अपमान – अपराध – प्रार्थना - चुप्पी...
रानियों के पास सारे सच थे पर जुबां बंद। पलकें भीगीं। सांसें भारी। मन बेदम। रानियों की कहानी किसी दिन एक किस्सागो ने सुनी तो सोचा –उनकी बात जितनी कह सकूं, कह लूं।
वैसे भी इस देश की कागजी इमारतों में न्याय भले ही दुबक कर बैठता हो लेकिन दैविक न्याय तो अपना दायरा पूरा करता ही है। राजा भूल जाते हैं – जब भी कोई विनाश आता है, उसकी तह में होती है – किसी रानी की आह!
इसलिए दुआ कि रानियां बची रहें। साथ ही बचा रहे – उनके मन में बिखरा गुलाल और लहंगे पर छितराए मोरपंख। कम से कम उम्मीदों की पालकी को सजाए रखे रहने पर तो राजा बंदिश नहीं लगा सकते न।
रानियों की तरफ से
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रानियां सब जानती हैं
उनकी आंखों में सपने तैरते ही नहीं
वे भारी पलकों से रियासतें देखती हैं
सत्ताओं के खेल
राजा की चौसर
वे इंतजार करती हैं
अपने चीर हरण का
या फिर आहुति देने का
वे जानती हैं
दीवार के उस पार से होने वाला हमला
तबाह करेगा सबसे पहले
उनकी ही दुनिया
पर वे यह भी जानती हैं
गुलाब जल से चमकती काया
मालिशें
खुशबुएं
ये सब चक्रव्यूह हैं
वे जानती हैं
पत्थर की इन दीवारों में कोई रोशनदान नहीं
और पायल की आवाज में इतना जोर नहीं
चीखें यहीं दबेंगी
आंसू यहीं चिपकेंगे
मकबरे यहीं बनेंगे
तारीखें यहीं बदलेंगी
पर उनकी किस्मत नहीं
रानियां बुदबुदाती हैं
गर्म दिनों में सर्द आहें भरती हैं
सुराही सी दिखकर
सूखी रहती हैं – अंदर, बहुत अंदर तक
राजा नहीं जानते
दर्द के हिचकोले लेती यही आहें
सियासतों को, तख्तों को,
मिट्टी में मिला देती हैं एक दिन
राजा सोचा करते हैं
दीवारें मजबूत होंगी
तो वे भी टिके रहेंगे
राजा को क्या पता
रानी में खुशी की छलक होगी
मन में इबादत और
हथेली में सच्चे प्रेम की मेहंदी
तभी टिकेगी सियासत
रानियां सब जानती हैं
पर चुप रहती हैं
आंखों के नीचे
गहरे काले धब्बे
भारी लहंगे से रिसता हुआ खून
थका दिल
रानी के साथ चलता है
तो समय का पहिया कंपकंपा जाता है
सियासतें कंपकंपा जाती हैं
तो राजा लगते हैं दहाड़ने
इस कंपन का स्रोत जानने की नर्माहट
राजा के पास कहां है
रानियां जो जानती हैं
वे राजा नहीं जानते
न बेटे
न दासियां
हरम के अंदर हरम
हरम के अंदर हरम
तालों में
सींखचों में
पहरे में
हवा तक बाहर ठहरती है
और सुख भी
रानियां जानती हैं
चाहे कितनी ही बार लिखे जाएं इतिहास
फटे हुए ये पन्ने उड़कर बाहर जा नहीं पाएंगें
रानियों के पास कलम नहीं है
सत्ता नहीं
राजपाट भी नहीं है
लेकिन उनके पास सच है
मगर अफ़सोस !
सच के संदूकों की चाबी भी
राजा के ही पास है
हां, रानियां ये भी जानती हैं
मानव अधिकारों की श्रद्धांजलि – सुनंदा पुष्कर के लिए
श्रद्धांजलियां सच नहीं होतीं हमेशा
जैसे जिंदगी नहीं होती पूरी सच
तस्वीर के साथ
समय तारीख उम्र पता
यह सरकारी सुबूत तो होते ही हैं
पर
यह कौन लिखे कि
मरने वाली
मरी
या
मारी गई
श्रद्धांजलि में फिर
श्रद्धा किसकी, कैसे, कहां
पूरा जीवन वृतांत
एक सजे-सजाए घेरे में?
