कम से कम एक दरवाज़ा - सुधा अरोड़ा | Suicide in India - Sudha Arora


कम से कम एक दरवाज़ा

सुधा अरोड़ा

( समाज में जो बदलाव हमें दिखाई दे रहे हैं, वे बहुत ऊपरी हैं. कहीं आज भी हम स्त्रियों को उनका अपेक्षित सम्मान नहीं दिला पा रहे हैं और न ही उनके लिये परिवार और समाज की ओर से वह सपोर्ट सिस्टम तैयार कर पा रहे हैं, जो उन्हें जीवन की विसंगतियों से, असुविधाओं और कठिन परिस्थितियों से जूझने के रास्ते मुहैया करवा सके. शिक्षित करके हमने उन्हें अर्थ उपार्जन का रास्ता तो दिखा दिया, आत्मनिर्भर बनाकर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा भी कर दिया, पर हम उन्हें जीवन जीने की कला, विपरीत परिस्थितियों से जूझने का तरीका, अपने लिये एक दरवाजा खुला रखने का ढब नहीं सिखा पाये.)

 आज से करीब डेढ़ सौ साल पहले की भारतीय स्त्रियों को अपनी सामाजिक स्थिति और अपनी यातना की पहचान ही नहीं थी. अपने घर की चहार दीवारी की परेशानियों से बिला शिकायत जूझना उनकी मजबूरी थी और उन्हें यथासंभव संवार कर चलना उनका स्वभाव. घर से बाहर उनकी गति नहीं थी इसलिये जहां, जितना, जैसा मिला,सब शिरोधार्य था. सहनशीलता और त्याग उनके आभूषण थे. अगर सम्मान मिला तो अहोभाग्य, दुत्कार मिली तो नियति- क्योंकि अपने जीवन से एक स्त्री की अपेक्षाएं कुछ थीं ही नहीं.


एक मध्यवर्ग की स्त्री अगर प्रतिभावान और रचनात्मक हुई तो वह रसोई और बच्चों की देखभाल के बाद दोपहर के बचे हुए समय में, घर के फेंके जाने वाले सामान से चित्रकला या क्रोशिए से बॉर्डर या कवर बिनतीं, साड़ियां, चादरें और तकिया गिलाफ़ काढ़तीं - इस तरह अपना पूरा समय वे घर की चहारदीवारी के भीतर की स्पेस को सजाने-संवारने-निखारने में बिता देतीं.

अपने अधिकारों के प्रति अज्ञानता, अपने घरेलू श्रम को कम करके आंकना, बचपन में विवाह, विधवा हो जाने पर सामान्य जीवन जीने पर अंकुश आदि ऐसी कुरीतियां थीं, जिसके चलते उन्हें शिक्षित करना उस कालखंड की अनिवार्यता बन गई. स्त्रियां शिक्षित हुईं. शिक्षा से स्त्रियों का जागरुक होना स्वाभाविक था. लेकिन बाहरी स्पेस में उनका काम स्कूल में अध्यापन करने तक ही सीमित रहा. शिक्षा के बाद की दूसरी सीढ़ी आई, उन्हें आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया गया और शिक्षण से आगे, बैंकों में, सरकारी दफ्तरों में, कॉरपोरेट जगत में और अन्य सभी क्षेत्रों में स्त्रियों ने दखल देना शुरु किया. आर्थिक रूप से हर समय अपना भिक्षापात्र पति के आगे फैलाने वाली स्त्री ने घर को चलाने में अपना आर्थिक योगदान भी दिया. पर इससे उसके घरेलू श्रम में कोई कटौती नहीं हुई. इस दोहरी जिम्मेदारी को भी उसने बखूबी निभाया.

माना कि भारतीय समाज में वैवाहिक सम्बन्धों में बेहतरी के लिये समीकरण बदले हैं, पर वह स्त्रियों के एक बहुत छोटे से वर्ग के लिये ही है- जहां पुरुषों में कुछ सकारात्मक बदलाव आये हैं. मध्यवर्गीय स्त्री के एक बड़े वर्ग के लिये आज स्थितियां पहले से भी बहुत ज़्यादा जटिल होती जा रही हैं.

आज स्त्रियों को लेकर पूरा परिदृश्य बहुत ज़्यादा निराशाजनक है. रोज़ का अखबार स्त्री के साथ घटित नये हादसे लेकर हमारे सामने आता है पर समय जितना असंवेदनशील होता जा रहा है, ये हादसे घटित होने के पहले दिन जैसे अखबार के पहले पन्ने पर रहते हैं और अगले कुछ दिनों में तीसरे चौथे पन्नों पर स्थानांतरित होकर अखबार से गायब हो जाते हैं, वैसे ही हमारे दिमाग़ पर सिर्फ पहले दिन इनकी दस्तक हथौड़े सी पड़ती है पर धीरे धीरे ये हमारी आंखों से ओझल होते ही मन पर हल्की सी खरोंच छोड़कर हमारी सोच का हिस्सा बनने से पहले ही हमारी दहलीज़ छोड़ जाते हैं.

