दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में रिसर्च स्कॉलर दिव्या तिवारी लिख रही हैं मुजीब रिज़वी की किताब ‘सब लिखनी कै लिखु संसारा: पद्मावत और जायसी की दुनिया’ की एक सुंदर समीक्षा ~ सं०
विशेषणों और क्रियाओं के प्रयोग-कौशल से ही जायसी लौकिक दीप्ति को परलौकिक की ओर नहीं मोड़ते। आवश्यकता पड़ने पर वह उसके लिए फ़ारसी और अरबी के ऐसे शब्दों का भी उपयोग करते हैं जो अवधी शब्दों की पंक्ति में बैठकर किसी प्रकार भी विदेशी तथा अनमेल नहीं लगते।
‘लिखि न जाए गति समुद अपारा’
समीक्षा: दिव्या तिवारी
मुजीब रिज़वी की किताब ‘सब लिखनी कै लिखु संसारा: पद्मावत और जायसी की दुनिया’ उनके देहावसान के 4 साल बाद प्रकाशित हुई जबकि 40 वर्ष पूर्व ही यह दुनिया के सामने आने को तैयार थी। इस संस्करण के शुरुआती पन्नों में जैसा पुरुषोत्तम अग्रवाल ने लिखा है, “...शायद , हिंदी सहित्योतिहास और आलोचना, दोनों को समृद्ध करने वाली इस किताब के प्रकाशन का सही वक़्त यही है”, से फ़िलहाल सहमत होना ही उचित है। क्यूंकि इस किताब का सही वक़्त जो भी हो, यह हिंदी साहित्य में एक ज़रूरी दस्तक है। पाँच अध्यायों में विभाजित यह किताब किसी व्यापक सूफी कोश से कम नहीं है। पहले अध्याय से ही हम रिज़वी द्वारा तैयार की गयी जायसी की दुनिया में कदम रख देते हैं। पद्मावत का इतना सटीक और गहरा विश्लेषण लम्बे वक़्त से हमें कहीं देखने को नहीं मिला था। रिज़वी जी ने जिस प्रकार से पद्मावत को समझने और समझाने का प्रयास किया है वह सचमुच काबिले-तारीफ़ है। हम न केवल पद्मावत से रूबरू होते हैं बल्कि रिज़वी जी हमें पूरी मध्यकालीन उत्तर-भारतीय संस्कृति से परिचय कराते हुए एक ऐतिहासिक यात्रा पर लेकर चलते हैं। इतिहास की छात्र होने की वजह से मैं हिंदी साहित्य के अंतर्गत लिखी गयी पद्मावत और जायसी की इस किताब को लेकर संशय में थी। परन्तु पढ़ने के पश्चात् यह संदेह अथवा ऊहापोह ख़तम हो जाता है और किताब के लिखने में लगातार जिस तरह से वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बनाये रखने की कोशिश की गयी है, उस लिखे की बस वाह-वाही ही रह जाती है। चाहे कोई शब्द हो या घटना, रिज़वी जी उसको समझाने के लिए इतिहास में घुसकर, उसका ‘साइंटिफिक इन्वेस्टीगेशन’ करते हैं। उदाहरण के लिए ‘आख़िरी कलाम’ को ले लीजिये। अपनी भूमिका ही में रिज़वी जी तर्क के साथ स्पष्ट कर देते हैं कि कैसे जायसी की यह रचना उनकी शुरूआती रचना होने की ओर संकेत करती है। ‘आख़िरी कलाम’ को समझने के लिए रिज़वी जी उसकी भाषा से लेकर, वर्ण्य-विषय तक की एक तार्किक तहकीकात करते हैं और बाद में इस निष्कर्ष पर पहुंचतें हैं—
