आत्महत्या और ज़िंदा लोग
आशिमा
हम ये सब बेशर्म आंखों से बर्दाश्त किये जा रहे हैं, और एक दिन जब इन्हीं में से किसी के आत्महत्या करने की खबर आती है, तो मायके ससुराल वाले, घरवाले बाहरवाले, माता पिता, पति पत्नी, दोस्त, रिश्तेदार सब अफसोस के लिए आगे आ जाते हैं।
आधे तो हम उसी वक़्त मर चुके होते हैं, जिस वक़्त हमारे दिल में आत्महत्या करने का ख़्याल आता है। फर्क इस बात से पड़ता है की वो आधा हमारे आस पास और किस-किस को नज़र आता है, कौन हमारे उस आधे मरे को दोबारा ज़िंदा करने की हर मुमकिन कोशिश करता है, और कौन आधे ज़िंदा को ज़िंदा रखने की कोशिश। हम सभी का साबका ऐसे अधमरों से कई बार पड़ता है, हम खुद भी कई बार उनमें शामिल होते हैं, और अपने उस आधे ज़िंदा को आधे मरे पर हावी करने की कोशिश करते हैं, ताकि ज़िंदगी के कुछ और दिन कट जाएं, जिनको हमारे ज़िंदा रहने से तसल्ली है उन्हें चलते फिरते नज़र आते रहें, लेकिन कई बार किसी-किसी का ये आधा-ज़िंदा, आधे मरे से जीत नहीं पाता, और एक दिन हम पूरा... कभी-कभी यह भी लगता है, कि जब हम किसी ऐसे आधे मरे से वाकिफ होते हैं तो हम कहां से उसके पूरा मर जाने पर अफ़सोस करने का हक़ पा लेते हैं यदि न वाकिफ हों तो अलग बात है। हमारे देश में कई तरह के अवसाद और मानसिक प्रताड़नाओं की सामाजिक स्वीकृति होती है। जैसे एक औरत त्याग की मूरत है, ससुराल में चाहे कितना भी अनचाहा बर्ताव हो, पति चाहे जैसा भी हो उसे बर्दाश्त करना होगा, क्योंकि यही तो उसका फर्ज़ है। औरत ऐसी ही तमाम प्रताड़नाएं तो झेलने के लिए ही बनी हैं, और वे तमाम प्रताड़नाएं हमारे दैनिक जीवन के किरदारों के हिसाब से बनी हैं।
सबसे पहले तो हमें यह समझना होगा कि रोना कमज़ोरी की निशानी नहीं है बल्कि अपने जज़्बातों के प्रति ईमानदारी की निशानी है, जिसे हम अपने आंसुओं के रूप में बाहर लाते हैं।
वैसे तो ये समस्या पूरी दुनिया की ही है लेकिन हमारे देश में तो यदि किसी को भूले-भटके सलाह भी दी जाय कि आप की हालत ठीक नहीं है आप किसी Psychologist से मिलें, तो कोई दो राय नहीं कि पहली प्रतिक्रिया यही आती है कि ‘ये कोई पागल थोड़े ही है’। मायके वाले कैसे ये स्वीकार कर लें कि उनकी बेटी डिप्रेशन का शिकार है, और उसे साइकोलोजिस्ट की ज़रूरत है, क्योंकि अगर ससुराल वालों को पता चला तो उसे स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि उसपर पागल होने का इल्जाम लगा देंगे, इसलिए उसे ससुराल की हर तकलीफ सहनी चाहिए यही उसके संस्कार होंगे।
फिटनेस फ्रीक आशिमा आईआईएमसी से पढाई करने के बाद, महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर स्वतन्त्र लेखन करती हैं। आशिमा नियमित रूप से दैनिक जागरण, नवभारत टाइम्स, जनसत्ता आदि अखबारों के लिए लिखती हैं।
ईमेल : blossomashima@gmail.com
जिस तरह से मौसम या माहौल खराब होने पर हमारा शरीर बर्दाश्त नहीं कर पाता और हम बीमार हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार हमारे दिमाग के साथ भी है, यदि कोई बात हमारे दिमाग की बर्दाश्त से बाहर हो जाएगी, तो हमारा दिमाग भी बीमार होगा, जिसको इलाज भी होगा, लेकिन नहीं हम पागल थोड़े ही न किसी को कहेंगे।