आत्महत्या के फैसले

अन्तर्राट्रीय महिला दिवस के दिन 8 मार्च 2011 से 28 सितम्बर 2011 तक- छह महीनों के अंदर मुंबई के उपनगरों में बीस से बत्तीस की उम्र की चार लड़कियों की आत्महत्याएं नये सिरे से हमारे सामने ढेर सारे सवाल खड़े करती है. ये चार तो अखबारों के पहले पन्नों पर दर्ज किये गये मामले थे, प्रताड़ना के कई मामले बदनामी के डर से घर के सदस्यों द्वारा ही दबा दिये जाते हैं. पहले हम इन चारों आत्महत्याओं की स्थितियों पर एक नज़र डालें -

8 मार्च 2011 - अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के दिन, जब दिल्ली से राधिका तंवर की हत्या की खबर पहुंची, उसके साथ ही दिल दहला देने वाली खबर थी- निधि गुप्ता (जालान) की- जिसने मलाड के एक रिहायशी टावर के उन्नीसवें माले के रिफ्यूज एरिया में जाकर अपने छह साल के बेटे गौरव और तीन साल की बेटी मिहिका को छत से नीचे फेंकने के बाद खुद कूद कर तीन ज़िदगियों का अंत किया. निधि गुप्ता एक चार्टर्ड अकाउंटेंट होने के साथ, मलाड के सराफ कॉलेज की विज़िटिंग लेक्चरार थी और एम.बी.ए. की परीक्षा में बैठने की तैयार कर रही थी.

16 अप्रैल 2011- दहिसर पूर्व के एक टावर की सातवीं मंज़िल पर रहने वाली दीप्ति चौहान (परमार) ने वॉचमैन से छत की चाबियां लीं. वहां जाकर पहले अपने छह साल के बेटे सिद्धेश की आंखों पर पट्टी बांधकर उसे छत से नीचे फेंका और उसके बाद खुद कूदकर अपनी जान दे दी. दीप्ति अब एक गृहिणी थी और उसका पति नीलेश शेयर मार्केट का ब्रोकर.

26 जुलाई 2011- शिवानी साहू- एम.बी.ए. ने, मुलुंड पूर्व के अपने निवास पर, डेढ़ साल की अपनी बच्ची को छोड़कर पंखे से झूलकर आत्महत्या कर ली.

28 सितम्बर 2011- निधि सिंह 24 वर्ष - आय.आय.टी. कानपुर की स्नातक और एम.बी.ए.- फरवरी में समदर्शी सिंह से प्रेम विवाह किया और मुंबई के उपनगर अंधेरी पूर्व में पहली मंजिल के फ्लैट में चार महीने पहले ही शिफ्ट हुई थी, शादी के सात महीने बाद, पंखे से झूलकर आत्महत्या कर ली. यह कदम उठाने से पहले उसने अपने मोबाइल पर एक मिनट का अपना बयान रिकॉर्ड किया कि उसके इस निर्णय में किसी का हाथ नहीं है. वह अपने माता पिता और पति को अपनी कुंठाओं से परेशान नहीं करना चाहती, इसलिये अपने जीवन का अंत कर रही है.

इन चारों आत्महत्याओं में कुछ आश्चर्यजनक समानताएं हैं. मध्यवर्ग से आई ये चारों लड़कियां पढ़ी लिखी थीं. शादी से पहले नौकरी करती थीं. चारों ने अपनी मर्ज़ी से अपने जीवन साथी का चुनाव कर प्रेम विवाह किया. अपनी डिग्रियों और योग्यता के बल पर वे अपना एक स्वतंत्र मुकाम बना सकती थीं, फिर इन्होंने आत्महत्या का रास्ता क्यों चुना? शिक्षा, आर्थिक आज़ादी और आत्मनिर्भरता के बावजूद ऐसे हादसों पर रोक नहीं लग पाई तो क्यों ? आखिर चूक कहां हो गई? यह सवाल किसी भी सोचने समझने वाले व्यक्ति को, समाजिक कार्यकर्ताओं को, समाज विज्ञान के अध्येताओं को विचलित करेगा. इनमें से कुछ हादसों के तह तक पहुंचने की एक कोशिश की जानी चाहिये. अखबार सिर्फ सूचना देते हैं, हादसों का विश्लेषण करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती.


चार्टर्ड अकाउंटेंट और मलाड के पोद्दार कॉलेज की शिक्षिका निधि गुप्ता के मित्रों, परिचितों और परिवार के सदस्यों ने बयान दिया कि निधि गुप्ता कभी अपनी घरेलू समस्याओं से परेशान दिखाई नहीं देती थी, वह बिल्कुल ‘नॉर्मल’ थी, अवसाद के कोई निशान उसके चेहरे पर नहीं थे .

गुप्ता परिवार के फ्लैट से कभी लड़ने झगड़ने की आवाज़ें नहीं आईं. दो बेडरूम के फ्लैट में वे दो भाई- जिसमें से एक की शादी नहीं हुई थी और एक बहन-बहनोई अपने माता पिता के साथ रहते थे. निधि गुप्ता के ससुरालवालों ने यही बयान दिया कि ‘सबकुछ ठीक था’, ‘परिवार में कोई तनाव नहीं था’ और ‘ वे निधि के अपने दो छोटे बच्चों को मारकर खुद आत्महत्या करने के ऐसे भयावह निर्णय के पीछे कोई कारण तलाश पाने में असमर्थ हैं.’

