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कहानी: दूसरा जीवन - प्रभात रंजन | Hindi Kahani 'Dusra Jivan' by Prabhat Ranjan


प्रभात के दो कहानी संग्रह- जानकी पुल और बोलेरो क्लास प्रकाशित हुए हैं साथ ही 'नीम का पेड़' (राही मासूम रज़ा लिखित धारावाहिक का उपन्यास के रूप में रूपांतरण), 'स्वच्छन्द' (सुमित्रानंदन पन्त की कविताओं के संचयन का अशोक वाजपेयी और अपूर्वानंद के साथ संपादन), 'टेलीविजन लेखन' (असगर वजाहत के साथ सह-लेखन), 'एंकर रिपोर्टर' (पुण्य प्रसून वाजपेयी के साथ सह-लेखन), 'मार्केस की कहानी' (गाब्रियल गार्सिया मार्केस के जीवन और लेखन पर एकाग्र हिंदी में पहली पुस्तक)  भी प्रकाशित हो चुकी हैं। एक अनुवादक के रूप में उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं – ‘श्रीनगर का षड़यंत्र’ (विक्रम चंद्र के उपन्यास ‘Srinagar Conspiracy' का हिंदी अनुवाद) व ‘एन फ्रैंक की डायरी’ (Anne Frank’s Diary का हिंदी अनुवाद)।

युवा कथाकार, अनुवादक, संपादक डॉ० प्रभात रंजन, दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन कॉलेज में अध्यापक तथा चर्चित ई-पत्रिका 'जानकी पुल' के संपादक हैं।

इसके पहले प्रभात, इंडियन एक्सप्रेस समूह के हिंदी दैनिक ‘जनसत्ता’ में सहायक संपादक थे उन्होंने महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा की पत्रिका ‘बहुवचन’ के कुछ अंकों का संपादन भी किया है।

प्रभात रंजन को 2004 में ‘जानकी पुल’ कहानी के लिए ‘सहारा समय कथा सम्मान’ और संग्रह के लिए 2007 में ‘प्रेमचंद कथा सम्मान’ से पुरुस्कृत किया गया है। उनसे आप  prabhatranja@gmail.com पर सम्पर्क कर सकते हैं।

                   

कोई तीन वर्ष पूर्व 'कथन' पत्रिका में प्रभात रंजन की ये कहानी 'दूसरा जीवन' प्रकशित हुई थी। समाज के एक सच के इर्दगिर्द बुनी गयी इस कहानी ने बहुत प्रभावित किया। अंततः प्रभात से पूछना पड़ा. "इसका श्रृजन कैसे हुआ" ? 

प्रभात ने बताया - वो पिछले पाँच सालों के दौरान बिहार के मुजफ्फरपुर में तवायफ़ों की प्रसिद्ध बस्ती 'चतुर्भुज स्थान' के अलग-अलग दौर की गायिकाओं को लेकर कुछ किस्से लिखे हैं, जिसमे 1960 के दशक से 2007 तक के दौर में अलग-अलग अंदाज से गाने वाली गायिकायें शामिल हैं। इसमें अलग-अलग दौर में उनके द्वारा गाये जाने वाले गीतों को भी शोधपूर्वक संकलन करके जगह दी गई है। इन सब के माध्यम से उन्होंने यह बताने की भी कोशिश की है कि अलग-अलग दौर में समाज किस तरह बदलता रहा, सुनने वाले किस तरह से उसे बदलवाते रहे। 

पुरानी कहावत है- 'तवायफ़ों को देखकर समाज के रहन-सहन, तौर तरीके का पता चलता है। अगर तवायफें खुशहाल नहीं हैं तो समझ लीजिये समाज खुशहाल नहीं है।' 

प्रभात रंजन जी की इस पुस्तक का संभावित नाम है- 'बदनाम बस्ती गुमनाम लोग' संकलन के लिए उन्हें अग्रिम बधाई।

आइये अब कहानी पढ़ते हैं

आपका 
भरत तिवारी

दूसरा जीवन 

प्रभात रंजन 


मैं तो भूल ही गया था। पिछले कुछ दिनों से मेरे साथ बार-बार ऐसा कुछ नहीं हुआ होता तो मुझे उसका ध्यान भी नहीं आया होता। इंटरनेट की सोशल साईट फेसबुक पर पिछले दिनों मैं बहुत सक्रिय रहा। पुराने दोस्तों से से उस आभासी दुनिया में मुलाक़ात हुई, अनेक नए दोस्त भी बने। सब कुछ हंसी-खुशी चल रहा था कि एक तस्वीरविहीन महिला की दोस्ती के प्रस्ताव आया। पहली बार मैंने नाम देखा तो ज़ाहिर है अनजान लगा और मैंने उसे टालू खाते में डाल दिया।

       आखिर मेरे जैसे महानगरीय स्वकेंद्रित आधुनिक मध्यवर्गीय की मित्रता सूची में सुमन कुमारी जैसी किसी महिला का क्या काम! लेकिन मैंने देखा उसका प्रस्ताव बार-बार आने लगा।

       नहीं ऐसा नहीं है कि मुझे उसका ध्यान नहीं आया। आया, लेकिन उस दिशा में मैंने ज्यादा नहीं सोचा। तवायफों के मोहल्ले में मिली एक महिला इन्टरनेट की सोशल साईट पर। आप ही बताइए एक यथार्थवादी लेखक इस दिशा में कितनी देर सोच सकता है!
लोक-लाज तो वहाँ होती है जहाँ कोई जानने वाला होता हो। जब घर-घर बाज़ार बनता जा रहा हो तो कहाँ का लोक कहाँ की लाज
       लेकिन आदमी एक ऐसा प्राणी है जिसकी सोच सबसे ज्यादा बदलती है। एक दिन मेरी भी बदल गई। एक दिन जब फेसबुक पर उसका मित्रता प्रस्ताव आया तो सुमन कुमारी नाम के आगे कोष्ठक में लिखा था रागिनी संगीत विद्यालय। उसकी कहानी याद आने लगी। जितनी उसने सुनाई थी, जितनी मैंने उसके सुनाये से बनाई थी। सब। लगा समय आ गया है उसकी कहानी लिख देनी चाहिए। मैंने वैसे उसका मित्रता प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। ऐसे लोगों से कोई सार्वजनिक संबंध बनाता है क्या! व्यक्तिगत सहानुभूति अलग बात है।

