डॉ० विश्वनाथ त्रिपाठी को व्यास सम्मान २०१३ मिलने पर असीम शुभकामनाएं, इस सम्मान से सिर्फ़ वो ही नहीं बल्कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, पुस्तक प्रकाशक राजकमल प्रकाशन, उनके छात्र और देश-विदेश में फैले उनके तमाम चाहने वाले (जिनमे से एक मैं भी हूँ) भी सम्मानित हुये हैं।
आप शब्दांकन के पाठकों के लिये 'व्योमकेश दरवेश' से जुड़ी बातों को साझा कर रहे हैं, चर्चित युवा मीडियाकर्मी अनंत विजय, जो उनके छात्र भी रहे हैं। इसके साथ ही सम्मान और पुस्तक से जुड़ी कुछ जानकारियाँ भी प्रकाशित की जा रही हैं। आशा है कि इसका कुछ लाभ आपको अवश्य मिलेगा।
भरत तिवारी (संपादक - शब्दांकन)
उनका रचित साहित्य विविध एवं विपुल है। उनके शिष्य देश–विदेश में बिखरे हैं। लगभग साठ वर्षों तक उन्होंने सरस्वती की अनवरत साधाना की। उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास का नया दिक्काल एवं प्राचीन भारत का आत्मीय–सांस्कृतिक पर्यावरण रचा। हिन्दी की जातीय संस्कृति के मूल्यों की खोज की, उन्हें अखिल भारतीय एवं मानवीय मूल्यों के सन्दर्भ में परिभाषित किया। परम्परा और आधुनिकता की पहचान कराई। सहज के सौन्दर्य को प्रतिष्ठित किया। वे उन दुर्लभ विद्वान् सर्जकों की परम्परा में हैं जिसके प्रतिमान तुलसीदास हैं और जिसमें पं० चन्द्रधार शर्मा गुलेरी स्मरणीय हैं।
उनका जीवन–संघर्ष विस्थापित होते रहने का संघर्ष है। उनकी जीवन–यात्रा के बारे में लिखना जितना जरूरी है उससे ज्यादा मुश्किल। इस पुस्तक के लेखक को दो दशकों से भी अधिक समय तक उनका सान्निध्य और शिष्यत्व प्राप्त होने का सौभाग्य मिला। इसलिए पुस्तक को संस्मरणात्मक भी हो जाना पड़ा है। प्रयास किया गया है कि प्रसंगों और स्थितियों को यथासम्भव प्रामाणिक स्रोतों से ही ग्रहण किया जाए। आदरणीयों के प्रति आदर में कमी न आने पावे। काशी की तत्कालीन साहित्य–मंडली, लेखक की मित्र–मंडली अनायास पुस्तक में आ गई है।
आज से तकरीबन दो दशक पहले की बात है , मुझे ठीक से याद नहीं है कि कौन सा महीना था । दिल्ली विश्वविद्यालय के दक्षिण परिसर में पत्रकारिता का कोर्स शुरू हुआ था । अपने किसी मित्र की सलाह पर मैंने भी एडमिशन फॉर्म भर दिया, प्रवेश परीक्षा में पास कर गया, इंटरव्यू का बुलावा भी आ गया । दक्षिण परिसर के हिंदी विभाग के अंतर्गत पत्रकारिता कोर्स था, लिहाजा हिंदी विभाग में सारा कामकाज होता था । साक्षात्कार उसी इमारत की पहली मंजिल के किसी कमरे में था । जब मैं कमरे में दाखिल हुआ तो वहां सात लोग बैठे थे । जिनमें से मैं नामवर सिंह और सुरेन्द्र प्रताप सिंह को जानता था । नामवर सिंह जी को दिल्ली और पटना की कई गोष्ठियों में सुन चुका था और सुरेन्द्र जी को रविवार के दिनों से जानता था । इसके अलावा इंटरव्यू बोर्ड के पांच अन्य सदस्यों को मैं नहीं जानता था । बाद में पता चला कि उनमें मनोहर श्याम जोशी, प्रभाष जोशी, जे एस यादव, विश्वनाथ त्रिपाठी और पाठ्यक्रम संयोजक निर्मला जैन थीं । ये तो अच्छा हुआ इन विभूतियों को नहीं जानता था वर्ना इतने मूर्धन्य लोगों के सामने बोल पाना मुमकिन नहीं था । मेरा इंटरव्यू चला, सामान्य ज्ञान के अलावा साहित्य पर सवाल शुरू हो गए तो फिर साक्षात्कार तकरीबन चालीस मिनट तक खिंच गया था । सभी ने सवाल दागे थे ।