यात्रा के फरेब
षड्यंत्र
पठार
सांपों की चाल
श्रद्धांजलि नहीं कहती
वो अखबार की नियमित घोषणा होती है
एक इश्तिहार
जिंदगी का एक बिंदु
अफसोस
श्रद्धांजलि जिसकी होती है
वो उसका लेखक नहीं होता
इसलिए श्रद्धांजलि कभी भी पूरी होती नहीं
सच, न तो जिंदगी होती है पूरी
न श्रद्धांजलि
बेहतर है
जीना बिना किसी उम्मीद के
और फिर मरना भी
परिभाषित करना खुद को जब भी समय हो
और शीशे में अपने अक्स को
खुद ही पोंछ लेना
किसी ऐतिहासिक रूमाल से
प्रूफ की गलतियों, हड़बड़ियों, आंदोलनों, राजनेताओं की घमाघम के बीच
बेहतर है
खुद ही लिख जाना
अपनी एक अदद श्रद्धांजलि ( 17 जनवरी, 2014 को )
मारी गई औरतें
मारी गई औरतों की कहानी तो इतिहास भी नहीं लिखता
इतिहास आंखें मूंदे रखता है
बड़े गुरूओं की ही तरह
उन तमाम सवालों पर
जो तीखे हो सकते हैं
इतिहास रेत पर पानी नहीं डालता
पानी पर रेत नहीं
मारी गई औऱतों की कहानी कहने का जोखिम
इतिहास नहीं उठाता
हिम्मत की कमी तो
वर्तमान में भी बनी रहती है हमेशा
वर्तमान तराजू लिए चलता है
और किस्से कहता है
राजनीति, दबाव और प्रभाव के बीच
मारी गई औरतें
हमेशा सस्ती और हलकी पड़ती हैं
भविष्य दूर खड़ा इन पन्नों को
चुपके से छिपा दिए जाने का साक्षी रहता है हमेशा
पर गवाही वह भी नहीं देता
अतीत, वर्तमान और भविष्य
मारी गई औरतों को लेकर
शब्दों के हेर-फेर, जोड़-तोड़ और हिसाब में माहिर रहे हैं
विधिवत सजाए गए इन सारे मंसूबों के बावजूद
मारी गई औरतों के गले शरीर
कभी भी
पूरी तरह खत्म नहीं होते
जिन आपदाओं को वजहों को खुरचने में
कानून थक जाता है
उनके सीने में
उन्हीं औरतों की कंपन होती है
जो मारी जाती हैं उनके हाथों
जिन्हें बचाने की जुगत में
सतत भिड़े रहते हैं –
अतीत, वर्तमान और भविष्य
रानियां सब जानती हैं
उनकी आंखों में सपने तैरते ही नहीं
वे भारी पलकों से रियासतें देखती हैं
सत्ताओं के खेल
राजा की चौसर
वे इंतजार करती हैं
अपने चीर हरण का
या फिर आहुति देने का
वे जानती हैं
दीवार के उस पार से होने वाला हमला
तबाह करेगा सबसे पहले
उनकी ही दुनिया
पर वे यह भी जानती हैं
गुलाब जल से चमकती काया
मालिशें
खुशबुएं
ये सब चक्रव्यूह हैं
वे जानती हैं
पत्थर की इन दीवारों में कोई रोशनदान नहीं
और पायल की आवाज में इतना जोर नहीं
चीखें यहीं दबेंगी
आंसू यहीं चिपकेंगे
मकबरे यहीं बनेंगे
तारीखें यहीं बदलेंगी
पर उनकी किस्मत नहीं
रानियां बुदबुदाती हैं
गर्म दिनों में सर्द आहें भरती हैं
सुराही सी दिखकर
सूखी रहती हैं – अंदर, बहुत अंदर तक
राजा नहीं जानते
दर्द के हिचकोले लेती यही आहें
सियासतों को, तख्तों को,
मिट्टी में मिला देती हैं एक दिन
राजा सोचा करते हैं
तो वे भी टिके रहेंगे
राजा को क्या पता
रानी में खुशी की छलक होगी
मन में इबादत और
हथेली में सच्चे प्रेम की मेहंदी
तभी टिकेगी सियासत
रानियां सब जानती हैं
पर चुप रहती हैं
आंखों के नीचे
गहरे काले धब्बे
भारी लहंगे से रिसता हुआ खून
थका दिल
रानी के साथ चलता है
तो समय का पहिया कंपकंपा जाता है
सियासतें कंपकंपा जाती हैं
तो राजा लगते हैं दहाड़ने
इस कंपन का स्रोत जानने की नर्माहट
राजा के पास कहां है
रानियां जो जानती हैं
वे राजा नहीं जानते
न बेटे
न दासियां
हरम के अंदर हरम
हरम के अंदर हरम
तालों में
सींखचों में
पहरे में
हवा तक बाहर ठहरती है
और सुख भी
रानियां जानती हैं
चाहे कितनी ही बार लिखे जाएं इतिहास
फटे हुए ये पन्ने उड़कर बाहर जा नहीं पाएंगें
रानियों के पास कलम नहीं है
सत्ता नहीं
राजपाट भी नहीं है
लेकिन उनके पास सच है
मगर अफ़सोस !