       बार-बार लगता रहा हो न हो वही है। इच्छा हुई कि उससे मित्रता करूं। उसका नंबर लूँ। उससे ढेर सारी बातें करूं। लेकिन फिर ठिठक जाता। एक घंटे की मुलाक़ात क्या इसके लिए काफी होती है... अपने घर-परिवार का ध्यान आ जाता... फिर मैं उसे किस नाम से बुलाता। उजाले में कोई अँधेरी दुनिया को याद करता है क्या? फेसबुक पर तस्वीरविहीन मित्रता की बात और है...

       जीवन में कभी-कभी ऐसा हो जाता है जिसके बारे में हमने कभी सोचा भी नहीं होता है। जो हम सोचते हैं अक्सर कहाँ हो पाता है। जो जीवन जीना चाहते हैं नहीं जी पाते, दूसरा ही जीवन जीते चले जाते हैं। कितने खुशनसीब होते हैं वे जिनको अपना सोचा जीवन मिलता है, अपनी सोची मंजिल मिलती है- मुझे उसी की बात याद आ गई।

        नहीं, मैं उसे जानता तक नहीं था, कम से कम उस दिन से पहले। चतुर्भुज मंदिर के ठीक बगल में जो गली है न। करीब ५०० मीटर बाद वह जहाँ से दायें मुड़ती है ऐन उसी मोड़ पर जो एक धूल-धूल मकान है एक शाम मैं उसकी सीढियां चढ़ गया था... उससे मुलाक़ात हो गई थी।

       पहली और शायद आखिरी बार...

       मैंने पहले ही कहा था न मैं उसे पहले से नहीं जानता था...

       आगे बढ़ने से पहले मैं एक बात साफ़ कर देना चाहता हूँ। न यह कोई कहानी है न मैं कथाकार। देशी-विदेशी संस्थाओं से फेलोशिप लेकर शोध करनेवाला एक शोधकर्ता हूँ मैं। वैसे, अच्छे पैसे तो विदेशी संस्थाओं से ही मिलते हैं। देखिये, अच्छा शोध बिना अच्छी फेलोशिप के संभव ही नहीं है, मेरा तो साफ़ मानना है। उस साल मुझे जर्मनी की एक हथियार बनानेवाली कंपनी के संस्थापक के नाम पर स्थापित संस्कृति फेलोशिप मिली थी जो मुझसे पहले देश के कुछ बड़े-बड़े विद्वानों को मिल चुकी थी। फेलोशिप की बदौलत अपने आपको उनकी पंक्ति में खड़ा देख मैं गौरवान्वित महसूस कर रहा था।

       परियोजना थी मुजफ्फरपुर के चतुर्भुज स्थान में रहनेवाली पुरानी दरबारी गायिकाओं के बारे में एक पुस्तिका तैयार करना, जिसे बाद में दुनिया भर की पारंपरिक गायिकाओं पर छपनेवाली एक बहुत बड़ी किताब का हिस्सा होने का मौक़ा मिल सकता था। मैं पिछले वाक्य के ‘सकता’ को ‘है’ में बदलना चाहता था। जब आपको इतना बड़ा अवसर मिलनेवाला हो तो आप क्या करेंगे? वही, मैंने उनके जीवन, उससे जुड़े किस्सों की तलाश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी... क्या मेरे लिए यह भी एक किस्सा है?

       शायद हां... शायद नहीं।

       हर चीज़ की अपनी रवायत होती है। वहाँ रहने वालों की न सही उस इलाके की अपनी रवायत है। कोई कहता सौ साल, कोई तो प्राचीन वैशाली की आम्रपाली से उसकी रवायत को जोड़ता। आप चतुर सुजानों से क्या छिपा है। जब बात जुबानी हो तो उसका देशकाल कहाँ तक पहुँच सकता है इसकी तो बस कल्पना की जा सकती है। जितनी मुंह उतनी बातें।

       वह इस सबसे ज़रा हटकर थी। उस रवायत से भी... और... सच बताऊँ तो मैं तो दरवाज़े पर उसके नाम की पट्टी देखकर समझ गया था। नामपट्ट वहाँ हर घर की पहचान थी। जिस घर के बाहर नामपट्ट नहीं वहाँ कोई ग्राहक नहीं जाता था। वहाँ आम लोगों के घर और पेशेवरों के घरों में यही एक अंतर था। आज भी होता होगा।

       बात नामपट्ट की हो रही थी। मैंने देखा, हर घर के बाहर बाई, खानम, देवी, मिस जैसे उपनामों वाले नामों के पट्ट लगे थे, उस दरवाज़े के बाहर लिखा था सुमन कुमारी। सच बताऊँ इस उपनाम से ही मुझे ऐसी सादगी दिखाई दी कि मैं बिना आगे-पीछे देखे उसकी सीढियां चढ़ गया।

       ‘दुनिया बाज़ार बनती जा रही है। जिसके पास जो हुनर है उसे बाजार में बेचने के लिए बेचैन दिखाई देता है। आजकल तो अच्छे-अच्छे घर की औरतें कहती फिरती हैं, आपके पास कोई हुनर है तो उसे आजमाने में क्या हर्ज है। क्या पता बाजार में अच्छी कीमत मिल जाए। जिसके पास जो है वही बेचने में लगा है। जब मैं जनकपुर में थी तो जानकी मंदिर में भजन गाती थी। अयोध्या वाले पुजारी जी कहते, खूब गला पाया है। इसकी आवाज़ तो दूर तक पहुंचनी चाहिए। जब मैं ‘सिया सुकुमारी चली बन-बन प्यारी...’ वाला गीत गाती तो वे छेड़ते हुए कहते, देखना यही आवाज़ एक दिन तुम्हें शोहरत भी दिलवाएगी और पैसा भी। एक बार किसी पारखी की नज़र पड़ने भर की देर है... तब मैंने कहाँ सोचा था’... मुझे याद आया वह बहुत जल्दी-जल्दी बोल रही थी। जैसे सब कुछ उसने किताब से रट रखा हो और मुझे सुना रही हो।

