बेगाना ताजिर*
नासिरा शर्मा
* ताजिर = Trader

सब कुछ माल की खपत पर होता है । जब ख़रीदार नहीं मिलता तो माल पड़ा रहता है । सारे दरवाज़े बंद मिलते हैं । जैसे कि यह एक बेकार–सी चीज़ हो, जिसका न कोई ख़रीदार, न ज़रूरतमंद!
कल एक ताज़िर से मुलाक़ात हुई । कहता था कि मैं ताज़िर हूँ । मुझे तो झूठ लगा । यूँ ही कोई मामूली लेन–देन करता होगा । मगर कपड़े ? कपड़े से क्या होता है ? आजकल तो सब ही सूट–टाई का इस्तेमाल करते हैं ।
मैंने उससे कहा कि तुम दौलतमंद हो और इस घर में सज नहीं रहे हो, बल्कि तुम्हारे आने से मेरे आस–पास की चीज़ें अपना अस्तित्व खो रही हैं । इस मामूली घर में तुम्हारे आने का मतलब ?
हँसा । “सुनो, मुझे समझने की कोशिश करो, दौलत मेरे लिए एक घोड़ा है, जिस पर मैं सवार होकर दुनिया का सफ़र तय कर रहा हूँ । यह याद रखो कि मैं सवार ज़रूर हूँ मगर दौलत का रकाब नहीं ।”
मैं सोच में डूब गया ।
“मैं ताज़िर हूँ । सामान ख़रीदता हूँ, बेचता हूँ मगर मेरे अपने माल का कोई ख़रीदार नहीं है, जो माल मेरा है वह पड़े–पड़े ढेर लग रहा है और इस बोझ के दबाव की वजह से मेरी रूह ज़ख़्मी होती जा रही है ।”
“ऐसा क्यों है ?”
“सब कुछ माल की खपत पर होता है । जब ख़रीदार नहीं मिलता तो माल पड़ा रहता है । सारे दरवाज़े बंद मिलते हैं । जैसे कि यह एक बेकार–सी चीज़ हो, जिसका न कोई ख़रीदार, न ज़रूरतमंद!”
मुझे आदमी दिलचस्प लगने लगा । उपमाओं और इशारों से भरी उसकी बातों की गहराई ने मुझे अपनी ओर खींचा । मैंने उसे बहुत अनुरोध के साथ खाने के लिए रोका ।
घर में खाने को था भी क्या ? फिर भी रसोई के हर कोने से निकालकर बेहतरीन खाना, अपनी हैसियत के मुताबिक़ उसके आगे चुन दिया । उसने सिर्फ़ चावल खाए । सिर्फ़ नमकीन, उबले चावल । मुझे फिर कुछ शुबहा हुआ । वह बोला, “कल मैं जापान जा रहा हूँ । फिर इंग्लैंड और फिर कनाडा और उसके बाद हिंदुस्तान लौटूँगा । चंद दिन ठहरकर फिर यहाँ से अपने देश लौटूँगा और फिर वहाँ से यही चक्कर शुरू होगा संसार को नापने का । कुछ नहीं पता, कल क्या होगा ? ज़िंदगी से कई बार मैंने यह प्रश्न किया, क्यों पैदा हुआ हूँ ? क्यों जी रहा हूँ ? क्यों मर जाऊँगा ?”
मुझे लगा कि इसके दिमाग़ का कोई पेंच ज़रूर ढीला है । लोगों का मक़सद इस दुनिया में पेट पालना है और इसी मक़सद को जीवन का उद्देश्य बनाकर जीवनयापन के लिए जाने क्या–क्या करते हैं ? फिर भी अपनी कोशिशों से घबराकर वे प्रश्न नहीं करते हैं, बल्कि वे अपने को कुछ पाने की राह पर बेलगाम छोड़ देते हैं । यह सब कुछ पाकर आख़िर क्या पाना चाहता है ?