सच के संदूकों की चाबी भी
राजा के ही पास है
हां, रानियां ये भी जानती हैं
मानव अधिकारों की श्रद्धांजलि – सुनंदा पुष्कर के लिए
श्रद्धांजलियां सच नहीं होतीं हमेशा
जैसे जिंदगी नहीं होती पूरी सच
तस्वीर के साथ
समय तारीख उम्र पता
यह सरकारी सुबूत तो होते ही हैं
पर
यह कौन लिखे कि
मरने वाली
मरी
या
मारी गई
श्रद्धांजलि में फिर
श्रद्धा किसकी, कैसे, कहां
पूरा जीवन वृतांत
एक सजे-सजाए घेरे में?
यात्रा के फरेब
षड्यंत्र
पठार
सांपों की चाल
श्रद्धांजलि नहीं कहती
वो अखबार की नियमित घोषणा होती है
एक इश्तिहार
जिंदगी का एक बिंदु
अफसोस
श्रद्धांजलि जिसकी होती है
वो उसका लेखक नहीं होता
इसलिए श्रद्धांजलि कभी भी पूरी होती नहीं
सच, न तो जिंदगी होती है पूरी
न श्रद्धांजलि
बेहतर है
जीना बिना किसी उम्मीद के
और फिर मरना भी
परिभाषित करना खुद को जब भी समय हो
और शीशे में अपने अक्स को
खुद ही पोंछ लेना
किसी ऐतिहासिक रूमाल से
प्रूफ की गलतियों, हड़बड़ियों, आंदोलनों, राजनेताओं की घमाघम के बीच
बेहतर है
खुद ही लिख जाना
अपनी एक अदद श्रद्धांजलि ( 17 जनवरी, 2014 को )
मारी गई औरतें
मारी गई औरतों की कहानी तो इतिहास भी नहीं लिखता
इतिहास आंखें मूंदे रखता है
बड़े गुरूओं की ही तरह
उन तमाम सवालों पर
जो तीखे हो सकते हैं
इतिहास रेत पर पानी नहीं डालता
पानी पर रेत नहीं
मारी गई औऱतों की कहानी कहने का जोखिम
इतिहास नहीं उठाता
हिम्मत की कमी तो
वर्तमान में भी बनी रहती है हमेशा
वर्तमान तराजू लिए चलता है
और किस्से कहता है
राजनीति, दबाव और प्रभाव के बीच
मारी गई औरतें
हमेशा सस्ती और हलकी पड़ती हैं
भविष्य दूर खड़ा इन पन्नों को
चुपके से छिपा दिए जाने का साक्षी रहता है हमेशा
पर गवाही वह भी नहीं देता
अतीत, वर्तमान और भविष्य
मारी गई औरतों को लेकर
शब्दों के हेर-फेर, जोड़-तोड़ और हिसाब में माहिर रहे हैं
विधिवत सजाए गए इन सारे मंसूबों के बावजूद
मारी गई औरतों के गले शरीर
कभी भी
पूरी तरह खत्म नहीं होते
जिन आपदाओं को वजहों को खुरचने में
कानून थक जाता है
उनके सीने में
उन्हीं औरतों की कंपन होती है
जो मारी जाती हैं उनके हाथों
जिन्हें बचाने की जुगत में
सतत भिड़े रहते हैं –
अतीत, वर्तमान और भविष्य
कठपुतली
(एसिड अटैक से पीड़ित युवतियों के नाम )
सपनों के शहजादे की तलाश का अंत हो चुका है अब
तमाम चेहरे
नौटंकियां
मेले
हाट
तमाशे
मोहल्ले, पुलिस और कचहरियों
में बिकते झूठ
देखने के बाद
अपना चेहरा बहुत भला लगने लगा है
सुंदर न भी हो
पर मन में एक सुर्ख लाल बिंदी है अब भी
हवन का धुंआ
और स्लेट पर पहली बार उकेरा अपना नाम भी
सब सुंदर है
सत्य भी, शिव भी और अपना अंतस भी
खुद से प्यार करने का समय
शुरू होता है – अब!
औरत : बादलों के बीच एक औरत
हर औरत लिखती है कविता
हर औरत के पास होती है एक कविता
हर औरत होती है कविता
कविता लिखते-लिखते एक दिन खो जाती है औरत
और फिर सालों बाद बादलों के बीच से
झांकती है औरत
सच उसकी मुट्ठी में होता है
तुड़े-मुड़े कागज –सा
खुल जाए
तो कांप जाए सत्ता
पर औरत
ऐसा नहीं चाहती
औरत पढ़ नहीं पाती अपनी लिखी कविता
इसलिए बादलों के बीच से झांकती है औरत
बादलों में बादलों सी हो जाती है औरत
भरपाई
किस्मत में कोई छेद हो जाए
तो उसे तारों से भर देना चाहिए
सिल देना चाहिए सारे छेदों को
किसी संभावना के धागे से
अपराधों की छुअन से हुए छेद
बमुश्किल भरते हैं
छेद भरने से भी
अपराध की खराश तो बची ही रहेगी
पर इससे कम से कम
बेहतर दिनों की गुंजाइश तो बनी रहेगी