       सीढियां चढ़कर पहुंचा तो पाया दरवाज़ा खुला था।। वहाँ के घरों की यह खास पहचान देखी... जिनके बाहर पेशेवरों के नाम लिखे थे उनके दरवाज़े आने वालों के स्वागत में खुले होते।

       ‘बंद तो उनके दरवाज़े होते हैं जिनके घरों में कुछ छिपाने के लिए होता है। हम तो जो हैं उसी का बोर्ड टाँगे बैठे हैं... गाना गाने के लिए... दरवाज़ा बंद कर लेंगे तो सुनने वाले कैसे आयेंगे’... एक प्रौढ़ सी दिखाई देने वाली महिला दरवाज़े के दूसरी ओर से कह रही थी। उसके चेहरे पर कुमारी वाली मासूमियत नहीं कातरता झलक रही थी।

       शाम अभी गहरी नहीं हुई थी लेकिन कमरे में अँधेरा गहरा गया था। दूर करने के लिए ६० वाट का एक बल्ब टिमटिमा रहा था। समझ नहीं आ रहा था क्या कहना चाहिए। ऐसी जगहों पर क्या कहते हैं। फिल्मों में देखा था क्या नफासत से बुलातीं थीं गायिकाएं- आइये सरकार- जनाब आ जाइये...

       ‘अंदर आ जाइये’, उसकी उसकी आवाज़ की कातरता इस बार कुछ मीठी लगी।

       कमरे में दो कुर्सियां दिखाई दे रही थी। उसने बैठने का इशारा किया। बैठकर मैं इधर-उधर देख रहा था कि उसकी वही महीन आवाज़ फिर से गूंजी-
जब औरत के पैर एक बार घर से बाहर निकल जाते हैं तो उसको रोका नहीं जा सकता। बस कुछ ऐसा मत करना कि इस अनजान नगर में हम किसी को मुंह दिखाने के लायक न रहें।’ जब आदमी निकम्मा हो जाता है तो बस जुबान में ही दम रह जाता है।
       ‘क्या सुनेंगे?’ वह सीधे अपने काम पर आ गई। मैं तो अभी बैठा ही था। कुछ समझ नहीं आया।

       ‘गज़ल... ठुमरी...’ हडबडाकर मेरे मुंह से निकला।

       ‘बाबू यहाँ तो फ़िल्मी ही चलता है। सुननेवाले उसी की फरमाइश करते हैं। गज़ल का रियाज़ नहीं रहा...’ एकदम नया सुनाऊंगी।

       ‘फिर भी कोई गज़ल तो सुना सकती हैं...’

       ‘पुरानी फ़िल्मी गज़ल कोई सुना दूँगी’, लगता है उसने मेरी आवाज़ की व्यग्रता को भांप लिया था। उसे लगा होगा कहीं मैं उठकर चला न जाऊँ।

       ‘ठंढा पीयेंगे...’

       ‘हां...’

       ‘क्या... फैंटा या पेप्सी?’

       ‘मैं कोक पिऊँगा...’

       ‘आपकी हर फरमाइश अलग क्यों होती है कहकर उसने नीचे आवाज़ लगाईं, एक कोक और एक फैंटा...’

       जब भी कोई आता होगा तब इसी तरह आवाज़ लगाती होगी, मैंने मन ही मन अंदाज़ लगाया।

        ‘बाबू, एक गीत के ५० रुपये लूंगी, तबला, हारमोनियम, सारंगी बजानेवाले के लिए अलग से १००-१०० रुपए देने होंगे’, लगता है ठंढे का ऑर्डर देकर वह निश्चिन्त हो गई थी कि अब मैं वहाँ से कहीं जानेवाला नहीं हूँ।

       ‘गज़ल... मैंने धीरे से कहा...’

       ‘कहा तो गज़ल सुनाऊंगी। देखिये बाबू साहब! आपके जैसे लोग रोज़-रोज़ तो आते नहीं हैं। जैसे लोग आते हैं उनके हिसाब से ही तैयारी करनी पड़ती है। आजकल भोजपुरी सुनने वाले आते हैं... सो भी गाने के साथ नाच की फरमाइश करते हैं... ऐसे-ऐसे गाने कि... अब छोड़ भी तो नहीं सकती ना। मैं तो वैसे ‘झांप-उघाड़’ वाले गीत नहीं गाती। लेकिन टाइम के साथ कुछ तो एडजस्ट करना ही पड़ता है... हां जल्दी बताइए तो मैं बाहर साजिंदों को बोल देती हूँ, उसने तुरंत बात को बदला...’

       ‘मैं गाना सुनने नहीं आया हूँ। दरअसल, मैं आपसे बातें करना चाहता हूँ।’

       ‘तो पहले क्यों नहीं बताया आपने... आपने बाहर बोर्ड नहीं पढ़ा ९ बजे तक यहाँ सिर्फ गाना-बजाना होता है... बात करके मेरा टाइम भी काहे खराब करना चाहते हैं। अब आए हैं तो आपको गाना तो सुनकर जाना ही पड़ेगा। आखिर साजिंदों की रोजी-रोटी भी इसी से चलती है। सबकी आस लगी रहती है। ऐसे बात करेंगे तो कितने घर में चूल्हा नहीं जलेगा... आपको कुछ पता भी है...’ एक सांस में बोलकर जब वह रुकी तो उसकी सांस तेज़ी से ऊपर-नीचे हो रही थी।

       ‘आप मुझसे गाने का पैसा ले लीजिए’, उसकी दशा देखकर मैंने तुरंत जवाब दिया। ‘लेकिन मैं आपके बारे में कुछ जानना चाहता हूँ। आपकी जिंदगी के बारे में...’