चयन प्रक्रिया द्विस्तरीय है। पहले एक तीन सदस्यों की भाषा समिति पुरस्कार अवधि में प्रकाशित कृतियों पर विचार विमर्श करके तीन उत्कृष्ट कृतियों की संस्तुति करती है। जिसपर चयन समिति विचार करती है। चयन समिति केवल संस्तुति की गर्ई पुस्तकों पर ही विचार नहीं करती। निर्धारित अवधि में प्रकाशित अन्य पुस्तकों पर भी वह विचार कर सकती है।
खैर उस दौर की कई यादें हैं लेकिन अभी विश्वनाथ त्रिपाठी जी की चर्चा इस वजह से कर रहा हूं कि गुरुदेव को उनकी संस्मरणात्मक पुस्तक व्योमकेश दरवेश पर तेइसवां व्यास सम्मान देने का ऐलान हुआ है । व्योमकेश दरवेश दो हजार ग्यारह में प्रकाशित हुआ था और यह किताब विश्वनाथ त्रिपाठी के गुरु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी पर केंद्रित है । खुद लेखक ने भी इस किताब को आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का पुण्य स्मरण कहा है । दो हजार ग्यारह में जब त्रिपाठी जी की यह किताब प्रकाशित हुई थी तो हिंदी जगत में इस पर व्यापक चर्चा हुई थी । आलोचकों से लेकर पाठकों तक ने इस पुस्तक को जमकर सराहा था । माना गया था कि बहुत दिनों के बाद हिंदी में कोई ऐसी किताब आई थी जिसने पाठकों और आलोचकों को अपनी ओर आकृष्ट किया । इसके पहले दो हजार चार में विश्वनाथ त्रिपाठी की अपने गांव पर लिखी संस्मरणात्मक किताब नंगातलाई का गांव भी प्रकाशित होकर लोकप्रिय हो चुकी थी । मेरा मानना है कि नंगातलाई के गांव ने विश्वनाथ त्रिपाठी को हिंदी में पर्याप्त शोहरत दी । इसके पहले विश्वनाथ त्रिपाठी एक सम्मानित शिक्षक के रूप में जाने जाते थे जिनकी आलोचना की भी कुछ किताबें प्रकाशित हुई थी । नंगातलाई के गांव के प्रकाशन के पहले त्रिपाठी जी को अकादमिक जगत से बाहर लोकप्रियता हासिल नहीं थी जो उसके प्रकाशन के बाद मिली । नंगातलाई के मोहक गद्य और किताब से गुजरते हुए गांव के माहौल को महसूस करता पाठक उसे सम्मोहित होकर पढ़ता चला जाता है । मैं दृढता से यह बात कह सकता हूं कि नंगातलाई का गांव से त्रिपाठी जी को शोहरत मिली और व्योमकेश दरवेश ने उनको बड़ा पुरस्कार दिलवाया । व्योमकेश दरवेश को तेइसवें व्यास सम्मान के ऐलान के वक्त के के बिरला फाउंडेशन ने कहा – यह पुस्तक अपने विधागत रूप, भाषा शैली और शिल्प में एक अनोखापन लिए हुए है । इसमें जीवनी, संस्मरण, आत्मचरित, इतिहास और आलोचना के विभिन्न रंग किस्सागोई की तरलता में मिलकर एक ऐसा इंद्रधनुष बनाते हैं जो अपने आप में बेजोड़ है । इसमें मैं सिर्फ यह जोड़ना चाहता हूं कि इस पुस्तक में त्रिपाठी जी ने अपने गुरु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी को भी कई बार कसौटी पर कसा है लेकिन बहुधा वो गुरू को श्रद्धाभाव से ही देखते चलते हैं ।
