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किस्सागोई का अनोखा वितान - मनीषा जैन | Ganv Bhitar Ganv's Review by Manisha Jain


किस्सागोई का अनोखा वितान ('गाँव भीतर गाँव ' सत्यनारायण पटेल)

मनीषा जैन

किस्सागोई का अनोखा वितान - मनीषा जैन गाँव भीतर गांव सत्यनारायण पटेल

'गाँव भीतर गाँव' सत्यनारायण पटेल के पहले उपन्यास के सबसे पहले ही पन्ने पर लिखा है- 'यथार्थ की ज़मीन पर दमित-दलित छल-छद्म  प्रेम-ईर्ष्या आस्था-अनास्था और टूटते-बिखरते विश्वास के अद्भुत क़िस्से' मानो सजीव पात्र बेचैनी के काल कुण्ड में तैरते-डूबते और सिसकते ख़ुद सुना रहे हों अपनी व्यथा-कथा और जैसे-जैसे आप उपन्यास पढ़ते जायेंगे आप भी बैचेनी में धंसते जायेगे। गाँव की अनेक परतों के भीतर धंसते जायेंगे। फिर रास्ता भी नहीं सूझेगा बिलकुल अभिमन्यु के चक्रव्यूह में फंसने की तरह या झब्बू को गाँव के शोषण में धंसने की तरह।

एक लेखक अपने इर्द-गिर्द समाज, देश के परिवेश में जो देखता सुनता है उसी से संवेदित हो कर अपनी अपनी रचनाओं का ताना-बाना बुनता है तभी राल्फ फॉक्स ने उपन्यास को मानव जीवन का महाकाव्य कहा। सो ही यह उपन्यास झब्बू व अन्य पात्रों के जीवन का महाकाव्य है। मृत्यु से शुरू हुआ यह उपन्यास मृत्यु पर ही समाप्त होता है यानि मृत्यु ही शाश्वत सत्य प्रतीत होती है और मृत्यु ही बहुत सारे प्रश्न भी खड़े करती है। और उपन्यास की नायिका झब्बू इसी शोषण के चक्रव्यूह से निकलने के बजाए इसमें धंसती जाती है तथा गाँव की सरपंची व्यवस्था की गुलेल का शिकार भी होती है। कहते हैं कि स्त्री विमर्श सिर्फ स्त्री ही लिख सकती है लेकिन उपन्यास एक पुरूष लेखक द्वारा नारी के जीवन के एक एक महीन रेशे का व्यापक चित्रण किया है। पति की मृत्यु के दुख से दुखी झब्बू शोषण का शिकार होकर जान से हाथ धो बैठती है। और झब्बू की मृत्यु बहुत सारे प्रश्न उठाती है क्या यही नारी की नियति है ? क्या जो स्त्री चाहे वह प्राप्त नहीं कर सकती? क्योंकि हमारा समाज पुरूष प्रधान है।

उपन्यास शुरू होते ही झब्बू के दुख शुरू हो जाते हैं कैसे पार करें! जिन्दगी एक काला समुन्द्र। टूटी नाव छितर बितर। चप्पू भी छिन गया ज़ोर-जबर। तू बड़ा निर्दयी ईश्वर। कैसे जिए कोई प्राण बगैर। झब्बू के पति की मृत्यु हुई है वह जिए तो किसके सहारे। दुख इतना गहन है मानो झब्बू के दुख में पंछी भी शामिल हैं-‘नीम नीचे चालीस पचास लोग जमा थे। नीम की डागलों पर मोर होला  कबूतर चिकी आदि पक्षी बैठे थे। सभी शांत! चुप! गिलहरी भी एक कोचर में से टुकर टुकर देखती रही’’ झब्बू के दुख का पारावार नहीं है। लेखक ने मृत्यु का ऐसा चित्रण किया है कि किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की आंखे छलछला आए वे लिखते हैं-  कैलास को ले जाया जा रहा। उसके पीछे नीम  मोर  कबूतर  चिकी गिलहरी, झोंपड़ा, झब्बू, रोशनी, गाँव और सब कुछ छूटता जा रहा’’ मानो लेखक कहना चाहता है कि सिर्फ मृत्यु ही सत्य है। एक मौत से साथ कितनों की मौत होती है कोई नहीं जानता। और किसी झब्बू जैसी स्त्री के पति की मौत तो और भी भयानक होती है क्यों कि एक तो स्त्री जात दूसरी गरीब व तीसरी दलित जाति। झब्बू तीन तरफा दुख से घिरी हुई है। लेखक लिखते हैं ‘‘कि गाँव भले ही इक्कीसवीं सदी के मुहाने पर खड़ा था लेकिन जात पात, छुआछूत अभी भी मुंशी प्रेमचद के जमाने की सी थी।’’ उपन्यास में लेखक ने झब्बू के माध्यम से दलित स्त्रियों के संपूर्ण जीवन का ताना बाना बुना है। तथा झब्बू के संघर्ष के माध्यम से 21 वीं सदी पर खड़े गाँव के सभी व्यक्तियों के आर्थिक, राजनैतिक तथा ग्लोबलाइजेशन का, गाँव पर असर, जाति प्रथा, छुआछूत तथा गांवों में फैलता भ्रष्टाचार, मूल्यहीनता को निर्ममता से उघाड़ा है।