       ‘बाहर मेरा नाम देख लिया, मेरा पेशा जान लिया... यह भी जान लिया कि ५ साल से गा रही हूँ, अब और क्या जानना चाहते हैं आप? आप बताइए, देखकर तो कोई साहब लगते हैं! साहबी से अलग कोई जिंदगी है आपकी? क्या अपने पेशे से अलग इंसान की कोई जिंदगी रह जाती है? जैसा पेशा वैसा जीवन। है कि नहीं?’ कहकर मुझे सवालिया निगाहों से घूरने लगी।

        ‘कम से कम दस गानों के पैसे लगेंगे... और हां साजिंदों के पैसे अलग से देने पड़ेंगे... वह भी पूरे...’ कुछ रूककर उसी ने जवाब दिया। ‘और एक बात और?’

       ‘क्या?’

       ‘मैं बताउंगी वही जो बताना चाहूंगी... आपको मुझसे कुछ बताने के लिए ज़ोर नहीं डालेंगे... एक घंटे में चले जायेंगे।’

       ‘मंज़ूर है...’

       इस बीच उसका फैंटा और मेरा कोक आ गया था।

       सुमन मेरा असली नाम नहीं है, न ही यह जीवन। यह सब बाहर बोर्ड पर लिखने के लिए है। माँ-बाप ने बड़े प्यार से मेरा नाम रखा था मनोरमा। पढ़ाया-लिखाया, बड़े होने पर एक पढ़े-लिखे होनहार आदमी से बांध दिया। बाबू मुझे तो जीवन ने सिखाया है होनहार होने से कुछ नहीं होता। आदमी का अपना कर्म-भाग्य होता है। उसी के हिसाब से उसे मिलता है जितना मिलना होता है। चाहे कुछ कर लीजिए।

       शादी के तीन साल बाद भी जब पति अरुण को नेपाल में नौकरी मिलने की कोई सूरत नहीं दिखाई दे रही थी तो उसने रोज़गार के लिए सीमा उस पार देखना शुरू कर दिया। सफलता भी मिल गई। परदेस में, बिहार के मुजफ्फरपुर में एक अंग्रेजी स्कूल खुला था। बड़ा नामी। उसी में साइंस टीचर की नौकरी मिली, रहने को घर का भरोसा, बच्चे को स्कूल में मुफ्त अंग्रेजी शिक्षा का भरोसा। सोचिये और क्या चाहिए एक नए-नए बसे परिवार को। नेपाल में रहनेवाले एक मधेशी के लिए इससे बड़ा सपना क्या हो सकता था। मधेशी यानी भारतीय मूल के आदमी के लिए नेपाल में रहना ऐसे ही मुश्किल होता जा रहा था। अरुण कुमार अपने परिवार के साथ जनकपुर से मुजफ्फरपुर आ गया। नेपाली की जगह भारू नोट गिनने का सपना लिए।

       कुछ दिन सब कुछ सुन्दर सपने की तरह चलता रहा...

       लेकिन पिछले दिनों जिस तरह से हर सुन्दर लगने वाला सपना दुस्स्वप्न साबित हुआ है वही हश्र अरुण कुमार के उस सपने का हुआ। नहीं स्कूल ने उसके साथ किसी तरह की धोखाधड़ी नहीं की वह तो शहर के लोगों ने ही स्कूल के साथ धोखा कर दिया। शहर के लोग तब शायद उस तरह के महंगे स्कूल के लिए तैयार नहीं हुए थे। उस स्कूल के बारे में यह चर्चा फ़ैल गई, बड़ा हाई-फाई स्कूल है। उस समय कम से कम मुजफ्फरपुर जैसे शहर में हाई-फाई स्कूल में अपने बच्चे को कोई नहीं पढ़ाना चाहता था। लोग कहते हाई-फाई स्कूल में बच्चा पढेगा तो हाथ से बेहाथ हो जाएगा। अपने जानते कौन ऐसा होने देना चाहेगा।

       दो साल बीतते-बीतते स्कूल अपने किए बहुत से वादों से मुकरने लगा और सेंट कबीर कॉन्वेंट स्कूल के सुन्दर सपने का अंत हो गया। अरुण कुमार जी की तीन महीने की सैलरी स्कूल नहीं दे सका। वे भारत के नहीं नेपाल के नागरिक थे, कानूनन कुछ कर भी नहीं सकते थे। अचानक जैसे सपना किसी धमाके से टूट गया हो।

       अगर मुजफ्फरपुर जैसे शहर में किसी की नौकरी छूट जाए तो बड़ी परेशानी हो जाती है। एक तो इतने स्कूल थे नहीं कि उनको दूसरी नौकरी मिल जाए। जब से नेपाल में माओवादी आंदोलन शुरू हुआ था तब से सीमावर्ती शहरों में नेपाली मूल के लोगों को नौकरी मिलनी थोड़ी मुश्किल हो गई थी। जो थोड़े बहुत अंग्रेजी माध्यम स्कूल थे उन्होंने या तो साफ़ मना कर दिया या इतने कम पैसे देने की बात की कि नौकरी न करने के अलावा उसके पास और कोई आप्शन नहीं बच गया। कुछ दिन तो घर में बैठकर अच्छे दिन का इंतज़ार करने लगे। लेकिन समय ने उस इंतज़ार के लिए भी अधिक अवसर नहीं दिया।

       मुजफ्फरपुर न तो तब दिल्ली थी न आज है- अगर वहाँ इतने अवसर होते तो क्या लोग ट्रेनों में भर-भर कर रोज़ दिल्ली-बंगलोर जाने में लगे रहते। नौकरी छूटने से कई संकट तो तत्काल खड़े हो गए। पहला तो घर का था। स्कूल के पास अपेक्षाकृत थोड़े अच्छे और महंगे किराए वाले जिस मकान के पिछले हिस्से में वे रह रहे थे उसको छोड़ के वे शहर से दूर नए बने इलाके में रहने चले गए। दो सालों में परिवार में एक सदस्य की बढोत्तरी और हो गई थी। तीन महीने पहले ही बेटा हुआ था। बेटी भी स्कूल जाने की उम्र की हो रही थी। अरुण जी ने उसी के नाम पर रागिनी ट्यूशन सेंटर खोला। आगे योजना थी कोचिंग सेंटर खोलने की।