इस किताब में एक ऐसा प्रसंग है जो मुझे खटका था । व्योमकेश दरवेश के पहले संस्करण में पृष्ठ संख्या दो सौ चौदह पर यशपाल और साहित्य अकादमी विवाद के संदर्भ में त्रिपाठी जी लिखते हैं – यशपाल के विषय में विवाद हुआ ।कहते हैं कि दिनकर ने आपत्ति दर्ज की कि झूठा सच के लेखक ने किताब में जवाहरलाल नेहरू के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया है । नेहरू भारत के प्रधानमंत्री होने के साथ-साथ अकादमी के अध्यक्ष भी थे । नेहरू तक बात पहुंची हो या ना पहुंची हो, द्विवेदी जी पर दिनकर की धमकी का असर पड़ा होगा । भारत के सर्वाधिक लोकतांत्रिक नेता की अध्यक्षता और पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी के संयोजकत्व में यह हुआ । अगर यह सच है तो अकादमी के अध्यक्ष और हिंदी के संयोजक दोनों पर धब्बा है यह घटना और मेरे नगपति मेरे विशाल के लेखक को क्या कहा जाए जो अपने समय का सूर्य होने की घोषणा करता है । अब यहीं विश्वनाथ त्रिपाठी का दिनकर को लेकर पूर्वग्रह सामने आता है । जबकि यह पूरा प्रसंग ही इससे उलट है । डी एस राव की किताब फाइव डिकेड्स, अ शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ साहित्य अकादमी के पृष्ठ संख्या 197 पर लिखा है – एक्जीक्यूटिव बोर्ड की बैठक में नेहरू ने जानना चाहा कि यशपाल के झूठा सच को अकादमी पुरस्कार क्यों नहीं मिला तो हिंदी के संयोजक हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि उसमें नेहरू जी को बुरा भला कहा गया है । नेहरू जी ने कहा कि पुरस्कार नहीं देने की ये कोई वजह नहीं होनी चाहिए । इसपर द्विवेदी जी ने जवाब दिया कि सिर्फ वही एकमात्र कारण नहीं था बल्कि और भी अन्य बेहतर किताबें पुरस्कार के लिए थी । अर्थात द्विवेदी जी ने यशपाल को साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं दिया । कालांतर में यह बात सुननियोजित तरीके से फैलाई गई कि इसके पीछे दिनकर थे लेकिन वो गलत तथ्य है । इस पूरे प्रसंग से यह साबित होता है कि विश्वनाथ त्रिपाठी या तो स्मरण दोष के शिकार हो गए या जानबूझकर दिनकर को बदनाम करने की साजिश के हिस्सा बने । अगर स्मरण दोष के शिकार हुए होते तो यह नहीं कहते- मेरे नगपति मेरे विशाल के लेखक को क्या कहा जाए जो अपने समय का सूर्य होने की घोषणा करता है । डॉ नागेन्द्र की किताब विमोचन के प्रसंग में विश्वनाथ त्रिपाठी ने आचार्य जी को कोट किया है – मंजन की बात थी ताड़ व भोज के पत्तों पर ग्रंथ लिखा जाता था । कभी किसी पत्ते को हवा उड़ा ले गई या दीमकों ने चाट लिया तो उसकी जगह पर सादा पत्ता लगा दिया जाता था । उस सादे पत्ते पर कुंडलिनी का चिन्ह बना दिया जाता था । उस कुंडलिनी चिन्ह सामग्री का मंजन होता था जिसका अभिप्राय यह है कि खोई हुई चिन्तन सामग्री की पुनरुद्भावना की जाएगी । गुरू उठ जाते थे तो शिष्य मंजन करते थे । लेकिन दिनकर के प्रसंग में त्रिपाठी जी अगले संस्करण में खुद ही सक्रियता दिखाई और मुझे बताया गया है कि दिनकर का नाम और अपने समय का सूर्य वाली लाइन हटा दी गई है । सवाल यही उठता है कि कि सादा कागज लगाने की आवश्यकता विश्वनाथ त्रिपाठी को क्यों पड़ी । खैर इस तरह के कई प्रसंग इस किताब में हैं । गुरू जी आपने ही कहा था कि निर्भीकता के साथ अपनी बात कहनी चाहिए और अगर तथ्य मजबूत हों तो दबंगई से सामने रखो । अंत में पुरस्कार के लिए आपको बधाई । आप दीर्घजीवी हों ।
