इस फिल्म के नायक हैं कथाकार शिवमूर्ति
- कमल पांडेय
कैमरे की आंख से देखते हैं शिवमूर्ति ('मंच' जनवरी-मार्च 2011 से)
मध्यरात्रि की हवा में नमी है... और अरब सागर की लहरों में तेज उछाल... अपने पूरे ज्वार के साथ उठती, मुंबई की ये समुद्री लहरें तटीय चट्टानों से टकरा–टकरा कर अपनी आवाज के शोर से उनींदे शहर को जगा रही हैं... वैसे भी मुंबई एक ऐसा शहर है... जिसको नींद नहीं आती और मुंबई का आदमी कभी थकता नहीं... हां, जागते–जागते कभी–कभी जरूर सोता है ये शहर... !
मेरे समकालीनो, प्रिय आत्मजनो, मित्रो, सुधी पाठकों... ! मैं भी आज रात सो नहीं पा रहा हूं... एक फिल्म जो देख रहा हूं... मेरे जीवन की ऐसी फिल्म जिसे मैं निरंतर देखता रहा हूं... जो मेरी स्मृतियों के पर्दे पर अक्सर अपने सारे जादुई बिंबों और नाटकीय कथानक के साथ अपने आप चल पड़ती है...
इस फिल्म के नायक हैं कथाकार शिवमूर्ति और इस फिल्म में उनका पीछा कर रहा है 19 साल का एक इवल... बुंदेलखंड की सरजमीं का एक ऐसा... इवल जो अपनी गरीबी, अपने दुखों, अपने अभावों, अपनी मजबूरियों और अपनी अनंत पीड़ाओं के बावजूद अपनी आंखों में अनंत सपने बसाए है... जो अपने सीने में मौजूद महाबली डर के बावजूद दुनिया को जीत लेने की ललक लिए हुए है... जिसे नहीं पता कि उसकी विराट आकांक्षाओं की मंजिल क्या है... उसकी भूख की रोटी कौन–सी है... और वो राह कौन–सी है... जिस राह उसे बढ़ना है... वो किले कौन से हैं जो उसे जीतने हैं... उसे तो बस ये पता है कि वो अपने दुखों को कविता में लिख सकता है... अपने संघर्षों को शब्द देकर कागजों पर दस्तावेजों की तरह दर्ज कर सकता है... जिसे ये नहीं पता था कि अकीरा कुरोसोवा कहां पैदा हुए हैं या कि ऑसर्न वेल्स ने कौन सी फिल्म बनाई है या कि इंगमार बर्गमैन कौन हैं या कि विटोरियो डिसिका धरती पर जन्मे जा चुके किस प्राणी का नाम है... या कि जोल्तान जाबरी इतना बड़ा महादर्शी कैसे बना... । ये सारे महान फिल्मकारों के नाम उसके लिए अजनबी थे...
सच तो ये है कि सिनेमा ही उसके लिए चैंकाने वाली बात थी... चित्रकूट जनपद के छीबो गांव का ये लड़का सिर्फ तब किसी भी तरह कामयाब होने और सम्मान की जिंदगी के सपने देखता था... वो भी अपने उस साहित्य के जरिए जो अभी रचा नहीं गया था... उन विचारों के जरिए जिनका अभी जन्म नहीं हुआ था... ।
महत्वाकांक्षी और धुन के पक्के लड़के ने कक्षा चार में एक कहानी पढ़ी थी—कसाईबाड़ा और ये कहानी किसी महान फिल्म की तरह उसके दिलो–दिमाग के पर्दों पर रील–दर–रील भागती रहती थी... और वह इस कहानी के लेखक को चैथी कक्षा से ही खोज रहा था... । यह तलाशी अभियान अचानक पूरा हुआ... बी–ए– फर्स्ट ईयर में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी पहंुचने पर । इस लड़के को पता चला कि कसाईबाड़ा के लेखक शिवमूर्ति इलाहाबाद में सेल्स टैक्स अधिकारी हैं... और अपनी चेन उतरती साइकिल की चेन चढ़ाता–चढ़ाता ये लड़का पहुंच गया शिवमूर्ति के पास... ।
प्रिय दोस्तो, ये कहानी यहीं से शुरू होती है... अब इस लड़के का नाम जान लीजिए— ये कमल पांडेय है... कमल पांडेय अब शिवमूर्ति की सारी कहानियां पढ़ता है एक–एक कर... और अपने अंदर हैरानी भरता रहता है कि ये कहानियां दिखती क्यों हैं... अक्षरों की तरह दिल पर छपने की जगह दृश्यों में दिखती क्यों हैं...
