हमारे देश में अपनी विरासत को संभालने के लिए गंभीर उद्यम क्यों नहीं होता है । मानव संसाधन विकास मंत्रालय का छियासठ हजार करोड़ से ज्यादा का बजट है
प्रकाशकों से अच्छे दिन की उम्मीद
अभी कुछ दिनों पहले मन में ये बात आई कि वेदों को पढ़कर देखा जाए कि उसको संदर्भित कर जो बातें कही जाती हैं उनमें कितनी सचाई है । इसके अलावा यह जानने की इच्छा भी प्रबल थी कि वेद में तमाम बातें किस संदर्भ और किन स्थितियों में कही गई हैं । एक प्रकाशक मित्र ने चारो वेद के नौ खंड उपलब्ध करवा दिए ।
महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा किए गए हिंदी भाष्य को आर्य प्रकाशन दिल्ली ने छापा है । जब वेद को पढ़ना प्रारंभ किया तो इस बात का एहसास हुआ कि छपे गए अक्षर भी काफी पहले के हैं । ये ग्रंथ उस जमाने के छपे हुई हैं जब लीथो प्रेस, लेटर प्रसे आदि का इस्तेमाल होता होगा । बहुत संभव है कि उसी जमाने में छपाई के लिए बनाए गए निगेटिव का इस्तेमाव अब तक हो रहा है ।
ऋगवेद के पहले खंड में जो प्रकाशकीय वक्तव्य का पन्ना है वह अच्छे और साफ अक्षरों में छपा है । पढ़ने में आंखों को सहूलियत होती है लेकिन जैसे ही आप आगे बढ़ेंगे और अगले पन्ने पर पहुंचते हैं तो आपकी नजर को झटका लगेगा, आंखों को पढ़ने में मेहनत करी पड़ेगी क्योंकि छपाई पुराने अक्षरों में शुरू हो जाती है । इसी तरह से हिंदी की महान कृतियों को छापने वाली
नागिरी प्रचारिणी सभा वाराणसी से छपी एक और किताब हाल ही में मैंने खरीदी । नागिरी प्रचारिणी सभा की शास्त्रविज्ञान ग्रंथमाला ऋंखला के अंतर्गत छपी किताब “
हिंदी शब्दानुशासन” जिसे
पंडित किशोरीदास वाजपेयी ने लिखा है ।
पंडित किशोरीदास वाजपेयी की लिखी यह किताब -हिंदी शब्दानुशासन हिंदी की इतनी अहम किताब है कि हिंदी के सभी छात्रों को इस किताब को पढ़ना चाहिए । छह सौ से चंद पन्ने ज्यादा की यह किताब लगभग अपठनीय है । कागज रद्दी और छपाई घटिया । यह हाल सिर्फ इन्हीं दो किताबों का नहीं है । साठ के दशक से पहले की छपी ज्यादातर किताबें इसी हाल में छप और बिक रही हैं । तकनीक के इस उन्नत दौर में इतनी अहम किताबों की यह दुर्दशा देखकर मन बेचैन हो उठा । मन में कई शंकाएं और सवाल खड़े होने लगे ।
सवाल यही कि हमारे देश में अपनी विरासत को संभालने के लिए गंभीर उद्यम क्यों नहीं होता है । मानव संसाधन विकास मंत्रालय का छियासठ हजार करोड़ से ज्यादा का बजट है । मंत्रालय की कई योजनाएं चलती रहती हैं । देश में अकादमी और हिंदी विश्वविद्यालय हैं जहां से किताबों का प्रकाशन होता है । नेशनल बुक ट्रस्ट जैसा भारी भरकम महकमा है । इन महकमों को भी सरकार से करोड़ों का अनुदान मिलता है । नेशनल बुक ट्रस्ट की स्थापना का उद्देश्य देश में हिंदी, अंग्रेजी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के बेहतर साहित्य का प्रकाशन और कम कीमत पर उपलब्ध करवाना था । आजादी के दस साल बाद यानि 1957 में इसकी स्थापना हुई थी । इसका एक उद्देश्य देश में पुस्तक संस्कृति को विकसित करना भी था । पुस्तक संस्कृति के विकास का एक अहम कोष यह भी है कि हम पूर्व प्रकाशित अहम पुस्तकों को नए जमाने के हिसाब से छापकर उसको जनता तक पहुंचाने का उपक्रम करें । नेशनल बुक ट्रस्ट इस काम में आंशिक रूप से ही सफल हो पाया है । पुस्तक मेलों के आयोजन में तो उसने महारथ हासुल कर ली है लेकिन पुस्तकों को प्रकाशन या उसके संरक्षण और संवर्धन में वहां भी ढिलाई है । दूसरी तरफ साहित्य अकादमी अपने मूल उद्देश्यों से भटकती हुई पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में उतर तो गई लेकिन वहां इतना लंबा बैकलॉग है कि अनुवाजक से लेकर लेखक तक खिन्न हैं । अनुवादकों को पांच पांच साल पहले उनके मानदेय मिल चुका है लेकिन किताबों के प्रकाशन का पता नहीं है । ऐसे माहौल में उनसे पुरानी किताबों के संरक्षण की अपेक्षा व्यर्थ है । इस दिशा में निजी प्रकाशन संस्थानों से ही उम्मीद जगती है ।
1 टिप्पणियाँ
Kya Aap Bata Sakte Hain Ki Hindi Shabdanushasan Pustak Kahan Se Kharidi Ja Sakti Hai, Kripya Prakashak Ki Contact Details De Dijiye.
जवाब देंहटाएं