कही ऐसा तो नहीं कि समाज में फैली जिस गंदगी को लेकर हम बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, उसका श्रोत भी हम ही हैं?
रवीश का ये आलेख पढ़ कर, उनका दुःख समझ आता है... दिखता है कि हम ईमानदारी के किस तरह और कितने बड़े दुश्मन है ...
कुछ लोगों को कुछ भी हो जाये, कुछ भी न बदलने का जो भरोसा होता है, वो ग़ज़ब का होता है। चुनाव आते ही टिकट के लिए फ़ोन आना, हैरानी की बात नहीं। लेकिन मीडिया की इतनी आलोचनाओं के बाद भी कुछ को भरोसा रहता है कि अपना काम तो निकल जाए।
अचानक से फ़ोन पर परिचित होगा अरे भाई साहब सब कह रहे हैं कि रवीश जी आपके मित्र हैं और आप हैं कि कोई मदद नहीं कर रहे हैं। सबको कैसे पता कि आप मेरे मित्र हैं और हम मित्र कैसे हुए। हम तो कभी मिले नहीं। तो क्या हुआ आपका नंबर है न मोबाइल में। वही दिखा के सबको बता देते हैं। हवा पानी टाइट रखना चाहिए न। पर ये तो ठीक नहीं है। अरे रवीश जी ठीक है पता है आप ये सब नहीं करते लेकिन समाज यार दोस्तों के लिए कुछ करिये दीजियेगा तो क्या हो जाएगा। मान लीजिये आप किसी को जानते हैं। मिलवाइये दिये। इसमें तो कोई हर्ज़ा नहीं है। हम लोग भी तो किसी टाइम आपका ख्याल करेंगे। बुरे वक्त का ख़ौफ़ दिखाने के बाद क्या कहें। कितना डाँटें चिल्लाये। सब चाहते हैं कि उनके बीच का कोई इस दुर्लभ संपर्क क्षमता का हो। मजबूरी में कह देता हूँ कि हाँ ठीक है लेकिन हमसे होता नहीं है। ऐसा कुछ होगा तो देखेंगे। मेरा फोन तो कोई नेता उठाता ही नहीं है।
कोई फ़ोन कर यह नहीं कहता कि ईमानदारी से पत्रकारिता करो। कुछ होगा तो हम लोग हैं न मदद करने के लिए।
अरे रभीस जी आपको लोग नहीं जानता है ! एतना भी सुध्धा मत बनिये। मीडिया का ही तो पावर है। जिसे चाहे उसे बना दे। पर हम उस पावर का इस्तमाल नहीं करते। पता है नहीं करते लेकिन क्या बाकी नहीं करते। आप क्या कर लेते हैं। उ सब के साथ रहते हैं कि नहीं। हम थोड़े न कह रहे हैं कि ग़लत काम कीजिये। उसी में से अपने लोगों के लिए तो करना पड़ता है। समझ में नहीं आता है कि मदद मांग रहा है या बुरे वक्त के नाम पर धमका रहा है। कितना हाँ में हाँ किया जाए मन रखने के लिए। मन तो ख़राब हो ही जाता है। अक्सर मैंने देखा है इस टाइप के दलाल संक्रमित लोग दलील अच्छी देते हैं।
एक दिन इसी तेवर में फोन आ गया। भाई जी आशीर्वाद दीजिये। ले लीजिये। वैसे नहीं। त कइसे। एमएलसी का चुनाव लड़ रहे हैं। तो हम क्या मदद करें। अरे उसी में मदद तो कर ही सकते हैं। इसमें क्या होता है। अरे वार्ड काउंसलर, पंचायत परिषद का सदस्य और मुखिया वोट करता है। बहुत ख़र्चा है भाई। वो क्या ?