आप शब्दांकन के पाठकों के लिये 'व्योमकेश दरवेश' से जुड़ी बातों को साझा कर रहे हैं, चर्चित युवा मीडियाकर्मी अनंत विजय, जो उनके छात्र भी रहे हैं। इसके साथ ही सम्मान और पुस्तक से जुड़ी कुछ जानकारियाँ भी प्रकाशित की जा रही हैं। आशा है कि इसका कुछ लाभ आपको अवश्य मिलेगा।
भरत तिवारी (संपादक - शब्दांकन)
व्योमकेश दरवेश - डा. विश्वनाथ त्रिपाठी
आकाशधर्मा गुरु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी अपने जीवन–काल में ही मिथक–पुरुष बन गए थे। हिन्दी में ‘आकाशधर्मा’ और ‘मिथक’ इन दोनों शब्दों के प्रयोग का प्रवर्तन उन्होंने ही किया था।उनका रचित साहित्य विविध एवं विपुल है। उनके शिष्य देश–विदेश में बिखरे हैं। लगभग साठ वर्षों तक उन्होंने सरस्वती की अनवरत साधाना की। उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास का नया दिक्काल एवं प्राचीन भारत का आत्मीय–सांस्कृतिक पर्यावरण रचा। हिन्दी की जातीय संस्कृति के मूल्यों की खोज की, उन्हें अखिल भारतीय एवं मानवीय मूल्यों के सन्दर्भ में परिभाषित किया। परम्परा और आधुनिकता की पहचान कराई। सहज के सौन्दर्य को प्रतिष्ठित किया। वे उन दुर्लभ विद्वान् सर्जकों की परम्परा में हैं जिसके प्रतिमान तुलसीदास हैं और जिसमें पं० चन्द्रधार शर्मा गुलेरी स्मरणीय हैं।
उनका जीवन–संघर्ष विस्थापित होते रहने का संघर्ष है। उनकी जीवन–यात्रा के बारे में लिखना जितना जरूरी है उससे ज्यादा मुश्किल। इस पुस्तक के लेखक को दो दशकों से भी अधिक समय तक उनका सान्निध्य और शिष्यत्व प्राप्त होने का सौभाग्य मिला। इसलिए पुस्तक को संस्मरणात्मक भी हो जाना पड़ा है। प्रयास किया गया है कि प्रसंगों और स्थितियों को यथासम्भव प्रामाणिक स्रोतों से ही ग्रहण किया जाए। आदरणीयों के प्रति आदर में कमी न आने पावे। काशी की तत्कालीन साहित्य–मंडली, लेखक की मित्र–मंडली अनायास पुस्तक में आ गई है।
गुरु आख्यान को सम्मान
- अनंत विजय
गुरू जी आपने ही कहा था कि निर्भीकता के साथ अपनी बात कहनी चाहिए और अगर तथ्य मजबूत हों तो दबंगई से सामने रखो - अनंत विजय
हिंदी के लेखक डा. विश्वनाथ त्रिपाठी की संस्मरणात्मक कृति 'व्योमकेश दरवेश' को वर्ष 2013 के व्यास सम्मान के लिए चुना गया। चयन समिति ने इनके चयन की घोषणा 5 फरवरी 2014 को की। व्यास सम्मान के क्रम में यह 23वां है। 22वां व्यास सम्मान (2012) डा. नरेन्द्र कोहली के उपन्यास ‘न भूतो न भविष्यति’ के लिए प्रदान किया गया था। ‘व्योमकेश दरवेश’ हिन्दी के यशस्वी विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के जीवन वृत का एक ऐसा अदभुत आख्यान है, जो अपनी सहज एवं सरल अभिव्यक्ति के कारण पाठकों को आत्मीय स्पर्श से उनकी चेतना को तन्मयता की ओर ले जाती है।