“तुम दुनिया घूम रहे हो, तरह–तरह के लोगों को देखते हो । उनसे मिलते हो, अभी तक तुम्हें कोई ख़रीदार नहीं मिला ?”
“मिला क्यों नहीं ? जो मिला, वह भी मेरी तरह सामानों से भरा हुआ था ।”
“ताज़्ज़ुब है!”
उसने सिर हिलाया और थोड़ी देर बाद बोला, “अपनी इस छोटी–सी ज़िंदगी में, इस बड़ी–सी दुनिया में मैं तीन तरह के जानदारों से मिला हूँ । नर्तकी, तोता और बंदर ।”
“क्या ?”
“तुम मेरा मतलब अभी समझोगे । नर्तकी से मेरा मतलब उन लोगों से है जो दूसरों के साज़ पर, दूसरे की धुन पर नाचते हैंय तोते वे हैं जो दूसरों के कहे को दोहराते हैं जबकि वे ख़ुद नहीं समझते वे क्या कह रहे हैं । तीसरे वे बंदर हैं जिन्हें ज़ंजीर में बाँधकर, मार–मारकर सधाया जाता है ।”
“तुम ताज़िर नहीं हो ।” उसकी बातों ने मेरी साँसों का उतार–चढ़ाव बढ़ा दिया । मैं एकाएक चीख़ पड़ा । “और अगर हो तो तुम्हारा काम सिर्फ़़ रुपए को अँधेरी कोठरी में बंद रखना है, समझे ?”
“नहीं, मैं ताज़िर होने पर भी इंसान हूँ । देखो!” यह कहकर उसने अपनी कमीज के बटन खोल दिए । दिल की जगह पर सिर्फ़़ एक गड्ढा था । मैंने पूछा, “सामान कहाँ है जिससे तुम्हारी रूह का बोझ बढ़ रहा था ?”
हँसा । “यही तो चक्कर है जो तुम भी नहीं समझ पाए ।” लिबास से उसने सीने को ढक लिया । पसीने की बूँदों से नहाया मैं बैठा रहा । इस बार मेरा अपना मित्र, जिसके साथ वह आया था, मेरी प्रतिक्रिया को देखकर उदासी से मुस्करा पड़ा ।
इसके बाद बातों का सिलसिला चल पड़ा । वह बातें करता रहा । मैं उसको सुनता रहा । फिर मुझे लगा कि उसका क़द इतना बढ़ गया है कि वह एक ऊँचा छायादार दरख़्त बन गया है और पहाड़ों पर अपनी छाया डाले अपने क़द की बुलंदी पर उदास, हर शाख़ पर बने घोंसले को पत्तियों से ढाँके खड़ा है । उसके जाने के बाद काफी देर तक उसकी कविताओं की पंक्तियाँ मेरे आस–पास घूमती रहीं । मन भारी हो उठा । वहीं सड़क के किनारे पड़े बड़े–से पत्थर पर बैठकर मैं बड़ी देर तक उसके बारे में सोचता रहा । हवा जाने कहाँ से ढेरों बिनौले उड़ाकर ले आई थी । अपने चारों ओर उड़ते बिनौलों में से एक को चुटकी से पकड़कर हथेली पर जमा लिया, उसके कत्थई वजूद के चारों तरफ़ लरज़ते हुए सफे़द बर्फ़ीले रोओं को मैं देखता रहा । फिर जाने क्यों एकाएक फँूक मार उसको उड़ा दिया । हवा ने लपककर उसके हलके–फुलके वजूद को अपने साथ ले लिया । ऊपर–नीचे, दाएँ–बाएँ हवा उसको आसमान की ओर ले जाने लगी । लगा कि यह रुई का गोला मुझसे जुदा हुआ मेरा ताज़िर दोस्त है जिसके माल का कोई ख़रीदार नहीं, जो हर जगह अजनबी है ।
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