बात और बतंगड़ - सम्पादकीय जनसत्ता

    समाज विज्ञानी आशीष नंदी की एक टिप्पणी को लेकर जिस तरह का बावेला मचा, वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। यह विवाद दर्शाता है कि हमारे समाज में गंभीर बौद्धिक विमर्श की जगह किस तरह सिकुड़ती जा रही है। जयपुर साहित्य उत्सव में ‘विचारों का गणतंत्र’ विषय पर चल रही बहस में भ्रष्टाचार का भी मुद्दा उठा। इस चर्चा में हिस्सा लेते हुए नंदी ने कहा कि भ्रष्टाचार में शामिल बहुतेरे लोग दलित और पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखते हैं, यहां तक कि इसमें आदिवासी भागीदारी भी लगातार बढ़ रही है। उनकी इस टिप्पणी पर दलितों-पिछड़ों के कई नेताओं ने न सिर्फ उन्हें भला-बुरा कहा, उनकी गिरफ्तारी की भी मांग करने लगे। अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष भी इस रट में शामिल हो गए। किसी ने नंदी के खिलाफ अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत एफआइआर भी दर्ज करा दी। जिन नेताओं ने नंदी की निंदा में बयान दिए वे संगोष्ठी में मौजूद नहीं थे। न उन्होंने न गिरफ्तारी की मांग करने वाले दूसरे लोगों और संगठनों ने यह जानने की कोशिश की कि वास्तव में नंदी ने कहा क्या था। वे बात का बतंगड़ बनाने में जुट गए। क्या इसके पीछे अपनी जाति या समुदाय के लोगों को एक खास राजनीतिक संदेश देने या उनके बीच अपनी छवि चमकाने का मकसद काम कर रहा था? जो हो, किसी बात को उसके संदर्भ से काट कर देखने का नतीजा हमेशा खतरनाक होता है। 

    आशीष नंदी प्रगतिशील रुझान के अध्येता हैं और उनकी गिनती अंतरराष्ट्रीय ख्याति के विचारकों में होती है। वे हर तरह की संकीर्णता के खिलाफ लिखते रहे हैं, चाहे वह जाति और संप्रदाय की हो या राष्ट्रवाद की। वे समाज के वंचित वर्गों के प्रति कोई नकारात्मक नजरिया रखें, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिन लोगों ने नंदी की गिरफ्तारी की मांग उठाई, क्या वे अपने शुभचिंतकों और विरोधियों में फर्क करने की शक्ति खोते जा रहे हैं? संभव है कि एक प्रश्न के जवाब में आई नंदी की टिप्पणी को आंशिक तौर पर देखने से गलतफहमी पैदा हुई हो। इसलिए बाद में उन्होंने स्पष्टीकरण देकर अपनी बात साफ कर दी। उनका कहना है कि कानून के शिकंजे में आने वालों में दलित-पिछड़े लोगों की तादाद अधिक दिखती है, इसलिए कि वे ज्यादा चालाक नहीं होते और बचने की उतनी तरकीबें नहीं जानते। जबकि ऊंची जातियों और अभिजात वर्ग के लोग कहीं अधिक भ्रष्टाचार करते हैं, पर अक्सर वे इसे छिपाने में कामयाब हो जाते हैं। 

    अगर स्पष्टीकरण के साथ जोड़ कर नंदी के बयान को देखें तो उसमें समाज के प्रभुत्वशाली तबके की ही आलोचना है। कोई चाहे तो इस स्पष्टीकरण से भी असहमत हो सकता है। पर एक विचार से असहमति वैचारिक रूप में ही प्रकट होनी चाहिए। कुछ लोगों के साथ समस्या यह है कि वे वक्रोक्ति और व्यंजना को पकड़ नहीं पाते और गलत निष्कर्ष निकाल बैठते हैं। पर ऐसा हुआ भी, तो यह मामला पुलिस कार्रवाई का विषय कैसे बनता है? अदालतें जानती हैं कि कोई कानून किस तरह और किस पर लागू होता है। 

    इसलिए खतरा यह नहीं है कि नंदी के खिलाफ कोई अदालत अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत मुकदमा चलाएगी। बल्कि खतरा यह है कि अगर किसी कथन को आधे-अधूरे रूप में लिया जाएगा तो समाज में नासमझी और असहिष्णुता को ही फलने-फूलने का मौका मिलेगा।

साभार  जनसत्ता 29 जनवरी, 2013 की सम्पादकीय "बात और बतंगड़" से

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

सितारों के बीच टँका है एक घर – उमा शंकर चौधरी
 प्रेमचंद के फटे जूते — हरिशंकर परसाई Premchand ke phate joote hindi premchand ki kahani
मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
Harvard, Columbia, Yale, Stanford, Tufts and other US university student & alumni STATEMENT ON POLICE BRUTALITY ON UNIVERSITY CAMPUSES
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
Hindi Story: दादी माँ — शिवप्रसाद सिंह की कहानी | Dadi Maa By Shivprasad Singh
तू तौ वहां रह्यौ ऐ, कहानी सुनाय सकै जामिआ की — अशोक चक्रधर | #जामिया
चतुर्भुज स्थान की सबसे सुंदर और महंगी बाई आई है
मन्नू भंडारी की कहानी — 'रानी माँ का चबूतरा' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Rani Maa ka Chabutra'