‘आख़िरी कलाम’ उस प्रारंभिक काल की रचना है जब कवि ने ‘ठेठ अवधी’ पर पूर्णाधिकार प्राप्त नहीं किया तथा उस समय तक जायसी में ‘ख़ुदा’ को गोसांई, रसूल को बसीठ, जिब्रील को ब्रह्मा, मीकाईल को विष्णु, एस्त्रफ़ील को महेश, इब्लीस को नारद, इज़राइल यम, पीर को गुरु, सालिक को चेला, मोमिन को सिद्ध, आदम को आदिपिता, नूर को ज्योति, दीन को धर्म, आसमानी ग्रंथ को वेदपुराण, कु़र्आन को पुराण, फ़रिश्ते को अढ़वायक, जलवह को चमत्कार, नजात को निस्तार, मीज़ान को तखरी, आवाज़े ग़ैब को नाद, अमाअ को अन्धकूप कहने वाली समन्वयवादी एवं समदर्शी दृष्टि उसमें पूर्णतया विकसित नहीं हुई थी
‘आख़िरी’ शब्द को भी समझाने के लिए जिस प्रकार से रिज़वी जी अपभ्रंश, फ़ारसी, और अरबी, तीनों ही भाषाओं से अर्थ निकालने का सफ़ल प्रयत्न करते हैं, वह उनके मज़बूत इतिहासबोध तथा भाषाज्ञान को दर्शाता है। किसी भी ‘टेक्स्ट’ को पढ़ते वक़्त जिन बातों पर एक इतिहासकार को गौर करना चाहिए, वह सब मुजीब रिज़वी की लेखनी में साफ़ दिखाई पड़ता है। फ़ारसी और हिंदी के साथ-साथ अरबी भाषा पर रिज़वी जी की पकड़ सराहनीय है। वह भाषा के अतिसूक्ष्म अंतर को पहचानते हैं और हम इनके अतुल्य ज्ञान का लाभ कई फ़ारसी और अरबी शब्दों की व्याख्याओं में ले सकते हैं। जायसी कृत ‘कहरानामा’ के बारे में लिखते हुए रिज़वी जी कहते हैं,
...जायसी ने ‘कहरानामा’ का नामकरण न तो कहार के आधार पर किया है और न ही धीमर के सम्बन्ध से... वस्तुतः उन्होंने अरबी शब्द ‘कह्हार’ (रूद्र) को ‘कहरा’ (रौद्र) रूप में प्रयुक्त किया है... सूफ़ी सृष्टि को त्रिगुणात्मक न मानकर द्विगुणात्मक ही मानते हैं। एक गुण ‘जमाल’ है जिससे सृष्टि की अभिव्यक्ति होती है, उसका कल्याण होता है, और दूसरा गुण जलाल है जिससे विनाश और अशिव की उत्पत्ति होती है...जमाल और जलाल का बिछड़न ही जायसी के अनुसार चिर वियोग का कारण है: छोड़ि जमाल जलालहि रोवा। कौन ठाँव तें देउ बिछोवा। ईश्वर महरा (कल्याणकर्ता, शिव और दयालु) भी है और यातनादायक और विनाशक क़ह्हार (रुद्र) भी है: खिन्न उतारसि और उलझारसि, अरे राड बड़ कहरा रे।...यही आतंक, आतप और यंत्रणा ‘कहरानामा’ में बार-बार ध्वनित होती है।
पुस्तक का पहला अध्याय ‘जायसी ग्रंथ पुनरावलोकन’ में रिज़वी जी ने जायसी के उपलब्ध और अनुपलब्ध दोनों ही तरह के ग्रंथों की चर्चा की है। उपलब्ध ग्रंथों की ज़रा विस्तार से चर्चा है। परन्तु वे दोनों ही ग्रंथों के विषय-वस्तु को क़रीब से पढ़ते हुए हमें उनसे साझा कराते हैं। साथ ही साथ वे अब तक जायसी पर हुए काम पर भी संक्षिप्त प्रकाश डालते हैं। उनका मानना है कि जायसी की रचना शैली को ठीक से समझने का कार्य फिलहाल अपूर्ण है जिसके बहुत से कारण हैं। वे कहते हैं—