यह एक अप्रत्याशित कदम था और कोई नहीं जानता कि उसने ऐसा क्यों किया. लेकिन सतह पर सबकुछ सही और ठीक दिखते हुए भी भीतर कितनी उथलपुथल छिपाए रहता है, यह कोई समझ पाने की कोशिश भी नहीं करता. यह जानते हुए भी कि निधि गुप्ता ने अपनी शादी की सालगिरह की तारीख से एक दिन पहले अपने और अपने दोनों बच्चों के जीवन का अंत करने का निर्णय लिया, अखबारों में तीन दिन तक पहले पृष्ठ पर प्रमुखता से यही आता रहा कि उसने न अपने माता पिता से, न मित्रों से कभी अपने अवसाद की बात की.

शादी की सालगिरह से पहले यह निर्णय लेना स्पष्टता से यह तो बताता ही है कि सतह पर सामान्य दिखते रिश्तों की भीतरी गहरी दरारों को ऊपर से ढके रहना मुश्किल नहीं होता. आम तौर पर हर लड़की ऊपर से मुस्कुराहट बिखेरते हुए भी अपने भीतर का झंझावात छिपाये रखती है. जीवन साथी की अपने प्रति निर्मम उपेक्षा या भावात्मक हिंसा को अपने भीतर जज़्ब करते हुए वह अपने पड़ोसियों या कार्यस्थल के मित्रों के साथ बातें करने में, अपने को अपने करियर के लिये पढ़ाई में व्यस्त रखने में, बच्चों की देखभाल में या उनके स्कूल का होमवर्क कराने में, या घर गृहस्थी के अंतहीन कामों में अपने को खपा डालती है.

कोई भी मध्यवर्गीय स्त्री, खासतौर पर दो बच्चों की मां, अपने परिचितों और मित्रों से अपनी घरेलू निजी त्रासदियों का बखान करना पसंद नहीं करती. वह यही सोचती है कि अपनी समस्याओं का हल वह ढूंढ ही लेगी. अपने परिवेश के बढ़ते हुए दबाव को महसूस करते हुए भी वे इसे अपने भीतर ही छिपा कर रखना चाहती है.

अधिकांश महिलाओं के साथ यही होता है कि वे इसे सभी महिलाओं के जीवन की औसत त्रासदी समझती हैं और अपने मां-बाप से इस तकलीफ को बांटकर उनके दुख को और बढ़ाना नहीं चाहतीं. एक अलिखित आचार संहिता उन्हें रोकती है जिसके तहत वे सोचती हैं कि मां-बाप की ज़िम्मेदारी उन्हें पढ़ा-लिखा कर अपने पैरों पर खड़े होने की कूवत देने और अपनी मर्जी के लड़के से ब्याह करने की इजाज़त देने के बाद समाप्त हो जाती है और शादी के बाद की सारी समस्याओं से अब उन्हें अकेले ही निबटना है.

आज भी आम मध्यवर्ग की एक सामान्य लड़की अपना शत प्रतिशत दे देती है. शादी के बाद घर-परिवार, पति-बच्चे उसकी पहली प्राथमिकता होते हैं- आम तौर पर उसका अपना करिअर, अपनी महत्वाकांक्षाएं दूसरे नम्बर पर आती हैं पर उसकी इस प्राथमिकता और भावात्मक लगाव पर लगातार चोट की जाती है. ससुराल के अन्य सदस्य तो एक तरह से दुश्मन के खेमे में तैनात हो ही लेते हैं, अक्सर पति भी नयी ब्याही पत्नी का साथ छोड़कर अपने घर के सदस्यों का साथ देने लगता है. ऐसे में लड़की पर दोहरी चोट है. ससुराल के सदस्यों के प्रेम की वह हक़दार नहीं बनती और अपने मां-बाप के साथ अपनी इस त्रासदी को बांटकर उन्हें दुखी नहीं करना चाहती.

आपसी संबंधों में भावात्मक खाई और संवेदना का टकराव असंवेदनशीलता से होना उन्हें तोड़ता है. अगर वह अपने ही भीतर एक ऊर्जा, एक संबल पैदा करने में असमर्थ रहती है तो उसके भीतर अवसाद की जड़ें इतने गहरे तक पैठ जाती हैं कि बहुत दिनों तक भीतर एक झंझावात झेलते हुए और बाहर से एक खुशनुमा आवरण ओढ़ते हुए वह अंदर ही अंदर छीजती चली जाती है. ऐसी ही लड़कियों को एक चरम स्थिति (डेस्पेरेशन) में अपना और अपने बच्चों के जीवन का अंत करना ही एकमात्र हल दिखाई देता है.

आय.आय.टी. कानपुर की स्नातक और एम.बी.ए. निधि सिंह के पति ने बताया कि काम पर जाने से पहले निधि ने पति से मिन्नत की कि वह दस मिनट के लिये उससे बात करे और तब जाये. वह कुछ देर रुका भी पर उसे ऑफिस के लिये देर हो रही थी. ऑफिस जाने के कुछ देर बाद उसे एक एस.एम.एस. मिला- ‘‘सॉरी’’ उसने इसे गंभीरता से नहीं लिया क्योंकि उसने नहीं सोचा था कि निधि अपने जीवन का अंत करने जा रही है. सिर्फ सात महीने पहले फरवरी में उनकी शादी हुई थी. निधि ने शादी के बाद अपनी नौकरी छोड़ दी थी और वे चार महीने पहले ही इस नये घर में शिफ्ट हुए थे.