'गाँव भीतर गाँव' शुरू से आखिर तक संबधों, संवेदना व संवेदनहीनता व शराब के प्रति आक्रोश, मैला ढ़ोने की पद्वति का विरोध, सरपंची व्यवस्था का भ्रष्टाचार, भूमाफिया का द्वन्द आदि अनेक विमर्शो का जीता जागता आख्यान है। इसमें वो सब है जिसका आज के संवेदनहीन समाज में बोलबाला है चाहे गांव ही क्यों न हो। इसमें शराब है, बलात्कार है, स्त्री उपेक्षा है, स्त्री को दबाने के सरपंची षड़यत्र है जो कि आज गांव गांव का सच है। शहरों में रहते हुए पता नहीं चलता गांवों के भीतर क्या क्या भ्रष्टाचार, राजनीति, षड़यंत्र पनप रहें हैं। यों तो प्रेमचंद ने गांवों का सर्वस्व ही अपने उपन्यासों में उतारा लेकिन इस उपन्यास का कथानक समकालीन यथार्थबोध से भरपूर है। यह उपन्यास मालवा की धरती के किसी एक गांव का आख्यान भर नहीं है बल्कि भारत के लगभग सभी गांवो का आख्यान है। उपन्यास के सारे चित्र स्वाभाविक, प्राकृतिक व यथार्थ के हैं जिनसे पाठक दो चार होता है। पाठक को लगता है कि हमारे आसपास ही तो घट रहें हैं ये दृश्य।

उपन्यास में गाँव की स्त्रियों के घर व बाहर का संघर्ष चरम पर है चाहे उनका शराब की दुकान का हटाना हो या मैला ढ़ोने की प्रथा का अंत हो, राजनीति में दख़ल हो, एन जी ओ का गाँव में पर्दापण हो, सिलाई का काम कर घर चलाना, बलात्कार, पुलिस की बरबरता का कहर आदि। इन सभी स्थितियों का बारीक चित्रण बहुत पठनीय है। गाँव से शराब की दुकान हटवाने से तिलमिलाया हुआ गाँव के जमींदार का चित्रण लेखक ने कुछ इस प्रकार किया-‘‘झब्बू ने सिर्फ कलाली नहीं हटवायी, बल्कि जैसे नाक पर मुक्का भी जड़ा हो, और जैसे जाम सिंह के भीतर मुक्के का दर्द दौड़ रहा हो। सीने में बारूद सुलगने लगी। लेकिन फिर भी जाम सिंह चुप खड़ा रहा, और हम्माल मेटाडोर में कलाली का सामान भरने लगे। बबूल पर बैठे पक्षी चहचाहने लगे। सूरज सुनहरी मुस्कान बिखेरने लगा।’’ उपन्यास में जाति प्रथा का दंश को गहरे से व्यक्त किया गया है। जिस तरह गांधी जी ने विदेशी कपड़ो की होली जलवाई थी इसी तरह लेखक ने परम्परागत कुप्रथा मैला ढ़ोने के साजो समान की होली जलवा कर दलित स्त्रियों को सशक्त बनाने की राह दिखाई। और ये भी कि गांवों में आज भी सवर्णो का शोषण किसी न किसी रूप में आज भी जारी है।