       न जाने कितने लोग हैं जो उनकी तरह भविष्य की योजनाओं के सहारे इसी तरह अपने वर्तमान की मुश्किलों से पार पाते रहे हैं। लेकिन मुश्किलें कभी खत्म हो पाती हैं?- घड़ी देखते हुए ऐसे बोली मानो परेशानियों के खत्म होने का समय देख रही हो।

       सवाल इसका नहीं है कि ट्यूशन चला या नहीं।। इतना ज़रूर हुआ घर के किराए के पैसे आने लगे, बच्चों के दूध के पैसे आने लगे। दूर-दूर के गांव से लड़के मुजफ्फरपुर में पढ़ने आते थे। लॉज में रहकर तैयारी करते, अरुण जी के रेट सबसे कम थे। पैसे बचाने के ख़याल से कुछ लड़के उनके ट्यूशन सेंटर में भी आ जाते। उनका भी काम चल जाता मास्टर साहब की गृहस्थी।

       लेकिन बात सिर्फ गृहस्थी चलने की नहीं होती है। कभी-कभी दोनों सोचते अगर इसी तरह से जीना था तो अपना शहर जनकपुर क्या बुरा था। ऐसे मौकों पर अरुण अपनी पत्नी को समझाता, वहाँ रहकर तुम सोचो क्या हम ट्यूशन सेंटर चला सकते थे। लोग कितना हँसते। अगर कोई पढ़ने आता तो पैसा भी ठीक से नहीं देता। फिर वहाँ तो सब अपने होते किससे पैसे मांगते। यहाँ देखो लोग मास्टर साहब कहते हैं। इसी तरह की छोटी-छोटी खुशियाँ जीवन की गाड़ी को आगे बढाने के काम आतीं।

       अनजान लोगों के बीच किसी तरह के काम करने में शर्म तो नहीं आती कम से कम... अक्सर पढता रहता हूँ कि इंग्लैंड, अमेरिका में जाकर अच्छे-अच्छे घरों के लोग टैक्सी चलाने लगते हैं, घरों में नौकर का काम करने लगते हैं... भूल गई हो लगता है... हम भी परदेस में हैं, अरुण बात को समाप्त करने के ख़याल से कहता।

       वैसे ये सब कहने-सुनने की बातें हैं। धीरे-धीरे कमाई और खर्च की दूरी बढ़ती गई और उस दूरी से मजबूरी बढ़ती गई। उस मजबूरी ने आखिर मनोरमा के पैर बाहर निकाल ही दिए।

       नहीं घबड़ाइये नहीं...

       टीवी पर गीत-संगीत की प्रतियोगिताएं बढ़ती जा रही थीं। शहर में बच्चों को संगीत सिखाने का चलन बढ़ रहा था और बाजार की उस बढ़ती मांग को ध्यान में रखकर संगीत विद्यालय भी खुलने लगे थे। पास में ही एक दिन उन्होंने सुषमा संगीत विद्यालय का बोर्ड लगा देखा और चली गई वहाँ बात करने...

       उसे अयोध्या वाले पंडितजी की बात याद आई। लगा हो न हो उसकी शोहरत का रास्ता यहीं से जाता हो। क्या पता माँ जानकी ने उसी के लिए यह स्कूल खुलवाया हो। महज संयोग था उसका गला विद्यालय की संचालिका को भी पसंद आ गया। मनोरमा देवी सुषमा संगीत विद्यालय में संगीत सिखाने लगीं। पैसे बहुत तो नहीं मिलते थे लेकिन कहावत है कि ना से हां तो हुआ। फिर तो बहुत कुछ हुआ... ऐसा जैसा किसी ने नहीं सोचा होगा। खुद मनोरमा ने भी नहीं।

       संगीत विद्यालय की संचालिका बिंदिया प्रसाद अक्सर उसे बातों-बातों में बताने लगीं कि उसका गला कितना अच्छा है, अगर वह चाहे तो गाने में अपना करियर कितना अच्छा बना सकती है, बिना स्टेज पर ऑर्केस्ट्रा में गाये भी गाकर पैसे कमाए जा सकते हैं। इस बात ने मनोरमा का ध्यान खींचा- आखिर वो कैसे?

       तब बिंदिया प्रसाद ने उसे पहली बार चतुर्भुज स्थान में गाने के बारे में बताया। पहली बार सुनकर तो मनोरमा घबड़ा गई क्योंकि चतुर्भुज स्थान को लोग जिस्म व्यापार की मंडी के रूप में जानते थे। एक ऐसी दुनिया के रूप में जहाँ दिन का उनींदापन और रात का जगरना था। लेकिन धीरे-धीरे बिंदिया ने उसे समझाना शुरू किया...

       कभी कहती, गाने का वहाँ कितना पुराना ट्रेडिशन है, वहाँ ब्रजबाला देवी जैसी गायिकाएं हुई हैं जिनके ऊपर देश तो छोड़ो विदेश के विद्वानों तक ने लिखा है, फ़िल्में बनायी हैं। कम से कम १०० साल की परंपरा है वहाँ गाने की... तुम जैसा समझती हो वैसा वहाँ कुछ नहीं होता, गाने वालों की वहाँ अलग दुनिया है, धंधा करने वाली वहाँ नहीं रहती, वे उसके पीछे की गुमनाम गलियों में रहती हैं। वैसे वहाँ गाने कि लिए लाइसेंस लेना पड़ता है। आजकल नया लाइसेंस किसी को नहीं मिलता लेकिन कोई पुरानी गायिका अपना लाइसेंस जब चाहे किसी दूसरे के नाम कर सकती है।