‘बचाव के लिये पुकार ’ (Cry for Help)

आत्महत्या के निर्णय से पहले ‘सहारे की ललक‘ या ‘बचाव के लिये पुकार ’ ( क्राई फॉर हेल्प ) हमेशा दिखाई देती है. निधि सिंह का अपने पति को बात करने के लिये बार-बार रोकना इसी चीख के अंश है, आम तौर पर जिसे अनसुना कर दिया जाता है. निधि गुप्ता जालान और दीप्ति सावंत परमार के साथ भी यही स्थिति थी. दोनों ही अपने माता पिता को संकेत दे रही थीं कि वे एक दबाव और तनाव में जी रही हैं. घटना के बाद भी वे इन संकेतों को नकारते हैं. इन्हें कोई गंभीरता से नहीं लेता- यह कहकर कि यह तो सभी के साथ होता है और बीत जाता है. एडजस्टमेंट ही एक ऐसी घुट्टी है, जिसे हर मां-बाप अपनी बेटी की शादी में पोटली में बांधकर थमा देते हैं कि तालमेल बिठाकर रहना सीख लेना.

शादी के बाद बेटी की दबी दबी सी शिकायत पर ध्यान न देकर यही कहा जाता है कि आज की लड़कियों में सहनशीलता की बहुत कमी है. आज के समय की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि आज भी अपने आत्मसम्मान को पीछे धकेलकर उसी धैर्य और सहन करने की अपेक्षा उससे की जाती है जो विकल्पहीनता की स्थिति में सदियों तक स्त्री का एकमात्र चुनाव रहा है.


निधि गुप्ता को शादी के बाद नौकरी छोड़ने के लिये कहा गया क्योंकि बच्चे छोटे थे और उनकी देखभाल करने को सास या ननद तैयार नहीं थीं. उसने नौकरी छोड़ दी. बाद में उससे कहा गया कि उसके पति के व्यवसाय में मंदी आ गई है तो उसे नौकरी फिर कर लेनी चाहिये.

उसने सर्राफ कॉलेज में पार्ट टाइम नौकरी कर ली. संयुक्त परिवार होने के कारण उसे अपने रोज़मर्रा के खर्च के लिये अपने पति या बड़ी ननद के आगे हाथ फैलाने पड़ते थे. जिस दिन उसने यह कदम उठाया, उस दिन की घटना थी कि उसके छह साल के बेटे को स्कूल की किसी पिकनिक के लिये सौ रुपये चाहिये थे. उसने हमेशा की तरह बुआ से मांगे और बुआ ने नहीं दिये. बेटा रुआंसा हो गया.

दोनों बच्चों को टिफिन और पानी की बोतल और स्कूल के बस्ते से लैस निधि अपने निवास के नौवें माले से स्कूल के लिये तैयार बच्चों को लेकर निकली और लिफ़्ट से नीचे जाने के बजाय लिफ्ट को ऊपर उन्नीसवें माले के रिफ्यूज एरिया में ले गई जहां से उसने तीन ज़िंदगियों का अंत किया.

संयुक्त परिवार के नकारात्मक पक्ष यहां एक बड़ा रोल निभाते हैं जहां एक पढ़ी लिखी लड़की का भी अपनी कमाई पर अधिकार नहीं होता. परम्परा के वर्चस्व तले एक तयशुदा रूप से ससुराल के अन्य सदस्य परिचालित करना चाहते हैं और पति इसमें या तो मूक इकाई की भूमिका निभाता है या अपने घर के सदस्यों का साथ देता है, जो अपना घर-परिवार छोड़ कर आई लड़की को और उसके पैर तले की ज़मीन को और कमज़ोर कर देता है. जो घर वह छोड़कर आई है, वह उसे विदा कर अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो लेता है और जिसे वह अपना घर समझती है, वह भी उसका हो नहीं पाता. ऐसे में भावात्मक असुरक्षा उसे निपट अकेला कर देती है और घर के नाम पर उसके सामने एक शून्य होता है.

कुछ और मामले 

28 जून 2010 को सभी अखबारों में निशि जेठवानी (सोनी) की आत्महत्या की खबर थी, जिसने मुंबई के एक उपनगर मुलुंड की बहुमंजिला इमारत रुनवाल प्राइड के 27 वें माले से कूदकर आत्महत्या कर ली. मध्यवर्ग से आई निशि सोनी एक प्रमुख शेअर कम्पनी में कार्यरत थी, जहां उसकी पहचान रईस परिवार के जितेन्द्र जेठवानी से हुई. शादी से पहले ही उसके सामने अनिवार्य शर्त रख दी गई थी कि वह अपनी नौकरी छोड़ देगी.

उसके प्रेम विवाह को सिर्फ तेरह महीने हुए थे. शादी के कुछ महीनों बाद ही उससे नौकरानियों जैसा व्यवहार किया जाने लगा. घर के सारे काम उस पर लाद दिये गये. उसके खाने पर भी पाबंदी थी और उसे ससुराल के सदस्यों द्वारा पीटा भी जाने लगा. इसके विरोध में वह ढ़ाई महीने अपने मायके रही, जहां उसे ‘अपने’ घर से तालमेल बिठाकर रहने का सबक देकर फिर वापस भेज दिया गया.

