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उमेश चौहान की कविताओं में नारी


लक्ष्मण - रेखाएँ


जो हमेशा अपनी हद में रहता है
वह प्रायः सुरक्षित बना रहता है
लेकिन इतिहास का पन्ना नहीं बन पाता कभी भी
जो हदें पार करने को तत्पर रहता है
उसी के लिए खींची जाती हैं लक्ष्मण - रेखाएँ
जो वर्जना को दरकिनार कर लाँघता है ये रेखाएँ
वही पाता है जगह प्रायः इतिहास के पन्नों पर।

इस देश में ऐसे महापुरुषों की कमी नहीं
जो नारियों को मानकर अबला
रोज़ खींचते हैं उनके चारों ओर लक्ष्मण - रेखाएँ
लेकिन फिर भी कुछ सीताएँ हैं कि मानती ही नहीं
युगों पुरानी त्रासदी को भूल
किसी भी वेश में आए रावण की परवाह किए बिना
वे लाँघती ही रहती हैं निर्भयता से
पुरुष-खचित इन रेखाओं को
और इतिहास के पन्नों में दर्ज़ होती रहती हैं
मीराँबाई, अहिल्याबाई, लक्ष्मीबाई
या फिर यूसुफजाई मलाला और दामिनी बनकर।

शीला भयाक्रांत है


शीला झारखंड से दिल्ली आई है
वहाँ पलामू के एक वन्य गाँव में
उसका छोटा - सा घर है
घर में माँ - बाप हैं
भाई है, बहने हैं
घर की दीवारों पर
उसके द्वारा माँ के साथ मिलकर बनाई गई
जनजातीय कलाकृतियाँ हैं
बाहर वन में उन्मुक्त विचरण करता
उसका बचपन है
और भी बहुत कुछ है
उसको प्यारा लगने वाला वहाँ
लेकिन सरकारी व्यवस्थाओं में जकड़ा जंगल
रोटी नहीं देता उन्हें अब
इसीलिए अपने परिवार का
एक नया भविष्य तलाशने
झारखंड से दिल्ली चली आई है शीला।

शीला को नहीं पता था कि
अपने बचपन को पीछे गाँव में छोड़
जिस तरुणाई को सहेजकर
वह दिल्ली ले आई है
उसकी कैसी लूट होती है यहाँ
उसके गाँव का रहने वाला वह एजेन्ट भी
जो लेकर आया था उसे यहाँ
माँ - बाप को अच्छे प्लेसमेन्ट के ढेरों भरोसे दिलाकर
नहीं निकला था बिल्कुल भी भरोसेमंद।

दिल्ली के इस जंगल में
अब अकेले भटक रही है शीला
किसी अच्छी मालकिन की तलाश में
जिसके घर के झाड़ू - बरतन में पूरी हो सकें
उसके माँ-बाप की अपेक्षाएँ
और पा सके वह भी
दिल्ली में अमूमन न मिलने वाला एक ऐसा ठौर
जहाँ महफूज़ रख सके वह अपनी तरुणाई
जहाँ न देनी पड़े उसे पुलिस को
अपने साथ हुए बलात्कार की वह तहरीरें
जिन पर अँगूठे तो उसके जैसे अनपढ़ों के होते हैं
पर शब्द किसी और के
जहाँ न देनी पड़े सफाई उसे
बलात्कारियों द्वारा लगाए गए
चोरी के झूठे प्रत्यारोपों की।

शीला को डर लगता है
उन कचेहरियों में जाने से
जहाँ पुलिस अक्सर ले जाती है
बलात्कार की शिकार हुई
दिल्ली की दूसरी झारखंडी लड़कियों को
उसे डर लगता है
कोर्ट के अहलमदों व वकीलों की चुभती नज़रों से
सबसे ज्यादा तो उस नारी - निकेतन के वार्डन से
जहाँ भेज देती है अदालत
उन पीड़ित व बेसहारा लड़कियों को
अपनी पीड़ा के अहसास से छुटकारा पाने के लिए,
ताजा पीड़ा के आगे
पहले की पीड़ाएँ भूल जो जाता है इनसान।

शीला यह भी नहीं चाहती कि
माँ - बाप का सारा विश्वास ही भंग हो जाए
उसकी इस दिल्ली के प्रति
और वे आकर ले जाएँ उसे
दूसरी पीड़ित लड़कियों की तरह
वापस अपने गाँव
रात - दिन ताने सुन - सुनकर जीने के लिए।

शीला भयाक्रांत है
दिल्ली के इस बियाबान में
क्योंकि वह अपनी तरुणाई लुटाकर नहीं भरना चाहती
अपना और अपने परिवार का पेट
पर शीला को नहीं मालूम कि
कब तक सुरक्षित रह सकेगी वह
दिल्ली के इन दरिन्दों के बीच।

रोओ!