आज से तकरीबन दो दशक पहले की बात है , मुझे ठीक से याद नहीं है कि कौन सा महीना था । दिल्ली विश्वविद्यालय के दक्षिण परिसर में पत्रकारिता का कोर्स शुरू हुआ था । अपने किसी मित्र की सलाह पर मैंने भी एडमिशन फॉर्म भर दिया, प्रवेश परीक्षा में पास कर गया, इंटरव्यू का बुलावा भी आ गया । दक्षिण परिसर के हिंदी विभाग के अंतर्गत पत्रकारिता कोर्स था, लिहाजा हिंदी विभाग में सारा कामकाज होता था । साक्षात्कार उसी इमारत की पहली मंजिल के किसी कमरे में था । जब मैं कमरे में दाखिल हुआ तो वहां सात लोग बैठे थे । जिनमें से मैं नामवर सिंह और सुरेन्द्र प्रताप सिंह को जानता था । नामवर सिंह जी को दिल्ली और पटना की कई गोष्ठियों में सुन चुका था और सुरेन्द्र जी को रविवार के दिनों से जानता था । इसके अलावा इंटरव्यू बोर्ड के पांच अन्य सदस्यों को मैं नहीं जानता था । बाद में पता चला कि उनमें मनोहर श्याम जोशी, प्रभाष जोशी, जे एस यादव, विश्वनाथ त्रिपाठी और पाठ्यक्रम संयोजक निर्मला जैन थीं । ये तो अच्छा हुआ इन विभूतियों को नहीं जानता था वर्ना इतने मूर्धन्य लोगों के सामने बोल पाना मुमकिन नहीं था । मेरा इंटरव्यू चला, सामान्य ज्ञान के अलावा साहित्य पर सवाल शुरू हो गए तो फिर साक्षात्कार तकरीबन चालीस मिनट तक खिंच गया था । सभी ने सवाल दागे थे ।
इस पुस्तक (व्योमकेश दरवेश) में त्रिपाठी जी ने अपने गुरु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी को भी कई बार कसौटी पर कसा है लेकिन बहुधा वो गुरू को श्रद्धाभाव से ही देखते चलते हैं - अनंत विजयहिंदी उपन्यासों में प्रेम पर जब बात हुई तो मैंने मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास कसप की जमकर तारीफ की । लोग एक दूसरे को देखकर मुस्कराने लगे तो मुझे उस वक्त लगा था कि कुछ गलत बोल रहा हूं । वहां बैठे एक शख्स ने कसप और गुनाहों का देवता के बारे में तुलनात्मक सवाल पूछा था । बाद में मुझे पता लगा था कि इंटरव्यू बोर्ड में मनोहर श्याम जोशी भी बैठे थे और जब मैंने कसप की तारीफ की थी तो उस वजह से सारे लोग मुस्कुरा उठे थे । गुनाहों का देवता और कसप के बारे में सवाल पूछनेवाले शख्स विश्वनाथ त्रिपाठी थे । पत्रकारिता के कोर्स में त्रिपाठी जी हमें हिंदी भाषा की प्रकृति और विकास के अलावा पत्रकारिता का इतिहास पढ़ाते थे । खैर पढ़ाई के दौरान विश्वनाथ त्रिपाठी से संवाद का काफी अवसर मिला । उनकी निश्छल हंसी और साहित्य के प्रसंगों को सुनना हमें रुचिकर लगता था । बहुधा हम दो-चार मित्र उनको घेर लेते थे और फिर उनसे साहित्यक प्रसंगों को सुनाने का आग्रह करते थे । कोर्स खत्म होने के बाद हमारा संपर्क टूटता चला गया । महानगर की आपाधापी में साहित्यक गोष्ठियों में कभी कभार मिलना होता था और यदा कदा फोन पर बातचीत । मैं दक्षिण परिसर के दिनों से उनको गुरुदेव कहने लगा था । विश्वनाथ त्रिपाठी ने उन दिनों हमें कई बार कहा था कि निर्भीक होकर अपनी बात कहनी चाहिए । बातचीत में उन्होंने यह भी कहा था कि अगर तुम्हारे पास तथ्य हों तो उसे जोर देकर दबंगई से सबके सामने रखो और अगर तथ्य ना हों तो टेबल पर मुक्का मारते हुए अपनी बात कहो।
मैं दृढता से यह बात कह सकता हूं कि नंगातलाई का गांव से त्रिपाठी जी को शोहरत मिली और व्योमकेश दरवेश ने उनको बड़ा पुरस्कार दिलवाया - अनंत विजय
व्यास सम्मान
केके बिड़ला फाउण्डेशन द्वारा (भारतीय साहित्य के लिए) दिया जाने वाला सरस्वती सम्मान के बाद दूसरा सबसे बड़ा साहित्य सम्मान है. व्यास सम्मान के तहत चयनित कृति के लेखक को प्रशस्ति पत्र, स्मृति चिन्ह और 2.5 लाख रूपए नकद प्रदान किए जाते हैं।- व्यास सम्मान के तहत हिन्दी की किसी एक गद्य या पद्य कृति को प्रत्येक वर्ष सम्मानित किया जाता है। केके बिड़ला फाउण्डेशन की ओर से प्रत्येक वर्ष सरस्वती सम्मान भी दिया जाता है, जो कि किसी भी भारतीय भाषा में लिखी गई कृति के लिए होता है।
