अगर आप आमंत्रित नहीं हैं तो घंटी न बजाएँ - खुशवंत सिंह Noted writer and journalist Khushwant Singh dies

सरदार खुशवंत डैड, और आगे छोटे अक्षरों में प्रकाशित होगा : गत शाम 6 बजे सरदार खुशवंत सिंह की अचानक मृत्यु की घोषणा करते हुए अफसोस हो रहा है। वह अपने पीछे एक युवा विधवा (अब विधुर) दो छोटे-छोटे बच्चे और बड़ी संख्या में मित्रों और प्रशंसकों को छोड़ गये। दिवंगत सरदार के निवास पर आने वालों में मुख्य न्यायाधीश के निजी सचिव, अनेक मंत्री और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे......खुशवंत सिंह का खुद के लिये लिखा मर्सिया

खुशवंत सिंह साहित्य और पत्रकारिता जगत की एक ऐसी शख्सीयत हैं, जिसकी दूसरी मिसाल आसानी से न मिलेगी। वह जब ‘इलस्ट्रेटिड वीकली ऑफ इंडिया’ के सम्पादक नियुक्त होकर मुम्बई गये तो वीकली की प्रसार संख्या साठ-सत्तर हज़ार प्रतियाँ थी। खुशवंत सिंह ने कुछ ही समय में कुछ ऐसा चमत्कार दिखाया कि देखते-देखते तीन-चार लाख के बीच में छपने लगी। खुशवन्त सिंह से पहले वीकली में शादी-ब्याह की तस्वीरें छपा करती थीं, खुशवंत सिंह ने उनके स्थान पर विचारात्मक सामग्री के साथ-साथ गोवा के समुद्रतटों पर बिकनी पहने लड़कियों की आकर्षक तस्वीरें प्रकाशित करना शुरू कर दिया। वीकली विचार और ग्लैमर की पत्रिका के रूप में उभरने लगी। उन्हें देश के मूर्धन्य रचनाकारों और ग्लैमर की दुनिया की हसीनाओं का एक साथ सहयोग मिलने लगा। उनका फार्मूला था कि पाठकों को भरपूर सूचनाएँ मुहैया करवाओ, उन्हें अंक-दर-अंक चौंकाते चले जाओ और उत्तेजना से भर दो।
अपने को अभिव्यक्ति की आज़ादी का घोर समर्थक मानने वाले खुशवंत सिंह की सिफारिश पर ही सलमान रश्दी की पुस्तक ‘द स्टैनिक वर्सेज़’ पर पाबन्दी लगायी गयी थी।
फार्मूला हिट कर गया। साहित्य और विचार जगत में भी साख बनी रही और ग्लैमर की दुनिया में भी लोकप्रियता बढ़ने लगी। उनका यह अभियान यहीं नहीं रुका, उन्होंने वीकली के आवरण पृष्ठ पर बहुत कम वस्त्रों में फ़िल्म सिद्धार्थ में सिम्मी ग्रेवाल की तस्वीर प्रकाशित कर पत्रकारिता जगत में सनसनी पैदा कर दी। कुछ लोग इसे भारत में टेबलायड पत्रकारिता की शुरुआत मानते हैं, जबकि वीकली अपने कलेवर में टेबलायड नहीं थी। इन तमाम खुराफातों के बीच उन्होंने  भविष्य के लिए एम.जे. अकबर, बची काकरिया, विजय वोहरा जैसे अनेक पत्रकार तैयार किये। खुशवंत सिंह शुरू से ही विद्रोही मिज़ाज रहे हैं। उनके पिता सर शोभा सिंह देश के प्रमुख बिल्डर रहे हैं। उन्होंने कनाट प्लेस और नयी दिल्ली की अनेक महत्त्वपूर्ण इमारतों का निर्माण कराया था। नयी दिल्ली को नया आकार देने में उनकी अहम भूमिका रही है। खुशवंत सिंह आज सुजान सिंह पार्क में रहते हैं। सुजान सिंह कोई और नहीं उनके दादा का नाम था। मगर खुशवंत सिंह ने पलटकर भी इस धन्धे की तरफ़ नहीं देखा। हालांकि उन्होंने अनेक धन्धों जैसे प्राध्यापन, वकालत, राजनय आदि अनेक अध्यवसायों में हाथ आज़माया, मगर सफलता साहित्य और पत्रकारिता जगत से ही प्राप्त हुई। वह अकेले ऐसे स्तम्भकार हैं, जिसका स्तम्भ न सिर्फ़ अनेक समाचारपत्रों, बल्कि अनेक भारतीय भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता है।

