लमही के तेवर में कमी ? नहीं !!! नया अंक अक्टूबर-दिसंबर 2013 | Lamhi : Oct-Dec 2013

दुनिया की किसी भी भाषा के साहित्य की सामाजिक परिवर्तन में कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती । साहित्य हमेशा से सामाजिक परिवर्तन में अपनी अप्रत्यक्ष भूमिका निभाता रहा है । जिस साहित्य की मौलिक विशेषताओं में प्रगतिशीलता और प्रतिरोधात्मकता होगी वही साहित्य अपने समाज में परिवर्तन की आकांक्षा उत्पन्न कर सकता है । इससे ज्यादा साहित्य से उम्मीद करना उचित न होगा । हिन्दी में प्रेमचन्द इकलौते ऐसे साहित्यकार हैं जिनकी खींची लकीर को आज तक कोई रचनाकार पार नहीं कर पाया । उनके साहित्य की सबसे मौलिक विशेषताओं में उनकी प्रगतिशीलता और उनके प्रतिरोध की क्षमता ही थी । उन्होंने अपने साहित्य में अंग्रेजी उपनिवेशवाद का जितना विरोध किया था उतना ही भारतीय सामंती शक्तियों का भी । सामंतवाद जातिगत रूढ़ियों और धार्मिक सामरस्य के लिये प्रेमचन्द की चिन्ताओं से भारतीय समाज और उनका पाठक वर्ग बखूबी परिचित है । क्या हमारा समाज इन चिन्ताओं से आज मुक्त हो गया है ? क्या सामंती जकड़नें जातिगत भेदभाव समाप्त हो गये हैं ? क्या धार्मिक सामरस्य के उनके लक्ष्य को हम प्राप्त कर चुके हैं ? ऐसा तो मेरी समझ से कतई नहीं हुआ है अलबत्ता दूसरी तरह की अनेक समस्याओं ने हमें अपनी गिरफ्त में जरूर ले लिया है ।

आज हम संचार युग में हैं । हमारे समाज की वैज्ञानिक प्रगति अप्रतिम है । समाज में अनेक कारणों से खुलापन आया है । साथ ही कुछ ऐसी घटनायें भी घटित हुई हैं जिनसे देश की एकता और अखण्डता खतरे में पड़ी महसूस होती है । इन स्थितियों में प्रेमचन्द की परम्परा को जीवित रखने का मतलब यह कतई नहीं है कि हम उन्हीं की तरह उन्हीं की शैली में साहित्य की रचना करने लगे । उनकी परम्परा को जीवित रखने का मतलब है उनकी प्रगतिशील चेतना और प्रतिरोधात्मकता को जीवित रखना । परम्परा अपने को आगे रूढ़ि होने से इसी तरह बचाती भी है । यही कारण है कि हरिशंकर परसाई, फणीश्वर नाथ रेणु आदि जैसे रचनाकार उनकी तरह न लिखने के बावजूद उनकी परम्परा के स्वीकार किये जाते हैं । ये रचनाकार न केवल प्रेमचन्द से अपनी रचनात्मक  उर्जा ग्रहण करते हैं और न ही उनकी जमीन को तोड़कर जनता के पक्ष में अपना साहित्य रचते हैं । ये उनके पक्ष में लड़ते हैं । इनकी प्रतिरोध क्षमता को समझने के सबसे अच्छे टूल्स भी हमें प्रेमचन्द के वंशज रचनाकार हरिशंकर परसाई से ही प्राप्त होते हैं ।

यहां प्रतिरोध से मेरा तात्पर्य यह नहीं है कि साहित्य किसी भी व्यवस्था के परिवर्तन में अपनी प्रत्यक्ष भूमिका निभा सकता है । क्या साहित्य खुद मोर्चे पर जाकर विरोध दर्ज करा सकता है ? संघर्ष तो जन ही करता है और वही कर सकता है । वास्तव में व्यवस्था में परिवर्तन की क्षमता राजनीति और समाज में रह रहे व्यक्तियों की सामूहिक चेतना में निहित होती है । मुझे लगता है कि साहित्य की प्रतिरोध की क्षमता इस बात में निहित होती है कि वह समाज में और उसके समूहों में व्यवस्था परिवर्तन की आकांक्षा उत्पन्न करा पाता है या नहीं । वह समाज में दबे कुचले व्यक्तियों के साथ खड़ा हो पाता है या नहीं । वह शोषक वर्गों का विरोध कर पाता है या नहीं । अगर वह ऐसा कर पाता है तो वह अपनी सार्थक भूमिका निभा पाता है । अगर साहित्यकार खुद ही अपने निहित स्वार्थों के कारण शोषकों का शोषकीय व्यवस्था का सामंती पूंजीवादी व्यवस्था का समर्थन करने लगे या जानबूझकर उसकी ओर से आंख मूंद ले या उसे पहचान ही न पाये तो साहित्य ‘बेचारा’ की भूमिका में आ जाता है और उसकी इस ‘बेचारगी’ का सबसे ज्यादा फायदा अगर पूंजीवादी व्यवस्था उठाती है तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान आम जनता को ही होता है । जनता के पक्ष में खड़े रचनाकार स्वभावत: ही व्यवस्था के विरोधी हो जाते हैं । प्रेमचन्द, परसाई, मुक्तिबोध आदि रचनाकारों को व्यवस्था की कैसी उपेक्षा का सामना करना पड़ा इसे कौन नहीं जानता परन्तु आज यह प्रवृत्ति साहित्य में बहुत कम होती जा रही है । यह बहुत दुखद स्थिति है । आज का रचनाकार एक साथ ही सत्ता के साथ भी रहना चाहता है और उसका विरोधी दीखकर जनता का पक्षधर भी दिखाई पड़ना चाहता हे जो सुखद स्थिति नहीं है ।

प्रेमचन्द जिस तरह समाज में रह रहे मनुष्य की मनोवृत्तियों को बहुत गहराई से पकड़ते हैं और उसका चित्रण करते हैं वह साहित्य के लिये आवश्यक है । लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि व्यक्तिवाद की तरह का चित्रण प्रेमचन्द ने किया है । प्रेमचन्द का मनुष्य समाज के केन्द्र में पैदा होता है । आज की व्यक्तिवादी संकुचित न्युकिलियर फैमली वाले युग मे मनुष्य की चिन्ता भी घटती जा रही है । ‘लमही’ मनुष्य के महत्व को समझती है और इसे साहित्य की प्राथमिक आवश्यकता भी मानती है । ‘लमही’ बाजार के शिकंजे में पड़ी जनता को एक रचनात्मक स्पेस देना चाहती है । कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द ने अपने समय में ‘हंस’ के माध्यम से जैनेन्द्र कुमार और भुवनेश्वर आदि जैसे अनेक प्रतिभाशाली और तेजस्वी युवा रचनाकारों की पहचान कर उन्हें प्रोत्साहित करने का कार्य किया था । वे साहित्य का भविष्य नई पीढ़ी के हाथों में सुरक्षित मानते थे ।


विजय राय
(प्रधान संपादक)
लमही

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