पति के आश्वासन पर उसे भी लगा कि स्थितियां सुधर जायेंगी लेकिन यह उसका भ्रम था. अपनी आर्थिक स्वतंत्रता खोकर, और दोबारा विपरीत परिस्थितियों में झोंके जाने के बाद उसका दर्ज़ा एक नौकरानी से बेहतर नहीं था. अब 27 वें माले से कूदकर अपने जीवन की सारी यातनाओं से मुक्त होने का उसके सामने एकमात्र विकल्प था. अपने माता पिता की इच्छा के खिलाफ जाकर उसने एक रईस खानदान के लड़के से प्रेम विवाह करके बगावत की थी और अपने को सज़ा देने का यही क्रूर और निर्मम तरीका उसे आसान लगा, जिससे वह अपने मां-बाप को एक ही बार सारे जंजालों से उबार सके.

ऐसा ही एक केस था आकांक्षा का पर उसने अपनी मजबूती से स्थितियों को बदलने का हौसला दिखाया. लखनऊ की यह लड़की संस्कृत और मनोविज्ञान से एम.ए. करने के बाद एक जूनियर कॉलेज में पढ़ा रही थी. हॉस्टल में रहती थी और उसे नाटकों में अभिनय का शौक था. एक नाटक के दौरान उसकी मुलाकात अपने अभिनय के प्रशंसक एक बंगाली लड़के से हुई. घर से भाग कर उसने शादी की और आकांक्षा के घरवालों ने उससे रिश्ता तोड़ लिया और अपने घर के दरवाज़े उसके लिये बंद कर दिये.

शादी के बाद सात साल तक वह अपने पति के साथ दिल्ली, आबूधाबी और दोहा जैसी जगहों में उसकी नौकरी के साथ-साथ घूमती रही. एक बेटी भी पैदा हो गई. आखिर जब उनका ट्रांसफर मुंबई में हुआ तो उसने एक नाटक में अभिनय के लिये हामी भर दी. अब पति ने न सिर्फ नाटक करने के लिये मना किया, यह अल्टीमेटम भी थमा दिया कि नाटक में काम करने के बारे में उसने फिर सोचा भी तो वह शादी तोड़ देगा.

लड़ने का हौसला

मानसिक रूप से पूरी तरह ध्वस्त आकांक्षा हमारे पास आई- इस दृढ़ निश्चय के साथ कि वह आत्महत्या करने से पहले अपनी बेटी को पहले खत्म करेगी क्योंकि वह नहीं चाहती कि वह सौतेली मां के हाथों प्रताड़ित हो और उसके पापा में इतनी कूवत नहीं है कि वे उसे पनपने के लिये एक स्वस्थ माहौल दें. उसे हताश होकर दो दो ज़िंदगियां खत्म करने की जगह हौसला बुलंद रखने के लिये समझाया गया. अब उसकी एक और बेटी है. दोनों को साथ लेकर वह नाटक देखने जाती है. स्कूल में नौकरी भी करती है और बड़ी बेटी के स्कूल के लिये नाटक का निर्देशन कर रही है जिसमें दोनों मां बेटी हिस्सा ले रही हैं.

क्या किसी भी लड़की के विवाह को बचाने की यह शर्त होनी चाहिये कि वह अपनी सारी रचनात्मक प्रतिभा को समूल नष्ट कर दे. अगर इसी शर्त पर विवाह को बचना है तो आकांक्षा कहती है- ‘‘ मुझे भी निर्णय लेने का हक है कि मैं दोनों बच्चों की सारी ज़िम्मेदारी उठाने के बाद अपनी रचनात्मकता और प्रतिभा को कैसे बचाये रखूं. आखिर पति जीवन के हर मोड़ पर अपनी ही शर्तें डिक्टेट नहीं कर सकता.’’

...और इस तरह के मामले तो असंख्य हैं जहां एक स्त्री अपनी मित्र या पड़ोसी से भी अपनी यातना को शेअर नहीं करती. मैं मुंबई के बांद्रा इलाके के अपने निवास पर अपनी पड़ोसी स्वाति खन्ना को भूल नहीं सकती, जो मुझे रोज़ सुबह की सैर के वक्त मिलती थी और जिनके साथ मैं कभी कभी ‘हेल्प‘ में काउंसिलिंग के लिये आये प्रताड़ित महिलाओं के मामलों के बारे में बात किया करती थी.


वे हमेशा यही कहतीं कि यह तो घर-घर का किस्सा है, सबके साथ होता है. पर उन्होंने कभी अपने बारे में कुछ नहीं बताया. नौ साल वहां रहने के बाद, अचानक एक रात मुझे एक दूसरी पड़ोसन ने रात के बारह बजे बुलाया. बचाओ-बचाओ की भयावह चीखें नीचे तक पहुंच रही थीं. पता चला- स्वाति लगातार 33 सालों तक अपने पति की हिंसा का शिकार हो रही थी. स्वाति उस पीढ़ी की थी, जो अपने सम्मान को अपने पति के सम्मान के साथ जोड़कर देखती हैं और सिर्फ तब अपने मुंह से चीखें बाहर आने देती है, जब उम्र के साथ कमज़ोर होती उनकी देह मारपीट झेलने के लायक नहीं रह जाती.

