प्राणेश नागरी
शिक्षा : प्रबंध तंत्र , शास्त्रीय संगीत एवं दर्शन शास्त्र
जन्म : श्रीनगर कश्मीर
निवास : बंगलूरु
समान्तर रेखाएं
बादलों के आलिंगन से फिसल
एक ठहरी हुई बूंद
होंठों पर आ कर रुक जाएगी,
किसी बिखरे अस्तित्व की परछाई
डूबती आँखों में खो जाएगी।
दिन जब डूब जाएगा तो किसी से कहना नहीं
आकाश ओढ़े शाम की मुंडेर पर
पूछ बैठेंगे वोह सब
हम सब क्यूं आये थे यहाँ
और जानते हो
कोई जवाब न होगा हमारे पास।
हम ने पूरी ज़िन्दगी
यहीं सुझाया होगा अपने आप को
कि धरती और आकाश मिलते हैं वहाँ
जहां तक हमारी नज़र जाती है,
भूल गए होंगे हम कि धरती और आकाश
दो समान्तर रेखाओं पर ठहरे हैं ,
जैसे हमारी दोनों आँखों के अलग अलग सपने
जिन का जोड़ दिन डूबने तक नहीं होता।
कराहती हुई भूख आँखों से उतर
दो पाटों के बीच पिसती रौशनी तक जाती है
शहर अँधेरे में डूब जाता है
एक अकेले कोने तक फिर नज़र जाती है,
ताकत जेब के किसी कोने में गुर्राती है
शाम और सुबह दो रेखाओं पर चलते हैं
समान्तर ,जो कहीं नहीं मिलते
जूठ है यह रौशनी का मंथन
जूठ है यह उजाले से संवाद,
शून्य में मोती नहीं जड़ते
और हमारे पास पूछे गए सवालों के
कोई जवाब नहीं होते।
मुझे बोन्साई अच्छे नहीं लगते
मैं तुम्हारी ख़ामोशी को गठरी बाँध
काँधे पर उठा लाया हूँ
मैं इस सफ़र को समय के सीने पर
सनद कर देना चाहता हूँ,
वोह देखो तुम्हारे और मेरे
बहस के अनगिनत मुद्दे
सब पीछे छूट गए हैं,
रह गई हैं कुछ घटनाएं
बौनी सी गमलों में उगी
बोन्साई जैसी ।
तुम्हारी आवाज़ दबी उँगलियों से बह कर
कोरे कागज़ पर फैल रही है
और आने वाला समय
इसे एक अनजान घटना नहीं
इतिहास का अछूता मोड़ मान लेगा
कहीं कोई हीर कोई राँझा जन्म लेगा
और भूख से परास्त चीथड़ों से लिपटे
काया के अवशेष विलाप करते रहेंगे
देव कद समय से हारे
गमलों में पड़े बोन्साई जैसे।
मेरी सोंच के सभी दायरों में
तुम भी एक बोन्साई की तरह उगे हो
सच तो यह है कि
मैं शब्दों से हार गया हूँ
इसीलिए कहता हूँ मैं बदल नहीं सकता
यह बातें बस हम तक ही रह जाती हैं
और यह सामान्य घटना से आगे
कुछ भी नहीं हो पाती,
और आने वाला समय
इसे सनद नहीं कर पाता।
हाँ मुझे बोन्साई अच्छे नहीं लगते
क्यूंकि शब्द बौने नहीं होते
शब्द होते हैं देव कद।
मैं जीत के हारता हूँ
मेरे साए जब टेढ़े मेढ़े हो जाते है
घबरा कर अंग अंग टटोलता हूँ मैं।
धूप की लकीर के उस पार
यादों की दीवार से टेक लगाये
तुम अक्सर मिलती हो मुझे
और कहती हो ,हाँ सोंच लिया मैंने
मौसमों से क्या डरना
चलो चलें सूखे पत्तों के बीच
खुद को एहसास दिलायें
कि अभी भी जी रहे हैं हम।
तुम्हारा पिघलता अस्तित्व देख
मैं मुस्कुरा देता हूँ
मेरी भुजाएं बांस की सही
आकाश से चाँद उतार तह लगा लेता हूँ
और फटे पुराने झोले में रख
तुम से कहता हूँ
मेरी भूख सदियों पुरानी है
और तुम्हारी मुस्कान नयी नवेली
अब जाते जाते ना मुस्कुराना
इस मिट्टी में किसी बीज के
अंकुरित होने की आशा नहीं मुझे
हाँ मैं जीतने से डरता हूँ
क्यूंकि अक्सर मैं जीत के हारता हूँ।
यात्रा
हर रात जब नर्म तकिये पर