विशेषणों और क्रियाओं के प्रयोग-कौशल से ही जायसी लौकिक दीप्ति को परलौकिक की ओर नहीं मोड़ते। आवश्यकता पड़ने पर वह उसके लिए फ़ारसी और अरबी के ऐसे शब्दों का भी उपयोग करते हैं जो अवधी शब्दों की पंक्ति में बैठकर किसी प्रकार भी विदेशी तथा अनमेल नहीं लगते। जायसी के इस सूक्ष्म कलात्मक तथ्य से अनभिज्ञता के कारण ही हिंदी विद्वान उनकी अनुपलब्ध रचनाओं के नामकरण के सम्बन्ध में भ्रान्ति उत्पन्न करते रहे हैं, और इस भ्रम के जन्मदाता वे विद्वान हैं जिन्होंने फ़ारसी लिपिबद्ध पांडुलिपियों का असावधानीपूर्वक अध्ययन किया है। इसका दायित्व उन प्रतिलिपिकारों पर भी है जो प्रतिलिपि करते समय बिंदियों के सम्बन्ध में सावधान नहीं रहे हैं
इसी अध्याय में वे जायसी की तमाम रचनाओं पर इत्मीनान से विचार करते नज़र आते हैं और ‘उत’ प्रत्यय के इस्तेमाल पर भी प्रकाश डालते हैं। नामों को परिभाषित करने के बाद रिज़वी जी जायसी के वर्ण्य–विषय पर टिप्पणी करते हैं। वे लिखते हैं:
कुल मिलाकर देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जायसी का वर्ण्य-विषय सीमित ही रहता है। सूफियों के मूल सिद्धांत ‘तनज़्जुल’, ‘तदानी’ और ब्रह्म अवतरण के सम्पूर्ण, सचेत, सशक्त मानव रूप में लोकलीला के वर्णन की परिधि में जायसी का सम्पूर्ण वर्ण्य-विषय समा जाता है और मोटे तौर पर कहें तो यही उनका अभीष्ट रहता है।
ब्रह्म अवतरण प्रक्रिया या सूफ़ी ‘तनज़्जुल’ के बारे में भी रिज़वी जी ने अच्छा-खासा ब्यौरा दिया है। वे ब्रह्म अवतरण की चारों अवस्थाओं पर प्रकाश डालते हैं और हमें एक ही बार में पूरे भारतीय सूफी साहित्य में, मध्यकालीन सूफियों द्वारा अत्यधिक बल दिए गए विषय से अवगत करा देते हैं। रिज़वी जी की इस्लाम और हिंदू धर्म की गहरी समझ ही उनकी व्याख्याओं को विश्वसनीय बनाती हैं। वे जिस प्रकार से जायसी की रचनाओं में इस्तेमाल हुए हिंदी-फ़ारसी-अरबी शब्दों की व्याख्या करते हैं, जिसे समझने के लिए इन सब की संस्कृति और लोक का प्रगाढ़ ज्ञान होना आवश्यक है, यह पुस्तक पढ़ते हुए हम यह निःसंदेह कह सकते हैं कि यह समझ उनमें भरपूर है। उनकी तार्किक और तहकीकातनुमा शैली, व्याख्याओं पर उत्पन्न हो रहे संदेह को कम करने का काम करती है। यह गुण आजकल इतिहासकारों में भी कम देखने को मिलता है।
दूसरा अध्याय ‘जायसी ग्रंथों का रचनाक्रम’ पर्याप्त सूचनाओं से लैस है। इस अध्याय में जायसी के जीवन से जुड़ी कई बातों का पता चलता है। उनकी जन्मतिथि, वृद्धावस्था, और मृत्युतिथि सबके सम्बन्ध में रिज़वी जी ने जनश्रुति तथा किताबी सूत्रों से सहायता ली है। अनुभववादी दृष्टिकोण के इस्तेमाल से वे ये सारी तिथियाँ तय करने की सफ़ल कोशिश करते हैं। मेरे हिसाब से यह अध्याय बाकी अध्यायों से पहले होता तो शायद जायसी के रचनाक्रम और ग्रंथों की विषय-वस्तु को समझने में ज़्यादा आसानी होती। खैर, किताब की सम्पूर्णता में यह त्रुटि नज़रंदाज़ करने लायक है। पद्मावत के साथ-साथ बाकी ग्रन्थों की भी रचना-तिथि तय करने में रिज़वी जी तर्क का इस्तेमाल करने से नहीं चूकते। ‘पद्मावत’ के रचनाक्रम पर रिज़वी जी लिखते हैं—