बरसों बाद मुंबई पहुंचने पर पता चला कि सिनेमा से ये मेरी पहली मुलाकात थी और ये भी पता चला कि जिंदगी और सामाजिक सच्चाइयों को शिवमूर्ति कैमरे की आंख से ही देखते थे... इसीलिए उनकी कहानियां दिखती थीं... पात्र जिंदा दौड़ते थे दिलों में... और ये भी पता चला कि इन कहानियों ने ही मुझे जिंदगी देखने की कला से अवगत कराया और दृश्यों से, बिंबों से नाता जुड़ा और मेरे अंदर एक फिल्मकार का जन्म हुआ... ।
चाहे वो मुंबई का संघर्ष रहा हो या फिर दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया और फिर हिंदुस्तानी टेलीविजन की दुनिया में एक कामयाब लेखक बन जाने का नशा... चाहे पैसों की चकाचौंध रही हो... मुंबई में एक साथ तीन–तीन बड़े अपार्टमेंट्स खरीदने की खुशी... ! हर पल मुझे यही लगता है कि अब मुझे अपनी कहानियों को जिंदा देखना है बड़े पर्दे पर...
पिछले साल टेलीविजन में लेखन के कथा–पटकथा के सारे एवार्ड जीतने के बाद मुझे शिवमूर्ति की कहानियों की फिर बहुत याद आई और याद आया मेरे सफर में उन कहानियों का योगदान... वो प्रेरणा– ––जो मुझे उन कहानियों ने दी और वह पहला संकल्प मुंबई जाकर फिल्मकार बनने का जब शिवमूर्ति की कहानी तिरिया–चरित्तर पर फिल्म बनाने बासु चटर्जी इलाहाबाद आए... बहुत डरते, सकुचाते हुए एक शाम मैंने शिवमूर्ति जी से कहा कि मुझे फिल्म लिखना है... फिल्में बनानी हैं... और तब उन्होंने कहा था कि यही आपकी मंजिल है, मुझे पता है... मेरी पहली कहानी पढ़ी थी शिवमूर्ति जी ने... और उन्हें लगा था कि मैं सिनेमा के लिए ही बना हूं...
बी.ए. की पढ़ाई पूरी होते ही शिवमूर्ति मुझे लेकर दिल्ली आए और अपने एक दोस्त चंद्रदेव यादव के साथ अब्दुल बिस्मिल्लाह जी के फ्लैट में पंद्रह दिनों तक मेरे रुकने की व्यवस्था करवाई और ये कहकर वापस इलाहाबाद चले गए कि अब आगे का रास्ता यहां से मुंबई तक का तुम्हें खुद तय करना है... माफ करना मेरे आत्मजनो, अपने बारे में ही कहता जा रहा हूं... पर क्या करूं... बाबा तुलसीदास ने भी तो लिखा है—स्वांत: सुखाय तुलसी रद्युनाथ गाथा... मित्रो, मैं भी यहां खुद को बोध देने के लिए ही स्मृतियों की यह फिल्म देख रहा हूं...