अपना सर रख देता हूँ
तो महसूस करता हूँ मन की थकान
आँखें मूँद कर सोंचता हूँ
यह भी एक अनुष्ठान सम्पन्न हुआ।
अपने दाहिने से उठाता हूँ
यह काया का रहस्यमय धड़कता अंग
और रख देता हूँ अपने दूसरे तरफ,
यहीं बस मूल मन्त्र हो सकता है
नित नयी वासना को भोग लगाने का,
यहीं एक मात्र संकल्प हो सकता है
मनुष्य जैसा कुछ होने का।
उषा की पहली किरण के साथ
तोड़ता हूँ इच्छाएं अपने वक्षस्थल से
और पत्थरों को सोंपता हूँ
जैसे पूजा के पुष्प।
मुझे पांडित्य की लालसा नहीं
पर इच्छाएं अपना मौन न तोडें
इन्हें मंदिरों में चड़ा लेता हूँ
जानता हूँ मंदिरों से पुष्प
बस नदियों में विसर्जित होते हैं
उन से वृक्ष नहीं उगते।
निरंतरता की लालसा में
क्षण प्रतिक्षण नए से जीवित हो उठता हूँ
काया का नव निर्माण पुनः करता हूँ
सांसें ,धडकनें चलते रहना अनिवार्य है
क्यूंकि गतिशीलता ही एक मात्र मानक है
गतिहीनता को नापने का।
चेतनता ही जड़ता से
भिन्नता स्थापित करने में समर्थ है।
यह धर्मयुद जिसे प्रति दिन रचता हूँ
मेरी यात्रा के हर पड़ाव पर
मेरे साथ चलता है।
मुझे काटना, जलाना, मारना, संभव नहीं
मैं हूँ और बस मैं ही रहूँगा।'
विस्थापन
अब के न भूलना सूत्रधार
गोल परिदृश्य के अर्ध वृत्त से
भूमंच के सीमान्त तक,
मेरा वर्णित अस्तित्व
हर चरित्र के माथे पर अंकित है
हर संवाद मेरी हुंकार का शंखनाद है!
मेरी शिखा मात्र मेरा संकल्प नहीं
इसे मेरे वीरत्व की पताका समझ
महाकाल के त्रिशूल पर धरे हैं मेरे नेत्र
मेरी गाथा अंकित है
इतिहास है साक्षी मेरा
सहस्रों वर्ष से निर्वासन में हूँ मैं
फिर भी अंत नहीं हो पाया मेरा
मैं मिटता नहीं पुनः चला आता हूँ
और हे सूत्रधार मैं भूमंच के
गोल परिदृश्य के अर्ध वृत्त से
फिर हुंकार लगता हूँ
और ग्यारह से ग्यारह करोड़ हो
पांडित्य का ऋण चुकाता हूँ !
काशी चिंतन और चुड़ैल
बीते वर्ष की सर्दियों में बोधि प्रकाशन से प्राणेश नागरी का पहला कविता संग्रह "काशी चिंतन और चुड़ैल" प्रकशित हुआ. काशी चिंतन और चुड़ैल एक संग्रहणीय काव्यकृति है, इंसान और विधाता से प्रश्न पूछती रचनाये बार-बार पढने योग्य हैं .
![एक बेहतरीन पुस्तक - ज़रुर खरीदें kashi chintan aur chudail bodhi prakashan maya mrig pranesh nagri poetry book online shabdankan](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiaNehLZbG_TZOD9vegqrktRWxFxEdf_HHhW-rViz9B1I_Mzk9Vys1a96LhnwowzMqCR1T1AU2Xm2TtRvPfO3p-6-TkwEF9WxPTycA-cZo2npnQ_Y35SuXXV9OmHNcXnmOxfT5TcC9C91jp/s1600-rw/kashi_chintan_aur_chudail_bodhi_prakashan_maya_mrig_pranesh_nagri_poetry_book_online_shabdankan.jpg)
प्राणेश नागरी जी की इन नयी कविताओं को प्रकशित करने के अवसर पर, मैंने बोधि प्रकाशन के निर्देशक श्री मायामृग जी से बात करी, जानना चाह रहा था कि उनकी क्या राय है संग्रह पर. माया जी ने बताया कि सारी रचनाएँ अच्छी ही नहीं बहुत अच्छी हैं और ये भी बताया कि "उन्हें रिश्तों का आतंक" खास पसंद है. आप सब के लिए संग्रह की वह कविता भी प्रकाशित कर रहा हूँ.