रोओ, इस देश की दुर्गाओ, चण्डियो, महाकालियो!
रोओ, क्योंकि रोना ही बचा है नियति में
तुम्हारी और हमारी भी।

रोओ, क्योंकि भूखा है देश यह
सिर्फ पेट का ही नहीं
हर तरह की निर्लज्जता दिखाने का भी।

रोओ कि विश्व के बलात्कारियों की राजधानी बन चुकी है दिल्ली,
रोओ कि घर से लेकर भरी सड़कों तक कहीं भी महफूज़ नहीं हो तुम,
रोओ कि बड़े शहर ही नहीं, छोटे कस्बों और गाँवों तक का यही है हाल,
रोओ कि नग्नता निषिद्ध होते हुए भी
इस देश के पर्यटन - स्थलों में
आए दिन होते हैं बलात्कार विदेशी युवतियों तक पर।

रोओ, क्योंकि हमारे आक्रोश से डरकर
शर्म से आत्महत्या तो नहीं कर लेंगे ये बलात्कारी
और गुस्से में इन विक्षिप्तों को संगसार करने का
मौका तो नहीं ही मिलेगा आपको गाँधी के इस देश में!

रोओ कि यहाँ गुस्सा सड़कों पर नहीं
सिर्फ टीवी चैनलों पर फूटता है,
रोओ कि यहाँ सिर्फ बेनतीज़ा बहसें ही होती हैं
पान के नुक्कड़ों से लेकर संसद के भीतर तक,
रोओ कि यहाँ सुरक्षित नहीं है कोई
चुस्त पुलिस वालों के बीच भी,
रोओ कि यहाँ तमाम अधिनियम होते हुए भी
सजा देने में सुस्त है कानून।

रोओ कि यहाँ यह सब आए दिन होते हुए भी
हम झूठ - मूठ गर्वान्वित होते ही रहेंगे
अपनी सांस्कृतिक विरासत पर
रोओ कि यहाँ सब कुछ भुला ही दिया जाता है दो - चार दिन में
अनेकानेक सामाजिक - राजनीतिक  समस्याओं के बीच।

रोओ, क्योंकि करुणा से भरा है इस देश का इतिहास,
रोओ, क्योंकि वैसे भी हँसा तो जा नहीं सकता
अपने ही घरों में आग लगाकर भी।

रोओ, इस देश की माताओ, बहनो, बेटियो, रोओ!
लेकिन एक बार घरों से बाहर निकलकर
जरा कुछ जोर से तो रोओ!

उमेश कुमार सिंह चौहान
जन्म : 9 अप्रैल 1959, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
भाषा : हिंदी
विधाएँ : कविता, कहानी, आलोचना, अनुवाद
मुख्य कृतियाँ
कविता संग्रह : गाँठ में लूँ बाँध थोड़ी चाँदनी, दाना चुगते मुरगे, जिन्हें डर नहीं लगता, जनतंत्र का अभिमन्यु 
कहानियाँ : हंस, हिंदुस्तान, स्वतंत्र भारत आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित
आलोचना : कथा, कल के लिए, समकालीन सरोकार, लमही आदि पत्र-पत्रिकाओं में आलोचना  प्रकाशित
अनुवाद : अक्कित्तम की प्रतिनिधि कविताएँ (मलयालम से अनूदित कविताओं का संग्रह)
सम्मान
राजभाषा सम्मान (इफ्को - 2011), अभय देव स्मारक भाषा समन्वय पुरस्कार (भाषा समन्वय वेदी, कालीकट - 2009) 
संपर्क सी-2/195, सत्य मार्ग, चाणक्यपुरी, नई दिल्ली-110021
फोन +91-8826262223
ई-मेल umeshkschauhan@gmail.com
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