कभी हाँ तो कभी हूँ बोलकर टाल तो देता हूँ मगर बहुत मामूली महसूस करने लगता हूँ।
हर पंचायत में पंद्रह सोलह वार्ड काउंसलर होता है। एक वार्ड मेंबर को पंद्रह सोलह सौ देना होता है। डेढ़ ही हज़ार में वोट दे देगा ? हाँ त यही चलबे करता है। मुखिया ज़रा ज़्यादा माँगता है। कितना ? पचीस हज़ार। अच्छा। लेकिन उतना नहीं देंगे। पाँच सात हज़ार देकर काम चल जायेगा। वो व्यक्ति कितनी आसानी से सब कहे जा रहा था। दो साल से फ़ोन पर बात कर रहा है। मुलाक़ात तक नहीं। पता नहीं किस-किस को बताता है कि मैं उसका मित्र हूँ। आशीर्वाद दीजियेगा न भइया। हाँ हाँ। विधान-परिषद की सदस्यता का आलम यह है तो इसे आज ही समाप्त कर देना चाहिए।
फ़ोन रखने के बाद यही सोचने लगा कि हम क्या समझें जा रहे हैं और यह कैसा समाज है। कोई फ़ोन कर यह नहीं कहता कि ईमानदारी से पत्रकारिता करो। कुछ होगा तो हम लोग हैं न मदद करने के लिए। एक रिश्तेदार ने तो लोजपा के टिकट की पैरवी के लिए फ़ोन कर दिया। आम आदमी की सफलता के बाद इसके टिकट के लिए भी लोग फ़ोन कर देते हैं। सब परिचित ही होते हैं। मुश्किल हो जाता है कि कैसे बात करें। हाँ देखते हैं भइया। अरे देखो नहीं करो। टाइम नहीं है। एक सजज्न दफ़्तर आ गए विशालकाय गुलदस्ते के साथ। कहा बीजेपी से टिकट दिलवा दीजिये। सुना है मोदी जी आपको मानते हैं। उनसे कहा कि हम ये सब नहीं कर सकते। पता चलेगा तो दर्शक नाराज़ हो जायेंगे। बिल्कुल पहली बार इस व्यक्ति ने भी यही कहा कि अरे साहब मदद कर अपना आदमी बनाइयेगा तभी न हम लोग बुरे दिन में काम आयेंगे।
क्या कर सकते हैं। इस समाज को ख़ारिज कर कहाँ चल दिया जाए। सारे संबंधों की ऐसी व्याख्या करते हैं कि राहु-केतु से प्राथर्ना करने लगता हूं कि बचा लेना। कोई मित्र नाराज़ हो जाता है तो कोई परिचित। कभी हाँ तो कभी हूँ बोलकर टाल तो देता हूँ मगर बहुत मामूली महसूस करने लगता हूँ। तब तो और जब क़रीब के मित्र भी समझने की जगह गाली देते हुए विवेचना करते हैं कि किसी काम का नहीं है। स्वार्थी है। अपने लोगों के लिए क्या किया इसने।
इन सब के बीच कुछ फ़ोन ऐसे भी आते हैं जो जीवन-रक्षक और ज़रूरी होते हैं। पर फ़ोन करने वाला पहले से तय कर चुका होता है कि होना ही है। हमसे किसी की मदद हो जाए तो क्या बात, करने के लिए भी तत्पर रहता हूँ लेकिन मदद के नाम पर यही सब हो तो बात शर्मनाक है। करना पड़ता है और नहीं करेंगे के बीच कुछ तो बोलना पड़ता है जिसे बोलते हुए सौ मौंते मरता हूँ। ये समझा जाना कि हमारे पास पावर है और हम अरविंद-मोदी-राहुल से एक फ़ोन पर टिकट दिला देंगे, कितना बेबस करता है।
पहले भले ही यह सब बातें सामान्य रही होंगी या हमारे पेशे के लोग ये सब आसानी से कर गुज़रते होंगे पर अब समय बदल गया है। किसी भी पत्रकार को इन सब मजबूरियों के बारे में सोचना चाहिए और बचने का तरीक़ा निकालना चाहिए। ऐसा नहीं है कि दुनिया मदद नहीं करेगी। एक परिचित के पास पैसे नहीं थे। अस्पताल वाले को फ़ोन किया कि ये हालत है आप उनसे पैसे मत माँगना। अपना अकाउंट नंबर दे दीजिये मैं उसमें जमा कर दूँगा। परिचित को पैसे की पेशकश इसलिए नहीं की क्योंकि उन्हें शर्मिंदा नहीं करना चाहता था। उधर से आवाज़ आई आप रवीश टीवी-वाले बोल रहे हैं। हाँ। अरे सर मज़ा आ जाता है आपको देखकर। आप चिंता मत कीजिये। मैं हैरान रह गया। उस आदमी ने मदद कर दी। समाज इतना भी गया गुज़रा नहीं है। ऐसा हो तो क्यों नहीं फ़ोन करूँगा। पर हम क्या से क्या होते जा रहे हैं और इतनी बहस के बाद भी अगर किसी को भ्रष्टाचार पर इतना भरोसा है तो फिर इसके ख़िलाफ़ बहस में शामिल कौन है? वही जो भ्रष्ट है !