तो क्यों न अब इस बात पर चर्चा की जाए, कि आखिरी बार कब ससुराल से मायके आई बेटी को माता-पिता ने घर से यह कहकर रुख़सत कर दिया था कि वही तुम्हारा घर है, और सहनशीलता के नाम पर घुटने टेक देने के पाठ पढ़ाकर वापस भेज दिया हो, खैर ऐसी लड़कियों को तो आत्महत्या भी बदनामी का दाग होता है। या फिर कोई बच्चा जो शाम को बाहर खेलने जाना चाहता है लेकिन पड़ोस के बच्चे से ज़्यादा नंबर लाने के दबाव में अब तक पढ़ रहा है। एक लड़का जिसने न जाने कितना दर्द अपने दिल में दबा रखा है, जो कि आंसुओं के जरिये बाहर आने को आतुर है, ज़रूरत है तो बस एक कंधे की, एक दर्द बांटने वाले इंसान-रूपी फरिश्ते की। लेकिन नहीं, हम ये सब बेशर्म आंखों से बर्दाश्त किये जा रहे हैं, और एक दिन जब इन्हीं में से किसी के आत्महत्या करने की खबर आती है, तो मायके ससुराल वाले, घरवाले बाहरवाले, माता पिता, पति पत्नी, दोस्त, रिश्तेदार सब अफसोस के लिए आगे आ जाते हैं। क्या वाकई उन सभी के ऐसे अंजामों का हमें अंदाज़ा नहीं होता? सबसे दुखदायी होता है यह सुनना कि वह ऐसा करने वालों में से तो नहीं था या थी। फिर तो उसके दर्द का अंदाजा और भी सहज लगाया जा सकता है, क्योंकि वह जाने वाला इस हद तक मजबूर था कि उसने वह कर डाला जो वह कभी नहीं कर सकता था।
इस पूरे चक्के में इंसानियत के पाठ कहां हैं? क्या अब भी हमें समझ नहीं आया कि यह आधा-मरा और आधा-ज़िंदा क्या है? और हम ऐसे कितने लोगों को जानते हैं?
... जनाब असलियत तो ये है, कि हम सब शायद एक दूसरे का आधा-मरा नज़र अंदाज करते हैं। तो क्यों नहीं कम से कम अब से हम एक दूसरे का आधा-ज़िंदा बचाने की कोशिश करें, ज़िंदगी चाहे जैसे भी दिन दिखाए हम उससे आगे निकलते जाएं, एक दूसरे का आधा-ज़िंदा बचाएं, ऐसे तमाम सामाजिक यूनिवर्सल ट्रुथ को नकार दें जो खुलकर जीने की इजाजत नहीं देता। दुनिया का कोई भी रिश्ता या फर्ज़ अदायगी ज़िंदगी से बढ़कर नहीं है। ताकि मुस्कुराते चेहरे सिर्फ तस्वीरों में ही कैद होकर न रह जाएं। यकीन मानिये मुस्कुराते चेहरे तस्वीरों में नहीं बल्कि अपने आस-पास ज़्यादा अच्छे लगते हैं... एक की खुदकुशी बाकी कई ज़िंदा लोगों पर भारी है। और यह भी मानना पड़ेगा, कि खुदकुशी से दुख या समस्या सुलझती नहीं मात्र कुछ जिंदा लोगों पर टल जाती है।
यकीन इस बात का भी मानिये ऐसे ही कहा जाने लगे, तो आत्महत्या हम में से कोई नहीं कर सकता, और सभी कर सकते हैं। क्योंकि कोई है जो किसी कारण से आत्महत्या कर चुका और कोई और भी है जो उन्ही कारणों के साथ ज़िंदा है, तो दोनों स्थितियों को कंपेयर करने के बजाय उनके कारणों और आस-पास के लोगों की भूमिकाओं पर चर्चा हो और उनके समाधान पर चर्चा हो तो सही होगा, क्योंकि किसी का मात्र ज़िंदा नज़र आते रहना ही जीवन नहीं है।
हंसमुख चेहरों को तस्वीरों में देख कर उनके ज़िंदा न होने का यकीन करना बहुत दुखदाई है, चाहे आप उन्हें अच्छी तरह से जानते हो या नहीं।
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