहीं ले रही थी ऊपर से ना ना करते हुए भी बढ़िया स्काच ह्विस्की के तीन लार्ज पैग सुखदेव प्रसाद के जेहन पर गुलाबी बादलों की तरह छाए थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि अपने लंगोटिया दोस्त का शुक्रिया कैसे अदा करूं। उन्होंने देव का हाथ अपने दोनों हाथों में लेकर विह्वल स्वर में कहा, ”देव तुम मेरे कृष्ण हो और मैं तुम्हारा सुदामा हूं। सच कहता हूं कि बचपन की यारी के बावजूद मैं तुम्हें समझ नहीं पाया था। तुम्हारा अहसान मैं जिंदगी भर नहीं भूलूंगा। जो प्रकाशक कभी सीधे मुंह बात नहीं करते थे अब एडवांस का चेक लिये दरवाजे पर खड़े नजर आते हैं। यह सब तुम्हारी वजह से है मेरे दोस्त !” कहते कहते देव का घुटना पकड़ लिया। – “अरे अरे, यह क्या कर रहे हो! तुम तो मेरे बड़े भाई हो। अरे भैय्या असली लेखक तो तुम ही हो, हम लोग तो डुप्लीकेट हैं। ... हां, इस बात की मुझे खुशी है कि तुम्हारे जैसे प्रतिभाशाली लेखक को उपेक्षा के अंधेरे से निकालने में सफल हो सका। लेकिन दोस्त यह तो ट्रेलर है, फिल्म अभी बाकी है। देखते जाओ आगे क्या कया होता है !...” बोलते बोलते सहसा वह चुप हो गया। सुखदेव प्रसाद ने देखा कि अचानक उसके चेहरे पर विषाद की छाया आ गई थी। कुछ देर के मौन के बाद एक आह सी भर कर देव ने संजीदगी से कहा, ”देखो सुखदेव, यह तो ठीक है कि मैं कवि बन गया, साहबे किताब हो गया, साहित्य सदन का अध्यक्ष हो गया मगर इस चक्कर में एक बहुत कीमती चीज मैंने खो दी है, जिसको लेकर मैं बहुत परेशान हूं। समझो मेरी रातों की नींद उड़ गई है। “अब उसे देख कर अनुमान लगाना मुश्किल था कि अभी कुछ देर पहले वह खुशी से चहक रहा था। 

राजेन्द्र-राव-साहित्‍य-संपादक-दैनिक-जागरण-पुनर्नवा-rajendra_rao_kanpur_dainik_jagran_hindi-writer-kahani-shabdankan

राजेन्द्र राव

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सुखदेव प्रसाद ने धीरे से पूछा, ”भई ऎसा क्या हो गया? ” देव ने मुंह लटका कर कहा, ”क्या कहूं, कहते हुए भी शर्म आती है। शुरू में लिखना पढ़ना बबाल-ए-जान लगता था लेकिन जैसे जैसे मान्यता मिलती गई मुझे इसमें आनंद आने लगा। अब तो जैसे कोई नशा सा सवार रहता है। जिस पद पर बैठा दिया गया हूं वहां सुबह-दोपहर-शाम साहित्य चर्चा ही चलती रहती है। अच्छे अच्छे कवि, लेखक और प्रकाशक घेरे रहते हैं। लेकिन यह शोहरत, यह इज्जत, यह मसरूफियत मुझे अंदर ही अंदर घुन की तरह खाए जा रही है। इस तरावट के बावजूद मेरी मूल वासना का दरख्त जैसे सूखता जा रहा है। मुझे अपनी कूवत पर बड़ा नाज था, मेरी भूख इनसैटिएबुल थी लेकिन अब तो मन ही नहीं करता। हो सकता है आत्मा के छीजते जाने का नतीजा हो। बाद में धीरे धीरे वापसी हो जाए मगर अभी तो एकदम अंधेरा है मित्र। तुम बहुत दिनों से इस काम में हो । बताओ, क्या इसमें जरूरत से ज्यादा संलग्न हो जाना इस कदर खतरनाक हो सकताहै? तुम्हारा अपना अनुभव क्या है? क्या तुम्हारी सेक्स लाइफ नार्मल है? ”
और कोई अवसर होता तो उसके इस बेहूदा प्रश्न के लिए सुखदेव प्रसाद उसे आड़े हाथों लेते, खरी खोटी सुनाने से नहीं चूकते लेकिन उस समय जैसे उनकी बोलती बंद हो गई। देव ने शरारती अंदाज से एक टहोका देते कहा, ”अरे भाई, यारों से क्या पर्देदारी? होता है तो बता दो। सच कह रहा हूं कि पहले से पता होता तो इस झमेले में पड़ते ही नहीं। “

सुखदेव प्रसाद गंभीर होकर बोले, ”तुम्हारी यह धारणा गलत है कि लिखने पढ़ने से ह्रास होता है। मैं दो दशक से भी अधिक समय से लिख रहा हूं मगर बिलकुल सामान्य रहा लेकिन जबसे यह पुरस्कार मिला है... ”इसके बाद उनसे और अधिक बोला नहीं गया। देव ने तड़ तो लिया मगर उनके मुंह से कहलवाने की बहुत कोशिश की, दोस्ती की कसम दिलाई मगर उनके मुंह पर जैसे ताला जड़ गया था। 

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हंस, मार्च 2015 में प्रकाशित

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