कम शब्दों मे, यह रात बीत जाने से पहले, अरब सागर की इन लहरों के थक जाने से पहले मुंबई महानगर के जग जाने से पहले, मुझे इस फिल्म को देख लेना है... इस फिल्म के अगले दृश्यों में यह लड़का शिवमूर्ति जी के पूरे साहित्य को पढ़ जाता है और शिवमूर्ति जी के जरिए ही वो अपने प्रिय कथाकार उदय प्रकाश ... संजीव... प्रियंवद... सृंजय... चंद्रकिशोर जायसवाल... और साहित्य के दूसरे महारथी लेखकों के लेखन से परिचित होता है और मंत्रमुग्ध भी... अपनी समझ और सोच के फैलते आकाश में अब वो अपने जीवन का रास्ता देख रहा है...
याद है इस लड़के को जब वो इलाहाबाद में हिंदी के एक गरीब कवि के घर से लौटा तो इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में रास्ते–भर वह रोता रहा... इस गरीब कवि के गरीब घर में उसे उस मूर्धन्य कवि के दुख दिख गए थे... तभी एहसास हुआ था इस लड़के को कि बुद्ध बनने के लिए महल में पैदा होना पड़ता है... गरीब आदमी को सपने में रोटी–भात ही नजर आता है... शायद चारों तरफ फैले दुख से ऊबकर ही इस लड़के ने किताबों की दुनिया में नहीं सिनेमा की दुनिया का साहित्य लिखने की सोची... क्योंकि उसमें रोटी के सपने ज्यादा चटक दिख रहे थे... हालांकि सिनेमा की दुनिया तक पहुंचने के वर्ष बड़े खतरनाक थे... डरावने थे... हर जगह चोट मिल रही थी...
इस लड़के को फिल्म का एक दृश्य और भी याद है... दिल्ली में घोर संघर्ष के दिनों में जब यह लड़का घर की तलाश में भटक रहा था तो कथाकार उदय प्रकाश से मुलाकात हुई... जेएनयू के ओल्ड कैम्पस में उदय प्रकाश अपनी सुविधा के लिए परिवार से अलग एक घर किराए पर लेकर रहते थे... क्योंकि उनकी शूटिंग वहीं आसपास चलती रहती थी... उन्होंने मुझे 800 रुपए महीना, किराएदार के तौर पर अपने साथ रख लिया और मुझसे कहा कि आप चूंकि मनोहर श्याम जोशी को पेज करते हैं... आपका दायरा बड़ा है और Direct TV Serials और फिल्मों से जुड़ा है तो हम दोनों भाई मिलकर लिखेंगे भी और साथ रहेंगे भी... पर जल्दी ही उन्हें पता चल गया कि मैं घोर स्ट्रगलर हूं और जब मैं एडवांस नहीं दे पाया उन्हें तो वे मेरे सामान के साथ घर पर ताला लगाकर रोहिणी अपने घर चले गए... मैं दिल्ली की सड़कों पर भटकता रहा... उनसे गिड़गिड़ाता रहा कि ताला खोल दीजिए... मैं अपना सामान ले लूं... पर वो मुझे फोन पर धमकाते रहे कि आप क्या हैं... कोई महान लेखक... महान फोटोग्राफर... महान पेंटर... आप तो सिनेमा–उनेमा के जरिए पैसे कमाने आए हैं... मैं आपकी मदद क्यों करूं... ?
मैंने कहा कि इंसानियत के नाते मेरा सामान दे दीजिए पर उनकी नजरों में इंसान सिर्फ लेखक... फिल्मकार... पेंटर और किसी बड़े फोटाग्राफर में ही मिलता था... बड़ी मुश्किल से मैं अपना सामान निकलवा पाया और पहले फोन शिवमूर्ति जी को किया और फोन पर रो पड़ा... कमाल की बात ये है कि शिवमूर्ति जी ने कहा कि अच्छी बात तो ये है भइया कि ऐसी ही बातें, ऐसे ही आंसू... ऐसी ही ठोकरें आपको वह बनाएंगे जो आप बनने गए हैं... दुख मांजता है, ठोकरें मजबूत बनाती हैं... और अभाव सोचने पर विवश करता है...