उपन्यास में झब्बू पति की मृत्यु के बाद ज्यादा मजबूत बन संघर्ष का सामना करती है वह सब दलित स्त्रियों की अगुवा बनती है और सिलाई का काम कर अपना व अपनी बेटी का पेट पालती है और धीरे-धीरे गाँव की सभी दलित औरतें उसके पास सलाह मशविरे के लिए आने लगती हैं। और अब झब्बू सरपंच का चुनाव लड़ कर सरपंच बन जाती है और अपनी बेटी को पढ़ने भाई के पास शहर भेज देती है। लेखक ने गाँव के भीतर चलने वाली राजनैतिक षड़यंत्र गहराई व सच्चाई से व्यक्त किये हैं ऐसे षड़यंत्र जिसे गाँव से बाहर बैठा व्यक्ति सोच भी नहीं सकता। झब्बू के सरपंच बनने से गाँव के ठाकुर तिलमिला जाते है और फिर झब्बू को बलात्कार की यातना से गुजरना पड़ता है। लेकिन झब्बू बलात्कार के बाद मानसिक यातना से गुजरने के बाद जब होश में आती है तो और जोर से चीखती है और रिर्पोट लिखने जाती है उसके शब्दों में-‘‘उन्होंने तो मेरे शरीर पर जुल्म किया है....। लेकिन मैं उनकी छाती पे मूंग दलूंगी....। अब मेरे पास बचा ही क्या है जो लूटेंगे....छीनेंगे....मुझे जिसका भय हो....डर हो.....कुछ भी तो नहीं ऐसा.....।’’ स्त्री का इस तरह सशक्त होना समाज की अन्य स्त्रियों को हिम्मत व आशा देता हैं तथा झब्बू का स्वयं आर्थिक स्वाबलम्बी बनना व अत्याचार का विरोध करना स्त्री सशक्तिकरण के पक्ष को उजागर करता है। इस तरह स्त्रियों के शोषण के कारनामों के अनेक विमर्शों के साथ साथ गाँव के जमींदारों द्वारा भूमि अधिग्रहण, भू माफिया का ताडंव, मीड डे मील की धांधलियां, फर्जीवाड़े, गाँव के पुरूषों की अमानवीयता भरे विवरण उपन्यास को समकालीनता के पायदान पर ला कर खड़ा करते हैं।
उपन्यासः गाँव भीतर गाँव
पेपरबेक संस्करण मूल्यः २००/-
पृष्ठ संख्याः ३२०
प्रकाशकः आधार प्रकाशन
पंचकूला, हरियाणा

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने निबंध ‘उपन्यास’ में कहा- ‘‘कि मानव जीवन के अनेक रूपों का परिचय कराना उपन्यास का काम है। यह उन सूक्ष्म से सूक्ष्म घटनाओं को प्रत्यक्ष करने का प्रयत्न करता है जिनसे मनुष्य का जीवन बनता है और जो इतिहास आदि की पहुंच से बाहर है’’ इसी तरह इस उपन्यास में स्त्रियों व गाँव की छोटी छोटी यथार्थ घटनाएं जिनका संबध गाँव के लोगों व जीवन से है वे विस्तार से है। स्त्रियों के जीवन की विडम्बनाओं को उपन्यासकार ने पूरे उपन्यास के केन्द्र में रखा है। उपन्यास में बार-बार दलित औरतों के शोषण का विरोध औरते स्वयं करती हैं। झब्बू के संघर्ष के साथ साथ लेखक ने समाज के सभी क्षेत्रों में व्याप्त शोषण, भ्रष्टाचार, अमानवीयता, पितृसत्तात्मक राजनीति, पुरूषसत्ता का सर्वोपरि होना व जाति भेद को खोल कर रख दिया है। निम्न वर्ग के लोगों के रोजाना के संघर्षों का चित्रण व दलितो के दलित जीवन का सर्वस्व उपन्यास में चित्रित है। हद तो जब हो जाती है जब गाँव में टेंट की दुकान खुलने पर टेंटवाला दलित स्त्रियों को टेंट देने से मना कर देता है क्योंकि फिर वे वाले टेंट पटेल, ठाकुर व ब्राहाम्ण इस्तेमाल करने से मना कर देंगे। इस तरह का छुआछूत, जातिदंश पूरे उपन्यास में व्याप्त है जो कि आज भी यथार्थ है। कैसी विडंबना है कि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में जाति वर्गीकरण कभी समाप्त नहीं किया जा सकता। इसी कारण गाँव में दो बारातों में जाति के नाम पर जम कर मारकाट होती है। इस तरह के माहौल में सांप्रदायिकता की आंच में हाथ सेंकने वाले दंगा भड़काते हैं और गाँव व शहरों में आतंक मचाते हैं। लेखक ने कई स्थानों पर पुलिस के नाक़ाब उतारे हैं किस तरह पैसा ले देकर मामलों को रफा दफा किया जाता है। पुलिस के बर्बर अत्याचार की चरम सीमा के साथ गाँव में व्याप्त राजनीति, दलित समाज की त्रासद जिन्दगी, जमींदारों के अत्याचार पूरी बर्बरता के साथ व यथार्थ का चेहरा बहुत ही साफ साफ दिखाई पड़ता है। इस तरह की तंत्रव्यवस्था व भ्रष्टाचार देश को कहां लेकर जा रहे हैं ? इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।