       कभी समझाती, ‘तुम गलत समझ रही हो। तुम्हारे अंदर हुनर है। उसको समझो। एक बार गायिका के रूप में वहाँ नाम हो गया तो समझो दुनिया में नाम हो गया। बड़ी-बड़ी महफ़िलों में बड़े-बड़े लोगों के सामने गाने का मौक़ा मिलता है सो अलग। मैं तो एक ऐसी गायिका को जानती भी हूँ। बेचारी बुढापा बंगाल के अपने गांव में जाकर काटना चाहती है। अगर तुम ५... खर्च करना चाहो तो मैं उसका लाइसेंस तुम्हारे नाम करवा सकती हूँ’, बिंदिया ने आँखें मारते हुए कहा था।

       उस दिन तो मनोरमा ने कुछ नहीं कहा लेकिन उसके दिमाग में बिंदिया की बात घूमने लगी। और भी कई तरह की बातें... बड़ी होती बेटी की पढ़ाई, आगे चलकर मेडिकल की तैयारी, बेटे की बढ़िया अंग्रेजी स्कूल में पढाई। जमा करने को थोड़ा पैसा ताकि अपने जनकपुर में माँ सीता के मंदिर के पास छोटा सा ही सही मगर अपना एक घर बनवाकर वहीँ मंदिर में भजन गा-गाकर बाकी जीवन काट सके। न सही जवानी दोनों का बुढापा तो आराम से कट सके।

       उन दिनों रात को खाना खाते समय अरुण से वह अक्सर बातें करने लगी थी, सपनों तथा उन सपनों को पूरा करने के लिए पैसे जुटाने, जुगाने की बात करने लगी थी। अरुण का जीवन ऐसा ट्यूशनमय हो गया था कि सारा समय या तो पढाने या पढाने की तैयारी में निकल जाता। वह हमेशा इस कोशिश में लगा रहता उसके पढाये कुछ लड़कों को इतने नंबर आ जाएँ कि उसका ट्यूशन की दुनिया में नाम हो जाए। घर में खुशहाली आती दिखाई दे रही थी। लगने लगा कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा कि तभी कुछ ऐसा हुआ जिसने सब कुछ ठीक नहीं रहने दिया...

       मनोरमा उर्फ सुमन कुमारी की जिंदगी की कहानी भी किसी रहस्य-रोमांच की कहानी की तरह लगने लगी है। जैसे ही लगता है कि बस अब सब कुछ ठीक होने वाला है कि कुछ ऐसा हो जाता जो कुछ भी ठीक नहीं रहने देता...

       घबड़ाइए नहीं...कोई बिपदा नहीं आई उस पर, मैं भी आपकी तरह कुछ ऐसा-वैसा सोचने लगा था...कलेजा मुंह को आ गया था। ‘लेकिन एक बात बताइए क्या परदेस में रहना किसी बिपदा से कम है क्या? पति की आमदनी का कोई नियमित जरिया न हो, बच्चों की पढाई, घर का किराया, सपनों के बढते बाजार। कौन है जो इनके बारे में नहीं सोचता, कौन है जो इनको पूरा नहीं करना चाहता’- भौंहें सिकोडकर ऐसे बोली जैसे बहुत दिनों से यह सवाल पूछने के लिए किसी का इंतज़ार कर रही हो।

       बेटी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने लगी थी। अब उसका स्टैंडर भी तो देखना पड़ता है। अपने सपनों को तो मार भी ले इंसान लेकिन बच्चों के सपने... घर में रंगीन टीवी होना चाहिए, सबके पापा गाड़ी से स्कूल छोड़ने आते हैं पप्पा के पास कम से कम स्कूटर तो होना ही चाहिए। शाम में लाइट नहीं रहती है जेनरेटर वाले से कनेक्शन लेना चाहिए...।

       सपने बढते जा रहे थे हकीकत वही...

       बाजार ने शहरों को सपने की दुकान बना दिया है। सपने लिए लोग दूर-दूर से आते हैं। उनको पूरा कैसे करें असली मुश्किल तो यह होती है। उन दिनों मैंने पहली बार उस दूसरे बाज़ार के बारे में सोचना शुरू किया जिसके बारे में बिंदिया बताती थी। सुननेवालों की पसंद का गाना गाओ पैसे पाओ, सच बताऊँ मुझे इसमें कुछ बुराई नहीं लगती थी। लोक-लाज तो वहाँ होती है जहाँ कोई जानने वाला होता हो। जब घर-घर बाज़ार बनता जा रहा हो तो कहाँ का लोक कहाँ की लाज- मनोरमा ने सुमन कुमारी के रूप में ऐसा ही कुछ बोला था शायद।

       एक दिन मनोरमा ने अपने पति से खाना खाते-खाते बिंदिया वाली बात बताई। कहा गाना गाने में मुझे कोई बुराई तो नहीं दिखाई देती है। जैसे गाना सिखाना वैसे गाना गाना। लोग तो क्या-क्या तक कर लेते हैं। जानते हैं बड़े शहरों आजकल गलत काम करते हुए जो औरतें पकड़ी जाती हैं वे सब वहाँ की नहीं होती बाहर की होती हैं। सबके बारे में अखबार में छपता रहता है- उसने थोड़ा रूककर कहा।

       पति के चेहरे पर चिंता की रेखाएँ बढ़ गयीं जो पत्नी की इस बात के साथ मिट गयीं, ‘पैसे कमाने की कोशिश करनी तो चाहिए लेकिन जो पैसे इज्ज़त से मिले वही अच्छा लगता है। अगर आप कहेंगे तभी तो कोई काम करूंगी।’

       ‘लेकिन मजबूरी थी कि बढ़ती जा रही थी। हर महीने फीस कहाँ से दें, कैसे दें इसका संकट बना रहता... अब परदेस में न तो कोई उधार देने वाला होता है न क़र्ज़ देने वाला। क्या करें? अक्सर पढ़ती हूँ अखबारों में कि दिल्ली- मुंबई जैसे शहरों में जब औरतें काम पर जाती हैं तो अक्सर उनके बॉस उनके साथ गलत हरकत करते हैं। वे क्या करती हैं काम छोड़ देती हैं’- उसने पूछा था?