आज भी मध्यवर्ग की लड़कियां अगर कहती नहीं तो इसका अर्थ यह नहीं कि वे सहती नहीं. होता सिर्फ यह है कि एक सीमा के बाद उनके शॉक एब्ज़ॉर्बर्स बिल्कुल फेल हो जाते हैं और अपने सामने एक डेड एंड देखने के बाद ही वे ‘बचाव के लिये चीख ‘ का इस्तेमाल करती हैं. अचानक एक दिन आत्महत्या के खयाल का दौरा पड़ने पर कोई इतना बड़ा कदम नहीं उठा लेता, इसलिये इन उठती हुई छोटी-छोटी कराहों और चीखों को पहचानना ज़रूरी है.

दक़ियानूसी सोच से मुठभेड़ करने के कारगर तरीके : मीडिया और साहित्य 

जाहिर है, हमारे समाज में जो बदलाव हमें दिखाई दे रहे हैं, वे बहुत ऊपरी हैं. कहीं आज भी हम स्त्रियों को उनका अपेक्षित सम्मान नहीं दिला पा रहे हैं और न ही उनके लिये परिवार और समाज की ओर से वह सपोर्ट सिस्टम तैयार कर पा रहे हैं, जो उन्हें जीवन की विसंगतियों से, असुविधाओं और कठिन परिस्थितियों से जूझने के रास्ते मुहैया करवा सके. शिक्षित करके हमने उन्हें अर्थ उपार्जन का रास्ता तो दिखा दिया, आत्मनिर्भर बनाकर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा भी कर दिया, पर हम उन्हें जीवन जीने की कला, विपरीत परिस्थितियों से जूझने का तरीका, अपने लिये एक दरवाजा खुला रखने का ढब नहीं सिखा पाये.

आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर स्त्रियां भी भावनात्मक रूप से अपने पति का ही मुंह जोहती रहीं. भावनात्मक आघात ही अपने जीवन का अंत करने पर उन्हें विवश करते हैं.

सबसे पहले तो हमें इस भ्रांति को तोड़ना होगा कि साहित्य से कोई सामाजिक क्रांति आ सकती है. इसके लिये दृश्य मीडिया एक ज्यादा असरकारक औजार हो सकता था पर दृश्य मीडिया को ‘चिकनी चमेली’ और ‘शीला की जवानी’ के प्रदर्शन और ‘एंटरटेनमेंट’ से ही फुर्सत नहीं है.

मीडिया और टी वी चैनलों में लगातार चलने वाले धारावाहिकों में संयुक्त परिवारों के अभिजात्य, साज सज्जा और शादियों के ताम-झाम को लगातार आकर्षक बनाकर दिखाया जाता है, जिसमें एक उच्च वर्ग की बहू की भूमिका कर्तव्यों से जकड़ी एक ‘ चुप रहकर सहने वाली स्त्री ‘ की होती है. उसके खिलाफ षडयंत्र रचने वाली एक खलनायिका स्त्री के महिमामंडन के तहत एक चरित्र गढ़ना अनिवार्य हो जाता है. जीवन की जटिलताओं को पहचानने और जीने के सकारात्मक पक्षों को उकेरने की ज़िम्मेदारी से मीडिया हमेशा बचता है. उच्चमध्य वर्ग की पढ़ी लिखी लड़कियां भी इस दोयम मानसिकता को स्वीकार करती हैं और उनके लिये अपने जीने की कीमत पर भी उसमें से बाहर निकलना आसान नहीं होता.

साहित्य की पहुंच बहुत सीमित है. इसे आज के समय में हम क्रांति का औजार नहीं मान सकते. यह जरूर है कि ऐसी स्थितियां हमारे मानस को झकझोरती हैं, तो हम अपनी कलम के जरिये एक बदलाव लाना चाहते हैं. परिवर्तन की प्रक्रिया को तेज़ करना चाहते हैं. जरूरत है, समाज की मानसिकता बदलने की. सामाजिक सरोकार रखने वाला हर रचनाकार अपनी अपनी तरह से यह कोशिश जरूर करता है कि बुनियादी कुरीतियां हटे, समाज में स्त्रियों के लिये सम्मान से जीने लायक एक माहौल बने पर यह संभव हो पाता है क्या ?

ऑनर किलिंग में इतने खूबसूरत युवा जोड़ों को प्रेम में पड़ने के कारण उनके जीने के हक़ से ही बेरहमी से बेदखल कर दिया जाता है. इन खाप पंचायतों के खिलाफ़ हम एक सख्त कानून तक नहीं बना पाते. बनाते भी हैं तो उसे अमल में नहीं ला पाते. वोट की राजनीति आड़े आ जाती है. सारी स्थितियां एक से एक जुड़ी हुई हैं. ऐसे में कुरीतियों को जड़ से उखाड़ पाने और बदलाव लाने की प्रक्रिया लंबी है.