असल में उपन्यास में देश के असली दुश्मन तो पूंजीवादी व्यवस्था, भ्रष्टाचार व धौंस की राजनीति, सरपंची कुव्यवस्था, वर्गीय भेदभाव को बताया है और उपन्यासकार ने इस सब का चेहरा बड़ा साफ साफ चित्रित किया है। देश का हर नागरिक भूख, गरीबी, मंहगाई, भ्रष्टाचार से लड़ रहा है। सीमा पर दुश्मन नहीं दुश्मन तो देश के भीतर ही गहरी पैठ बनाए हुए है और सत्ताधारी गिद्ध सब कुछ लील लेने को बैठे हैं। उपन्यास की सारी घटनाएं सत्य प्रतीत होती हैं। ऐसा लगता है कि सारी घटनाएं रोज कहीं न कहीं घट रहीं हैं इतना अंधेरा व्याप्त है कि आदमी की जान की कोई कीमत नहीं मानों-‘‘भ्रष्टाचार लाखों छोटे-बड़े मुंह वाला एक जीव है, झब्बू ने कहा, और आगे सोचते हुए बोली- और इसका पेट भी बहुत गहरा है। सरपंच से लेकर ठेठ ग्रामीण विकास मंत्रालय तक’’ मानो एक भ्रष्टाचारी सरकार जाती है दूसरी आ जाती है। उपन्यास में तानाशाही पुरूष मानस्किता सभी पात्रों पर हाबी है। वह सरपंच बनी स्त्री को भी अपनी अंगुली पर नचाता है और पुरूष स्त्री की रीढ़ पर बलात्कार रूपी ऐसा वार करता है कि वह उठ भी न सके। लेकिन झब्बू फिर फिर उठती है व संघर्ष करती है। और फिर झब्बू सारे राजनैतिक दावपेंच सीख जाती है। लेकिन ये राजनीति क्या क्या न करवा दें। राजनीति के कुचक्र में फंसी झब्बू को निबटवा दिया जाता है। अतः राजनीति में फंसी स्त्री का उपयोग व उपभोग सत्ता किस तरह करना चाहती है इस कुचक्र को लेखक साफ तरीके से दिखाने में सफल हुए हैं। और समाज में आर्थिक आधार ही सब क्रियाकलापों की जड़ में है लेखक सफेद को सफेद व काले को काला दिखाने में सफल हुए है। विश्व का हमारे गांवों पर क्या व कितना असर हो रहा है यह विभिन्न घटनाचक्रो से दिखाई पड़ता है। साथ ही साथ भूमाफिया का तांडव का  जिक्र लेखक की भविष्य दृष्टि का परिचय देता है कि किस तरह देश में भूमाफिया का बोलबाला है और सरकार चुप है। आज देश में साम्राज्यवाद हाबी है। जिस साम्राज्य को हमने उखाड़ फेंका था वह आज फिर पांव पसार रहा है।

उपन्यास में झब्बू की बेटी रोशनी अखबार के लिए जो आलेख लिखती है वह मानों पूरे उपन्यास का निचोड़ है। और वह लेख ब्लाग पर लगाते ही रोशनी के कमरे पर पुलिस आती है और उसे गिरफतार करके ले जाती हैै माने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी कब्जा। और गाँव की सत्ता व्यवस्था किस तरह पुलिस में मिलकर घोर षड़यंत्र करती है परिणाम स्वरूप पुलिस के अत्याचारों से सहमी रोशनी जेल में है और झब्बू की गाड़ी को टक्कर मार कर झब्बू का दुखद अंत होता है। इस तरह उपन्यास में एक जीता जागता यथार्थ सांस लेता है। जिससे हम हर समय दो चार होते रहते हैं।
मनीषा जैन
165 ए, वेस्टर्न एवेन्यू,
सैनिक फार्म
नई दिल्ली-110080
22manishajain@gmail.com
उपन्यासकार की किस्सागो शैली एक नया वितान रचती है जिससे रोचकता बढ़ती है तथा उपन्यास में छोटे छोटे वाक्य व पक्षी व गिलहरी का मानवीय दुख में भावाभिव्यक्ति शामिल करने से संप्रेषणीयता को बढ़ावा मिला है जो कि एक अनुपम चित्रण है। उपन्यास पढ़ने के बाद पाठक के भीतर एक खलबली सी मच जाती है कि हम गाँव व शहर के कैसे असंवेदनशील समाज में जी रहे हैं। इस तरह के मालवी संस्कृति के आंचलिक उपन्यास की तुलना नागार्जुन के बलचनामा व रेणु के मैला आंचल से बाखूबी की जा सकती है।

जिस तरह निराला जी ने कहा कि ‘‘गद्य जीवन संग्राम की भाषा है’’ उसी तरह यह उपन्यास एक आम मनुष्य के जीवन संग्राम का आख्यान है। इस तरह के उपन्यास बुनने के लिए एक विहंगम जीवन दृष्टि की जरूरत होती है निःसंदेह उपन्यासकार इस कसौटी पर खरे उतरे हैं। कुछ मालवी शब्दों का प्रयोग उत्तर भारत के पाठको को थोड़ा सा मुश्किल में डाल सकता है। लेकिन इस उपन्यास के आईने में भारत की वर्तमान व भविष्य की तस्वीर साफ साफ देख सकते हैं।


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