कमल पांडेय
संपर्क : 9819649405
जन्म : अगस्त 1975
स्थान : उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जनपद के छीबो गांव में ।
शिक्षा : स्नातक, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
टेलिविजन साहित्य धारावाहिकों के लिए कथा–पटकथा और संवाद लेखन ।
आंच, शक्ति द पॉवर, शागिर्द, मिलन टॉकिज और निर्माणाधीन फिल्मों के लिए कथा–पटकथा और संवाद लेखन ।
सम्मान : लाडो और देवी के लिए सर्वश्रेष्ठ कथा और पटकथा के कई पुरस्कार ।
मैंने उनकी बात ध्यान से सुनी और इस बात को दिल से निकाल दिया कि हिंदी के एक महान और बेहद पठनीय और आज भी मेरे प्रिय कथाकार उदय प्रकाश ने मेरे साथ क्या किया था... आज भी उनकी कहानी मैं सबसे पहले पढ़ता हूं... दोस्तो यहां इस घटना का उल्लेख उदय प्रकाश जी से किसी प्रकार की शिकायत की वजह से नहीं किया मैंने बल्कि शिवमूर्ति जी के उस रिएक्शन के लिए किया है जो उन्होंने उस वक्त दिया था...
बाद के वर्षों में मैं मुंबई पहुंचा... मेरे गुरुदेव... मेरे भाग्य–निर्माता कमलेश्वर जी मुझे मुंबई ले गए और वो भी शिवमूर्ति जी की तरह मुंबई में छोड़कर और यह कहकर दिल्ली चले गए कि मुंबई में समंदर है... यहां चाहो जितनी दूर तक तैर लेना पर कभी संमदर का पानी मत पीना बीमार पड़ जाओगे...
मित्रो, यह लड़का हिंदी का साहित्य कभी नहीं लिख पाया; पर अपने साहित्य से हिंदुस्तान के टेलीविजन को खूब सींचा ... पर हिंदी के इन दो महान लेखकों (लेखकों से भी बड़े महान व्यक्तित्वों) का वो हमेशा कर्जदार रहेगा... वह कर्ज जिसे कभी चुकाया नहीं जा सकता... बाद के वर्षों में यह लड़का एक के बाद एक सुपरहिट टीवी सीरियल्स लिखता है... फिल्में लिखता है... दक्षिण कोरिया और इंडोनेशिया में एक दर्जन धारावाहिक और सात फिल्में भी लिखीं इस लड़के ने और जहां भी गया... जब भी खुश और उदास हुआ, जब भी गाइडेंस की जरूरत महसूस की, तब–तब शिवमूर्ति जी को फोन किया– ––और अपने ठेठ गंवई अंदाज में शिवमूर्ति जी अपने अनुभवों का लाभ इसे देते रहे...
दिल्ली की सड़कों पर बिना घर के भटकने का ही परिणाम था कि इस लड़के ने मुंबई में तीन–तीन अपार्टमेंट्स खरीदे–– –बाद में ये लेखक से प्रोड्यूसर बना... पर जल्दी ही उसे समझ में आ गया... कि ढेरों पैसा और बहुत सारे बड़े घर उसका लक्ष्य नहीं हैं... उसका लक्ष्य है सिनेमा... तो आज जब अपने पहले फिल्म के निर्देशन की ओर ये लड़का बढ़ रहा है... आज रात फिर उस फिल्म को ये देख रहा है जो उसके जीवन की फिल्म है... यह बहुत पर्सनल बातें हैं... एक आत्ममंथन है... दिल के विचार हैं... और मेरे और मेरे बड़े भाई बन चुके शिवमूर्ति के रिश्तों की कहानी है...
यह फिल्म चलती ही रहेगी... जब ये लड़का बहुत सारी फिल्में बना चुका होगा तब भी अपने एकांतों में बैठकर ऐसी ही तमाम रातों में जागकर ये लड़का कमल पांडेय इस फिल्म को देखता रहेगा... विटोरियो डिसिका... की ‘बाइसिकल थीफ’ की तरह यह फिल्म भी कमल पांडेय के जीवन की सबसे अनमोल फिल्म जो है...
००००००००००००००००
0 टिप्पणियाँ