जायसी की अनुपलब्ध रचनाओं के नामों और उनके वर्ण्य-विषय पर दृष्टिपात करने मात्र से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनकी अनेकानेक रचनाएं ‘पद्मावत’ में ही सम्मिलित हैं। यह वही अंश हैं जिनका ‘पद्मावत’ में पिष्टपेषण है, और जिनके विस्तार के कारण कथाप्रवाह में बाधा उत्पन्न हो गयी है... परन्तु ‘पद्मावत’ में कोई भी प्रसंग उद्देश्यविहीन नहीं है और कवि को अपने कथ्य पर पूर्णाधिकार है। अतः यह बात अधिक सम्भाव्य और तर्कसंगत लगती है कि जायसी ने ‘पद्मावत’ रचना के पश्चात दोहा+चौपाई में बहुत सी कविताएँ लिखी थीं तथा अपनी सुग्राह्य श्लेषात्मक शैली द्वारा लौकिक वर्णन को पारलौकिक दिशा में मोड़ कर उन्होंने जीवन-जगत सम्बन्धी अनेकानेक विषयों को सरस एवं चमत्कारपूर्ण बनाकर जन-मन के लिए ग्राह्य बना दिया था।
‘पद्मावत’ और जायसी के सम्बन्ध में की गयी ये एक नई टिप्पणी है। जायसी के ग्रंथों को कालक्रमानुसार पढ़ने के विषय में रिज़वी जी उनके विचारों के विकासक्रम पर बल देते हैं। जिस दृष्टि से ‘कहरानामा’ जायसी की अंतिम रचना प्रतीत होती है क्यूंकि उसमे “प्रौढ़ और सुस्थिर चिंतन के दर्शन होते हैं और धर्माडंबर तथा कर्मकांड से जायसी पूर्णतः मुक्त दिखाई पड़ते हैं...शरीअत के प्रति जायसी की आस्था ‘कहरानामा’ में समाप्त हो जाती है...समस्त साधना पद्धतियों को निष्फल समझकर वह त्याग देते हैं और अपने मन को प्रेम में गाड़ लेते हैं...जायसी के चिंतन कि यह वह नवीन धारा है जिसका कोई संकेत ‘पद्मावत’ में प्राप्त नहीं है”। विचारों की विकासयात्रा से रचनाओं की तिथियाँ तय करना कोई नयी बात नहीं है परन्तु इसकी अपनी सीमायें हैं।
पुस्तक का तीसरा अध्याय ‘जायसी-गुरु परंपरा विवेचन’ बेहद दिलचस्प पाठ है। इसमें जायसी के दो गुरुओं/पीरों परंपरा की चर्चा हुई है। इस अध्याय को पढ़ते वक़्त हमें उत्तर भारत की मध्यकालीन सूफ़ी परम्पराओं के बारे में बहुत कुछ जानने को मिलता है। यह अध्याय भी एक सूफ़ी-कोश की तरह लगता है। इसमें सूफी काव्यों में इस्तेमाल होने वाले विषयों पर काफ़ी गंभीर चर्चा है। जायसी के ग्रंथों में ‘सर साज’ और ‘मरन खेल’, दर्शन एवं भोग, दृष्टि मेल, परिव्रज्या (हिजरत), सम्पतिदान, मेला और अकेला, क़ह्र और मह्र जैसे सूफ़ी साहित्य में महत्वपूर्ण भूमिका रखने वाले विषयों पर रिज़वी जी ने पद्मावत को केंद्र में रख कर उदाहरण सहित उनके रचना