एक बात और - शब्दांकन को मिल रहा प्यार ही आपका आशीर्वाद है, हमेशा देते रहिएगा. मैं अपने वचन "शब्दांकन : निश्छल निष्पक्ष" पर अटल हूँ.
आपका
भरत
सिर्फ बारूद से लिपटा
रिश्तों की चमकीली पोशाक
पहनकर भी आता है आतंक,
मीठा गुड़ की डली जैसा
मंद-मंद पुरवैया में
जैसे फूलों लदा महकता झूला
तपते मौसम में सावन
फुहार जैसा
और एक दिन बेसहारा कर देता है
छीन लेता है सब कुछ
अचानक अतीत और आतंक
एक जैसा लगने लगता है
जैसे इस कमरे में क्या है
जिसके साथ नहीं जुड़ा है
विगत काल।
सभी दीवारें और
उन पर
फिसलते साये
सब की सब खिड़कियां
और खिड़कियों से बरसती
छन-छन रोशनी की पतली लकीरें
कोने में लटका मकड़ी का जाल
किताबें, कलम, कागज़
पसीने से सना बिस्तर
बिस्तर के बीचों-बीच मैं
और मेरी खिंची-खिंची सांसें,
सब तुम्हारा नाम लेती हैं
लगता है इन सबके साथ मिलकर
मैंने खुद अपना अपहरण किया है।
सच है आतंक चल कर नहीं आता
अपने भीतर ही कुछ डरावना हो जाता है
और घुट के रह जाने पर मजबूर करता है।
फिर एक दिन यह यादों का आतंक
अतीत से वर्तमान की परिक्रमा करते-करते
हमको अपने आपसे निष्कासित करता है।
और हम समझ जाते हैं
बारूद से ज्यादा रिश्ते आतंकित करते हैं हमें।
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एक बात और - शब्दांकन को मिल रहा प्यार ही आपका आशीर्वाद है, हमेशा देते रहिएगा. मैं अपने वचन "शब्दांकन : निश्छल निष्पक्ष" पर अटल हूँ.
आपका
भरत
रिश्तों का आतंक
नहीं होता आतंकसिर्फ बारूद से लिपटा
रिश्तों की चमकीली पोशाक
पहनकर भी आता है आतंक,
मीठा गुड़ की डली जैसा
मंद-मंद पुरवैया में
जैसे फूलों लदा महकता झूला
तपते मौसम में सावन
फुहार जैसा
और एक दिन बेसहारा कर देता है
छीन लेता है सब कुछ
अचानक अतीत और आतंक
एक जैसा लगने लगता है
जैसे इस कमरे में क्या है
जिसके साथ नहीं जुड़ा है
विगत काल।
सभी दीवारें और
उन पर
फिसलते साये
सब की सब खिड़कियां
और खिड़कियों से बरसती
छन-छन रोशनी की पतली लकीरें
कोने में लटका मकड़ी का जाल
किताबें, कलम, कागज़
पसीने से सना बिस्तर
बिस्तर के बीचों-बीच मैं
और मेरी खिंची-खिंची सांसें,
सब तुम्हारा नाम लेती हैं
लगता है इन सबके साथ मिलकर
मैंने खुद अपना अपहरण किया है।
सच है आतंक चल कर नहीं आता
अपने भीतर ही कुछ डरावना हो जाता है
और घुट के रह जाने पर मजबूर करता है।
फिर एक दिन यह यादों का आतंक
अतीत से वर्तमान की परिक्रमा करते-करते
हमको अपने आपसे निष्कासित करता है।
और हम समझ जाते हैं
बारूद से ज्यादा रिश्ते आतंकित करते हैं हमें।
2 टिप्पणियाँ
शब्दांकन ने प्राणेश जी की कुछ बेहतरीन कविताओं का चयन किया है..प्राणेश जी की कविताओं को पढना खुद को खुद के पार देखने जैसा है..सुकून देती हैं कवितायें..ज़ाहिर तौर पर उनकी पहली काव्य कृति संग्रहणीय है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कवितायें.....
जवाब देंहटाएंसाभार......