       ऊपर से देखने पर वह बहुत स्वच्छन्द प्रवृत्ति के लगते हैं, परन्तु उनका जीवन अत्यन्त अनुशासित व्यक्ति का है। एक लम्बे अर्से तक वह दिल्ली के जिमखाना क्लब में टेनिस खेलते रहे। समय पर भोजन करते हैं और जल्दी खाना खा लेते हैं। ‘सिंगल माल्ट’ उनकी प्रिय ह्विस्की है, उसके भी नियत समय पर दो पैग पीते हैं। आतिथ्य के दौरान अगर अपना ब्रांड मिलने की संभावना न हो तो घर से अपना स्टॉक लेकर चलते हैं। जल्द ही खाना खा लेते हैं, घर में हों अथवा किसी पार्टी में, पार्टी चाहे प्रधानमन्त्री के घर पर क्यों न हो, उन्हें समय पर भोजन मिलना चाहिए। उन्हें सुबह जल्दी उठना होता है, क्योंकि उन्हें सुबह जल्दी उठकर लिखना होता है। शायद यही अनुशासन है, जिसके कारण वह इतना अधिक लेखन कर पाये। वह अँग्रेज़ी में लगभग 50 उपन्यास लिख चुके हैं, मगर सबसे अधिक ख्याति उन्हें विभाजन पर लिखे उपन्यास ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’  से मिली। इनकी अन्य लोकप्रिय पुस्तकें हैं : ‘कम्पनी ऑफ वीमन’ (हिन्दी अनुवाद : औरतें), ‘मेरा भारत’, ‘लहूलुहान पंजाब’, ‘सच, प्यार और थोड़ी-सी शरारत’, ‘सनसेट’, ‘क्लब’, ‘बरियल ऐट सी’ (समुद्र की लहरें) ‘सिक्ख इतिहास’, ‘महाराजा रणजीत सिंह की आत्मकथा’। 98 साल की उम्र में उन्होंने एक और पुस्तक लिखकर सबको चौंका दिया— ‘द लैस ऑफ माई लाईफ़’ (खुशवंत नामा) आजकल वह अपने काँपते हाथों और मंद पड़ चुकी दृष्टि के कारण अपने सौवें साल में कोई पुस्तक पेश न कर पायेंगे। आजकल वह कायनात का कारोबार टुकर-टुकर देखते रहते हैं। पेड़-पौधे और पक्षी निहारना उनका प्रिय शौक है।

       खुशवंत सिंह जीवनभर अपनी शर्तों पर सक्रिय रहे हैं। सिक्ख इतिहास के प्रति उनका गहरा लगाव है। खुशवंत सिंह खुद को धार्मिक नहीं सांस्कृतिक सिक्ख कहते हैं। इस सांस्कृतिक सिक्ख ने सन्त भिंडरावाला और आतंकवाद का विरोध किया और खालिस्तान के पैरोकारों की सख्त आलोचना की, मगर जब स्वर्ण मन्दिर पर ‘ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार’ हुआ तो उन्होंने पद्मभूषण की उपाधि लौटा दी और मन्दिर परिसर में सेना भेजने के लिए इन्दिरा गाँधी की आलोचना की। यह दूसरी बात है कि कुछ ही वर्षों बाद जब 2007 में उन्हे पद्मविभूषण की उपाधि से नवाज़ा गया तो उन्होंने उपाधि को सहर्ष स्वीकार कर लिया। वह 1980-84 तक राज्यसभा के सदस्य भी रहे। इस बात को लेकर भी कुछ लोग उनकी आलोचना करते हैं कि अपने को अभिव्यक्ति की आज़ादी का घोर समर्थक मानने वाले खुशवंत सिंह की सिफारिश पर ही सलमान रश्दी की पुस्तक ‘द स्टैनिक वर्सेज़’ पर पाबन्दी लगायी गयी थी। तत्कालीन प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी ने पुस्तक पर उनकी राय माँगी थी। कुछ लोग यह भी आरोप लगाते हैं कि एक सलाहकार के नाते उन्होंने ‘पेंग्विन इंडिया’ से कहा था था कि पुस्तक प्रकाशित हुई तो दंगे हो सकते हैं। उनका आकलन एकदम ग़लत नहीं ठहराया जा सकता।