संसार पर प्रकाश डाला है। जायसी के शीत-भय के बारे में भी हमें इस अध्याय में दिलचस्प जानकारियां मिलती हैं। अशरफी सिलसिला, मेहदी सम्प्रदाय आदि के बारे में विस्तार से इस अध्याय में लिखा गया है। जायसी के पहले गुरु के बारे में रिज़वी जी का मानना है कि वे जायसी के ओवैसी पीर थे , यानि कि “समाधि सेवन के माध्यम से वह अशरफ़ जहाँगीर द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से दीक्षित हुए हैं...” दूसरे पीर की ज़रूरत जायसी को क्यूँ पड़ी, इस पर रिज़वी जी तर्क देते हुए लिखते हैं कि
द्वितीय पीर परंपरा में दीक्षित होने का वास्तविक कारण चाहे जो कुछ रहा हो किंतु इस शंका का समाधान जायसी ने ‘कन्हउत’ में स्पष्ट किया है। अशरफ़ जहाँगीर शरीअत मार्ग के पीर थे और बुरहानुद्दीन तरीक़त मार्ग के।
जायसी का व्यक्तिगत विश्लेषण करने के साथ-साथ रिज़वी जी हमें उनके समय के बारे में भी एक बात कहते हैं—
वास्तविकता यह है कि यह ‘सुल्ह कुल’ (सहिष्णुता) और सरिताओं के संगम की शताब्दी है।
हालाँकि 16वीं शताब्दी कट्टरता के लिहाज से कम संकीर्ण थी परन्तु इस शताब्दी को एक तरफ़ा ‘सेकुलर’ घोषित कर देना तर्क से थोड़ा परे है। ऐसा कर देने से जायसीकालीन समय को समझने में आसानी तो हो जाती है किंतु हम पूरी मध्यकालीन परिस्थिति के साथ न्याय नहीं कर पाते। और न ही उनके काव्य में आये उन तत्वों को भी जो अपने समय से काफ़ी आगे थे।
आखिरी के दो अध्यायों, ‘पद्मावत का रूप चित्रण और फ़ारसी पदावली’ और ‘जायसी का रचना संसार’ शुरुआती अध्यायों जैसा ही ज्ञानवर्धक है। अध्याय चार, ‘पद्मावत का रूप चित्रण’ में रिज़वी जी बतातें हैं कि जायसी द्वारा श्रृंगार पद में इस्तेमाल किया गया, ‘सिन्दूर’ शब्द एक ऐसा बिम्ब है जो केवल ‘भारत भूमि’ में ही मुमकिन है। “सिन्दूर की यह माँग काले केशों के बीच दीपक के समान है जो अँधेरी रात में पंथ को उज्ज्वल करता है, वह कसौटी पर कासी कंचन रेखा है, घन में चमकती दामिनी है, आकाश में फैलने वाली सूर्य किरण है और यमुना के बीच सरस्वती है...ऊपर उल्लिखित चित्र वही कवि प्रस्तुत कर सकता है जो भारत भूमि से पूर्णतया जुड़ा हो और अपने यथार्थ बोध को भावोत्तेजक कल्पना में परिवर्तित करने में सक्षम हो। इस दृष्टि से फ़ारसी और हिंदी दोनों में जायसी का स्थान अद्वितीय है”। इस अध्याय में ‘पद्मावत’ में आये अवधी समासों और उनके मूल फ़ारसी समासों को साथ साथ एक तालिका में रिज़वी जी ने दिया है। वे समासों के बारे में बताते हुए कहते हैं कि