- व्यास सम्मान चयनित वर्ष के दस वर्ष पहले की अवधि में प्रकाशित किसी भारतीय लेखक की हिन्दी कृति को प्रदान किया जाता है।
- व्यास सम्मान की शुरूआत वर्ष 1991 में केके बिड़ला फाउण्डेशन की ओर की गई थी।
- पहला व्यास सम्मान वर्ष 1991 में डॉ रामविलास शर्मा को उनकी आलोचना भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी के लिए मिला था।
चयन समिति एवं चयन का प्रावधान
व्यास सम्मान के लिए कृति के चयन का दायित्व एक चयन समिति का है जिसके अध्यक्ष आधुनिक हिन्दी साहित्य के विद्वान प्रो. सूर्य प्रसाद दीक्षित हैं. उनके अतिरिक्त इस समिति में अन्य सदस्य हैं: चित्रा मुद्गल दिल्ली, डा. पूरनचंद टंडन नई दिल्ली, प्रो. सुवास कुमार हैदराबाद, प्रो. रामजी तिवारी मुंबई, व फाउंडेशन के निदेशक डा. सुरेश रितुपर्ण (सदस्य) सचिव।चयन प्रक्रिया द्विस्तरीय है। पहले एक तीन सदस्यों की भाषा समिति पुरस्कार अवधि में प्रकाशित कृतियों पर विचार विमर्श करके तीन उत्कृष्ट कृतियों की संस्तुति करती है। जिसपर चयन समिति विचार करती है। चयन समिति केवल संस्तुति की गर्ई पुस्तकों पर ही विचार नहीं करती। निर्धारित अवधि में प्रकाशित अन्य पुस्तकों पर भी वह विचार कर सकती है।
विजेताओं की सूची
- 2012: ‘न भूतो न भविष्यति’ (उपन्यास)-डा. नरेन्द्र कोहली
- 2011: “आम के पत्ते” (काव्य संग्रह)-राम दरश मिश्र
- 2010: "फिर भी कुछ रह जाएगा" (काव्य संग्रह)-विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
- 2009: “इन्हीं हथियारों से” अमर कान्त
- 2008: “एक कहानी यह भी” मन्नू भंडारी की कृति
- 2007: "समय सरगम" कृष्णा सोबती की कृति
- 2006: "कविता का अर्थात" परमानंद श्रीवास्तव
- 2005: "कथा सरित्सागर" (उपन्यास) चंद्रकांता
- 2004: "कठगुलाब" (उपन्यास ) मृदुला गर्ग
- 2003: "आवां" (उपन्यास) चित्रा मुद्गल
- 2002: "पृथ्वी का कृष्णपक्ष" कैलाश बाजपेयी की कृति
- 2001: "आलोचना का पक्ष" रमेश चंद्र शाह
- 2000: "पहला गिरमिटिया" (उपन्यास) गिरिराज किशोर का उपन्यास
- 1999: "बिसरामपुर का संत" श्रीलाल शुक्ल की कृति
- 1998: "पाँच आँगनों वाला घर" गोविन्द मिश्र की कृति
- 1997: केदारनाथ सिंह
- 1996: "हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास" प्रो. राम स्वरूप चतुर्वेदी की कृति
- 1995: "कोई दूसरा नहीं" कुँवर नारायण की कृति
- 1994: "अंधायुग" धर्मवीर भारती की कृति
- 1993: गिरिजा कुमार माथुर
- 1992: "नीला चाँद" डॉ. शिव प्रसाद सिंह
- 1991: “भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी” रामविलास शर्मा