        मैं उनको रोज़ समझाती गाना गाकर ही तो पैसे कमाने हैं। क्या बुराई है। एक बार शुरू करने दीजिए। अगर कुछ ऐसा-वैसा हुआ तो छोड़ दूंगी। आखिर एक दिन उन्होंने कह दिया- ठीक है और सिर गोंतकर खाने लगे। मुझे उस दिन बड़ी हैरत हुई। सचमुच। जब तक मेरा पति मुझे मना करता रहा तब तक मुझे बुरा लगता रहा लेकिन जिस दिन वह मान गया उस दिन सच बताऊँ मुझे अच्छा नहीं लगा। उस दिन मुझे सचमुच इस बात का अहसास हो गया कि इसके बस का अब कुछ नहीं है। दो बच्चे पैदा करना इसके बस में था सो इसने कर दिया। अब जो करना है मुझे ही करना है। जिस दिन मुझे यह अहसास हुआ उस दिन से मेरा संकल्प और मजबूत हो गया। अपने बूते कुछ करने का।

       उसने बस एक बात कही- ‘जब औरत के पैर एक बार घर से बाहर निकल जाते हैं तो उसको रोका नहीं जा सकता। बस कुछ ऐसा मत करना कि इस अनजान नगर में हम किसी को मुंह दिखाने के लायक न रहें।’ जब आदमी निकम्मा हो जाता है तो बस जुबान में ही दम रह जाता है। उस दिन से उसकी बातों की परवाह करना मैंने छोड़ दिया। वैसे इस मामले में वह अच्छा है कभी चिल्ला-चिल्ली नहीं करता। नाराज़ होता है तो गुम्मा बन जाता है। कुछ करता नहीं है बस चुप होके मारता है।

       वैसे हम दोनों जानते थे कुछ हो भी गया तो यहाँ मुंह देखने वाला कौन है। और फिर मुंह छिपाकर भागने के लिए अपना जनकपुर तो है ही।

       वैसे सच बताऊँ तो मुजफ्फरपुर जैसे शहरों में भी अब पहले की तरह मोहल्ला, समाज जैसी बात नहीं रह गई थी। अनजानापन बढ़ता जा रहा था। लोग खाली समय या तो बाज़ारों के नए-नए शोरूम में घूम कर बिताते या टीवी के परिवार-समाज के साथ जुड़कर सुख महसूस करते। वैसे भी अनजान लोगों के बीच रहने से समाज कहाँ बन पाता है। अरुणजी ने इतना ज़रूर किया कि उस मोहल्ले से दूर बेला रोड में शहर के एक दूसरे नए बनते मोहल्ले में रहने चले गए। ट्यूशन सेंटर भी घर से दूर हो गया और अगर कोई पूछता भी तो यही बताते कि संगीत सिखाने जाती है। सुषमा संगीत विद्यालय की ओर से कुछ लड़कियों को घर में जाकर गाना सिखाती है।

       एक बात बताऊँ एक झलक में देखने में मनोरमा ऐसी थी भी नहीं कि उसको लेकर कोई ऐसी-वैसी बात सोचता। वह तो उसके आवाज़ में ऐसी कशिश थी कि सुनने वाले उसके मुरीद हो जाते।

       बिंदिया ने सब कुछ ठीक कर दिया। तय हुआ १ रुपये में १५ पैसे लेगी। उसी ने यह कमरा दिलवाया। बाद में पता चला उसने बाज़ार में १२ गायिकाएं बिठा रखी थीं। सबसे रुपये के २० लेती हूँ तुमसे १५ लूंगी। उसकी शिकायत क्या करूं। एक वही तो है जिसने शहर में सहारा दिया। आज अगर घर में हर सुविधा है, दो-दो बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं तो उसी की बदौलत। रही बात उसके धंधे की तो वह किसी तरह की बेईमानी नहीं करती। सबका ध्यान रखती है। और एक अनजान औरत से क्या चाहिए। कभी-कभी डर लगता है तो वही हौसला देती है।

       मेरा दूसरा जीवन शुरू हो गया। शाम को ४ से ८ या नौ बजे तक सुमन कुमारी बनकर चतुर्भुज स्थान की गायिका बन जाती। वहाँ से बाहर निकलते ही मनोरमा।

       पहले यही सोचा था कुछ दिन में कुछ पैसे जमा हो जाएँ तो यह पेशा छोड़ देगी। कमाई हुई भी लेकिन ज़रूरतें भी बढ़ती गयीं।

       ‘डर नहीं लगता था’, मैंने पूछा।

       ‘लगता था शुरू-शुरू में। लेकिन अगल-बगल के कमरों में और भी तो रहती हैं गायिकाएं। अगर किसी रसिया का मन बहकता है तो मैं तेज आवाज़ में बोलने लगती हूँ। इशारा समझकर खखारते हुए वे दूसरे कमरों से निकल आती हैं। वैसे बाबू साहब एक बात बताइए ये बड़े-बड़े शहरों में बड़ी-बड़ी नौकरियों में जो लड़कियां काम करती हैं उनको अपने साथ काम करने वाले मर्दों से खुद को नहीं बचाना पड़ता होगा। औरत चाहे किसी ओहदे पर हो, किसी भी तरह के पेशे में हो उसको मर्द एक ही निगाह से देखते हैं। जब तक उनकी नज़रें नहीं बदलेंगी न, मुझे नहीं लगता औरतों की हालत कुछ खास बदलने वाली है।’

