सूफ़ी संत सचिन - रवीश | Ravish Kumar on #Sachin Tendulkar

सूफ़ी संत सचिन

- रवीश 


सुबह से ही सचिन ऐसे खेल रहे थे जैसे वे गुज़िश्ता चौबीस साल के एक एक लम्हे को फिर से जी लेना चाहते हों । जैसे विदाई के वक्त बेटी आख़िर तक  अपने उस आँगन को मुड़ मुड़ कर देखती हुई वहाँ गुज़ारे चौबीस या तीस साल के तमाम पलों को सहेज लेना चाहती है । सचिन लोगों को याद दिला रहे थे कि देखो ऐसे ही देखा था तुमने सचिन को । इसी तरह के शाट के दरम्यान तुमने सचिन को प्यार करना सीखा था । सचिन आज सचिन की तरह खेल रहे थे । बल्ले से हुई दो चार चूकें भी आश्वस्त कर रही थीं कि नहीं देखो । देखते रहो । यह वही सचिन है । अपनी लय में है । पहले पचास फिर सत्तर फिर चौहत्तर । सौ वाला सचिन है ये तो । जा रहा है धीरे धीरे शतक की ओर ।


आउट ! स्टेडियम में उदासी पसर गई । लेकिन सचिन की तरह दर्शक भी संभले हुए थे । सब खड़े हो गए । इस महान खिलाड़ी को विदाई देने ।  एक शानदार पारी खेल कर जा रहे थे । ऐसा नहीं हुआ कि सचिन का विकेट हवा में उड़ गया । शतक सचिन का मुकुट है । लेकिन बादशाह हमेशा मुकुट में ही जँचते हो ज़रूरत नहीं । सचिन ने जो सल्तनत क़ायम की थी वो सिर्फ मीडिया और मार्केट की बनाई सल्तनत नहीं है । उनकी बादशाहत का यही तो कमाल है कि वो सचिन के क्रिकेटीय करामातों की बुनियाद पर क़ायम है । हर समाज अपने महान खिलाड़ी को ऐसे ही देखता है । सचिन उस दौर के खिलाड़ी हैं जिन्हें सबने कभी न कभी देखा है । हो सकता है बहुतों ने कभी कपिल गावस्कर को टीवी पर देखा हो। रेडियो पर सुना हो और अख़बारों में पढ़ा हो । सचिन की हर पारी चाहे वो देश की है विदेश की, देखी गई है । सचिन की कोई न कोई छवि सबके दिलों में  हैं । वे गांधी और नेहरू से कभी बड़े नहीं हो सकते । यही पर खेल का ग्लैमर राजनीति से मार खा जाता है । गावस्कर को क्या मालम था कि कोई सचिन आ जाएगा । क्या सचिन को मालूम होगा ।

क्रिकेट के सूफ़ी संत हैं सचिन । आनंद के चरम पर ले जाते है । खेल और मनोरंजन के उस एकात्म की तरफ़ जिसे देखने वाले महज़ श्रद्धा मान बैठते हैं । जबकि सचिन की संतई इसी बात की है कि उसमें हम सब अपना चेहरा देखने लगते हैं । सूफ़ी संत इशा मोड़ पर आकर ख़ुदा और बंदों के बीच माध्यम बन जाते हैं । सचिन हमारे और क्रिकेट के बीच वो माध्यम हैं जिसका सिलसिला उन्होंने ही क़ायम की और उन्हीं के साथ समाप्त भी हो जाएगा । 

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