इस किताब में एक ऐसा प्रसंग है जो मुझे खटका था । व्योमकेश दरवेश के पहले संस्करण में पृष्ठ संख्या दो सौ चौदह पर यशपाल और साहित्य अकादमी विवाद के संदर्भ में त्रिपाठी जी लिखते हैं – यशपाल के विषय में विवाद हुआ ।कहते हैं कि दिनकर ने आपत्ति दर्ज की कि झूठा सच के लेखक ने किताब में जवाहरलाल नेहरू के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया है । नेहरू भारत के प्रधानमंत्री होने के साथ-साथ अकादमी के अध्यक्ष भी थे । नेहरू तक बात पहुंची हो या ना पहुंची हो, द्विवेदी जी पर दिनकर की धमकी का असर पड़ा होगा । भारत के सर्वाधिक लोकतांत्रिक नेता की अध्यक्षता और पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी के संयोजकत्व में यह हुआ । अगर यह सच है तो अकादमी के अध्यक्ष और हिंदी के संयोजक दोनों पर धब्बा है यह घटना और मेरे नगपति मेरे विशाल के लेखक को क्या कहा जाए जो अपने समय का सूर्य होने की घोषणा करता है । अब यहीं विश्वनाथ त्रिपाठी का दिनकर को लेकर पूर्वग्रह सामने आता है । जबकि यह पूरा प्रसंग ही इससे उलट है । डी एस राव की किताब फाइव डिकेड्स, अ शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ साहित्य अकादमी के पृष्ठ संख्या 197 पर लिखा है – एक्जीक्यूटिव बोर्ड की बैठक में नेहरू ने जानना चाहा कि यशपाल के झूठा सच को अकादमी पुरस्कार क्यों नहीं मिला तो हिंदी के संयोजक हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि उसमें नेहरू जी को बुरा भला कहा गया है । नेहरू जी ने कहा कि पुरस्कार नहीं देने की ये कोई वजह नहीं होनी चाहिए । इसपर द्विवेदी जी ने जवाब दिया कि सिर्फ वही एकमात्र कारण नहीं था बल्कि और भी अन्य बेहतर किताबें पुरस्कार के लिए थी । अर्थात द्विवेदी जी ने यशपाल को साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं दिया । कालांतर में यह बात सुननियोजित तरीके से फैलाई गई कि इसके पीछे दिनकर थे लेकिन वो गलत तथ्य है । इस पूरे प्रसंग से यह साबित होता है कि विश्वनाथ त्रिपाठी या तो स्मरण दोष के शिकार हो गए या जानबूझकर दिनकर को बदनाम करने की साजिश के हिस्सा बने । अगर स्मरण दोष के शिकार हुए होते तो यह नहीं कहते- मेरे नगपति मेरे विशाल के लेखक को क्या कहा जाए जो अपने समय का सूर्य होने की घोषणा करता है । डॉ नागेन्द्र की किताब विमोचन के प्रसंग में विश्वनाथ त्रिपाठी ने आचार्य जी को कोट किया है – मंजन की बात थी ताड़ व भोज के पत्तों पर ग्रंथ लिखा जाता था । कभी किसी पत्ते को हवा उड़ा ले गई या दीमकों ने चाट लिया तो उसकी जगह पर सादा पत्ता लगा दिया जाता था । उस सादे पत्ते पर कुंडलिनी का चिन्ह बना दिया जाता था । उस कुंडलिनी चिन्ह सामग्री का मंजन होता था जिसका अभिप्राय यह है कि खोई हुई चिन्तन सामग्री की पुनरुद्भावना की जाएगी । गुरू उठ जाते थे तो शिष्य मंजन करते थे । लेकिन दिनकर के प्रसंग में त्रिपाठी जी अगले संस्करण में खुद ही सक्रियता दिखाई और मुझे बताया गया है कि दिनकर का नाम और अपने समय का सूर्य वाली लाइन हटा दी गई है । सवाल यही उठता है कि कि सादा कागज लगाने की आवश्यकता विश्वनाथ त्रिपाठी को क्यों पड़ी । खैर इस तरह के कई प्रसंग इस किताब में हैं । गुरू जी आपने ही कहा था कि निर्भीकता के साथ अपनी बात कहनी चाहिए और अगर तथ्य मजबूत हों तो दबंगई से सामने रखो । अंत में पुरस्कार के लिए आपको बधाई । आप दीर्घजीवी हों ।
- अनंत विजय
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