       अब वह तृप्तकाय हो चुके हैं। अट्ठानबे वर्ष पूरे करने पर उन्होंने अपने स्तम्भ ‘विद मैलिस टुवर्ड्स वन एण्ड ऑल’ में लिखा था— ‘मैं सत्तर वर्षों से लगातार लिख रहा हूँ, सच यह है कि मैं मरना चाहता हूँ। मैंने काफी जी लिया और अब जि़न्दगी से ऊब गया हूँ। जि़न्दगी में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे करने की मेरी इच्छा हो। जो करना था कर चुका। अब जब कुछ भी करने को नहीं बचा तो जि़न्दगी से चिपके रहने का क्या मतलब?

       इस ऊब और व्यर्थताबोध के बीच भी जिजीविषा की एक नन्हीं कन्दील उनके भीतर उनको आन्दोलित करती रहती है। उन्होंने कहा कि उनके लिए राहत की बात सिर्फ़ यह है कि उनके मस्तिष्क में अपनी प्रेमिकाओं की याद अब भी ताज़ा है। उनके मानसिक सन्तुलन का रहस्य उनकी महिला मित्र ही नहीं, शायरी और हंसी-मज़ाक़ भी है। बीच में अपने एक इंटरव्यू में यह पूछे जाने पर कि इस उम्र में वह सबसे ज़्यादा किस चीज़ की कमी महसूस करते हैं, उनका जवाब था— बढ़िया सेक्स की। आदमी जिस वक्त बढ़िया सेक्स न कर पाये तो समझ लीजिए उसके जाने का वक्त हो गया है। उसकी कामेच्छा शरीर-मध्य से उठकर ऊपर दिमाग की ओर बढ़ने लगती है। जीते जी उन्होंने विश्व के अनेक रचनाकारों की तरह अपना मर्सिया खुद ही लिख डाला— शीर्षक इस तरह पढ़ा जाएगा—
 'सरदार खुशवंत डैड, और आगे छोटे अक्षरों में प्रकाशित होगा : गत शाम 6 बजे सरदार खुशवंत सिंह की अचानक मृत्यु की घोषणा करते हुए अफसोस हो रहा है। वह अपने पीछे एक युवा विधवा (अब विधुर) दो छोटे-छोटे बच्चे और बड़ी संख्या में मित्रों और प्रशंसकों को छोड़ गये। दिवंगत सरदार के निवास पर आने वालों में मुख्य न्यायाधीश के निजी सचिव, अनेक मंत्री और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे।'
यही नहीं उन्होंने कुछ वर्ष पूर्व अपना स्मृति लेख भी लिखा था—
यहाँ एक ऐसा मनुष्य लेटा है, जिसने न तो मनुष्य और न ही भगवान को बख्शा,
उसके लिए अपने आँसू व्यर्थ न करो, वह एक समस्यामूलक व्यक्ति था।
शरारती लेखन को वह बड़ा आनन्द मानता था,
भगवान का शुक्रिया कि वह मर गया। — खुशवंत सिंह

       खुशवंत सिंह के प्रशंसक आज भी उनकी एक झलक पाने और उनके साथ चित्र खिंचवाने के लिए उतावले रहते हैं। मगर उनके दरवाजे पर टँगी एक तख्ती को देख कर मन मसोस कर रह जाते हैं— अगर आप आमंत्रित नहीं हैं तो घंटी न बजाएँ।

लम्बे रचनाशील जीवन के लिए खुशवंत सिंह को हमारी हार्दिक बधाई।

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Noted writer and journalist Khushwant Singh dies March 20, 2014

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