       जब भी वह इस तरह की बातें करती, मैं सोच में पड़ जाता।

       ‘बाद में तबला बजाने वाले, हारमोनियम वाले, सारंगी वाले ये सब हमारे लिए परिवार की तरह हो गए। हम सबकी रोज़ी-रोटी एक दूसरे से जुड़ी हुई है। वैस एक राज़ की बात बताऊँ हम कभी किसी कस्टमर को अकेले में गाना नहीं सुनाती चाहे वो कितना ही जाना-पहचाना क्यों न हो। अकेले में अच्छे-अच्छे आदमी को शैतान बनते देर नहीं लगती। राज़ की बात जानते हैं क्या है, हम साजिंदों के साथ गाती ही इसलिए हैं कि एक कमरे में इतने लोगों के बीच बैठकर गाना सुनते समय सुनने वाला अपने आपको काबू में रख सके। सच बताऊँ तो पहली बार इस परदेस में मुझे इन साजिंदों के साथ रहकर लगा कोई अपना भी है शहर में’, वह बातें करते-करते खुलती जा रही थी। ‘पहले दो-एक साल कमाई भी ठीक हुई लेकिन जबसे भोजपुरी सिनेमा चला है। कस्टमर जो आते हैं वे अधिक भोजपुरी की मांग करते हैं। अब तो यहाँ आने वाली नई-नई लड़कियों के साथ नाचनेवालियाँ भी रहती हैं। ऐसे-ऐसे गीतों के साथ ऐसे-ऐसे नाच कि अब तो लगता है हमारा धंधा बंद होने वाला है...’

       ‘फिर आप क्या करेंगी?’

       ‘अब तो मेरे पति का ट्यूशन भी बंद जैसा हो गया है। अब शहर में बड़े-बड़े कोचिंग सेंटर खुल गए हैं। पहले भी उससे कोई उम्मीद नहीं थी अब तो और नहीं रही। छोडना तो मैं भी चाहती हूँ इस काम को। बस बेटी हाई स्कूल पास कर जाए, बेटे का अच्छे अंग्रेजी स्कूल में दाखिला हो जाए। फिर देखिएगा मैं जनकपुर में जाकर अपना संगीत विद्यालय खोल लूंगी। वहाँ हम मधेशियों के बच्चे अब हिन्दी गाना खूबी सीखने लगे हैं। देखियेगा।।’

       मै कुछ और पूछता इससे पहले उसने घड़ी दिखाते हुए कहा एक घंटा हो गया है। मैं वादे के मुताबिक़ उसको देने के लिए नोट गिनने लगा।

       ‘जानते हैं बाबू मैंने एक घंटे क्यों कहा था। आपने इतने पैसे दिए इसलिए आज मैं किसी कस्टमर का इंतज़ार नहीं करनेवाली। ज़रा ज़ल्दी घर पहुंचना चाहती हूँ। रोज़ जब तक पहुंचती हूँ बच्चे सोने की तैयारी में होते हैं। आज आपकी कृपा से उसके साथ कुछ टाइम बिता लूंगी।’

       यही है मेरे दूसरे जीवन की सारी कहानी। मेरी सच्चाई का आइना। आप तो लिखना चाहते हैं न? हो सकता है आपके किसी काम आ जाए। लिखियेगा, ‘हम जो करते हैं खुलेआम करते हैं, किसी को धोखा नहीं देते।’

        ‘बस आपसे एक बात कहती हूँ मेरा नाम मत लिख दीजियेगा। अगर कभी कोई जानने वाला पढ़ लेगा और पढकर मुझे पहचान लेगा तो मेरी पहली जिंदगी पर इस दूसरी जिंदगी का साया पड़ जायेगा। मेरे इस जीवन को गुमनाम ही रहने दीजियेगा।’

       ‘एक बात है, आज बहुत दिनों बाद किसी से खुलकर इतनी बात की। मन बड़ा हल्का लग रहा है’, मेरे बाहर निकलने से पहले यह उसका आखिरी वाक्य था।

       उस शाम चतुर्भुज मंदिर के ठीक बगल वाली गली के ऐन मोड़ के उस धूल-धूल मकान से जब मैं निकला तो मुझे हर खुले दरवाज़े के पीछे एक दूसरा जीवन दिखाई देने लगा। हर चेहरे के पीछे एक दूसरा चेहरा। मुझे लगा वह कह रही है, एक आदमी जीवन भर में कितने चेहरे बदल लेता है कभी इस बारे में आपने सोचा है। हर सच के पीछे कितने झूठ छिपे होते हैं...

       वैसे एक बात बताऊँ, जैसे आपको यह कहानी कुछ अधिक नाटकीय लग रही है वैसे ही बाद में मुझे भी लगने लगी। इसीलिए तो उसकी बातचीत का छिपाकर बनाया गया टेप, उसकी बातचीत के नोट्स जो मैंने दिखाकर बनाये थे, सब रखकर धीरे-धीरे मैं भूल चुका था। बहुत दिनों तक मैंने उस प्रसंग में कुछ नहीं लिखा। लेकिन जब कभी अपनी किताबों के बीच बातचीत वाली वह डायरी दिख जाती उसकी कहानी याद आ जाती। कभी-कभी उसका ध्यान आ जाता तो थोड़ी देर अपने जीवन की उस रोमांचक घटना को याद करके मन ही मन अपने को गुदगुदा लेता।

       जो कुछ भी लिखा है उस शाम की स्मृतियाँ हैं जिसमें एक झूठे जीवन का सच है। एक बार मन में आया उसकी बातचीत प्रकाशित करवा दूं। लेकिन जिस सच की बुनियाद ही झूठ पर हो उसे कौन सच मानेगा। जब इतने दिनों बाद भी खुद मेरा मन भी उसे सच मानने का नहीं होता तो आपका क्या होगा! जाने क्यों आज मुझे अपने मरहूम उस्ताद की पंक्तियाँ याद आ रही हैं। वे कहते थे जब यथार्थ ही इतना अविश्वसनीय हो चला हो तो ऐसे में किसी भी बात पर हैरत नहीं होनी चाहिए।

       इस बात पर भी नहीं... मैं सोचता रहा।

       वैसे एक बात बताऊँ, आपकी तरह अब मुझे भी यही लग रहा है वह चली गई होगी जनकपुर। वहाँ उसने अपना संगीत विद्यालय खोल लिया होगा। ...न जाने क्यों यह भी लग रहा है गली के ऐन मोड़ के उस मकान का दरवाज़ा अब भी उसी तरह खुला होगा...

       दूसरी दुनिया का दरवाज़ा जिसके अंधेरों में दूसरे जीवन का वास है।
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