फ़ारसी ढंग के समासों का प्रचुर प्रयोग जायसी ने किया है किंतु आश्चर्य है कि उनकी समास-योजना में फ़ारसी का कोई भी शब्द उपयुक्त नहीं हुआ और ठेठ अवधी के ठाठ को आघात नहीं पहुँचने पाया। फिर भी फ़ारसी साहित्य से परिचित कोई भी व्यक्ति अवधी आवरण के पीछे से स्पष्टतः झांकती फ़ारसी समासों की मूल आकृति को तुरंत पहचान सकता है। इनकी सृष्टि अवधी की मिट्टी से अवश्य हुई है किंतु इनकी फ़ारसी आत्मा पूर्णतया सुरक्षित है। ऐसा दुष्कर कार्य उसी व्यक्ति द्वारा संपन्न हो सकता था जो दोनों भाषाओं पर समान अधिकार रखता हो।
सत्य ही, जायसी को समझने के लिए मुजीब रिज़वी जैसे ही किसी अवधी-फ़ारसी भाषा पर मज़बूत पकड़ रखने वाले के हस्तक्षेप की ज़रूरत पड़ी। समास के समान ही उन्होंने जायसी द्वारा इस्तेमाल किये गए ठेठ अवधी और फ़ारसी भाषा के मुहावरों और लोकोक्तियों का भी ज़िक्र किया है तथा उनको एक तालिका में आमने-सामने रखा है। रिज़वी जी ने इस अध्याय में जायसी की रचनाओं को बाकी मध्यकालीन सूफी तथा भक्त कवियों से तुलना की है। उनका मत है की जायसी की भाषा “सूर, तुलसी से उतनी ही अलग है जितनी मुल्ला दाऊद, कुतबन, मंझन और उस्मान से यह भिन्न है”। इसका कारण देते हुए रिज़वी जी प्रेम और विरह (सूफ़ी काव्यधारा के मुख्य रस) को अभिव्यंजित करने वाले पदों का तुलनात्मक अध्ययन करते हैं।
आख़िरी अध्याय में रिज़वी जी जायसी की रचनाओं में झलकते उनके विचारों पर बात करते हैं। चूँकि रिज़वी जी पहले ही बता चुके हैं कि जायसी का वर्ण्य-विषय सीमित है, इस अध्याय में वे उन अवयवों पर प्रकाश डालते हैं जिसका इस्तेमाल जायसी अपनी काव्य संरचना में करते हैं। वे आदम, मुहम्मद, क़ुर्आन से लेकर पौराणिक अंतर्कथा, शिवलोक एवं इन्द्रलोक, लंका, राम, सीता, रावण तक जायसी द्वारा प्रयुक्त विविध काव्य-सामग्री पर संक्षिप्त टिप्पणी करते है। इस अकेले अध्याय को पढ़ लेने मात्र से ही जायसी के रचना संसार का पता लगाया जा सकता है। किंतु एक बात जो थोड़ी खटकती रहती है वह यह कि रिज़वी जी के लिए जायसी एक ‘हीरो’ की तरह हैं और चाहते हुए भी जायसी का यह ‘हीरोइज्म’ अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह जोड़ने की ज़रूरत नहीं कि अपने ‘चयनित विषय’ को ‘पूजने’ से साइंटिफिक टेम्पर थोड़ा खो-सा जाता है। हालाँकि रिज़वी जी अपने अध्ययन में वैज्ञानिक शैली को बहुत कम जगहों पर ही विस्मृत करते हैं और तर्क का साथ हरगिज़ न छोड़ने का पूरा प्रयास करते हैं।
यह किताब जायसी पर ही नहीं वरन भारतीय सूफी-साहित्य पर किया गया एक अनमोल कार्य है। हिंदी साहित्य और मध्यकालीन भारतीय इतिहास के विद्यार्थियों तथा अध्यापकों के लिए यह कृति अनिवार्य साबित होती है।
सब लिखनी कै लिखु संसारा: पद्मावत और जायसी की दुनिया
मुजीब रिज़वी
पहला संस्करण 2019
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली-110002
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