क्या यह सच नहीं कि हमने लड़कियों को पैसा कमाकर अपने पांव पर खड़ा होना तो सिखाया पर दक़ियानूसी सोच से मुठभेड़ करने के कारगर तरीके नहीं समझा पाये. ज़रूरी है कि इन कारगर तरीकों को कॉलेज और उच्च शिक्षा संस्थानों के पाठ्यक्रम का एक ज़रूरी हिस्सा बनाया जाये ! तभी समाज में माता पिता और पति और उसके घर के लोगों की सोच में बदलाव आयेगा और इन शिक्षित लड़कियों के जीने की लड़ाई कुछ आसान हो जाएगी.

सुधार ज़रुरी है

विवाह संस्था ऑब्सोलीट हो रही है, ‘‘विवाह संस्था को खत्म करना चाहिये’’ की जगह क्या हमें यह नहीं सोचना चाहिये कि विवाह संस्था में सुधार की ज़रूरत है! सुधार कहां और कैसे ? ज़ाहिर है, जब परिस्थितियां बदल गईं हैं तो व्यक्ति को उन परिस्थितियों के अनुरूप बदलना ही होगा. जब स्त्रियां भी बाहर जा कर पति के बराबर या उससे ज़्यादा भी कमा रही हैं तो फिर बच्चों की, रसोई की पूरी ज़िम्मेदारी आज भी सिर्फ़ स्त्री के खाते में क्यों हो!

जेंडर डिवीज़न ऑफ लेबर के खांचे टूटे हैं तो उन्हें बाहर की स्पेस में ही नहीं, घर की चहारदीवारी में भी टूटना होगा. क्यों बच्चों के स्कूल में पेरेंट्स टीचर मीट में हमेशा मां ही जाये, पिता क्यों नहीं. बच्चे पिता की भी उतनी ही बड़ी ज़िम्मेदारी है जितनी मां की. मां का बच्चे को अपनी कोख में नौ महीने रखना और प्रसव पीड़ा से गुज़रने का मतलब यह क़तई नहीं है कि बच्चे के स्कूल का होमवर्क देखने से लेकर उसके करिअर, उसकी परवरिश का पूरा जिम्मा सिर्फ़ मां का ही है, पिता का नहीं. अगर बच्चा बड़ा होकर अच्छी नौकरी में जाता है तो श्रेय पिता को मिलता है कि आखिर बेटा किसका है और अगर बुरी संगत में पड़ता है तो मां की परवरिश में दोष ढूंढा जाता है.
विवाह से पहले बेशक एक लड़की अपने होने वाले पति के साथ चार-पांच साल की कोर्टशिप कर ले पर पति का असली चेहरा विवाह के बाद ही सामने आता है, जब विवाह के पंजीकृत होते ही वह अपनी पत्नी पर मालिकाना हक़ जताने लगता है. जैसे कोई आदमी अपने लिये मकान खरीदता है और मकान के मालिकाना हक़ के कानूनी काग़ज़ातों पर दस्तख़त करने के बाद, मकान हाथ में आते ही शुरु में तो वह उसे प्यार-संभाल से रखता है, पर कुछ समय बीत जाने के बाद वह दीवारों पर जहां-तहां कील ठोकता है और सामान की इधर-उधर उठा पटक शुरु कर देता है. मकान पर उसकी मिल्कियत है तो वह दीवारों और फर्नीचर के साथ मनमाना सुलूक करता है. एक पत्नी के साथ भी यही व्यवहार किया जाता है.

उसे तो कई बार शुरुआती साज संभाल भी नहीं मिलती. अपने नाम का सिंदूर भरने के साथ साथ उसका प्रेमी पति उसके साथ ज़रख़रीद गुलाम का सा सुलूक करने लगता है. पुराने समय में विकल्पहीनता की स्थिति में हर तरह का सुलूक एक ब्याहता पत्नी के लिये शिरोधार्य होता था. आज एक मध्यवर्गीय शिक्षित आत्मनिर्भर लड़की, प्रेम विवाह के बाद, माता पिता का सपोर्ट सिस्टम न होने के कारण भावात्मक उपेक्षा से बिखर जाती है क्योंकि एक ओर वह संस्कारों से बंधी है, दूसरी ओर घर और बाहर की दोहरी जिम्मेदारी के बावजूद अपने सदियों पुराने दोयम दजेऱ् में कोई तब्दीली नहीं पाती.

मुंबई हाई कोर्ट के एक जज का बयान आश्चर्यजनक रूप से बेटियों के खिलाफ जाता है. उन्होंने कहा था– When a daughter gets married and leaves the house of the father to reside with her husband , She ceases to be a member of the family of father . After marriage when she goes to the house of the parents , legally she is only a guest in the house ! ( Eye –The Sunday Express Magazine - March 4 ,2012 Pg no. 20 ). ‘‘ जब एक बेटी शादी के बाद अपने पिता का घर छोड़कर पति के साथ रहने के लिये जाती है तो वह अपने पिता के परिवार का सदस्य नहीं रह जाती ! शादी के बाद जब वह अपने पिता के घर जाती है तो कानूनी तौर पर वह उस घर में एक मेहमान की हैसियत ही रखती है ! ’’

आज के समय के एक शिक्षित न्यायाधीश का यह बयान पितृसत्तात्मक समाज के ओने कोने मजबूत करता है, पुरुषों के हाथ में बेटी की मिल्कियत थमाता है और कन्या भ्रूण हत्या के कारणों की ओर संकेत करता है जहां बेटी को आज भी ‘पराया धन’ मान कर बेटी के जन्म का स्वागत नहीं किया जाता.

रास्ता कहां है ?

अगर मध्यवर्गीय तबका अपनी बेटियों को जीवन के कई मोड़ों पर चुप्पी के संस्कारों को तोड़कर ज़बान खोलने और अपनी तकलीफ को साझा करने का रास्ता सुझायें तो ऐसी त्रासदियों को रोका जा सकता है !

• हर शिक्षित और आत्मनिर्भर लड़की को यातना के चरम पर भी यह संदेश जाना चाहिये कि हर जटिल स्थिति का विकल्प है और जीने की आशा मद्धिम नहीं हुई है. यह हर महिला की ज़िम्मेदारी है.

• इस संदेश को पहुंचाने की पहली ज़िम्मेदारी अभिभावकों की है. एक बेहद स्पष्ट और मुखर संदेश बेटियों तक संप्रेषित होना चाहिये कि शादी के साथ नये माहौल में जाते ही माता पिता से उसके संबंध बदल नहीं जाते. हो सकता है नया माहौल बहुत सहयोगी न हो इसलिये यह संदेश रेखांकित होना चाहिये कि अगर शादी के बाद तुम्हें विपरीत स्थितियों का सामना करना पड़े या अपमानित होना पड़े तो तुम अकेली नहीं हो इसलिये कभी चुप रहकर अपने भीतर मत घुटना.

• दूसरी ज़िम्मेदारी शैक्षणिक संस्थाओं और मीडिया की है. शिक्षा लड़कियों को भावनात्मक संबल नहीं देती, न जीने की कला सिखाती है, यह सिर्फ पैसा कमाने का सामथ्र्य पैदा करती है. लड़कियों का भावनात्मक रूप से भी आत्मनिर्भर होना बहुत ज़रूरी है.

• सभी स्कूल और कॉलेजों में एक स्थायी प्रशिक्षित सलाहकार नियुक्त किया जाना चाहिये, जो भारतीय समाज की पुरुषवादी मानसिकता और जीवन की व्यावहारिक जटिलताओं से भी छात्र का परिचय करवाये और उन्हें अपने जीवन साथी को उसका अपेक्षित सम्मान देना सिखाये.

• हमारी धार्मिक पुस्तकें और वैवाहिक मंत्र जिस तरह एक पक्ष के हर स्थिति को स्वीकार करने और तालमेल बिठाने पर जोर देते हैं, उसे उभयपक्षी किया जाये.

• शादी तय होते ही लड़कियां सुनहरे सपने देखने लगती हैं. इन सपनों के साथ उन्हें यह भी मालूम हो कि शादी सिर्फ़ फूलों की सेज नहीं है. शादी दो अलग अलग माहौल से आये व्यक्तियों का जुड़ाव है जिसे बहुत समझदारी के साथ दोनों को ही तालमेल बनाकर चलना है. इसे निभाना ज़रूरी है पर अपनी ज़िन्दगी की कीमत पर नहीं. सामाजिक प्रतिष्ठा, परम्परा और संस्कारों के नाम पर ज़रूरी नहीं कि अकेली या तलाकशुदा होने के डर से एक शिक्षित लड़की अपनी ज़िन्दगी को ही दांव पर लगा दे. उसे अपनी शर्तों पर अपने आत्मसम्मान को बचाते हुए जीना है.

• लड़कियों को यह समझना है कि उनका जीवन बेशकीमती है और अगर शादी ठीक नहीं चलती तो दुनिया वहीं खत्म नहीं हो जाती. हादसे और आघात ही हमें मज़बूत बनाते हैं. एक दरवाज़ा बंद होने से ज़िन्दगी रुकी नहीं रह जाती. रास्ते और मंज़िलें और भी हैं.

• हम अपनी चुप्पी के संस्कारों को तोड़ें तो ज़रूर कुछ नया गढ़ पायेंगे - अपने लिये और अपने समाज के लिये ! लेकिन सबसे ज़रूरी है बेटियों के लिये एक दरवाज़े का खुला होना !

इन्हीं स्थितियों ने मुझसे ये पंक्तियां लिखवा लीं –

    कम से कम एक दरवाज़ा
    चाहे नक्काशीदार एंटीक दरवाजा हो
    या लकड़ी के चिरे हुए फट्टों से बना
    उस पर ख़ूबसूरत हैंडल जड़ा हो
    या लोहे का कुंडा !

    वह दरवाज़ा ऐसे घर का हो
    जहाँ माँ बाप की रजामंदी के बगैर
    अपने प्रेमी के साथ भागी हुई बेटी से
    माता पिता कह सकें  --
      '' जानते हैं , तुमने गलत फैसला  लिया
      फिर भी हमारी यही दुआ है
      खुश रहो उसके साथ
      जिसे तुमने वरा है !
      यह मत भूलना
      कभी यह फैसला भारी पड़े
      और पाँव लौटने को मुड़ें
      तो यह दरवाज़ा खुला है तुम्हारे लिए ! ''

    बेटियों को जब सारी दिशाएं
    बंद नज़र आएं
    कम से कम एक दरवाज़ा
    हमेशा खुला रहे उनके लिए !
(आजकल: मार्च २०१२ )
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